सीमा सिंह और सोनाली बेंद्रे द्वारा इंस्पायरिंग मदर्स का सम्मान

मुंबई : सामाजिक कार्यकर्ता और बिज़नेस वुमेन सीमा सिंह , मेघाश्रेय फाउंडेशन  द्वारा मदर्स डे के अवसर पर इंस्पायरिंग मदर्स  2024 का आयोजन किया गया इस अवसर पर सीमा सिंह , डॉक्टर मेघा सिंह और श्रेय सिंह के द्वारा शिक्षा , स्वास्थ्य , सेवा , खेल और  समाज कल्याण के विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य करने वाली महिलाओं को सम्मानित किया गया । इस कार्यक्रम में मुख्य अतिथि सोनाली बेंद्रे  भी उपस्थित रहे । इस कार्यक्रम में श्रेय सिंह और डॉ मेघा सिंह  ने मदर्स डे विषय पर पैनल को संचालित भी किया ।

इंस्पायरिंग मदर्स 2024 समारोह में आयपीएस आरती सिंह ,, डॉ प्रिया कुलकर्णी , मिसेज़  ललिता बाबर , डॉ रेशमा पई ,  आयआरएस बीना संतोष , मधु बोहरा , मंजु लोढ़ा , डॉ मनुश्री पाटिल , डॉ शिवानी पाटिल , रोमा सिंघानियाँ , डॉ मिन्नी बोधनवाला को सम्मानित किया गया ।

सीमा सिंह , मेघाश्रेय फाउंडेशन की संस्थापक हैं, सीमा सिंह अपने बच्चों डॉ मेघना सिंह और श्रेय सिंह के साथ विभिन्न सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों का आयोजन करती रहती हैं। सीमा सिंह ने अपने बच्चों डॉ मेघना सिंह और श्रेय सिंह की ओर से मेघा श्रेया फाउंडेशन की शुरुआत की। मेघाश्रेया फाउंडेशन भारत भर में वंचित बच्चों की बेहतरी और भूखे लोगों को खाना खिलाने की दिशा में काम करता है। अब तक, विभिन्न कार्यक्रमों  के माध्यम से पूरे भारत में पाँच लाख से अधिक लोगों के जीवन को बदल दिया है।

इस अवसर पर सीमा सिंह ने कहा कि ‘इंस्पारिंग मदर्स 2024 के द्वारा हम विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य करने वाली महिलाओं को सम्मानित करना मेघाश्रेय फाउंडेशन के लिए बहुत महत्वपूर्ण अवसर हैं । मैं देश के कई हिस्सों में जरूरतमंद बच्चों के लिए विभिन्न कार्यक्रम का आयोजन करती हूँ और चाहती हूँ की समाज में बड़े स्तर पर वंचितों और जरूरतमंद बच्चों के लिए कल्याणकारी आयोजन किए जाये ।

Media Relation
Ashwani Shukla
Altair Media
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पंच परिवर्तन बनेगा समाज परिवर्तन का सशक्त माध्यम

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समाज में सकारात्मक परिवर्तन के लिए पिछले लगभग 99 वर्षों से निरंतर कार्य कर रहा है। भारतीय समाज में सकारात्मक परिवर्तन को गति देने एवं समाज में अनुशासन व देशभक्ति के भाव को बढ़ाने के उद्देश्य से माननीय सर संघचालक श्री मोहन भागवत ने समाज में पंच परिवर्तन का आह्वान किया है ताकि अनुशासन एवं देशभक्ति से ओतप्रोत युवा वर्ग अनुशासित होकर अपने देश को आगे बढ़ाने की दिशा में कार्य करे। इस पंच परिवर्तन में पांच आयाम शामिल किए गए हैं – (1) स्व का बोध अर्थात स्वदेशी, (2) नागरिक कर्तव्य, (3) पर्यावरण, (4) सामाजिक समरसता एवं (5) कुटुम्ब प्रबोधन। इस पंच परिवर्तन कार्यक्रम को सुचारू रूप से लागू कर समाज में बड़ा परिवर्तन लाया जा सकता है। स्व के बोध से नागरिक अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होंगे। नागरिक कर्तव्य बोध अर्थात कानून की पालना से राष्ट्र समृद्ध व उन्नत होगा। सामाजिक समरसता व सद्भाव से ऊंच-नीच जाति भेद समाप्त होंगे। पर्यावरण से सृष्टि का संरक्षण होगा तथा कुटुम्ब प्रबोधन से परिवार बचेंगे और बच्चों में संस्कार बढ़ेंगे। समाज में बढ़ते एकल परिवार के चलन को रोक कर भारत की प्राचीन परिवार परंपरा को बढ़ावा देने की आज महती आवश्यकता है।

भारत में हाल ही के समय में देश की संस्कृति की रक्षा करना, एक सबसे महत्वपूर्ण विषय के रूप में उभरा है। सम्भावना से युक्त व्यक्ति हार में भी जीत देखता है तथा सदा संघर्षरत रहता है। अतः पंच परिवर्तन उभरते भारत की चुनौतियों का समाधान करने में समर्थ है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर कार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबोले जी कहते हैं कि बौद्धिक आख्यान को राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य से बदलना और सामाजिक परिवर्तन के लिए सज्जन शक्ति को संगठित करना संघ के मुख्य कार्यों में शामिल है। इस प्रकार पंच परिवर्तन आज समग्र समाज की आवश्यकता है। पंच परिवर्तन में समाज में समरसता (बंधुत्व के साथ समानता), पर्यावरण-अनुकूल जीवनशैली, पारिवारिक मूल्यों को बढ़ावा देने के लिए पारिवारिक जागृति, जीवन के सभी पहलुओं में भारतीय मूल्यों पर आधारित ‘स्व’ (स्वत्व) की भावना पैदा करने का आग्रह जैसे आयाम शामिल हैं। नागरिक कर्तव्यों के पालन हेतु सामाजिक जागृति; ये सभी मुद्दे बड़े पैमाने पर समाज से संबंधित हैं। दूसरे, इन विषयों को व्यक्तियों, परिवारों और संघ की शाखाओं के आसपास के क्षेत्रों को संबोधित करने की आज सबसे अधिक आवश्यकता है। इसे व्यापक समाज तक ले जाने की आवश्यकता है। यह केवल चिंतन और अकादमिक बहस का विषय नहीं है, बल्कि कार्रवाई और व्यवहार का विषय है।

व्यवहार में पंच परिवर्तन को समाज में किस प्रकार लागू करना है इस हेतु हम समस्त भारतीय नागरिकों को मिलकर प्रयास करने होंगे, क्योंकि पंच परिवर्तन केवल चिंतन, मनन अथवा बहस का विषय नहीं है बल्कि इस हमें अपने व्यवहार में उतरने की आवश्यकता है। उक्त पांचों आचरणात्मक बातों का समाज में होना सभी चाहते हैं, अतः छोटी-छोटी बातों से प्रारंभ कर उनके अभ्यास के द्वारा इस आचरण को अपने स्वभाव में लाने का सतत प्रयास अवश्य करना होगा। जैसे, समाज के आचरण में, उच्चारण में संपूर्ण समाज और देश के प्रति अपनत्व की भावना प्रकट हो, प्रत्येक घर में सप्ताह में कम से कम एक बार पूजा या धार्मिक आयोजन हो एवं अपने परिवार के बच्चों के साथ बैठकर महापुरुषों के सम्बंध में सप्ताह में कम से कम एक घंटे चर्चा हो, परिवार के सभी सदस्यों में नित्य मंगल संवाद, संस्कारित व्यवहार व संवेदनशीलता बनी रहे, बढ़ती रहे व उनके द्वारा समाज की सेवा होती रहे, आदि बातों का ध्यान रखकर कुटुंब प्रबोधन जैसे विषय को आगे बढ़ाया जा सकता है।

मंदिर, पानी, श्मशान के सम्बंध में कहीं भेदभाव बाकी है, तो वह शीघ्र ही समाप्त होना चाहिए। हम लोग अपने परिवार सहित त्यौहारों के समय अनुसूचित जाति के बंधुओं के घर जाएं और उनके साथ चाय पान करें। साथ ही, हम अनुसूचित जाति के बंधुओं को सपरिवार अपने परिवार में बुलाकर सम्मान प्रदान करें। कुल मिलाकर समस्त समाज एक दूसरे के त्यौहारों में शामिल हों ताकि आपस में भाई चारा बढ़े एवं देश में सामाजिक समरसता स्थापित हो सके।

सृष्टि के साथ संबंधों का आचरण अपने घर से पानी बचाकर, प्लास्टिक हटाकर व घर आंगन में तथा आसपास हरियाली बढ़ाकर हो सकता है। अपने घरों में जल का कोई अपव्यय नहीं हो रहा है एवं अपने परिवार में हरियाली की चिंता की जा रही है। अपने घर में, रिश्तेदारी में, मित्रों के यहां सिंगल यूज प्लास्टिक का उपयोग न करने का आग्रह किया जा रहा है आदि बातों पर ध्यान देकर देश में पर्यावरण को सुधारा जा सकता है।

स्वदेशी के आचरण से स्व-निर्भरता व स्वावलंबन बढ़ता है। फिजूलखर्ची बंद होनी चाहिए, देश का रोजगार बढ़े व देश का पैसा देश में ही काम आए, इस बात का ध्यान देश के समस्त नागरिकों को रखना चाहिए। इसीलिए कहा जा रहा है कि स्वदेशी का आचरण भी घर से ही प्रारंभ होना चाहिए। समस्त नागरिकों के घर में स्वदेशी उत्पाद ही उपयोग होने चाहिए।

देश में कानून व्यवस्था व नागरिकता के नियमों का भरपूर पालन होना चाहिए तथा समाज में परस्पर सद्भाव और सहयोग की प्रवृत्ति सर्वत्र व्याप्त होनी चाहिए। इन्हें हमारे नागरिक कर्तव्यों के रूप में देखा जाना चाहिए। समाज में व्याप्त कुरीतियों के उन्मूलन हेतु हम सबको मिलकर प्रयास करने होंगे। विशेष रूप से युवाओं में नशाबंदी समाप्त करने के लिए, मृत्यु भोज रोकने के लिए तथा विभिन्न समाजों में व्याप्त दहेज की कुप्रथा समाप्त करने के गम्भीर प्रयास हम समस्त नागरिकों को मिलकर ही करने होंगे।

संघ के स्वयंसेवक आनेवाले दिनों में समाज के अभावग्रस्त बंधुओं की सेवा करने के साथ-साथ, इन पांच प्रकार की सामाजिक पहलों का आचरण स्वयं करते हुए समाज को भी उसमें सहभागी व सहयोगी बनाने का प्रयास करेंगे । समाजहित में शासन, प्रशासन तथा समाज की सज्जनशक्ति जो कुछ कर रही है, अथवा करना चाहेगी, उसमें संघ के स्वयंसेवकों का योगदान नित्यानुसार चलता रहेगा। वर्ष 2025 से 2026 का वर्ष राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 वर्ष पूरे होने के बाद का वर्ष है। उक्त वर्णित समस्त आयामों में संघ के स्वयंसेवक अपने कदम बढ़ायेंगे, इसकी सिद्धता संघ द्वारा किए जाने के प्रयास किए जा रहे हैं।

समाज की एकता, सजगता व सभी दिशा में निस्वार्थ उद्यम, जनहितकारी शासन व जनोन्मुख प्रशासन स्व के अधिष्ठान पर खड़े होकर परस्पर सहयोगपूर्वक प्रयासरत रहते है, तभी राष्ट्रबल वैभव सम्पन्न बनता है। बल और वैभव से सम्पन्न राष्ट्र के पास जब हमारी सनातन संस्कृति जैसी सबको अपना कुटुंब माननेवाली, तमस से प्रकाश की ओर ले जानेवाली, असत् से सत् की ओर बढ़ानेवाली तथा मृत्यु जीवन से सार्थकता के अमृत जीवन की ओर ले जानेवाली संस्कृति होती है, तब वह राष्ट्र, विश्व का खोया हुआ संतुलन वापस लाते हुए विश्व को सुखशांतिमय नवजीवन का वरदान प्रदान करता है । सद्य काल में हमारे अमर राष्ट्र के नवोत्थान का यही प्रयोजन है ।

प्रहलाद सबनानी

सेवा निवृत्त उप महाप्रबंधक,

भारतीय स्टेट बैंक

के-8, चेतकपुरी कालोनी,

झांसी रोड, लश्कर,

ग्वालियर – 474 009

मोबाइल क्रमांक – 9987949940

ई-मेल – [email protected]




पश्चिम रेलवे ने 2023-24 में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए अपने मेधावी टिकट चेकिंग स्टाफ को किया सम्मानित

पश्चिम रेलवे ने वित्तीय वर्ष 2023-24 में गहन टिकट चेकिंग अभियान के दौरान जुर्माने के रूप में लगभग 174 करोड़ रुपये की रिकॉर्ड राशि एकत्र की

मुंबई। 

पश्चिम रेलवे ने अपना अब तक का सबसे अच्छा टिकट चेकिंग राजस्व हासिल किया है और 173.89 करोड़ रुपये का कुल टिकट चेकिंग राजस्व इकट्ठा करके अपने सभी पिछले रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। उल्‍लेखनीय है कि पश्चिम रेलवे ने 140 करोड़ रुपये के लक्ष्य को पार किया तथा निर्धारित लक्ष्य से 23.90% की वृद्धि दर्ज की। इस गौरवशाली क्षण का सेलिब्रेट करने के लिए पश्चिम रेलवे ने सभी छह मंडलों के 23 मेधावी टिकट चेकिंग स्टाफ को उनके सराहनीय प्रदर्शन के लिए सम्मानित किया।

पश्चिम रेलवे के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी श्री सुमित ठाकुर द्वारा जारी एक प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार 2,286 ऑन रोल टिकट चेकिंग स्टाफ में से 17 कर्मचारियों ने फ्री चेकिंग ड्यूटी/कोच मैनिंग ड्यूटी में काम करने के क्षेत्र में सर्वोच्च प्रदर्शन दर्ज किया। महिला विंग में छह महिला टिकट चेकिंग स्टाफ ने भी उच्चतम टिकट चेकिंग प्रदर्शन हासिल किया। उनके समर्पण और कड़ी मेहनत का सम्मान करने के लिए पश्चिम रेलवे के मुख्य वाणिज्यिक प्रबंधक (यात्री सेवा और खानपान) श्री तरूण जैन ने हाल ही में 6 मंडलों तथा चर्चगेट स्थित मुख्यालय कंट्रोल के तहत काम करने वाले फ्लाइंग स्क्वाड के इन 23 कर्मचारियों को मेरिट प्रमाण पत्र के साथ सम्मानित किया।

श्री ठाकुर ने आगे बताया कि टिकट चेकर के काम में न केवल वैध यात्रियों के बीच बिना टिकट यात्रा करने वाले यात्रियों का पता लगाने के लिए कौशल और चतुराई की आवश्यकता होती हैबल्कि बिना टिकट वाले यात्रियों से जुर्माना राशि वसूलने के लिए नियमों के अच्छे ज्ञान और ठोस कौशल की भी आवश्यकता होती है। पश्चिम रेलवे को ऐसे कुशल और समर्पित टिकट-चेकिंग स्टाफ पर गर्व है।




माँ के चरणों में मिलता है स्वर्ग

आज मातृ दिवस है, एक ऐसा दिन जिस दिन हमें संसार की समस्त माताओं का सम्मान और सलाम करना चाहिये। वैसे माँ किसी के सम्मान की मोहताज नहीं होती, माँ शब्द ही सम्मान के बराबर होता है, मातृ दिवस मनाने का उद्देश्य पुत्र के उत्थान में उनकी महान भूमिका को सलाम करना है। श्रीमद भागवत गीता में कहा गया है कि माँ की सेवा से मिला आशीर्वाद सात जन्म के पापों को नष्ट करता है। यही माँ शब्द की महिमा है।

असल में कहा जाए तो माँ ही बच्चे की पहली गुरु होती है एक माँ आधे संस्कार तो बच्चे को अपने गर्भ में ही दे देती है यही माँ शब्द की शक्ति को दर्शाता है, वह माँ ही होती है पीड़ा सहकर अपने शिशु को जन्म देती है। और जन्म देने के बाद भी मां के चेहरे पर एक संतोषजनक मुस्कान होती है इसलिए माँ को सनातन धर्म में भगवान से भी ऊँचा दर्जा दिया गया है।

‘माँ’ शब्द एक ऐसा शब्द है जिसमे समस्त संसार का बोध होता है। जिसके उच्चारण मात्र से ही हर दुख दर्द का अंत हो जाता है। ‘माँ’ की ममता और उसके आँचल की महिमा को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है।  रामायण में भगवान श्रीराम जी ने कहा है कि ‘‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपि गरीयसी।’’ अर्थात, जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। कहा जाए तो जननी और जन्मभूमि के बिना स्वर्ग भी बेकार है क्योंकि माँ कि ममता कि छाया ही स्वर्ग का एहसास कराती है।

जिस घर में माँ का सम्मान नहीं किया जाता है वो घर नरक से भी बदतर होता है, भगवान श्रीराम माँ शब्द को स्वर्ग से बढ़कर मानते थे क्योंकि संसार में माँ नहीं होगी तो संतान भी नहीं होगी और संसार भी आगे नहीं बढ़ पाएगा। संसार में माँ के समान कोई छाया नहीं है। संसार में माँ के समान कोई सहारा नहीं है। संसार में माँ के समान कोई रक्षक नहीं है और माँ के समान कोई प्रिय चीज नहीं है।

एक माँ अपने पुत्र के लिए छाया, सहारा, रक्षक का काम करती है। माँ के रहते कोई भी बुरी शक्ति उसके जीवित रहते उसकी संतान को छू नहीं सकती। इसलिए एक माँ ही अपनी संतान की सबसे बडी रक्षक है। दुनिया में अगर कहीं स्वर्ग मिलता है तो वो माँ के चरणों में मिलता है। जिस घर में माँ का अनादर किया जाता है, वहाँ कभी देवता वास नहीं करते। एक माँ ही होती है जो बच्चे कि हर गलती को माफ कर गले से लगा लेती है।

यदि नारी नहीं होती तो सृष्टि की रचना नहीं हो सकती थी। स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक सृष्टि की रचना करने में असमर्थ बैठे थे। जब ब्रह्मा जी ने नारी की रचना की तभी से सृष्टि की शुरूआत हुई। बच्चे की रक्षा के लिए बड़ी से बड़ी चुनौती का डटकर सामना करना और बड़े होने पर भी वही मासूमियत और कोमलता भरा व्यवहार ये सब ही तो हर ‘माँ’ की मूल पहचान है।

दुनिया की हर नारी में मातृत्व वास करता है। बेशक उसने संतान को जन्म दिया हो या न दिया हो। नारी इस संसार और प्रकृति की ‘जननी’ है। नारी के बिना तो संसार की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस सृष्टि के हर जीव और जन्तु की मूल पहचान माँ होती है। अगर माँ न हो तो संतान भी नहीं होगी और न ही सृष्टि आगे बढ पाएगी। इस संसार में जितने भी पुत्रों की मां हैं, वह अत्यंत सरल रूप में हैं। कहने का मतलब कि मां एकदम से सहज रूप में होती है। वे अपनी संतानों पर शीघ्रता से प्रसन्न हो जाती है। वह अपनी समस्त खुशियां अपनी संतान के लिए त्याग देती है, क्योंकि पुत्र कुपुत्र हो सकता है, पुत्री कुपुत्री हो सकती है, लेकिन माता कुमाता नहीं हो सकती।

एक संतान माँ को घर से निकाल सकती है लेकिन माँ हमेशा अपनी संतान को आश्रय देती है। एक माँ ही है जो अपनी संतान का पेट भरने के लिए खुद भूखी सो जाती है और उसका हर दुख दर्द खुद सहन करती है।

लेकिन आज के समय में बहुत सारे ऐसे लोग हैं जो अपने मात-पिता को बोझ समझते हैं। और उन्हें वृद्धाश्रम में रहने को मजबूर करते हैं। ऐसे लोगों को आज के दिन अपनी गलतियों का पश्चाताप कर अपने माता-पिताओं को जो वृद्ध आश्रम में रह रहे हैं उनको घर लाने के लिए अपना कदम बढ़ाना चाहिए। क्योंकि माता-पिता से बढ़कर दुनिया में कोई नहीं होता। माता के बारे में कहा जाए तो जिस घर में माँ नहीं होती या माँ का सम्मान नहीं किया जाता वहाँ दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती का वास नहीं होता।

हम नदियों और अपनी भाषा को माता का दर्जा दे सकते हैं तो अपनी माँ से वो हक क्यों छीन रहे हैं। और उन्हें वृद्धाश्रम भेजने को मजबूर कर रहे है। यह सोचने वाली बात है। माता के सम्मान का एक दिन नहीं होता। माता का सम्मान हमें 365 दिन करना चाहिए। लेकिन क्यों न हम इस मातृ दिवस से अपनी गलतियों का पश्चाताप कर उनसे माफी मांगें। और माता की आज्ञा का पालन करने और अपने दुराचरण से माता को कष्ट न देने का संकल्प लेकर मातृ दिवस को सार्थक बनाएं।




भारत करे कड़वे सत्य का सेवन- ‘शेष’ जो भी है, वह ‘अवशेष’ मात्र है

हंसराज रहबर के ग्रंथ ‘नेहरू बेनकाब’ (भगतसिंह विचार मंच, दिल्ली 2005) के आमुख में लिखित वृतांत– “शारीरिक स्वास्थ्य के लिए कड़वी दवा का सेवन और मानसिक स्वास्थ्य के लिए कड़वे सत्य का सेवन आवश्यक है।” (पृ. 5) पर सबका ध्यानाकर्षण अनिवार्यतः आमंत्रित है।
आगे इसी ग्रंथ में उनका परामर्श प्रकारांतर से उल्लेखनीय तो है ही, ग्राह्य भी है– “भ्रम पालना और भूलों को दोहराना मौत है। भूलों को सुधारना और ताज़ादम होकर आगे बढ़ना ज़िंदगी है।” (पृ. 112) इस वृतांत और परामर्श का अनुसरण किसी भी समुदाय-समाज के लिए जीवनावश्यक है अन्यथा ‘इरादतन’ उपस्थित की गईं चुनौतियों और घातक प्रहारों का समुचित उत्तर न देने पर निश्‍चय ही ‘मौत’ हो जाती है।
ब्रिटिश इतिहासकार अर्नोल्ड टॉयन्बी द्वारा अपने ग्रंथ ‘अ स्टडी ऑफ़ हिस्टरी’ (1934) में प्रतिपादित ‘चुनौती-प्रतिक्रिया-शक्तिसंचय-प्रत्यागमन’ के सिद्धांत को सदविवेक से समझना होगा और राष्ट्र एवं स्वधर्म की रक्षा हेतु ‘सायास प्रयास’ करना होगा अन्यथा वे दिन दूर नहीं, हमें (हिंदू) विलुप्त प्रजातियों में शुमार किया जाएगा।
सत्य है कि हमें कड़वी दवाएँ नहीं भातीं और कड़वा सत्य बोलने के लिए जिस ‘आत्मिक बल’ की आवश्यकता होती है, हमारी पीढ़ियों में वह या तो क्षीण हो चुका है या ध्वस्त ही हो चुका है। अपने कुटिल बौद्धिक चातुर्य से भ्रष्ट और बेईमानों ने अत्यंत चतुराई से हममें ही अपने धर्म के प्रति अनास्था का भाव जाग्रत कर दिया है।
‘सेक्यूलरिज़्म’ का जाल बुनने वाले इन बौद्धिक बेईमानों ने हमारी मानसिकता को इस क़दर वश में कर लिया है कि हम किसी धर्म विशेष की ‘अराजकता’ और ‘धर्मोन्माद’ की आलोचना करने से काँप उठते हैं। यह ‘बौद्धिक अनुकूलन’ ‘सेक्यूलरिज़्म’ का डंका पीटने वाले नेहरू से ही आरंभ हो गया था और उसे पूर्णतः ठोस रूप देने का काम ‘आपातकाल’ के दौरान कर दिया गया।
‘सेक्यूलरिज़्म’ और गांधी का ‘अहिंसा दर्शन’ हम पर इस क़दर हावी है कि हम प्रायः ‘मार खा रोई नहीं’ वाली मुद्रा में मेमनों की तरह मिमियाते रहते हैं। भारत को एकता-सूत्र में बाँधने वाले देश के प्रथम गृह मंत्री सरदार पटेल ने ऐसे (मिमियाते) लोगों से अपील की थी, जो 2 दिसंबर 1946 को ‘बॉम्बे क्रॉनिकल’ में प्रकाशित हुआ था और डॉ प्रभा चोपड़ा द्वारा संपादित पुस्तक ‘भारत विभाजन’ में संकलित है–
“वे (लोग) पुलिस व मिलिट्री सहायता पर निर्भर रहने के बजाय आत्मरक्षा की भावना विकसित करें। …यदि आप गांधी जी के पदचिह्नों पर चलते हुए अहिंसात्मक प्रतिरोध नहीं कर सकते हैं तो आप कम-से-कम एक बहादुर व्यक्ति की तरह अपने तरीक़े से लड़ तो सकते हैं। पुलिस को उनके अप्रतिपालित कर्तव्यों के लिए आरोपित करने के बजाय आप स्वयं पुलिस का कार्य करना सीखिए।” (प्रभात प्रकाशन, दिल्ली 2014, पृ. 166)
उनके अनेकानेक वक्तव्य तत्कालीन ‘मुस्लिम लीग’ जनित-प्रेरित-पोषित अराजकता के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए प्रेरणादायी थे। इसी प्रलेख के कुछ अंश उल्लेखनीय हैं–
“यदि दंगे व्यापक रूप से जारी रहते हैं तो सरकार के लिए यह कठिन होगा कि वह हर जगह पुलिस सुरक्षा उपलब्ध करा पाए। लोगों को गुंडों के चाकुओं से अपनी रक्षा स्वयं करना चाहिए और उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए संगठित होना चाहिए। …यदि आप गांधीवादी तरीके से– अहिंसात्मक रूप से अपना बचाव नहीं कर सकते तो हिंसक रूप से कीजिए, किंतु अपने आपको बचाइए।”
उन्होंने ज़ोर देकर कहा, “यदि आपको मारने के लिए कोई आता है तो आपको पूरा अधिकार है कि आप उस पर प्रहार करें।” (वही, 167–168) ये उद्गार तत्कालीन गृह मंत्री के हैं।
इस देश ने कितना कुछ सहा है! ‘कलकत्ता किलिंग्स’, नोआखली का हृदय विदारक हत्याकांड, विभाजन की विभीषिका, अनेकानेक आतंकवादी हमले, दंगे आदि परंतु कट्टरपंथी मुसलमानों के जिहादी मनसूबों और हरक़तों के बावजूद ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ का अध्याय अब तक समाप्त नहीं हो पाया है।
नेहरू के ‘सेक्यूलरिज़्म’ को ‘आपातकाल’ में जो ठोस रूप मिला उसे मोदी के शासन में आते ही ‘असहिष्णुता’ की चर्चा-परिचर्चा को बढ़ावा देने वाले बौद्धिक बेईमानों ने अकाट्य बनाने का हर संभव कार्य किया। ऐसे में हंसराज रहबर का उपरोक्त तात्विक चिंतन सबके लिए स्मरणीय और अनुकरणीय है।
हमें ‘कड़वी दवा’ और ‘कड़वे सत्य’ के लिए सतत तत्पर रहना चाहिए, भ्रमों को दूर कर अपने जीवन को सुंदर और ‘ताज़ादम’ बनाने में सतत प्रयासरत रहना चाहिए। जो ये सीख भूल जाते हैं, उन्हें धार्मिक अतिवादी उन्माद में रंगे दगाबाज़ों द्वारा या तो मौत के घाट उतार दिया जाता है या वे अपनी अस्मिता और अस्तित्व खो बैठते हैं।
कश्मीर में पंडितों के साथ जो हुआ (किया गया!), वह उपरोक्त दो चिंतनीय वक्तव्यों के आलोक में पुनः स्मरणीय है, अतः अनुकरणीय है। अतिवादी धर्मोन्मादी तत्वों का निरंतर शनैः-शनैः भारत ग्रास करते जाना यह आभास करा जाता है कि ‘शेष’ जो भी है, वह ‘अवशेष’ मात्र है!
इन दिनों संपूर्ण देश में क़ानूनन ‘लॉकडाउन’ घोषित है यद्यपि कुछ (?) बिगड़ैल शैतानों की हरक़तों से भारत को आपदा की दुर्जेय और घनीभूत परिस्थितियों में धकेलने का निरंतर प्रयास हुआ है (हो रहा है!)। यह शत प्रतिशत सत्य है कि समस्या इस देश (भूमि) के साथ नहीं, इस देश के लोगों के चरित्र के साथ है!
इस समस्या का मूल आधार खोजने के प्रयासों से यह निश्‍चित हो जाता है कि शिक्षा में ‘चरित्र निर्माण’ और भारतीय ‘आध्यात्मिक पक्ष’ को अत्यंत चतुराई से केवल नज़रंदाज़ ही नहीं किया गया अपितु योजनाबद्ध तरीक़े से अनुपयोगी एवं अनुपयोज्य घोषित कर पाठ्यक्रमों में हाशिए से बाहर धकेल दिया गया है।
इस देश ने अखिल विश्‍व को ‘मनुष्यत्व’ का वास्तविक अर्थ समझाया– विद्या, विनय, विवेक, प्रकृति, प्रेम, शांति, समभाव, सद्‍भाव का पाठ पढ़ाया– “सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्।”; “विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषां परिपीडनाय। खलस्य साधोर्विपरीतमेतत् ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय।।”; “विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति पात्रताम्। पात्रत्वाध्दनमाप्नोति धनाध्दर्मं ततः सुखम्” आदि।
किंतु भारतीय ज्ञान परंपरा के अनुसरणकर्ताओं को ‘आयातित विचारधारा’ का अनुसरण करने वाले राष्ट्रद्रोही ग़ुलामों ने प्रायः भारत-व्याकुल को दक्षिणपंथी, राष्ट्रवादी ही नहीं कहा अपितु उससे आगे बढ़ कर एक संज्ञा विशेष से सृजित-प्रचारित-प्रसारित कर दिया– ‘भगवाधारी सांप्रदायिक’ और जो अतिवादी मज़हबी जुनून का विरोध-प्रतिरोध करता है, उसे ‘सांप्रदायिक’, ‘हिंदू आतंकवादी’, ‘इस्लामोफोबिक’ कहकर उसमें हीनता-ग्रंथि विकसित करने का सतत प्रयास किया।
बर्फीली सर्दी रात में चारों ओर से रेगिस्तान में फँसे ‘अरब और ऊँट की कथा’ तो सुनी ही होगी? रात के प्रहर बीतते-बीतते अरब के तंबू में पहले ऊँट की गर्दन आई, फिर क्या, धीरे–धीरे अरब तंबू के बाहर और ऊँट तंबू के भीतर पूरी तरह जम गया।
अरब पहले तो रात भर ठंड में ठिठुरता रहा, फिर उसका शरीर अकड़ता ही गया और फिर वह धीरे–धीरे इस मर्त्यलोक से विदा हुआ। हमारी घटी हुई सीमाएँ, विखंडित भारत और निरंतर टुकड़े-टुकड़े करने वालों के मनसूबों को इस कहानी के आलोक में देखने की आज नितांत आवश्यकता है।
यद्यपि हमें स्मरण करना (रखना!) होगा कि हमारी प्राचीन शिक्षा का मूल आधार किन्हीं अन्यान्य बातों के होते हुए भी, विशेष रूप से ‘चरित्र निर्माण’ रहा है तथापि हमारी नीतिगत शिक्षाएँ यह भी बताती हैं कि जो अपनी ही रक्षा नहीं कर सकता, वह राष्ट्र की भला रक्षा कैसे कर सकेगा?
आश्‍चर्य नहीं कि उद्दंड और मनोविकारग्रस्त दुर्योधन की धृष्टता और कदाचार के बावजूद भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और युधिष्ठिर उसके पापयुक्त मन-मस्तिष्क में सतत संयम, सदाचार और सदसदविवेक को रोपित करते रहने से नहीं चूकते।
यह भी स्मरण रखना होगा कि किसी भी चारित्रिक पतन के लिए ‘गांधार’ (वर्तमान अफगानिस्तान का पूर्वोत्तर और पाकिस्तान का उत्तर–पश्‍चिम प्रांत जो कि इस्लामिक आक्रांताओं के ज़द में आकर प्रत्याहार के कारण पराजित होकर इस्लामिक राष्ट्र में तब्दील हो गया) प्रांत के शकुनी जैसे इने-गिने दुरभिसंधि रचने वाले महापातकी शठों ने राष्ट्र को भीषण संकटों में फाँस दिया और ‘भारतवर्ष’ को क़तरा-क़तरा काटकर विभाजित कर देने में अपना संपूर्ण योगदाय किया।
हमें इतिहास पढ़ाया भी गया तो आक्रांताओं के महिमामंडन वाला इतिहास ही ठूँस-ठूँसकर परोसा गया। नतीजतन राजनीतिक वर्चस्व से सत्ताहस्तागति की भावना से लबालब मनोवांछित नैरेटिव निर्माण पर बल दिया जाता रहा।
ऐसे चारण चरित्र वाले इतिहासकारों द्वारा रचे-गढ़े हुए इतिहास को पढ़कर आप जानेंगे कि हिंदुओं का पद-दलन करने वाले पिशाच को ‘दीन-ए-इलाही’ और ‘मुहब्बत का बादशाह’ के रूप में महिमामंडित किया गया और ‘ताजमहल’ को प्रेम-प्रतीक के रूप में प्रस्तुत-प्रचारित किया गया।
हमें बताया-पढ़ाया गया कि भारतवर्ष के राजाओं ने जनता से कर वसूली कर मंदिर बनवाये और धर्म को बढ़ावा दिया तथा जो भारत को 17 बार लूट गया, उसने उस लूट के पैसे से ग़ज़नी शहर को रचाया-बसाया। हमें यह शिक्षा दी गयी कि हम लुटेरों का सम्मान करें और अपनी सांस्कृतिक-आध्यात्मिक धरोहर की अवहेलना करें। (इस पक्ष पर शीघ्र ही तथ्यात्मक लेख प्रस्तुत करुँगा।)
ऐसी पंगु शिक्षा का परिणाम यह हुआ कि हमें अपने हिंदू धर्म में विकृतियाँ दिखायी देती हैं। उच्चादर्शों की स्थापना करने वाले प्रभु श्रीराम के चरित्र में खोट निकाले जाते हैं और उन्हें येन-केन-प्रकारेण अपमानित करने का उद्यम रचा-गढ़ा जाता है। हमें यथाशीघ्र इस स्थिति से ऊपर उठना होगा। यही आज के समय का ‘हितोपदेश’ है।
कश्मीर में जो पंडितों के साथ हुआ, उसे बहुत लंबे समय तक भारत के अन्य हिस्सों में पहुँचने ही नहीं दिया गया। कश्मीरी पंडितों की हत्याओं के साथ-साथ उनका प्राण बचाकर अपनी मातृभूमि से पलायन कर जाना और भेड़-बकरियों की तरह एक छोटी-सी जगह में ठूँस-ठूँसकर भरा जाना, घुट-घुटकर जीना, उनके आराध्यों के पावन स्थलों का तोड़ा जाना उससे कम भयानक नहीं था।
ऐसा केवल इसलिए हुआ क्योंकि वे हिंदू थे तिस पर सहिष्णू थे तथा सभी कौमों के साथ सामुदायिक जीवन बिताने में विश्‍वास करते थे। जो भी आता गया उसे भातृ-भाव से बसने-रचने दिया। ‘हिंदुत्व’ के इसी संवेदनशील और सहिष्णु पक्ष ने हिंदुओं की स्थिति उस अरब की तरह हो चुकी है।
एक समय था, कश्मीर घाटी हिंदुओं की धर्म और उपासना स्थलि हुआ करती थी। धीरे-धीरे इस्लाम के आतंक ने उसे जहन्नुम में तब्दील कर दिया। कश्मीरी पंडितों की हत्या और पलायन की कहानी दिल दहला देने वाली है। वहाँ के हिंदुओं ने धीरे-धीरे समझा कि सौहार्द से यहाँ अब जीना दुभर है तो पलायन कर अपना आशियाना छोड़ अस्तित्व और अस्मिता बचाने में जुट गए। आज इस्लाम के खिलाफ़ बोलने की ही नहीं अपितु उनके मनोरोग का इलाज़ करने की भी ज़रूरत है।
कश्मीर के ‘शैववाद’ (सिद्धांत) को लोगों ने भुला दिया है। सोमानंद, उत्पलदेव, अभिनव गुप्त और क्षेमराज को भी लोग भुला ही चुके हैं। यह सब हुआ क्योंकि ‘कश्मीर हमारा है’ नारों के निनाद में ‘इस्लामिक आतंकवाद’ ने अपनी गहरी पैठ बनाई और हिंदुओं को बेदखल-बेघर कर दिया।
आज भी ‘अल्पसंख्यक’ शब्द में रचे कुचक्र को ढाल बना कर जो अराजकताएँ हो रही हैं, उन्हें नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। उदारवादी मुसलमान कट्टरपंथी मुसलमानों की आलोचना नहीं करते और न जाने कितने ही कश्मीरी पंडित, कितने ही परमशिवम और रामलिंगमों की हत्याएँ इस देश में आए दिन होती हैं, इसकी शुमार नहीं!
कट्टरपंथी इस्लामी जिहादी अराजकता से तथा ईसाई मिशनरियाँ सुनियोजित रूप से लालच प्रलोभन की सहायता से हिंदुओं का सफ़ाया करने में जुटी हुई हैं। गिर चुके और निरंतर गिरते हुए मंदिर, बढ़ते हुए चर्च और मस्जिदों से भी इस सफ़ाया का अनुमान लगाया जा सकता है। सद्भावना और सौहार्द की भावना वाला हिंदुत्व अपने अंत की ओर है। स्वलिखित कविता ‘छोटी नदी की बड़ी कहानी-1’ की आरंभिक पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैं–
“नदी के इस छोर पर- एक मंदिर है कमनसीब
और मंदिर के भीतर एक मूर्ति है, अपनी छिन्न-भिन्न अवस्था में
बेसहारा-बेबस-लाचार मूर्ति (ईश्‍वर) की नाक और तर्जनी कटी हुई है
यह कैसा समय चक्र कि ईश्‍वर के चेहरे पर निरीहता झलक रही है
अभेद्य मंदिर प्राचीर भी अब लड़खड़ा रहा है
और ईश्‍वर के एकाकीपन का एकमात्र साथी, अभेद्य सन्नाटा, पहरा दे रहा है
यहाँ के पुरखे-पुरखिन बताते हैं, इस मंदिर ने झेले हैं कई आक्रमण
नानाविध झंझावात कि पुरोहितों ने भी किया इस मंदिर का त्याग, कहा- मंदिर है यह अभिशप्त”
हिंदू समाज में इस मानसिकता का अनुकूलन किया गया है कि इस्लाम बहुत ही उम्दा कौम (शांतिप्रिय!) है। जाहिल यदि कोई है तो सनातनी हैं और उनमें सांप्रदायिकता कूट-कूटकर भरी हुई है। इस आरोप के कारण बहुतांश हिंदुओं को ‘हिंदू’ कहलाने में शर्म का अनुभव होता है। यह मनोग्रंथि बहुत गहरे पैठ कर अक्षयवट की भाँति विकसित कर दी गई है।
हम ‘सेक्यूलर’ कहलाने में गर्व का अनुभव करते हैं और कश्मीरी पंडितों की सी स्थिति पर वही तक़िया क़लाम भिड़ाए रहते हैं कि कुछ बुरे लोगों ने यह कृत्य किया था। जबकि कट्टरता प्रवाही इस्लाम के विस्तार के सत्य से कोई भी अनजान नहीं है। यह सर्वत्र प्रसारित-प्रचारित भी किया गया है कि कोई मज़हब बुरा नहीं होता, कुछ-कुछ इंसान हर मज़हब में बुरे होते हैं।
ऐसे ही तर्कवान बेईमान बौद्धिक एवं राजनेताओं ने ‘इस्लामिक आतंकवाद’ के तर्ज पर ‘हिंदू आतंकवाद’ भी ईजाद कर दिया। इस्लामिक आतंकवाद की ज़द में कुछ ही उदारवादी मुसलमान शेष रह गए हैं और उन्हें भी निरंतर जिहाद का पाठ पढ़ाते हुए मौलानाओं को हाल ही में देश ने देखा-परखा है।
भारत में समस्या यह है कि हम ग़लत को ग़लत भी नहीं कह सकते क्योंकि तथाकथित धर्मनिरेपक्ष ‘सेक्यूलर’ बेईमान तुरंत उन्हें ‘सांप्रदायिकता का ओवरकोट’ पहनाकर मीडिया, सोशल मीडिया में प्रचारित करने में जुट जाते हैं कि देखो कैसे ‘हिंदुत्व जाग उठा’, देखो कि कैसे अल्पसंख्यक शांतिप्रिय मुसलमानों के साथ ‘लिचिंग’ की घटनाएँ बढ़ गई हैं।
ख़ैर, कट्टरपंथी मुसलमानों ने कश्मीरी पंडित और उनकी स्त्रियों के साथ जो किया, उसकी भत्सर्ना, आलोचना करने वालों को भी सांप्रदायिक, कट्टर हिंदुवादी और मोदीभक्त (अंधभक्त!) कहा गया (जाता) है। कितनी विडंबना है कि धर्म-विस्तार की कुटिल भावना से इस्लाम सारी दुनिया की ख़ाक छानता हुआ भारतवर्ष में दाखिल हुआ और उसने भारत को हर तरह से तहस-नहस (टुकड़े-टुकड़े) कर दिया।
हमारे मंदिरों से लेकर विद्या–मंदिरों तक नेस्तनाबूत कर दिए गए। आज भी कट्टरपंथी इस्लामपरस्त और उनकी चरणरज से तिलक करने वाले देशद्रोही (गैंग) चारण भारत के टुकड़े-टुकड़े करने की साज़िशें रचते हैं और येन-केन-प्रकारेण उन साज़िशों को क्रियान्वित करते हुए पाए भी जाते हैं।
‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्‍वास’ वाली मोदी सरकार को यह जानना ही होगा कि आपके इस मंत्र से कट्टरपंथी मुसलमान मुग्ध होने से रहे! शाहीनबाग़ की भीड़ ने और दिल्ली दंगों ने इसकी पुष्टि कर दी है। उनकी शिक्षा-दीक्षा में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे (इंशाअल्लाह!)’ ही मौजूद है और रहेगा!
इतिहास और ‘क्रोनोलॉजी’ से यह स्पष्ट और सिद्ध हो जाता है। जिन्ना की आज़ादी से ‘जिन्ना वाली आज़ादी’ तक और ‘कलकत्ता किलिंग’ से लेकर कश्मीरी पंडितों की कहानी तक हिंदुओं के क़त्लेआम से भरे इतिहास में कई सिसकती हुई लाशें यदा-कदा किसी देशप्रेमी के मन को व्याकुल कर जाती हैं।
हमें नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर सनातनियों की उपासना स्थली (तपोभूमि) रहा है और कश्मीर के शैववाद ने जो तत्व–दर्शन दिया है, वह आज विस्मृत कर दिया गया है। कट्टरपंथी इस्लाम के विस्तार ने भारत की जो स्थिति बना दी है, उससे वाक़िफ़ होना ज़रूरी है।
आज ‘रोहिंग्या मुसलमान घुसपैठियों’ की समस्या कल का घनघोर सिरदर्द है और जो इन घुसपैठियों की वक़ालत कर(ते) रहे हैं, वे सरासर देशद्रोही हैं। दोराय नहीं कि ऐसे ही द्रोहियों ने भारत की यह दुर्दशा बना दी है। भारत की ‘चिकन-नेक’ तोड़ने की बात करने वाले, भारत के ‘22 टुकड़े’ करने की मंशा रखने वाले, ‘15 मिनट के लिए पुलिस को हटाने’ पर सभी हिंदुओं का संहार करने का विचार रखने वालों के इरादे मज़बूत हैं।
और हम सभी हिंदू मजबूर हैं क्योंकि हम ‘हिंदू’ हैं ; ‘सहिष्णुता’ हमारा धर्म है ; ‘मानवता’ हमारी पहचान है ; जीव दया और प्रेम हमारी शिक्षा, हमारा जीवन मंत्र है ; वसुधा पर मौजूद सभी हमारे भाई–बहन हैं, हमारा कुटुंब है इत्यादि–इत्यादि। जब–जब न पढ़ाया हुआ इतिहास पढ़ने को मिल जाता है, उपरोक्त सारी उदारतावादी बातें बकवाद (bullshit) प्रतीत होती हैं।
संकेत भी है कि देखो कि कैसे प्रजातियाँ विलुप्त हो (कर दी!) जाती हैं। इस्लामिक कट्टरता और सांप्रदायिकता का शिकार होकर अपना सर्वस्व खोने के बावजूद ‘पंडित’ प्रेम की बात करने के लिए विवश हैं। उन्हें डर है कि कहीं भारत के बौद्धिक बेईमान तथाकथित सेक्यूलर कहीं उन्हें ‘असहिष्णु’ और ‘सांप्रदायिक’ न कह दें! उन्हें ‘भगोड़ा’ कहने से भी तो लोग चूके नहीं थे।
टीकालाल टपलू, जस्टिस नील कांत गंजू, गिरिजा टिक्कू और बाद में डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ जो हुआ, उसे भुलाया नहीं जा सकता। केरल में जो कट्टरपंथी इस्लामिक गतिविधियों में बढ़ोतरी हुई है, महाराष्ट्र, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश से आये दिन जो कट्टरपंथी जिहादियों की ख़बरें आती हैं, उन्हें नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता।
केरल के वायनाड़ से चुनाव लड़ने वाले स्वार्थांध राजनेता राहुल गांधी और ‘मुस्लिम तुष्टीकरण’ को बढ़ावा देने वाले ऐसे अनेकानेक नेताओं के चरित्रों को जानना होगा। आने वाला समय निश्‍चय ही विकट है। समय रहते सबको जानना-सोचना-समझना-परखना होगा। केवल स्पष्टोक्ता बनने से काम नहीं चलने वाला।
बौद्धिक बेईमानों की मीडिया चर्चा-परिचर्चा की परवाह किए बिना यथावश्यक इस्लामिक अराजकता और कट्टरता का प्रतिरोध करना होगा अन्यथा ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे! इंशाअल्लाह! इंशाअल्लाह!’ की गर्जना का विकराल होना निश्‍चय है।
सरदार पटेल के ऊपर उद्धृत परामर्श के आलोक में सबको जाग्रत होना होगा।  बीआर अंबेडकर की पुस्तकें– ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’, ‘पाकिस्तान ऑर दपार्टचिशन ऑफ़ इंडिया’, सरदार पटेल की उपरोक्त पुस्तक ‘भारत विभाजन’ और हंसराज रहबर की पुस्तक ‘नेहरू बेनकाब’ पढ़िए।
देखिए उस बर्बरता को जिसमें इस्लामिक आतंकवाद की गहरी जड़ें दिखाई देंगी। स्मरण रहे कि कश्मीरी पंडितों के अस्तित्व और अस्मिता को हर तरह से मिटाने में कोई क़सर नहीं छोड़ी गई। मुहब्बत बाँटोगे, मुहब्बत मिलेगी और नफ़रत बाँटोगे तब भी मुहब्बत ही मिलेगी– इस रिवाज़ को बदलने की नितांत आवश्यकता है मित्रों! यकीन मानिए, ‘शेष’ जो भी है, वह ‘अवशेष’ मात्र है।
जब-तब इस देश का संयमी हिंदू वर्ग, जिसे माँ की कोख से संस्कार, संयम, धैर्य, सदसदविवेक का पाठ पढ़ाया जाता है, देश में आयातित वाद (वितंडा) और सेक्यूलरिज़्म की भेंट चढ़ जाता है। कट्टरपंथी इस्लाम का विस्तार जिस गति से हुआ है, वह आश्चर्यजनक नहीं है। वहाँ संस्कार, संयम, धैर्य, सदसदविवेक का पाठ नहीं पढ़ाया जाता, उन्हें पढ़ाया जाता है– मुल्लाओं का क़ानून और मज़हबी शिक्षा, जिहाद (धार्मिक उन्माद) और येन-केन-प्रकारेण धर्म विस्तार!
‘शिकारा’ में लतीफ़ लोन  का किरदार बड़ा मज़ेदार है, वह फ़िल्म के आरंभ में एक ‘सेक्यूलर’ के रूप में प्रस्तुत होता है और एक घटना के तुरंत बाद बर्बर आतंकवादी बन जाता है तथा अपने लंगोटिया यार शिव को ‘भारत’ चले जाने का मशवरा देता है एवं अपनी प्रेयसी आरती कचरु को मौत के घाट उतार देता है। फ़िल्म में दिखाया गया है कि ‘कश्मीर हमारा (मुसलमान) है!’ “वापस मत आना और इस जगह की इत्तला किसी को मत देना। हिंदुस्तानी एजेंटों को हम गोली मार देते हैं।” में एक ठेठ संदेश है, जिसे निश्‍चय ही पाठक–दर्शक सोचने–समझने का प्रयास करेंगे।
गंगा-जमुनी तहज़ीब के पैरोकार राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘सीन 75’ (1977) में रचित एक काव्यांश अपने महाविद्यालयीन जीवन से ही न जाने क्यों हृदय को प्लावित करता रहा है! यद्यपि यह उपन्यास मुंबई महानगर के बहुरंगी सामाजिक जीवन का रेखांकन है परंतु यह काव्यांश कश्मीरी पंडितों की पीड़ा का अनुभव करा जाता है। उपन्यास में आए उस काव्यांश (पृ. 111–112) के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देना चाहूँगा। मुलाहज़ा है–
“जिनसे मैं छूट गया अब वह जहाँ कैसे हैं?
शाखे-गुल कैसी है, फूलों के मकाँ कैसे हैं
जिस गली ने मुझे सिखलाये थे आदाबे-जुनूँ
उस गली में मेरे पैरों के निशाँ कैसे हैं?
शहरे रुसवाई में चलती हैं हवाएँ कैसी
साख कैसी है जुनूँवालों की, क़ीमते–चाके गरीबाँ क्या है
चाँद तो अब भी निकलता होगा, चाँदनी अपनी हिक़ायते-वफ़ा
अब वहाँ किसको सुनाती होगी, चाँद को नींद न आती होगी
मैं तो पत्थर था, मुझे फेंक दिया, ठीक किया
आज उस शहर में शीशे के मकाँ कैसे हैं…?”



विभिन्न धर्मों में माँ का अस्तित्व

मातृ दिवस पर विशेष 

दुनिया के सभी मज़हबों में माँ को बहुत अहमियत दी गई है, क्योंकि माँ के दम से ही तो हमारा वजूद है। ख़ुदा ने जब कायनात की तामीर कर इंसान को ज़मीं पर बसाने का तसव्वुर किया होगा, तो यक़ीनन उस वक़्त मां का अक्स भी उसके ज़ेहन में उभर आया होगा। जिस तरह सूरज से यह कायनात रौशन है। ठीक उसी तरह माँ से इंसान की ज़िन्दगी में उजाला बिखरा हुआ है। तपती-झुलसा देने वाली गर्मी में दरख़्त की शीतल छांव है माँ, तो बर्फ़ीली सर्दियों में गुनगुनी धूप का अहसास है मां। एक ऐसी दुआ है मांजो अपने बच्चों को हर मुसीबत से बचाती है। 

मांजिसकी कोख से इंसानियत जनमी। जिसके आंचल में कायनात समा जाए। जिसकी छुअन से दुख-दर्द दूर हो जाएं। जिसके होठों पर दुआएं हों। जिसके दिल में ममता हो और आंखों में औलाद के लिए इंद्रधनुषी सपने सजे हों। ऐसी ही होती है माँ। बिल्कुल ईश्वर के प्रतिरूप जैसी। ख़ुदा के बाद माँ ही इंसान के सबसे ज़्यादा क़रीब होती है।

इसीलिए सभी नस्लों में माँ को बहुत अहमियत दी गई है। इस्लाम में माँ का दर्जा बहुत ऊंचा है। क़ुरआन करीम की सूरह अल अहक़ाफ़ में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि हमने इंसान को अपने मां-बाप के साथ अच्छा बर्ताव करने की ताकीद की है। उसकी माँ ने उसे तकलीफ़ के साथ उठाए रखा और उसे तकलीफ़ के साथ जन्म भी दिया। उसके गर्भ में पलने और दूध छुड़ाने में तीस माह लग गए। अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सलल्ललाहु अलैहि वसल्लम ने इरशाद फ़रमाया कि माँ के क़दमों के नीचे जन्नत है। आप सलल्ललाहु अलैहि वसल्लम ने एक हदीस में इरशाद फ़रमाया है कि मैं वसीयत करता हूं कि इंसान को माँ के बारे में कि वह उसके साथ नेक बर्ताव करे।

एक अन्य हदीस के मुताबिक़ एक शख़्स अल्लाह के रसूल हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास आया और सवाल किया कि ऐ अल्लाह के नबी! मेरे अच्छे बर्ताव का सबसे ज़्यादा हक़दार कौन हैआप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- तुम्हारी माँ.” उसने कहा कि फिर कौनआप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- तुम्हारी माँ.” उसने कहा कि फिर कौनआप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- तुम्हारी माँ.” उसने कहा कि फिर कौनआप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फ़रमाया- तुम्हारा वालिद. फिर तुम्हारे क़रीबी रिश्तेदार।”

यानी इस्लाम में माँ को पिता से तीन गुना ज़्यादा अहमियत दी गई है। इस्लाम में जन्म देने वाली माँ के साथ-साथ दूध पिलाने और परवरिश करने वाली माँ को भी ऊंचा दर्जा दिया गया है। इस्लाम में इबादत के साथ ही अपनी माँ के साथ नेक बर्ताव करने और उसकी ख़िदमत करने का भी हुक्म दिया गया है। कहा जाता है कि जब तक माँ अपने बच्चों को दूध नहीं बख़्शती, तब तक उनके गुनाह भी माफ़ नहीं होते।

यहूदियों में भी माँ को सम्मान की नज़र से देखा जाता है। उनकी दीनी मान्यता के मुताबिक़ कुल 55 पैग़म्बर हुए हैंजिनमें सात महिलाएं थीं। ईसाइयों में भी माँ को उच्च स्थान हासिल है। इस मज़हब में यीशु की माँ मदर मैरी को बहुत बड़ा रुतबा हासिल है। गिरजाघरों में ईसा मसीह के अलावा मदर मैरी की प्रतिमाएं भी विराजमान रहती हैं। यूरोपीय देशों में मदरिंग संडे मनाया जाता है। दुनिया के अन्य देशों में भी मदर डे यानी मातृ दिवस मनाने की परम्परा है। 

भारत में मई के दूसरे रविवार को मातृ दिवस मनाया जाता है। चीन में दार्शनिक मेंग जाई की माँ के जन्मदिन को मातृ दिवस के तौर पर मनाया जाता हैतो इज़राईल में हेनेरिता जोल के जन्मदिवस को मातृ दिवस के रूप में मनाकर माँ के प्रति सम्मान प्रकट किया जाता है। हेनेरिता ने जर्मन नाज़ियों से यहूदियों की रक्षा की थी। अमेरिका में मई के दूसरे रविवार को मदर डे मनाया जाता है। इस दिन मदर डे के लिए संघर्ष करने वाली अन्ना जार्विस को अपनी मुहिम में कामयाबी मिली थी। इंडोनेशिया में 22 दिसम्बर को मातृ दिवस मनाया जाता है। भारत में भी मदर डे पर उत्साह देखा जाता है। नेपाल में वैशाख के कृष्ण पक्ष में माता तीर्थ उत्सव मनाया जाता है।

भारत में माँ को शक्ति का रूप माना गया है। हिन्दू धर्म में देवियों को माँ कहकर पुकारा जाता है। धन की देवी लक्ष्मीज्ञान की देवी सरस्वती और शक्ति की देवी दुर्गा को माना जाता है। नवरात्रों में माँ के विभिन्न स्वरूपों की पूजा-अर्चना का विधान है। वेदों में माँ को पूजनीय कहा गया है। महर्षि मनु कहते हैं कि दस उपाध्यायों के बराबर एक आचार्या होता हैसौ आचार्यों के बराबर एक पिता होता है और एक हज़ार पिताओं से अधिक गौरवपूर्ण माँ होती है। तैतृयोपनिशद्‌ में कहा गया है-मातृ देवो भव:। 

इसी तरह जब यक्ष ने युधिष्ठर से सवाल किया कि भूमि से भारी कौन है तो उन्होंने जवाब दिया कि माता गुरुतरा भूमे: यानी मां इस भूमि से भी कहीं अधिक भारी होती है। रामायण में राम कहते हैं कि जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी यानी जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। बौद्ध धर्म में महात्मा बुद्ध के स्त्री रूप में देवी तारा की महिमा का गुणगान किया जाता है।

माँ बच्चे को नौ माह अपनी कोख में रखती है। प्रसव पीड़ा सहकर उसे इस संसार में लाती है। सारी-सारी रात जागकर उसे सुख की नींद सुलाती है। हम अनेक जनम लेकर भी माँ की कृतज्ञता प्रकट नहीं कर सकते। माँ की ममता असीम हैअनंत है और अपरंपार है। माँ और उसके बच्चों का रिश्ता अटूट है। माँ बच्चे की पहली गुरु होती है। उसकी छांव तले पलकर ही बच्चा एक ताक़तवर इंसान बनता है। हर व्यक्ति अपनी माँ से भावनात्मक रूप से जुड़ा होता है। वो कितना ही बड़ा क्यों न हो जाएलेकिन अपनी माँ के लिए वो हमेशा उसका छोटा-सा बच्चा ही रहता है। माँ अपना सर्वस्व अपने बच्चों पर न्यौछावर करने के लिए हमेशा तत्पर रहती है। माँ बनकर ही हर महिला ख़ुद को पूर्ण मानती है।

कहते हैं कि हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम बहुत तेज़ घुड़सवारी किया करते थे। एक दिन अल्लाह ने उनसे फ़रमाया कि अब ध्यान से घुड़सवारी किया करो। जब उन्होंने इसकी वजह पूछी तो जवाब मिला कि अब तुम्हारे लिए दुआ मांगने वाली तुम्हारी माँ ज़िन्दा नहीं है। जब तक वो ज़िन्दा रहीं उनकी दुआएं तुम्हें बचाती रहींमगर उन दुआओं का साया तुम्हारे सर से उठ चुका है। सचमाँ इस दुनिया में बच्चों के लिए ईश्वर का ही प्रतिरूप हैजिसकी दुआएं उसे हर बला से महफ़ूज़ रखती हैं। माँ को लाखों सलाम। दुनिया की सभी माओं को समर्पित हमारा एक शेअर पेश है-

क़दमों को माँ के इश्क़ ने सर पे उठा लिया

साअत सईद दोश पे फ़िरदौस आ गई

(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं)




ब्रह्म समाज: मतभेदों का इतिहास

सुप्रसिद्ध कवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ने राजा राममोहन राय की “ब्रह्मसमाज” की विरासत को आगे बढ़ाया, पर उनके कामों की विशेषता यह रही कि उन्होंने वेदों के अध्ययन को एक अविभाज्य अंग माना। उनके अनुसार प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रंथों में हिब्रू धर्म ग्रंथों से भी अधिक जोश और उत्साह से एकेश्वरवाद का प्रतिपादन किया गया है। हिन्दू धर्म के ‘अहं ब्रह्मास्मि’ वचन से वे सहमत नहीं थे, जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि मानव की आत्मा ईश्वर में विलीन हो जाती है। उन्हें यह कल्पना ही अगम्य-गूढ़ प्रतीत हुई कि पुजारी और पूज्य इन दोनों का अस्तित्व एक हो जाता है।
“आदि ब्रह्मसमाज” के नेता महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर (१८१७-१९०५) स्वामी दयानन्द सरस्वती जी से आठ वर्ष बड़े थे। आपने ही प्रयाग के कुंभ मेले में उन्हें कोलकाता पधारने का निमन्त्रण दिया था। उसी समय स्वामी जी ने देवेन्द्रनाथ जी के सामने कोलकाता में वेद-विद्यालय की स्थापना का अनुरोध किया था। यहाँ हमें यह स्मरण रखना चाहिये कि श्री देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने कुछ विद्यार्थियों को वेद पढऩे के लिए काशी भेजा था। स्वामीजी को कोलकाता पहुँचने पर हावड़ा रेलवे स्टेशन से लाकर ‘प्रमोद कानन’ नामक उद्यान में ठहराया गया। वहाँ पर लगे देवेन्द्रनाथ जी के चित्र को देखकर स्वामी दयानन्द जी ने कहा था- ‘इनका झुकाव तो स्वाभाविक रूप से ऋषित्व की ओर दिखलाई देता है।’ वैसे वे नौ पुत्रों और पांच पुत्रियों समेत कुल चौदह संतानों के जनक थे।
स्वामी जी के कोलकाता पहुँचने के पांच दिन बाद रविवार २२ दिसम्बर १८७२ को देवेन्द्रनाथ ठाकुर के क्रमश: प्रथम और तृतीय पुत्र सर्वश्री द्विजेन्द्रनाथ और हेमेन्द्रनाथ के स्वामी जी महाराज के दर्शनार्थ उनके डेरे पर पहुँचने का लिखित रूप में प्रमाण मिलता है। संभव है इससे पूर्व भी वे एकाधिक बार उनसे मिले होंगे। पं. लेखराम के अनुसार धर्मचर्चा के अवसर पर द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर  हमेशा दयानन्द जी का पक्ष लिया करते थे। मंगलवार २१ जनवरी १८७३ को ब्रह्मसमाज के त्रिदिवीय मोघात्सव-वार्षिकोत्सव समापन समारोह पर महर्षि के ज्येष्ठ पुत्र श्री द्विजेन्द्रनाथ ही स्वामी जी को उनके डेरे से ‘जोडासांको राजवाड़ी’ मुहल्ले में स्थित अपने पिताश्री के ‘ठाकुर बाड़ी’ नामक घर पर अगवानी करते हुए लेकर पधारे थे। तत्कालीन दृश्य का वर्णन करते हुए मराठी साहित्यकार स्वर्गीय प्राचार्य शिवाजीराव भोसले जी ने लिखा है-
”देवेन्द्रनाथ जी का वह जोडासांको स्थित ‘ठाकुर बाड़ी’ आगंतुकों की भीड़ से भरी हुई थी। सारा वातावरण प्रसन्न था। महर्षि दयानन्द और महर्षि देवेन्द्रनाथ आपस में मिलने वाले थे। इन दोनों महापुरुषों के मिलाप का दृश्य आँखें भर-भर कर देखने के लिए बहुत से लोग पहिले ही आकर बैठे गए थे। दयानन्द आये। सभी ने उठकर सम्मान किया। स्वामीजी निर्दिष्ट स्थान पर विराजमान हुए। देवेन्द्र जी ने अपने पुत्रों को आज्ञा दी। उन्होंने सामने आकर वेद मंत्रों का मधुर-सुंदर स्वर में गायन किया। जिसे सुनकर स्वामीजी संतुष्ट हुए। उन्होंने आशीर्वाद के लिए हाथ उठाया। तब उनके पास खड़ा था कल का महाकवि देवेन्द्रजी का प्रिय रवि।” तत्कालीन बारह वर्षीय रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपने संस्मरणों में लिखते हैं, ‘स्वामीजी के उज्जवल तेजस्वी चक्षु, उनके मुखमंडल पर सुशोभित होने वाली प्रसन्नता, उनका तेजस्वी विवेचन-वार्तालाप, उनका सादा रहन-सहन और उनकी उदात्त विचारधारा, उनका समग्र व्यक्तित्व हमारे मन में अनेक प्रकार की भावनात्मक तरंगों का निर्माण कर गया।”
दयानन्द जी की इस कोलकाता यात्रा में न जाने कितने बंग भूमि के सुपुत्रों ने उन्हें अभिवादन किया? दयानन्द जी के अधिकार और योग्यता को पहचानकर नगर के सभी क्रियावान् पुरुष उनसे मिले बिना न रहे। यह एक आश्चर्य की बात थी कि एक विरक्त के, संन्यस्त के, निष्कांचन यति के दर्शनार्थ महापुरुष भी पंक्तिबद्ध खड़े हो गए थे। उनके दर्शन के लिए सामान्य लोगों की उत्सुकता तो और भी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। इस अवसर पर स्वामी जी ने ‘वेद और ब्रह्मसमाज’ विषय पर अपनी विचारधारा का प्रतिपादन किया। वे जीना चढ़कर ‘ठाकुर बाड़ी’ की तीसरी मंजिल पर भी गए। महर्षि देवेन्द्र ने स्वामी जी से घर के ऊपरी हिस्से में रहने का अनुरोध किया, पर घर-परिवार और भीड़-भाड़ से दूर एकांत में साधनारत रहने वाले स्वामीजी ने उसे अस्वीकार कर दिया।
श्री केशवचन्द्र सेन की तुलना में महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर स्वामी दयानन्द जी के विचारों के अधिक नजदीक थे। केशव का झुकाव बाइबिल की ओर था, तो देवेन्द्रनाथ का झुकाव वेद की ओर। ब्रह्मसमाज से मतभेद होने के कारण देवेन्द्रनाथ ने “आदि ब्रह्मसमाज” की स्थापना की, तो केशवचन्द्र सेन ने “नवविधान समाज” की। स्थूल रूप में दोनों भी ब्रह्मसमाज के नेता के रूप में ही लोकप्रसिद्ध हुए। बाबू केशवचन्द्र सेन भी महर्षि के वेदभाष्य मासिक के ग्राहक थे और महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के ज्येष्ठ सुपुत्र बाबू द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर के पते पर भी वेदभाष्य मासिक पहुँचता था। उनकी ग्राहक संख्या ५७ थी। महर्षि देवेन्द्रनाथ ने “शांति-निकेतन” की स्थापना से पूर्व ‘ब्रह्मचर्याश्रम’ की स्थापना की थी। पं. दीनबन्धु शास्त्री के अनुसार शांति-निकेतन में प्रति रविवार आर्य विद्वान् हवन करवाने भी जाते थे।
संदर्भ:
१. “वेदवाणी” मासिक: दयानन्द विशेषांक: नवम्बर १९८३
२. “दीपस्तम्भ: प्राचार्य शिवा जी राव भोसले”, अक्षर ब्रह्म प्रकाशन ३८३-अ, शनिवार पेठ, पुणे-४११०३०, संस्करण २००३
स्रोत: “परोपकारी” पत्रिका (फरवरी प्रथम, २०११)



बीके इलेवन ने मलबार हिल कप 2024 जीता

मुंबई।   महाराष्ट्र दिवस के अवसर पर मलबार हिल स्थित स्वतंत्रता सेनानी एसएम जोशी मैदान में मलबार हिल डिवीजन क्रिकेट मैच का आयोजन किया गया। मलबार हिल डिवीजन की 54 टीमों ने भाग लिया और मैच अलग-अलग दिनों में खेले गए। बीके इलेवन ने मलबार हिल कप 2024 जीता।
इस अवसर पर आरटीआई कार्यकर्ता अनिल गलगली, शिवसेना दक्षिण मुंबई प्रभाग प्रमुख दिलीप नाइक और दादी शेठ चैरिटेबल ट्रस्ट के ट्रस्टी बायराम और संजय शिर्के फाउंडेशन के ट्रस्टी संजय शिर्के, सतीश मोसम, बबलू शेख, गणेश कवाटिया, आशीष तिवारी, निखिल चौधरी ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई और ये सभी पुरस्कार गणमान्य व्यक्तियों द्वारा वितरित किये गये।
प्रथम पुरस्कार बीके इलेवन, द्वितीय पुरस्कार रूपेश इलेवन और तृतीय पुरस्कार ओजीएससी को दिया गया। गेंदबाज रामाशु, बल्लेबाज प्रभात बावकर को मैन ऑफ द सीरीज से पुरस्कृत कर सम्मानित किया गया।



भारत 77वें कान फिल्म महोत्सव (14-25 मई) में भाग लेगा

77वें कान फिल्म महोत्सव में ‘भारत पर्व’ मनाया जाएगा

एनआईडी, अहमदाबाद द्वारा डिजाइन भारत मंडप को क्रिएट इन इंडिया की इस वर्ष की थीम को दर्शाने के लिए ‘द सूत्रधार’ नाम दिया गया है

पायल कपाड़िया की ‘ऑल वी इमेजिन एज़ लाइट’ एक भारतीय फिल्म है जिसे प्रतियोगिता अनुभाग में 30 वर्षों बाद शामिल किया गया है

इसमें नवंबर 2024 में होने वाले 55वें आईएफएफआई और प्रथम विश्व ऑडियो-विजुअल एवं मनोरंजन शिखर सम्मेलन (वेव्स) के ‘सेव द डेट’ के पोस्टर और ट्रेलर लॉन्च होंगे

कान फिल्म महोत्सव में यह भारत के लिए एक विशेष वर्ष है क्योंकि देश इस प्रतिष्ठित महोत्सव के 77वें संस्करण के लिए तैयार है। भारत सरकार, राज्य सरकारों, फिल्म उद्योग के प्रतिनिधियों वाला कॉर्पोरेट भारतीय प्रतिनिधिमंडल महत्वपूर्ण पहलों की एक श्रृंखला के माध्यम से दुनिया के अग्रणी फिल्म बाजार मार्चे डु फिल्म्स में भारत की रचनात्मक अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन करेंगे।

ऐसा पहली बार होगा जब देश 77वें कान फिल्म महोत्सव में “भारत पर्व” की मेजबानी करेगा जिसमें इस महोत्सव में भाग लेने वाले दुनिया भर के प्रतिष्ठित गणमान्य व्यक्ति और प्रतिनिधि फिल्मी हस्तियों, फिल्म निर्माताओं, निर्देशकों, खरीदारों और बिक्री एजेंटों के साथ जुड़ सकेंगे। इसमें विभिन्न स्तरों पर रचनात्मक अवसरों के साथ ही रचनात्मक प्रतिभाओं का प्रदर्शन किया जाएगा। इस भारत पर्व में 20 से 28 नवंबर, 2024 तक गोवा में आयोजित होने वाले 55वें भारत अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव (आईएफएफआई) के आधिकारिक पोस्टर और ट्रेलर का अनावरण किया जाएगा। भारत पर्व में 55वें आईएफएफआई के साथ आयोजित होने वाले प्रथम विश्व ऑडियो-विजुअल एवं मनोरंजन शिखर सम्मेलन (वेव्स) के लिए “सेव द डेट” का विमोचन भी होगा।

108 विलेज इंटरनेशनल रिवेरा में 77वें कान फिल्म महोत्सव में भारत मंडप का उद्घाटन 15 मई 2024 को प्रख्यात फिल्मी हस्तियों की मौजूदगी में किया जाएगा। कान में भारत मंडप भारतीय फिल्म समुदाय के लिए विभिन्न गतिविधियों में शामिल होने के लिए एक मंच के रूप में कार्य करता है, जिसमें उत्पादन कार्य में सहयोग को बढ़ावा देना, क्यूरेटेड ज्ञान सत्र, वितरण सौदे कराना, स्क्रिप्ट की सुविधा, बी2बी बैठकें और दुनिया भर के प्रमुख मनोरंजन व मीडिया कर्मियों के साथ नेटवर्किंग शामिल है। इस मंडप का आयोजन राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम (एनएफडीसी) उद्योग भागीदार के रूप में भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ (फिक्की) के सहयोग से करेगा। भारतीय फिल्म उद्योग को अन्य फिल्मी हस्तियों से जुड़ने और सहयोग प्रदान करने के लिए भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) के माध्यम से मार्चे डु कान में एक ‘भारत स्टॉल’ लगाया जाएगा।

राष्ट्रीय डिजाइन संस्थान, अहमदाबाद द्वारा डिजाइन भारत मंडप को इस वर्ष की थीम “क्रिएट इन इंडिया” को दर्शाने के लिए इसे ‘द सूत्रधार’ नाम दिया गया है। इस वर्ष कान फिल्म महोत्सव में भारत की उपस्थिति खास है जो इसके समृद्ध इतिहास और रचनात्मकता के परिदृश्य को अंतर्राष्ट्रीय मंच पर एक दिशा को दर्शाता है।

सुर्खियों में, पायल कपाड़िया की प्रसिद्ध कृति “ऑल वी इमेजिन एज़ लाइट” दर्शकों को लुभाने और प्रतिष्ठित पाल्मे डी’ओर के लिए प्रतिस्पर्धा करने को तैयार है। यह विशेष रूप से एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है क्योंकि तीन दशकों के बाद एक भारतीय फिल्म कान फिल्म महोत्सव के आधिकारिक चयन के प्रतियोगिता खंड में शामिल हुई है। यह सिनेमाई परिदृश्य ब्रिटिश-भारतीय फिल्म निर्माता संध्या सूरी की “संतोष” में मार्मिक कथा, डायरेक्टर्स फोर्टनाइट में अन सर्टेन रिगार्ड के साथ-साथ करण कंधारी की विचारोत्तेजक “सिस्टर मिडनाइट” और एल’एसिड में मैसम अली की सम्मोहक “इन रिट्रीट” से समृद्ध हुआ है।

भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) के छात्र की फिल्म “सनफ्लॉवर्स वेयर फर्स्ट वन्स टू नो” को ला सिनेफ प्रतिस्पर्धा खंड में चुना गया है। कन्नड़ में बनी यह लघु फिल्म दुनिया भर से आई प्रविष्टियों के बीच चुनी गई और अब अंतिम चरण में पहुंची 17 अन्य अंतर्राष्ट्रीय लघु फिल्मों के साथ प्रतिस्पर्धा करेगी।

इसके अलावा, इस महोत्सव में श्याम बेनेगल की ‘मंथन’, जो अमूल डेयरी सहकारी आंदोलन पर केंद्रित फिल्म है, को शास्त्रीय अनुभाग में प्रस्तुत किया जाएगा जो इस महोत्सव के भारतीय लाइनअप में ऐतिहासिक महत्व का स्पर्श जोड़ेगी। इस फिल्म के रीलों को मंत्रालय की एक इकाई एनएफडीसी-नेशनल फिल्म आर्काइव ऑफ इंडिया (एनएफएआई) के फिल्म वॉल्ट में कई दशकों तक संरक्षित किया गया था, और अब फिल्म हेरिटेज फाउंडेशन (एफएचएम) द्वारा सुरक्षित किया गया है।

राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता सिनेमैटोग्राफर संतोष सिवन को कान फिल्म महोत्सव में प्रतिष्ठित पियरे एंजनीक्स ट्रिब्यूट से सम्मानित किया जाएगा। वह कान प्रतिनिधियों के लिए एक मास्टरक्लास भी देंगे। इस गौरव से सम्मानित होने वाले सिनेमैटोग्राफर संतोष सिवन ऐसे पहले भारतीय बन जाएंगे।

भारत के विविध स्थानों और फिल्म प्रतिभा को प्रदर्शित करने में मदद के लिए गोवा, महाराष्ट्र, जम्मू एवं कश्मीर, कर्नाटक, झारखंड और दिल्ली सहित कई भारतीय राज्यों के भाग लेने की संभावना है।

भारत के सहयोग से फिल्म निर्माण के अवसरों की खोज पर “प्रचुर प्रोत्साहन और निर्बाध सुविधाएं- आओ, भारत में बनाएं” शीर्षक से 15 मई को दोपहर 12 बजे मुख्य मंच (रिवेरा) में एक सत्र आयोजित किया जा रहा है। पैनल चर्चा में फिल्म निर्माण, सह-निर्माण के अवसरों और शीर्ष स्तर की पोस्ट-प्रोडक्शन सुविधाओं के लिए भारत के विशाल प्रोत्साहनों पर प्रकाश डाला जाएगा। पैनल यह बताएगा कि फिल्म निर्माता इन पहलों का कैसे स्वागत कर रहे हैं, भारत में फिल्मांकन के लिए जमीनी स्तर पर वास्तविक अनुभव क्या हैं और कौन सी रोमांचक कहानियां साझा की जा रही हैं।

पूरे महोत्सव के दौरान आयोजित भारत मंडप में संवादात्मक सत्र में भारत में फिल्म निर्माण के लिए प्रोत्साहन, फिल्म समारोहों में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, फिल्मांकन स्थल के रूप में भारत, भारत और स्पेन, ब्रिटेन, और फ्रांस जैसे अन्य देशों के साथ द्विपक्षीय फिल्म सह-निर्माण जैसे विषयों शामिल होंगे। इन सत्रों का उद्देश्य सशक्त भारतीय फिल्म उद्योग और अंतर्राष्ट्रीय भागीदारों के साथ जुड़ने के इच्छुक फिल्म निर्माताओं के लिए चर्चा, नेटवर्किंग और सहयोग के अवसरों को सुविधाजनक बनाना है।




वाइस एडमिरल संजय भल्ला,ने भारतीय नौसेना के चीफ़ ऑफ पर्सनल का कार्यभार ग्रहण किया

वाइस एडमिरल संजय भल्ला, एवीएसएम, एनएम ने 10 मई, 2024 को भारतीय नौसेना के चीफ़ ऑफ पर्सनल का कार्यभार ग्रहण किया। उन्हें 01 जनवरी, 1989 को भारतीय नौसेना में नियुक्त किया गया था। 35 वर्षों के करियर में, उन्होंने जल और तट दोनों पर कई विशेषज्ञ, कर्मचारी और परिचालन नियुक्तियों में कार्य किया है।

संचार और इलेक्ट्रॉनिक युद्ध में अपनी विशेषज्ञता पूरा करने के बाद, उन्होंने कई सीमावर्ती युद्धपोतों पर एक विशेषज्ञ के रूप में कार्य किया। बाद में उन्हें समुद्र में चुनौतीपूर्ण, पूर्णकालिक और घटनापूर्ण कमान संभालने का सौभाग्य मिला, जिसमें आईएनएस निशंक, आईएनएस तारागिरी, आईएनएस ब्यास और फ्लैग ऑफिसर कमांडिंग ईस्टर्न फ्लीट (एफओसीईएफ) की प्रतिष्ठित नियुक्ति शामिल है। एफओसीईएफ के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान, वह प्रतिष्ठित राष्ट्रपति के बेड़े की समीक्षा (पीएफआर- 22) और भारतीय नौसेना के प्रमुख बहुराष्ट्रीय अभ्यास मिलन-22, जिसमें मित्र विदेशी देशों की अभूतपूर्व भागीदारी देखी गई थी के समुद्री चरण के लिए सामरिक कमान में अधिकारी थे ।

उन्होंने नौसेना मुख्यालय में सहायक कार्मिक प्रमुख (मानव संसाधन विकास) सहित महत्वपूर्ण स्टाफ नियुक्तियों पर कार्य किया है। नौसेना अकादमी में अधिकारियों के प्रशिक्षण का नेतृत्व किया और विदेशों में राजनयिक कार्यभार भी संभाला। सीओपी के रूप में कार्यभार संभालने से पहले, वह पश्चिमी नौसेना कमान के चीफ ऑफ स्टाफ थे और उन्होंने ऑपरेशन संकल्प जैसे ऑपरेशन और सिंधुदुर्ग में नेवी डे ऑपरेशन डेमो 2023 जैसे कार्यक्रमों का निरीक्षण किया था।

रॉयल कॉलेज ऑफ डिफेंस स्टडीज, लंदन, नेवल वॉर कॉलेज और डिफेंस सर्विसेज स्टाफ कॉलेज, वेलिंगटन; के पूर्व छात्र रहे, उनकी शैक्षिक उपलब्धियों में एम फिल (रक्षा और रणनीतिक अध्ययन), किंग्स कॉलेज, लंदन से अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा और रणनीतिक अध्ययन में स्नातकोत्तर, मद्रास विश्वविद्यालय से एम.एससी (रक्षा और रणनीतिक अध्ययन) और सीयूएसएटी से एम.एससी (दूरसंचार) शामिल है।

उनकी विशिष्ट सेवा के लिए उन्हें नौसेना स्टाफ के प्रमुख और फ्लैग ऑफिसर कमांडिंग-इन-चीफ द्वारा अति विशिष्ट सेवा पदक, नाव सेना पदक और प्रशस्ति से सम्मानित किया गया है।