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रानी दुर्गावती के साथ 700 क्षत्राणियों ने अपने बच्चों के साथ किया था अग्नि में प्रवेश

सल्तनत काल के इतिहास में भारत का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहाँ हमलावरों से अपने स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा केलिये भारतीय नारियों ने अग्नि में प्रवेश न किया हो। फिर कुछ ऐसे जौहर हैं जिनकी गाथा से आज भी रोंगटे खड़े होते हैं। ऐसा ही एक जौहर रायसेन के किले में 6 मई 1532 को हुआ जिसमें सात सौ से अधिक महिलाओं ने अपने छोटे बच्चों के साथ अग्नि में प्रवेश कर लिया था जिसकी लपटें मीलों दूर तक देखीं गईं।

यह जौहर महारानी दुर्गावती की अगुवाई में हुआ। ये महारानी दुर्गावती मेवाड़ के इतिहास प्रसिद्ध यौद्धा राणा संग्रामसिंह की बेटी थी। इतिहास की कुछ पुस्तकों में उनकी बहन भी लिखा है। वे चित्तौड़ के सिसोदिया वंश की बेटी थी। स्वाभिमान और स्वत्व रक्षा उनके रक्त की प्रत्येक बूँद में था। शस्त्र चलाना भी जानती थी। चित्तौड़ में उन्होंने वीराँगनाओं की टोली गठित की थी। उनका विवाह रायसेन के शासक शीलादित्य के साथ हुआ था। शीलादित्य ग्वालियर के राजा मानसिंह तोमर के भाई थे। शीलादित्य ने खानवा के युद्ध में राणा संग्रामसिंह के साथ बाबर का मुकाबला किया था। खानवा के युद्ध में भारतीय शासकों का भारी नुकसान हुआ था।

खानवा युद्ध के बाद बाबर ने कालिंजर पर धावा बोला और गुजरात के सुल्तानों ने मालवा और रायसेन पर। गुजरात के हमलावर रायसेन के किले को जीत तो न सके पर सैन्य शक्ति बहुत कमजोर हो गई थी। कमजोर शक्ति के बाद भी रायसेन में शीलादित्य की सत्ता बनी रही। तब रायसेन जीतने और लूटने के लिये गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह अपनी कुटिल योजना बनाई। वह धार आया। उसने नालछा में कैंप किया और अनेक भेंट रायसेन भेजी।

महाराजा शीलादित्य को मित्रता संदेश भेजकर धार आमंत्रित किया और धोखे से कैद कर लिया। उन दिनों रायसेन की सीमा उज्जैन और तक लगती थी। उज्जैन में शीलादित्य के भाई लक्ष्मण सिंह किलेदार थे। उन्हें यह समाचार मिला तो वे अपनी सेना लेकर रायसेन की रक्षा के लिये चल दिये। यह समाचार बहादुरशाह को मिला। वह बंदी शीलादित्य को साथ लेकर उज्जैन आया और बंदी शालादित्य को आगे करके उज्जैन पर धावा बोल दिया। यह घटना दिसम्बर 1531 की है। उज्जैन के रक्षकों ने शीलादित्य को बंदी देखा तो बिना संघर्ष के समर्पण कर दिया। उज्जैन में भारी लूट हुई और स्त्रियों का हरण भी।

उज्जैन पर अधिकार करने के बाद उसने यही तरकीब सारंगपुर, आष्टा आदि स्थानों पर अपनाई। फिर विदिशा आया। सभी स्थानों पर जमकर लूट हुई। मंदिर ध्वस्त किये और स्त्रियों का हरण किया। अंत में रायसेन आया। उसने रायसेन किले पर घेरा डाला। और बंदी शीलादित्य को भारी यातनाएँ देकर किला समर्पित करने का आदेश दिया। बहादुरशाह ने महारानी दुर्गावती को संदेश भेजा कि वे अपने पूरे रनिवास के साथ समर्पण कर दें। समर्पण की अंतिम बातचीत 4 मई 1532 को हुई।

यह प्रस्ताव लेकर बहादुरशाह ने अपने एक सिपहसालार मलिक शेर को भेजा। उसके प्रस्ताव को महारानी दुर्गावती एवं किले में मौजूद शीलादित्य के भाई लक्ष्मण सिंह ने इंकार कर दिया। बल्कि उसे बंदी बनाकर मौत के घाट उतार दिया। महारानी ने जौहर करने एवं लक्ष्मण सिंह ने साका करने का निर्णय लिया। 5 मई से जौहर तैयारी आरंभ हुई और 6 मई 1532 को सूर्योदय के साथ अग्नि की लपटें धधक उठीं। किले में जितनी स्त्रियाँ थीं सबने अपने छोटे छोटे बच्चों के साथ अग्नि में प्रवेश कर लिया। अग्नि की लपटें आसमान छूने लगीं। जौहर की यह अग्नि दिनभर प्रज्जवलित रही। स्वाभिमानी क्षत्राणियों और उनके सहयोगी सभी स्त्रियों ने समर्पण करने की बजाय बलिदान होने को प्राथमिकता दी। यह रायसेन के इतिहास में पहला जौहर हुआ। इसके बाद दो और जौहर का उल्लेख मिलता है।

अगले दिन 7 मई प्रातः लक्ष्मण सिंह की कमान में निर्णायक युद्ध हुआ और अपनी रक्षा सैन्य टुकड़ी सहित बलिदान हुये। अंत में दस मई को बहादुर शाह का रायसेन के किले पर आधिपत्य हो गया। इतिहास की कुछ पुस्तको शीलादित्य का नाम सलहदी और लक्ष्मण सिंह का नाम लक्ष्मण सेन लिखा है। कुछ ने यह भी लिखा है कि बहादुर शाह ने शीलादित्य को धोखे से बंदी बनाकर धर्मान्तरण करके नाम सलाहुद्दीन कर दिया था। पर बात सही नहीं लगती। यह बात सल्तनकाल के इतिहासकारों ने मन से जोड़ी होगी। चूँकि यदि शीलादित्य धर्मान्तरण कर लेते तो जौहर क्यों होता। साका क्यों होता। जो हो पर रायसेन के किले में इस जौहर का शिलालेख है। आज भी उस स्थल पर स्थानीय नागरिक जाकर शीश नवाते हैं।

(लेखक एतिहासिक विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं।) 



ऐंग्लो इंडियन समुदाय की दुनिया 

विकास कुमार झा
आजादी के बाद जब देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम हुई तो भारत में रह रहे एंग्लो-इंडियन समुदाय के अधिकारों की सुरक्षा के लिए संविधान के अनुच्छेद-79 के तहत इस समुदाय के दो लोगों को देश की लोकसभा में और एक-एक प्रतिनिधि को हरेक प्रान्त की विधानसभा में नामजद करने का प्रावधान किया गया था। इसी प्रावधान के तहत लम्बे समय तक बिहार विधानसभा के सदस्य रहे हेक्टर एंगस ब्राउन की आज 29वीं पुण्यतिथि है। राजकमल ब्लॉग में पढ़ें, दुनिया के एकमात्र एंग्लो इंडियन गाँव पर आधारित विकास कुमार झा के उपन्यास ‘मैकलुस्कीगंज’ का एक अंश, जिसमें उन्होंने हेक्टर एंगस ब्राउन के व्यक्तित्व के बारे में विस्तार से लिखा है।
शाम के साथ घर की याद ज्यादा आती है, उसे यहाँ आकर महसूस हो रहा है। ऐसा क्यों होता है भला? शाम में ही क्यों? साँझ और घर का क्या सम्बन्ध है? गहरे आकाश में सफ़ेद पक्षियों का आख़िरी झुंड उड़ा जा रहा है। वह अपलक पक्षियों के उस दल का उड़ना बरामदे पर खड़ा होकर निहारता रहा। पक्षियों के पंखों में कितनी विचित्र आतुरता है! जल्दी घर पहुँचने की, अपने गाँव पहुँचने की…! वह भी तो अपने गाँव पहुँच गया है। वह भला इस साँझ में क्यों आतुर या उदास हो? पापा-मम्मी से कल सुबह साढ़े नौ बजे की बस से राँची जाकर फ़ोन पर वह बात कर लेगा। फ़िलहाल तो ‘गंज’ की यह शाम उसे अपने में समेट रही है। गेट पर हल्की-सी आहट हुई है। धीरे-धीरे डग भरते हुए मि. मेंडेज़ अन्दर दाखिल हो रहे हैं। रॉबिन ने सीढ़ियाँ उतरकर आगे बढ़ते हुए कहा, ‘अंकल, यू आर टू लेट… कब से इन्तजार कर रहा हूँ…!’
मि. मेंडेज ने झेंपते हुए कहा, ‘दरअसल, हम लोग आराम पार्टी हैं रॉबिन! खाने के बाद थोड़ी आँख लग गई। अभी कुछ देर पहले जब आँख खुली, तो देखा, शाम काफ़ी चढ़ गई है। तुम इन्तजार कर रहे होगे। बस, सीधा चला आ रहा हूँ। तुम्हारी आंटी ने कहा भी कि चाय तो पीते जाइए लेकिन मैंने कहा— नहीं, पहले ही देर हो गई है मुझसे। रॉबिन वहाँ कब से मेरी राह देख रहा होगा।’ कहते हुए मि. मेंडेज बरामदे पर आ गए हैं। मि. मिलर ने कहा, ‘मि. मॅडेज, बैठिए, मैं आपको अच्छी चाय पिलवाता हूँ—जैक के हाथ की स्पेशल चाय…। वैसे भी काफ़ी देर हो चुकी है। मिलने-जुलने का प्रोग्राम कल-परसों… अब तो लगातार चलता ही रहेगा यह सब।’ फिर रॉबिन की तरफ सहमति पाने की मुद्रा में मि. मिलर ने कहा, ‘है न रॉबिन? धीरे-धीरे सबसे तो मिल ही लोगे।’ रॉबिन ने कहा, ‘हाँ, अंकल! कोई जल्दबाज़ी नहीं। वैसे अभी आप अच्छी चाय पिलवाने की बात कह रहे थे।’
मि. मिलर हँस पड़े, ‘हाँ, प्योर दार्जिलिंग टी।’ उन्होंने जैक को आवाज लगाई, ‘जैक! सुनना तो जरा…।’
जैक आ गया। बगैर कुछ बोले अपनी प्रश्नवाचक आँखों से मि. मिलर की तरफ एक विनम्र सेवक की तरह उसने देखा।
मि. मिलर ने कहा, ‘जैक, जरा दिल लगाकर कुछ चाय-पाय तो करो। दार्जलिंग लीफ़….।’ जैक ने अपनी ख़ास फ़रमाबरदारी मुद्रा में सिर हिलाया और चला गया।
मि. मेंडेज ने बातचीत की बागडोर अपने हाथों में लेते हुए कहा, ‘तब मि. मिलर और कोई नई ख़बर? लेटेस्ट न्यूज़ ?’
मि. मिलर ने स्थायी मन्द स्वर में कहा, ‘मि. ब्राउन की चिट्ठी आई है। गाँव में पानी की समस्या को ख़त्म कराने के लिए मि. ब्राउन ने एश्योरेंस दिया है। ‘गंज’ में कुछ किलोमीटर रोड़ भी वे बनवा देंगे। पहले भी अपने असेम्बली फंड से उन्होंने यहाँ थोड़ी दूर तक सड़क बनवाई ही थी।’
मि. मेंडेज ने मुँह बनाते हुए कहा, ‘लगता है, मि. ब्राउन को हजारीबाग से कुछ फुरसत मिली है।’
मि. मिलर ने कुर्सी पर पहलू बदलते हुए कहा, ‘यही बीमारी है हम लोगों में मि. मेंडेज। हम कभी सटिस्फायड ही नहीं हो पाते। हजारीबाग में भी तो कुछ एंग्लो-इंडियन परिवार रहते हैं। उनके लिए भी तो मि. ब्राउन की ज़िम्मेदारी बनती है कि सिर्फ़ एक यही… मैकलुस्कीगंज ही है उनके लिए…? फिर हजारीबाग में वे ख़ुद रहते भी तो हैं… वहाँ घर है उनका…।’
मि. मिलर की नाक की टुनगी जैसे कुछ और नुकीली हो गई है, ‘कुछ ही दिन पहले कोई बता रहा था कि पटना के डॉनबास्को स्कूल वाले मि. ब्राउन से जाकर मिले थे कि स्कूल के सामने की सड़क बेहद ख़राब है…। अपनी ही कम्यूनिटी के मि. रोजारियो द्वारा चलाये जा रहे इस स्कूल में जबकि पटना के एक-से-एक अफ़सर और बड़े लोगों के बच्चे पढ़ते हैं…। ‘सबसे सड़क ठीक करवाने के लिए रिक्वेस्ट किया पर कुछ नहीं हो सका आज तक…। कहाँ जाते… आपके पास आए हैं,’ डॉनबास्को स्कूल के लोगों की बात सुनकर मि. ब्राउन ने अपने फंड से वहाँ के लिए सड़क की मंजूरी तुरन्त करवा दी। अब एक आदमी से कहाँ तक उम्मीद करेंगे आप? मि. ब्राउन की भी एक सीमा है न! बिहार सरकार की जो हालत है…. उसमें मि. ब्राउन जो भी करा लेते हैं, वह कम नहीं।’ मि. मिलर के प्रवचन का असर मि. मेंडेज पर शायद धर्मवाक्य की तरह पड़ा, सो गहरी साँस लेकर वे बोले, ‘ठीक कह रहे हैं। इस माहौल में वे जो ही काम करा देते हैं, वही बहुत है।’
जैक चाय मेज पर रख गया है।
मि. मिलर ने कहा, ‘लीजिए मि. मेंडेज…लो रॉबिन…।’
रॉबिन ने चाय की प्याली उठाते हुए कहा, ‘अंकल, कौन हैं मि. ब्राउन?’ मि. मेंडेज ने चाय की पहली घूँट का स्वाद लेकर कहा, ‘राबिन, मि. ब्राउन इकलौते एम.एल.ए. हैं बिहार के हम एंग्लो-इंडियनों के। कभी आनेवाले किसी महीने में सम्भव हो तो हजारीबाग या पटना जाकर मिल लेना उनसे भी…। वैसे, छठे-छमासे ब्राउन साहब ‘गंज’ भी आते रहते हैं। बिहार क्या, पूरे देश में एंग्लो-इंडियन कम्यूनिटी की स्थिति के बारे में तुम्हें इनसे काफी जानकारी मिलेगी…।’
रॉबिन ने थोड़ी हैरानी से पूछा, ‘क्या बिहार में एंग्लो-इंडियंस का कोई सुरक्षित चुनाव क्षेत्र भी है?’
मि. मिलर ने मन्द मुस्कान के संग हस्तक्षेप करते हुए कहा, ‘अरे नहीं, ऐसा नहीं है। बिहार असेम्बली में एंग्लो-इंडियन मि. हेक्टर एंगस ब्राउन ही एक ऐसे विधायक है, जिनका कोई चुनाव क्षेत्र नहीं है। जो बिना चुनाव लड़े एम.एल.ए. बनते हैं।’ मि. मेंडेज ने बिहँसते हुए कहा, ‘पटना में, बिहार असेम्बली में उनको देख बड़ा तमाशा लगता रहता है, रॉबिन। कुछेक बार जब सेशन के दौरान में पटना गया, तो मैंने भी देखा। अपनी बुर्राक गोराई और लम्बी-चौड़ी क़द-काठी के कारण लगभग बहत्तर-तिहत्तर वर्षीय मि. हेक्टर एंगस ब्राउन ख़ालिस अंग्रेज़ लगते हैं। उन्हें देखकर जो लोग उनके बारे में ठीक से नहीं जानते, वे हैरानी में पड़ जाते हैं।
बिहार के ठेठ देहाती इलाक़ों से अपने काम के चक्कर में आम लोग अपने क्षेत्र के विधायकों के पीछे-पीछे भटकते हुए बिहार की राजधानी पटना में क़ायम बिहार असेम्बली की लॉबी में सेशन के दौरान पहुँचते हैं और अचानक जब देहात के वे लोग ब्राउन साहब को विधानसभा की बैठक में शरीक होने के लिए जाते हुए देखते हैं, तो एकदम से ठक्क रह जाते हैं। सहसा उन लोगों को अपनी आँखों पर यकीन नहीं होता। दूर-दराज के गाँवों से वहाँ आए वे निपट देहाती लोग उधेड़बुन में उलझ जाते हैं कि आख़िर अंग्रेज-सा दिखनेवाला यह आदमी बिहार के किस चुनाव क्षेत्र से जीत कर आता है? उन लोगों को लगता है, जैसे ऐलिस के आश्चर्यलोक से ही यह अंग्रेजों सरीखे हुलियेवाला बूढ़ा एम.एल.ए. सीधा यहाँ चला आ रहा है। उन लोगों का कोई अनुमान अन्त तक काम नहीं करता है। यहाँ तक कि बहुत से दूसरे एम.एल.ए. भी, जो नये-नये जीत कर आए होते हैं, मि. ब्राउन को असेम्बली में देखकर शुरू में चौंक पड़ते हैं। मि. ब्राउन दरअसल कई टर्म से एम.एल.ए. हैं।’
मि. मिलर ने कहा, ‘रॉबिन, मि. ब्राउन ज्यादातर अंग्रेजी में ही बात कर पाते हैं। हिन्दी उनकी बहुत अच्छी नहीं। इसलिए बिहार के मैक्सिमम एम.एल.ए. अपनी कमजोर अंग्रेजी के कारण मि. ब्राउन से बातचीत करने का सिरदर्द मोल लेना ही नहीं चाहते हैं।’ मि. मिलर की यह बात सुनकर रॉबिन को हँसी आ गई, ‘अच्छा… ऐसा…!’
मि. मेंडेज ने गम्भीर स्वर में कहा, ‘मि. ब्राउन सन् 1969 से ही बिहार में लगातार एम.एल.ए. होते आ रहे हैं। इस लिहाज से रॉबिन, उनका यह चौथा पाँचवाँ टर्म है। पर इन बीते वर्षों में उनकी शैली में कोई चेंज नहीं आया है। खामोशी से वे असेम्बली जाते हैं। कुछ देर चुपचाप अपनी सीट पर बैठते हैं और चले आते हैं।’
‘पर अंकल, ये बिहार असेम्बली में भला चुनकर…?’ रॉबिन ने जैसे वाक्य पूरा नहीं करना चाहा, वैसे ही।
मि. मॅडेज ने मुस्कुराकर मि. मिलर की तरफ देखा, ‘कुछ समझ रहे हैं..? अंग्रेजी डिक्शनरी में एक वर्ड है ‘नैकर— के…एन…ए…सी…के….इ…आर…। इसका माने होता है— बूढ़े घोड़ों को मार डालने… किल करने के लिए खरीदनेवाला आदमी…। लगता है, रॉबिन सवाल पूछ-पूछकर हम दोनों बूढ़ों को मार डालेगा…।’
मि. मिलर ने तब बिहँसकर शब्दों को जैसे दाँत से कूचते हुए कहा, ‘अब इन लद्दू घोड़ों का क्या? रेस से ख़ारिज हम बूढ़े घोड़े अब किस यूज के हैं? हम लोग तो अब इस धरती पर ऊपरवाले का आटा ही गीला कर रहे हैं न…!’ बात बहकती देख रॉबिन ने हँसते हुए कहा, ‘अंकल, ओल्ड इज गोल्ड…।’
बस, मि. मेंडेज़ धीरे-धीरे विस्तारपूर्वक शुरू हो गए, ‘बिहार असेम्बली में 324 एम.एल.ए. खुले चुनाव में जबरदस्त जोर-आजमाइश का इस्तेमाल कर आ पाते हैं। इसलिए, बहुत लोगों को आज तक यही भ्रम है कि बिहार असेम्बली में सिर्फ 324 सीट ही हैं। पर रॉबिन, एक सीट और है, जिस पर बगैर चुनाव लड़े एंग्लो-इंडियन कम्यूनिटी का एक प्रतिनिधि नामजद किया जाता है यानी 325वीं सीट। इसके लिए ‘एंग्लो-इंडियन एसोसिएशन’ नाम प्रपोज़ करता है।
बिहार असेम्बली में यही तीन सौ पच्चीसवें एम.एल.ए. हैं अपने हेक्टर एंगस ब्राउन। दरअसल, आज़ादी के बाद ‘ऑल इंडिया एंग्लो-इंडियन एसोसिएशन’ के प्रेजिडेंट मि. फ्रैंक एंथोनी की पहल पर देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने भारत में रह रही एंग्लो-इंडियन कम्यूनिटी के अधिकारों की सुरक्षा के लिए संविधान के आर्टिकिल-79 के तहत इस कम्यूनिटी के दो लोगों को देश की लोकसभा में और एक-एक प्रतिनिधि को हरेक प्रान्त की असेम्बली में नामजद करने का प्रविजन कराया था, जो आज तक चल रहा है। रॉबिन, इसी प्रविज़न के तहत मि. ब्राउन लगातार बिहार असेम्बली के सदस्य के रूप में नामजद किये जाते रहे हैं। आजादी के बाद से अब तक बिहार असेम्बली में मि. ब्राउन तीसरे एंग्लो-इंडियन एम.एल.ए. हैं।’
देर से सुन रहे मि. मिलर ने कहा, ‘बिहार में सबसे पहले एंग्लो-इंडियन एम.एल.ए. के रूप में नॉमिनेट किये गए थे मि. माइकेल मॉरिस, जो कभी ब्रिटिश शासन में सीनियर पुलिस अफ़सर हुआ करते थे। क्यों, है न मि. मेंडेज़?’
मि. मिलर ने तनिक आँखें सिकोड़ते हुए मि. मेंडेज़ से अपनी बात की पुष्टि चाही, तो मि. मॅडेज़ ने सिर हिलाते हुए कहा, ‘बिलकुल। आपने ठीक कहा, मि. मॉरिस ही बिहार असेम्बली के पहले एंग्लो-इंडियन एम.एल.ए. नामजद हुए थे। और आपको मालूम? नामजद होने के पहले वे हजारीबाग म्यूनिसिपैलिटी के चेयरमैन थे। उनका बड़ा बेटा एरिक भी तो हजारीबाग़ का एस.पी. था। मि. मॉरिस की इकलौती बेटी मिस मेरी मॉरिस अभी भी हज़ारीबाग़ में रहती हैं। मेरी ने हेयर ड्रेसिंग की ट्रेनिंग लन्दन में ली थी और बहुत दिनों तक जयपुर महारानी की हेयर ड्रेसर रही थीं। पर देश-दुनिया घूमने के बाद वह हजारीबाग़ चली आईं। अस्सी साल पार कर चुकीं मेरी मॉरिस के बारे में आज हजारीबाग में कौन जानता है कि किस ग्रेट हस्ती की बेटी हैं यह। खैर, यही दुनिया है… पर मि. मिलर, एक गुजारिश करना चाहूँगा आपसे, अगर आप परमिशन दें तो?’
मि. मिलर ने तनिक चौंकते हुए कहा, ‘परमिशन की क्या जरूरत है? आप कहिए।’ मि. मेंडेज ने मुस्कुराकर कहा, ‘आपकी ऑर्थोडॉक्स दार्जलिंग-टी वाकई बहुत अच्छी थी। अगर एक बार वही फ़ाइनल-टी हो जाए, तो मजा आ जाए।’
मि. मिलर अपनी स्थायी मन्द मुद्रा के हिसाब से ही ठठाकर हँस पड़े, ‘ओह, मि. मेंडेज, मैं तो डर ही गया था कि ऐसी कौन-सी बात कहने की इजाजत माँग रहे हैं आप।’ फिर मि. मिलर ने जैक को आवाज लगाई।
जैक आया तो मि. मिलर ने कहा, ‘जैक मि. मेंडेज तुम्हारी चाय के फैन हैं। एक बार और हो जाए तो..।’
जैक हल्के से मुसककर रसोईघर में चला गया, ‘हाँ, क्यों नहीं। अभी तुरन्त।’
जैक गया तो रॉबिन ने मि. मेंडेज को कुरेदते हुए कहा, ‘हाँ, तो अंकल…।
मि. मेंडेज भभाकर हँस पड़े, बोले, ‘मान गया कि खुरच-खुरचकर बातों को निकालने में तुम्हारा जवाब नहीं। मि. मिलर ने ठीक ही कहा, बिहार में सबसे पहले एंग्लो-इंडियन संग एल.ए. मि. माइकेल मॉरिस हुए थे। पर मि. मॉरिस जब गुजर गए, तो मिसेज ओसिया चामक एक महिला, जो कभी वन विभाग में अधिकारी रह चुकी थीं, को एंग्लो-इंडियन नाम से बिहार में एम.एल.ए. बनाया गया। एक दिन जब मिसेज ओसिया भी इस दुनिया से कूच कर गई, तो नये सिरे से एंग्लो-इंडियन नस्ल के एक प्रॉपर आदमी की तलाश शुरू हुई। उसी समय ब्राउन महाशय को ढूँढ़ निकाला गया और बिहार असेम्बली में एम.एल.ए. के पद पर नोमिनेट कर दिया गया।’
मि. मिलर ने चश्मा उतारकर उसे रूमाल से पोंछते हुए कहा, ‘रॉबिन, ब्रिटिश राज में मि. ब्राउन सेट्लमेंट अफसर हुआ करते थे। उनकी नौकरी का ज्यादातर समय बिहार के मुजफ्फरपुर, बक्सर और हज़ारीबाग़ में बीता था। नौकरी से रिटायरमेंट के कुछ पहले मि. ब्राउन बिहार के सहरसा जिले में एक्टिंग डी.एम…. जिलाधिकारी भी बनाये गए थे।’ मि. मॅडेज ने तभी हल्की हुंकार के साथ कहा, ‘कुछ समय के लिए तो वे डी.एम. भी हुए ही थे। और हाँ, एक बात और बता दूँ कि मि. ब्राउन के फ़ादर मि. के.सी. ब्राउन कई वर्षों तक पटना हाईकोर्ट के रजिस्ट्रार थे।’
जैक ने चाय की ट्रे कुर्सियों के बीच पड़ी पुरानी-सी मेज पर लाकर फिर रख दी।
मि. मेंडेज ने आभार भरे स्वर में कहा, ‘थैंक्यू जैक! कुछ ज़्यादा परेशान कर दिया न तुम्हें।’  जैक ने रसोई घर की तरफ़ जाते हुए किंचित् हँसी के संग कहा, ‘हरगिज नहीं…। क्या कहूँ, यह सब कितना अच्छा लग रहा है। आप सबके साथ रॉबिन बाबू भी हैं। ऐसे दिन क्वींस कॉटेज में बराबर बने रहें।’
चाय का प्याला तीनों ने बारी-बारी से उठा लिया। रॉबिन ने चाय की पहली घूँट भरकर सरल भाव से पूछा, ‘मि. ब्राउन के बेटे-बेटियाँ क्या करते हैं?’ मि. मेंडेज तनिक मायूस स्वर में बोले, ‘परिवार कहाँ? मि. ब्राउन तो अनमैरेड हैं। हजारीबाग़ के अपने पुश्तैनी मकान में वे एक नौकर के साथ निपट अकेला जीवन गुजारते हैं। पटना में भी उन्हें बतौर एम.एल.ए, प्रेजिडेंट चैम्बर में एक छोटा-सा फ़्लैट मिला हुआ है, जिसमें वे सेशन के दौरान आकर टिकते हैं। बड़े मस्तमौला आदमी हैं वे। हालाँकि, लोगों से वह कम ही मिलते-जुलते हैं। या तो किताब पढ़ते रहेंगे या म्यूज़िक सुनते रहेंगे, बस, यही उनका जीवन है। रॉबिन, एक बार की रोचक घटना तुम्हें बताता हूँ।
किसी काम से मैं पटना गया हुआ था। मि. ब्राउन के फ़्लैट पर गया, तो पाया कि बाहर दरवाजे पर बड़ा-सा ताला लटक रहा है। मैंने सोचा कि निकले होंगे कहीं। एक घंटे बाद फिर गया। पर ताला ज्यों-का-त्यों लटक रहा था। ठीक बगल के फ़्लैटवाले से मैं पूछने हो जा रहा था कि कहीं मि. ब्राउन हजारीबाग तो नहीं चले गए, तभी मि. ब्राउन का पुराना नौकर अलबर्ट पीटर मुझे आता दिख गया। पूछने पर उसने जो कुछ भी बताया, सुनकर तो हँसते-हँसते मेरा बुरा हाल हो गया था। दरअसल रॉबिन, उनके नौकर अलबर्ट पाकर में बताया कि वह जब सब्जी वगैरह खरीदने बाजार जाता है तो अन्दर फ़्लैट में ब्राउन साहब के होने पर भी बाहर गेट पर ताला मार जाता है, क्योंकि यही उनका आदेश है। मैंने बताया न तुम्हें कि वह लोगों से ज्यादा मिलना-जुलना पसन्द नहीं करते।’
रॉबिन को हँसी आ गई. ‘मि. ब्राउन तो अद्भुत इनसान हैं।’
मि. मिलर ने आँखें चौड़ी करते हुए कहा, ‘अद्भुत? रॉबिन, ऐसे इनसान विरले ही मिलेंगे। दुनियादारी से कोसों दूर। एक तो परिवार में बेचारे का कोई रहा नहीं। वैसे भी पूरे हजारीबाग में अब सिर्फ चार एंग्लो-इंडियन परिवार ही रह गए हैं। परिवार के नाम पर कह लो तो मि. ब्राउन की एक बहन थी और इस बहन की भी बस, एक लड़की थी। उसका नाम था—प्रिया। मि. ब्राउन की बहन तो बहुत पहले ही गुजर गई थीं। इस संसार में अपना कहने को बस बहन की वह बेटी प्रिया रह गई थी। बेहद प्यार करते थे प्रिया को वे। प्रिया ने एक फ़िल्म एक्टर इंदर ठाकुर से शादी की थी। एक बच्चा भी हुआ था उसे इंदर से। पर कनिष्क हवाई दुर्घटना में वे सभी दुनिया से चल बसे। इंदर, प्रिया और उसका बच्चा तीनों ‘एयर क्रैश’ में ख़त्म हो गए। मि. ब्राउन उस दिन से बुरी तरह टूट गए। प्रिया की मौत ने उन्हें बुढ़ापे में तोड़कर रख दिया।’
मि. मिलर का स्वर कहते-कहते डूब-सा गया। एक हल्की-सी उदासी पल भर के लिए तिर गई। रॉबिन ने उसाँस लेकर कहा, ‘ओह, दुनिया में कोई पूरी तरह सुखी नहीं। एक न एक दुःख सबके जीवन में नत्थी है।’
मि. मेंडेज़ ने चाय ख़त्म कर प्याली मेज पर रखते हुए कहा, ‘हाँ, ऐसा है रॉबिन! पर आदमी हरदम दुःखों में नहीं रह सकता। रहेगा, तो जी नहीं पाएगा। जीने के लिए इनसान कोई-न-कोई प्यारी शगल या बहाना तलाश ही लेता है। जैसे मि. ब्राउन की ही बात कर रहे हैं न हम लोग। सही है कि प्रिया की मौत का गहरा सदमा उन्हें लगा, पर कुछ ही दिनों बाद उन्होंने अपने को इससे उबारा और म्यूजिक सुनने… किताबों को पढ़ने के अलावा बागबानी के शौक़ में जुट गए। ब्राउन महाशय को म्यूजिक से तो बेहद लगाव है ही, अमरीकी उपन्यासों को भी पढ़ने का नशा है। यही नहीं, हजारीबाग़ में अपनी एक एकड़ जमीन में फल उपजाने के शौक़ में भी वे जुनून की हद तक जुटे रहते हैं।’
साभार- https://rajkamalprakashan.com/blog/



मुख्यमंत्री श्री विष्णुदेव साय ने ग्राम बगिया में सपरिवार किया मतदान

रायपुर। मुख्यमंत्री श्री विष्णुदेव साय ने आज सवेरे जशपुर जिले में अपने गृहग्राम बगिया के मतदान केंद्र क्रमांक 49 में अपनी माताजी, धर्मपत्नी श्रीमती कौशल्या साय और अन्य परिवारजनों के साथ मतदान किया। मुख्यमंत्री श्री विष्णुदेव साय दोपहर 11.45 बजे अपनी धर्मपत्नी श्रीमती कौशल्या साय और अपने परिवारजनों के साथ मतदान क्रमांक 49 पहुंचे। उन्होंने मतदाताओं के साथ कतार में लगकर अपनी बारी का इंतजार किया और बारी आने पर मतदान किया। उन्होंने मतदान केंद्र के बाहर परिवारजनों के साथ सेल्फी भी ली। मुख्यमंत्री ने लोकतंत्र के इस महापर्व पर आम जनता से अधिक से अधिक संख्या में मतदान करने की अपील भी की।



विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर डॉ. सुभाष चंद्रा का संदेश

वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे’ के मौके पर पूर्व राज्यसभा सांसद डॉ. सुभाष चंद्रा ने देशवासियों को संदेश दिया और बताया कि कैसे जी ग्रुप ने भारत में पहले निजी सेटेलाइट टीवी इंडस्ट्री की नींव रखकर भारत के टेलीविज़न मनोरंजन व मीडिया के क्षेत्र में क्रांति कर दी थी।

3 मई को हर साल विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। यह दिन लोगों को मीडिया के महत्व से रूबरू करवाने और सच सामने लाने के लिए कई चुनौतियों का सामना कर रहे पत्रकारों को सम्मानित करने के मकसद से मनाया जाता है। ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस’ के मौके पर पूर्व राज्यसभा सांसद डॉ. सुभाष चंद्रा ने ‘जी न्यूज’ के ‘डीएनए’ कार्यक्रम से देशवासियों को संदेश दिया और बताया कि कैसे जी ग्रुप ने ही भारत में सेटेलाइट टीवी इंडस्ट्री की नींव रखी थी। उन्होंने बताया कि कैसे देश में दूरदर्शन के बाद जी ग्रुप ने ही मनोरंजन और खबरें देखने के अधिकार को लोकतांत्रिक रूप दिया था।

डॉ. सुभाष चंद्रा ने कहा कि ये दुर्भाग्य है कि प्रेस फ्रीडम में विश्व में भारत की रैकिंग 180 देशों में 159 नंबर पर है। जब इस बारें में मैं सोच रहा था, तो मेरे दिमाग में पूरी एक फिल्म रीप्ले कर गई। इस देश में मैं निजी सेटेलाइट टेलिविजन के फाउंडर के रूप में भी जाना जाता हूं। 1991 में दूरदर्शन के अलावा कोई दूसरा टेलीविजन चैनल नहीं था और तब मैंने इसकी शुरुआत की थी और आज ये एक इंडस्ट्री बन चुकी है। आज भारत में शायद पांच सौ से ज्यादा निजी टेलीविजन चैनल हैं। लगभग आठ लाख से ज्यादा लोग सीधे तौर पर इस इंडस्ट्री से रोजगार के तौर पर जुड़े हुए हैं। अप्रत्यक्ष रूप से यह संख्या लगभग सत्रह से बीस लाख के करीब हो सकती है, जो लाभार्थी हुए हैं।

इस दौरान डॉ. चंद्रा ने एक पुरानी घटना का जिक्र करते हुए कहा कि मुझे 1991 के दिवाली के समय का वो दिन याद आया, जब उस समय के भारत सरकार के सूचना-प्रसारण मंत्रालय के तत्कलीन सचिव स्वर्गीय श्री महेश प्रसाद जी से उनके दफ्तर में मिलने गया था और जब उनसे कहा कि मैं एक निजी सेटेलाइट टीवी चैनल शुरू कर रहा हूं, लिहाजा कानून के न होते हुए मैं आपको समर्पित करता हूं। जिस तरह से आप दूरदर्शन को निर्देशित करते हैं, उसी तरह से आप इस चैनल को भी निर्देशित कर सकते हैं। इस पर वह नाराज हो गए और नाराजगी भरे लहजे में उन्होंने कहा कि डॉ. चंद्रा मैं आपको यह नहीं करने दूंगा और यदि आप ऐसा करेंगे तो मैं आपको जेल में डाल दूंगा। उन्होंने बताया कि यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया और मैं उनसे यह कहकर निकल आया, मैं तो ऐसा करूंगा, आपको जो करना हैं आप करिए और मुझे जो करना है, वो मैं करूंगा।

डॉ. चंद्रा ने आगे कहा कि आज करीब तेतीस वर्ष बाद भी ऐसा ही कुछ महसूस हो रहा है, पर इसका जिक्र मैं फिर कभी करूंगा, लेकिन आज इतना ही कहूंगा कि जी नेटवर्क को देश-विदेश भारतीय भाषाओं में और दस विदेशी भाषाओं में मिलाकर हर रोज करीब 150 से 155 करोड़ लोग देखते हैं।

इस दौरान डॉ. चंद्रा ने दर्शकों से अपील की कि आप सबका प्यार जी नेटवर्क के साथ, जी न्यूज के साथ बना रहे। इसके लिए मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि हम भरसक प्रयास करेंगे कि सीधी, सच्ची न्यूज आपके घर तक, आपके मोबाइल्स में हर जगह पहुंचती रहे।

पूर्व राज्यसभा सांसद डॉ. सुभाष चंद्रा का ये पूरा संदेश आप यहां सुन सकते हैं-

पूर्व राज्यसभा सांसद डॉ. सुभाष चंद्रा का ये पूरा संदेश आप यहां सुन सकते हैं-




हिंदुओं और राष्ट्र प्रेमियों, जागो, उठो, मोदी के लिये नहीं, राष्ट्र रक्षा के लिए १०० % मतदान करो

२०२४ का लोकसभा चुनाव हमारी सभ्यता और संस्कृति को बचाने का चुनाव है। ये अन्यान्य प्रकार के जिहादों से समाज को सुरक्षित रखते हुए एक सक्षम, समर्थ और शक्तिशाली भारत के उद्भव का चुनाव है जिसे विश्व में अग्रणी बनना है। आप का मत बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है ऐसी परिस्थिति में। मतदान न करने का पाप अपने सिर पर न लें। उस पाप की भरपाई नहीं कर पायेगें अपने आगे के सौ जन्मों में भी क्यों कि आप का अस्तित्व ही न बचेगा। जो आत्मसम्मान खो कर भी जी सकते हैं वो दिन रात लतियाये और दुरदुराये जायेगें जिहादी जमातों द्वारा जैसे पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान , और बंगलादेश में हो रहा है। यहां भारत के अंदर भी तो कर्नाटक से ले कर बंगाल तक यही हो रहा है। ये भी ध्यान रहे भारत माता की गोद में ही हिंदु सुरक्षित हैं। जिस दिन ये गोद नहीं रही हम भी मारे मारे फिरेगें विश्व में रोमा बंजारों की तरह।

विदेश मंत्री डा. जय शंकर ने क्या कहा- विश्व एक बहुत ही गंभीर दौर से गुजर रहा है। भारत को कमजोर करने की कोशिशें निरंतर चल रही हैं। आने वाले दिनों में ये कोशिशें और षड्यंत्र और तेज होगें। देश को एक बहुत ही समर्थ नेतृत्व व शक्तिशाली सरकार की आवश्यकता है जो इन भारत विरोधी शक्तियों से प्रभावशाली ढंग से लड़ सके। पिछले १० वर्षों में मोदी जी के नेतृत्व में भारत ने विश्व में एक ऐसा स्थान बना लिया है कि वो अग्रणी राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा दिखाई देता है। वह विश्व कि पांचवी अर्थ व्यवस्था से चौथी बनने के कगार पर है।

२०% की एक जिहादी, खालिस्तानी, और वामी देशतोड़कों की आबादी है जो तय कर के बैठी है कि हिंदु भारत को नीचा दिखाना है। कुछ अन्य भी स्वार्थी तत्व हैं जो भारत को तहस नहस करना चाहते हैं सत्ता में अाने के लिये। ये हिंदु परिवारों को तोड़ देना चाहते हैं और पूरे समाज को अमीर-गरीब, जात-पांत, भाषा, क्षेत्र, वर्ग, आदि के नाम पर बांट कर सत्तानशीन होना चाहते हैं इनके षडयंत्र अब ढके छुपे भी नहीं है। देश के बाहरी शत्रु इन तत्वों को अब खुला समर्थन दे रहे हैं।

आप सब जानते हैं और साफ देख सकते हैं कि पिछले दस वर्षों में देश कितनी तीव्र गति से आगे बढ़ा है। मैने अपने जीवन काल में विकास की ऐसी रफ्तार नहीं देखी। पिछले दस वर्षों में हमने किसानों की आत्महत्या या भूखमरी की खबरें नहीं पढ़ीं । सड़कों पर भिखारी नहीं मिलते। घर के काम के लिये किसी बढ़ई, कारीगर, प्लंबर, पेंटर, इलेक्ट्रिशियन। आदि को खोजने जाइये तो कोई नहीं मिलता। सब्ज़ी भाजी और फलों के रंग बिरंगी ठेले भरे पड़े हैं। सब संपन्न हो रहे हैं। गरीबी घटी है, मिटने की कगार पर है। भ्रष्टाचार कम होता जा रहा है। सरकारी योजनायों का लाभ आम जन तक पहुंच रहा है।

दिल्ली में हिंदू सरकार बनानी है। प्रत्याशी से वैसे भी हमारा काम कम ही पड़ता है। उसे देखने से बस आँख को सुकून भर ही मिलता है। वह प्रत्याशी जीत कर देश के नेतृत्व के साथ खड़ा रहे यही आवश्यक है। आप की बात ऊपर तक पहुंचाता रहे। देश की रीतियों और नीतियों को देखना है। उन्हीं के कारण देश का सम्मान बढ़ा है और सही अर्थों में विकास की बहार दिखने लगी है। चाहे वो मुंबई हो या बनारस, आमूल चूल परिवर्तन हो रहे हैं। इसीलिये पूरे उत्साह के साथ बाहर निकलिये। EVM पर कमल या राजग के दलों के चुनाव चिन्ह देखिये और बटन दबा दीजिये।

बहुत सिद्धांतवादी मत बनिये। यदि प्रभु राम और कृष्ण बहुत सिद्धांतवादी बनते तो अधर्म पर धर्म की जीत नहीं होती, न रामायण में न महाभारत में। व्यक्तिगत नहीं वृहत्तर सामाजिक और राष्ट्रीय स्वार्थ के लिये मतदान किजिये। हरदम मुझे ये नहीं मिला, वो नहीं मिला करने में कोई सुख नहीं है। प्रत्याशी की मीन मेख निकालने निकलेगें तो सब में कमी निकलेगी। वो हमारे समाज से ही आते हैं। उनका दूध का धुला होना संभव नहीं है। वो किन नीतियों के साथ खड़े होंगे आगामी लोकसभा में वह महत्वपूर्ण है।

सोचने की बात ये भी है कि क्या कट्टर मुसलमान और कुटिल ईसाईयों का एक बड़ा वर्ग प्रत्याशी देख कर या विकास के नाम पर मतदान कर रहा है? नहीं न। वो मोदी को अपदस्थ करने के लिये मतदान केंद्र पर लंबी कतार में खड़ा दिखता है। वो माफिया सरगनाओं और भ्रष्टाचारी मक्कारों तक को बेहिचक वोट देता है।

उसे बस यही लगता है कि मोदी राज में हिंदुओं का वर्चस्व है और उसे अभ्यास नहीं है हिंदु राज में रहने का। यथार्थ है कि मोदी ने उनका कोई बुरा नहीं किया। फिर भी वो मोदी विरोध में खड़े हैं, अपने मुल्ला मौलवियों और पादरियों की पुकार पर।

हिंदुओं में तो ऐसी कोई संस्था नहीं है जो ऐसी पुकार लगाये। इसीलिये हिंदुओं को स्वप्रेरणा से ऐसा करना होगा। जब ईसाई और मुसलमानों का एक बड़ा तबका १००% मतदान कर सकता है केवल मोदी को हटाने के लिये तो हम हिंदू और राष्ट्रवादी कौन से गये गुजरे हैं कि १००% मतदान नहीं कर सकते मोदी को जिताने के लिये? तो टूट पड़िये मतदान केंद्रों पर, धर्म और अधर्म की लड़ाई के इस कुरुक्षेत्र में धर्म की पताका फहरानी है।

ईमान (इस्लाम) के लिये हिंदुस्तान को भी बर्बाद कर देगें ये। ऐसे ही मुल्ला मौलवी हिंदु नेताओं का सिर तन से जुदा करने का षड़यंत्र रच रहे हैं। ये ज़ोर शोर से हिम्मत कर के बोल रहे हैं। इनका नंगा नाच तब दिखेगा जिस दिन मोदी और योगी जैसे नहीं रहेगें। ये स्वयं ऐसा कहते चलते हैं।

फिर हम देख रहे हैं कर्नाटक, बंगाल, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु में ऐसा होता हुआ। गरीब हिंदुओं को ये मुस्टंडे भैंसानुमा मौलाना डरा कर रखते रहे हैं अपने डील डौल से। अब जा कर उनका आत्म सम्मान लौटने लगा है, ये दुखी और विचलित हैं।

जहाँ भी मूलत: इनके वोटों से चुनी हुई सरकारें हैं वहां ये किसी कानून को नहीं मानते। वो सरकारें इनके अतिवादियों को सुरक्षा प्रदान करती हैं। मुख्यमंत्री स्तर के जातिवादी नेता भी इनके सामने नतमस्तक रहते हैं। चाहे वो मुलायम या अखिलेश हों, लालू या तेजस्वी हों, ममता बनर्जी हों, या सोनिया-राहुल हों, सब नतमस्तक रहते रहे हैं अतीक, मुख्तार, शहाबुद्दीन, बुखारी, और शाहजहां जैसों के आगे। सारा यदुवंशी, बंगाली, और नेहरु खानदानी आत्मसम्मान इस जिहादी माफिया के आगे दंडवत् लेट जाता है।

इनका विकास से कुछ नहीं लेना देना। ये सपना देखते हैं गजवा-ए-हिंद का। एक फ़तवे पर ये टिड्डी दलों की तरह मतदान की पंक्ति में जा खड़े होते हैं। ये प्रत्याशियों के जीवन चरित्र नहीं पढ़ते मतदान करने से पहले। इनके मतदान का बस एक ही आधार है, मोदी और योगी को हराना और हिंदुओं का मान-मर्दन। हिंदु इनके इलाकों से सिर उठा कर न निकल पाये यही चाहते हैं ये। इन्हें यही दुख सालता है कि मोदी और योगी राज में हिंदु सिर उठा कर घूमने लगा है।

तो जात पाँत भूल जाइये, और मंहगाई-बेरोज़गारी के झूठे रोने धोने के नाटक में मत फँसिये। राम घर घर और कण कण में हैं, राम मंदिर तो व्यापार है ये क़िस्सा भी सुनाया जायेगा आप को लेकिन ये कोई नहीं बतायेगा कि ख़ुदा की इबादत के लिये बाबरी मस्जिद ही क्यों चाहिये।

ध्यान रखिये जिद दिन आप अपने आराध्य का सम्मान करना और ऊनके लिये लड़ना छोड़ देगें, ये जिहादी आप के सीने पर मूंग दलेगें; आप की माता, बहन, और बेटियों का सम्मान और उनका शील क्षत् विक्षत् होगा। ये हो चुका है, और हो रहा है। जब पप्पू, अखिलेश, तेजस्वी राज में लव जिहादियों के झूंड निकलेगें आप सहन नहीं कर पायेगें और ना ही उनको रोक पाएँगें।

मतदान कीजिये जिससे कि आप अपने आराध्य की निर्बाध पूजा कर सकें, अपना अत्म सम्मान बचा सकें। आत्म सम्मान के आगे सब कुछ नगण्य है।

हिंदुओं और राष्ट्र प्रेमियों, निकलो बाहर मतदान के लिये। ये धर्म और राष्ट्र रक्षा का युद्ध है। पुरानी गलती नहीं दुहरानी है। घूस खा कर अपने क़िले के दरवाज़ों को नहीं खोलना है।

इससे संबंधित वीडियो इस लिंक पर उपलब्ध हैं https://khullamkhulla.wordpress.com/



जन्म कुंडली में मांगलिक दोष

तहक्षी

मांगलिक दोष क्या है? मांगलिक दोष तथा विवाह का संबंध मंगल दोष से मुक्ति के उपाय कुंडली में मंगल की स्थिति के कारण मांगलिक दोष होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जब किसी व्यक्ति की कुंडली में मंगल 1, 4, 7, 8 तथा 12 वें भाव में होता है तो माना जाता है कि व्यक्ति मांगलिक है।

मंगल (ग्रहों का सेनापति) मंगल को शक्ति, साहस, पराक्रम और ऊर्जा का कारक माना जाता है। कुंडली में इसकी शुभ स्थिति किसी भी व्यक्ति के लिए शुभ साबित होती है। लेकिन अगर कुंडली में इसका स्थान पहले, चौथे, सातवें, आठवें और बारहवें भाव में हो तो इस स्थिति को मांगलिक दोष कहते हैं। यह दोष वैवाहिक जीवन को प्रभावित करता है और इसके कारण व्यक्ति के विवाह में अनेक रूप की बाधाएं भी आती हैं।

मांगलिक दोष तथा विवाह का संबंध ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मंगल का विवाह से बहुत संबंध है। जब किसी व्यक्ति की कुंडली में मंगल की स्थिति कमजोर होती है तो वह मांगलिक होता है। ऐसे में अगर किसी व्यक्ति की शादी गैर मांगलिक लड़के या लड़की से हो जाती है तो वैवाहिक जीवन में कई तरह की परेशानियां आने लगती हैं। कई बार कलह इतनी बढ़ जाती है कि जीवनसाथी से अलगाव हो जाता है।

मंगल दोष से मुक्ति के उपाय ज्योतिष शास्त्र में लड़का या लड़की के मांगलिक होने पर कई उपाय बताए गए हैं। इन्हें अपनाकर मांगलिक समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है। अगर लड़की मांगलिक है तो विवाह से पहले कुंभ विवाह, विष्णु विवाह या अश्वत्थ विवाह कराया जाता है। हर मंगलवार को हनुमान चालीसा का पाठ करें। प्रतिदिन शिवलिंग पर जलाभिषेक और दूधाभिषेक के साथ लाल फूल भी चढ़ाएं। घर आने वाले मेहमानों को मिठाई खिलाने से भी मंगल दोष काफी हद तक कम हो सकता है। हर मंगलवार को भगवान शिव को शहद चढ़ाएं। इससे भी मंगल दोष से राहत मिलती है।

हनुमान जी को केसरिया रंग का चोला चढ़ाएं। मंगलवार को घर में केसरिया आकार के छोटे गणपति लाएं और उनकी नियमित पूजा करें। मंगल दोष से मुक्ति पाने के लिए आप हर मंगलवार को मंगल ग्रह स्तोत्र का पाठ भी कर सकते हैं। मंगल दोष को कम करने के लिए आप किसी कर्मकांडी पंडित जी से मंगल की शांति के लिए हवन करवा सकते हैं। हवन में भगवान मंगल को कुछ आहुति देने से यह दोष जल्द ही कम हो जाता है। ग्रहों का संबंध रंगों से भी होता है। लाल रंग भी मंगल का प्रतिनिधित्व करता है।

इसलिए मंगल दोष से मुक्ति पाने के लिए आप लाल रंग के कपड़े पहन सकते हैं। मंगलवार के दिन स्नान आदि से निवृत्त होकर लाल रंग के कपड़े पहनें और मूंगे की माला से मंगल के मंत्र का जाप करें। मंत्र इस प्रकार है- ॐ अंग अंगारकाय नमः। ऐसा करने से आपको मंगल के दुष्प्रभावों से कुछ हद तक राहत मिलेगी।

साभार- https://twitter.com/yajnshri से




मनुष्य इसी वन में जंगली जानवरों के बीच फँसा हुआ है

एक बार विदुर जी संसार भ्रमण करके धृतराष्ट्र के पास पहुँचे तो धृतराष्ट्र ने कहा, “विदुर जी ! सारा संसार घूमकर आए हो आप, कहिये कहाँ-कहाँ पर क्या देखा आपने ?”
विदुर जी बोले, “राजन् ! कितने आश्चर्य की बात देखी है मैंने। सारा संसार लोभ शृंखलाओं में फँस गया है। काम, क्रोध, लोभ, भय के कारण उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता, पागल हो गया है। आत्मा को वह जानता ही नहीं।”

तब एक कथा उन्होंने सुनाई। एक वन था बहुत भयानक। उसमें भूला-भटका हुआ एक व्यक्ति जा पहुँचा। मार्ग उसे मिला नहीं। परन्तु उसने देखा कि वन में शेर, चीते, रीछ, हाथी और कितने ही पशु दहाड़ रहे हैं। भय से उसके हाथ-पाँव काँपने लगे। बिना देखे वह भागने लगा।

भागता-भागता एक स्थान पर पहुँच गया। वहाँ देखा कि पाँच विषधर साँप फन फैलाये फुङ्कार रहे हैं। उनके पास ही एक वृद्ध स्त्री खड़ी है। महाभयंकर साँप जब इसकी और लपका तो वह फिर भागा और अन्त में हाँफता हुआ एक गड्ढे में जा गिरा जो घास और पौधों से ढका पड़ा था।

सौभाग्य से एक बड़े वृक्ष की शाखा उसके हाथ में आ गई। उसको पकड़कर वह लटकने लगा। तभी उसने नीचे देखा कि एक कुआँ है और उसमें एक बहुत बड़ा साँप ―एक अजगर मुख खोले बैठा है। उसे देखकर वह काँप उठा। शाखा को दृढ़ता से पकड़ लिया कि गिरकर अजगर के मुख में न जा पड़े। परन्तु ऊपर देखा तो उससे भी भयंकर दृश्य था। छः मुख वाला एक हाथी वृक्ष को झंझोड़ रहा था और जिस शाखा को उसने पकड़ रखा था, उसे सफेद और काले रंग के चूहे काट रहे थे। भय से उसका रंग पीला पड़ गया, परन्तु तभी शहद की एक बूँद उसके होंठों पर आ गिरी।

उसने ऊपर देखा। वृक्ष के ऊपर वाले भाग में मधु-मक्खियों का एक छत्ता लगा था, उसी से शनैः–शनैः शहद की बूँदें गिरती थीं। इन बूँदों का स्वाद वह लेने लगा। इस बात को भूल गया कि नीचे अजगर है। इस बात को भूल गया कि वृक्ष को एक छः मुख वाला हाथी झंझोड़ रहा है। इस बात को भी भूल गया कि जिस शाखा से वह लटका है उसे सफेद और काले चूहे काट रहे हैं और इस बात को भी कि चारों ओर भयानक वन है जिसमें भयंकर पशु चिंघाड़ रहे हैं।

धृतराष्ट्र ने कथा को सुना तो कहा, “विदुर जी ! यह कौन से वन की बात आप कहते हैं? कौन है वह अभागा व्यक्ति जो इस भयानक वन में पहुँचकर संकट में फँस गया?”

विदुर जी ने कहा―”राजन् ! यह संसार ही वह वन है। मनुष्य ही वह अभागा व्यक्ति है। संसार में पहुँचते ही वह देखता है कि इस वन में रोग, कष्ट और चिन्तारुपी पशु गरज रहे हैं। यहाँ काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के पाँच विषधर साँप फन फैलाये फुफकार रहे हैं।

यहीं वह बूढ़ी स्त्री रहती है जिसे वृद्धावस्था कहते हैं और जो रुप तथा यौवन को समाप्त कर देती है। इनसे डरकर वह भागा। वह शाखा, जिसे जीने की इच्छा कहते हैं, हाथ में आ गई। इस शाखा से लटके-लटके उसने देखा कि नीचे मृत्यु का महासर्प मुंह खोले बैठा है।

वह सर्प, जिससे आज तक कोई भी नहीं बचा, ना राम, न रावण, न कोई राजा न महाराजा, न कोई धनवान न कोई निर्धन, कोई भी कालरुपी सर्प से आज तक बचा नहीं; और छः मुख वाला हाथी जो इस वृक्ष को झंझोड़ रहा था वह वर्ष है― छः ऋतु वाला। छः ऋतुएँ ही उसके मुख हैं। लगातार वह इस वृक्ष को झंझोड़ता रहता है; और इसके साथ ही काले और श्वेत रंग के चूहे इस शाखा को तीव्रता से काट रहे हैं; ये रात और दिन आयु को प्रतिदिन छोटा कर रहे हैं, यही दो चूहे हैं।




वैश्विक हिंदी सम्मेलन का चुनावी माँग-पत्र

डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’

राष्ट्र केवल कोई भूमि का टुकड़ा नहीं होता। राष्ट्र बनता है उसकी सभ्यता और संस्कृति से, वहाँ के ज्ञान – विज्ञान, धर्म आध्यात्म और मौलिक चिंतन से। भाषा के माध्यम से ये निरंतर आगे बढ़ते हैं। यह भी कह सकते हैं कि भाषा एक बहती हुई नदी की तरह है, जिनके किनारों पर सभ्यताएँ जन्म लेती और बढ़ती हैं। जिस प्रकार किसी नदी में विभिन्न प्रकार के जीव पलते और बढ़ते हैं, वैसे ही भाषा रूपी नदी में वहाँ का ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-संस्कृति, धर्म-आध्यात्म, विचार-चिंतन, समय और स्थान के साथ-साथ अपना स्वरूप बदलते हुए पलते और आगे बढ़ते है। भाषा रूपी नदी सूखी तो इनमें से कुछ न बचेगा। इसीलिए विश्व के सभी विद्वानों, चिंतकों, शिक्षाविदों एवं दार्शनिकों ने मातृभाषा को श्रेष्ठतम भाषा माना है।

अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो यह माना जाता रहा है और बार- बार यह हुआ है कि किसी देश को मिटाना हो तो उसकी भाषाएँ मिटा दीजिए, उनका अपना तो कुछ भी है स्वत: मिट जाएगा. स्वाभिमान तक भी न बचेगा। जब कोई भाषा मिटती है या सिमटती है तो उसके साथ-साथ उसकी पूरी संस्कृति और हजारों वर्ष की विरासत भी बह जाती है। भाषा जाएगी तो उसका मौलिक ज्ञान – विज्ञान उसकी संस्कृति और हजारों वर्षों से अर्जित उसकन ज्ञान-विज्ञान सब मिटता जाएगा।

इतिहास गवाह है, जब कोई आक्रांता या विदेशी शासक आता है तो पहले वहाँ की भाषा-संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास करता है। जब भाषा जाएगी तो उसमें निहित समग्र ज्ञान-विज्ञान को भी बहा कर ले जाएगी। फिर जो भाषा आएगी वह अपने साथ अपनी संस्कृति भी लाएगी, और वहाँ के लोगों के दिलो-दिमाग को उसके माध्यम से मानसिक गुलाम भी बनाएगी।

यहाँ यह बताना अनुचित न होगा कि समाज को अपने धर्म और आध्यात्म से मिटा कर अपना लाने के लिए भी भाषा को मिटाया जाता है। यदि हम लॉर्ड मैकॉले द्वारा अपने पिता को लिखे गए पत्रों को देखें तो उससे साफ समझ में आता है कि भारत के अंग्रेजीकरण के पीछे उसका एक उद्देश्य भारत के लोगों को मानसिक रूप से गुलाम बनाने, अपने स्वाभिमान तथा आत्म गौरव के साथ-साथ धर्मांतरण का मार्ग प्रशस्त करना भी था।

यदि हम विश्व की बात करें तो भी हम पाते हैं कि किसी भी देश में विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा अपना शासन अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए स्थानीय भाषा अथवा भाषाओं को मिटाते हुए वहाँ पर उन्होंने अपनी भाषाओं का आधिपत्य स्थापित किया। इंग्लैंड ही नहीं फ्रांस, पुर्तगाल, हॉलैंड आदि अनेक देश जिन्होंने अनेक देशों पर शासन किया और उन्हें अपना उपनिवेश बनाया, वहाँ आज भी कमोबेश उनकी भाषा का आधिपत्य है। आज भी वहाँ के लोगों को अपनी भाषा, अपनी विरासत और अपने ज्ञान-विज्ञान से अधिक उस देश की भाषा-संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान पर गर्व है, जिन्होंने उन पर शासन किया था, जिन्होंने उन पर अत्याचार किए और जिन्होंने उन पर तरह-तरह के जुल्म किए थे।

अगर भारत की बात की जाए तो भारत पर करीब 1300 वर्ष विदेशी शासन रहा। लगभग सभी आक्रांताओं ने हम पर लगातार अनेक जुल्म किए। इस्लामी आक्रांता कभी लूट के लिए या कभी सत्ता के लिए भारत पर आक्रमण करते रहे और उन सब ने लूट के अलावा तलवार की नोक पर बड़े पैमाने पर भारत के लोगों का धर्मांतरण भी किया। भारत पर इस्लामी आक्रांता अलग- अलग समय में किसी एक जगह से नहीं बल्कि अलग-अलग दिशाओं से आते रहे। जो आया उसने अपनी भाषा चलाने की कोशिश की।

इनमें से कुछ ने भारत के अलग-अलग हिस्सों पर अपना शासन भी कायम किया। इसीका परिणाम था कि कभी अरबी, कभी फ़ारसी और कभी इनके मिश्रित रूप शासन, प्रशासन, न्याय और रोजगार का माध्यम बने रहे। इस्लामी शासन के दौर की कुछ कहावतें आज भी इनकी पुष्टि करती दिखाई देती हैं। ‘हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या?’ एक और कहावत है, ‘पढ़े फ़ारसी बेचे तेल’ यानी उस दौर में पढ़ा-लिखा, विद्वान और बड़े पदों का दावेदार उसे ही माना जाता था जो उनकी भाषा यानी ‘फ़ारसी’ जानता था।

क्योंकि विदेशी आक्रांता तो मुट्ठी भर थे, बाकी उनकी पालकी ढोने वाले और उनके शासन-प्रशासन और लश्कर में शामिल लोग तो स्थानीय ही थे। इसलिए आगे चलकर स्थानीय भाषाओं में अरबी, फारसी के शब्द मिलकर एक नई भाषा का जन्म हुआ जिसे उर्दू कहा गया। उर्दू के लिए फारसी लिपि को अपनाया गया। अगर लिपि की बात छोड़ दें तो यह भाषा, अरबी फारसी आदि के शब्दों से लदी हिंदी ही तो है। यदि इसमें जबरन ठूँसे गए अरबी-फारसी के कुछ जटिल शब्दों को कम कर दें तो यह सरल हिंदी या हिंदुस्तानी ही तो है।

मुगल साम्राज्य के पतन के दौरान ही भारत में क्रमशः पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों और अंग्रेजों का आगमन शुरू हो गया था, जो भारत के विभिन्न भागों में अपनी सत्ता कायम करते जा रहे थे। सभी ने जनभाषा की उपेक्षा करते हुए स्थानीय भारतीय भाषाओं को मिटा कर शासन-प्रशासन और व्यवस्था में अपनी भाषा को स्थापित किया। आगे चलकर उनके बीच भारत में सत्ता के लिए संघर्ष भी हुआ। अंततः जब इस संघर्ष में अंग्रेज विजयी रहे तो भारत पर अंग्रेजों का साम्राज्य छाने लगा।

स्वतंत्रता पूर्व के समय तक भी गोवा, दमण-दीव और दादरा नगर हवेली में पुर्तगाली शासन कायम रहा और पुडुचेरी में फ्रांसीसियों का शासन रहा। आज भी आपको बड़ी संख्या में वहाँ ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपने स्थानीय भाषा कोंकणी के बजाय पुर्तगाली भाषा यानी पोर्तगीज़ पर गर्व करते मिलेंगे। पुडुचेरी जो की भाषा संस्कृति की दृष्टि से तमिल क्षेत्र है, वहां भी फ्रेंच पर गर्व करने वालों की कमी नहीं है। शेष भारत पर अंग्रेजी की वर्चस्व आज भी है। कारण साफ है कि विदेशी भाषा मौलिकता के बजाए विदेशी-गुलामी, विदेशी-सोच की ओर ले जाती है।

यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान महात्मा गांधी, विनोबा भावे, सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर, सेठ गोविंद दास, पुरुषोत्तम दास टंजन, सरोजिनी मायडू, लाला लाजपत राय जैसे नेताओं के विचारों और प्रयासों के बावजूद अंग्रेजी-परस्तों की अच्छी खासी संख्या थी। संविधान सभा में भी डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अंग्रेजी के प्रयोग की छूट केनल 15 वर्ष के लिए ही दी थी। स्वतंत्रता के समय पूरे देश की आकांक्षा थी कि अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी की सत्ता को भी हटाया जाए और देश का काम देश की भाषाओँ में हो। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। हुआ इसके ठीक उलट। स्वतंत्रता के समय भी देश में 99% से अधिक आबादी मातृभाषा में ही पड़ती थी लेकिन आगे चलकर जिस प्रकार की नीतियां अपनाई गई गांव-गांव तक और उच्च शिक्षा नहीं नर्सरी स्तर तक अंग्रेजी माध्यम को पहुंचा दिया गया व्यवस्था की रग-रग में अंग्रेजी को बसा दिया गया।

पूरे भारत में एक ऐसा वातावरण बना गया है कि ज्ञान-विज्ञान का मतलब अंग्रेजी है, शिक्षा रोजगार का मतलब अंग्रेजी है। संपन्नता और महत्वपूर्ण होने का मतलब अंग्रेजी है। एक प्रसिद्ध पुराना फिल्मी गाना है, ‘जाना था जापान पहुंच गए चीन, समझ गए ना।’ भारतीय भाषाओं के साथ यही हुआ। कहा तो यह गया था कि भारतीय भाषाओं को बढ़ाया जाएगा और अंग्रेजी को धीरे-धीरे हटाया जाएगा। देश की व्यवस्था देश की भाषाओं में चलेगी, लेकिन हुआ उसकी ठीक विपरीत।

हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के नाम पर लोग नाचते रहे, गाते रहे, धूम मचाते रहे, भाषा के दिवस मनाते रहे, सम्मेलन रचाते रहे, खाते और कमाते रहे। लेकिन धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं को बहुत ही कमजोर कर दिया गया। तत्कालीन सरकारों ने हर क्षेत्र में अंग्रेजी को पुरजोर ढंग से बढ़ाया। आज भी देश के उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं का नहीं अंग्रेजी का वर्चस्व है। जबकि सच्चाई तो यह है कि विश्व के सभी संपन्न और विकसित देश वही है जहाँ अपनी मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाई होती है और काम होता है। उन देशों की समग्र व्यवस्था और विधि व न्याय-प्रणाली उनकी भाषा में ही है। लाकिन भारत में इसके ठीक विपरीत धारणा विकसित की गई है।

नई शिक्षा नीति के माध्यम से भारत सरकार भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाती हुई दिख तो रही है लेकिन इस मामले में कोई ठोस प्रगति अभी धरातल पर नजर नहीं आती। यहाँ भी न्यायपालिका अंग्रेजी के पक्ष में खड़ी दिखाई देती है। शासन-प्रशासन में भी भारतीय भाषाओं को ले कर कोई बड़ा परिवर्तन दिखाई नहीं देता।

ऐसी में हमारी तो सभी राजनीतिक दलों से यह माँग है कि वे वादा करें कि वे भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाएंगे, कम से कम स्कूली स्तर पर इस शिक्षा का माध्यम बनाएंगे। नई शिक्षा नीति के अनुसार स्कूलों में दो भारतीय भाषाएं कम से कम पढ़ने की व्यवस्था करेंगे। जब पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देश में सभी स्तरों पर जनभाषा में न्याय मिलता है तो हमारे यहां यह अन्याय क्यों है? नौकरी पाने के लिए विषय के ज्ञान की बजाए अंग्रेजी के ज्ञान पर जोर क्यों है ? लोगों को अपनी भाषा में नौकरी क्यों न मिले ? क्या कोई राजनीतिक दल इसके लिए अपनी बात कहेगा।

विदेशी भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ाई जाए, इसमें किसी को कोई एतराज नहीं। अंग्रेजी ही नहीं, किसी विशेष उद्देश्य के लिए यदि कोई विद्यार्थी कोई अन्य विदेशी भाषा भी यदि विद्यार्थी सीखना चाहे तो विश्वविद्यालयों में विदेशी भाषा विभागों के माध्यम से उसकी व्यवस्था भी की जाए। हमारा मानना स्पष्ट है कि ज्ञान का कोई भी द्वारा कहीं से भी बंद न किया जाए। लेकिन अपनी भाषा की जगह विदेशी भाषा को ना लादा जाए। किसी देश में ज्ञान-विज्ञान का विकाल मौलिक चिंतन से ही होता है और मौलिक चिंतन अपनी भाषा में ही संभव है।

महात्मा गांधी का नाम और उनकी विरासत की राजनीति करने वालों को इस संबंध में महात्मा गांधी को पढ़ना भी चाहिए। उन्होंने कहा था ति यदि भारत में विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा से दी जाती तो आज जो हम भारत के तीन-चार आविष्कारकों के नाम लेते हैं, हमारे यहाँ इतने आविष्कारक होते कि हम इन्हें याद तक न करते। लेकिन अंग्रेजी-परस्ती के इतिहास ने मौलिक-चिंतन के माध्यम, यानी मातृभाषा में शिक्षा के मार्ग को पूरी तरह बंद कर दिया।

देश के करोड़ों विद्यार्थी, प्रतिभाशाली और मेधावी विद्यार्थी केवल इसलिए आगे नहीं बढ़ पाए और पीछे रह जाते हैं क्योंकि सारी व्यवस्थाएं अंग्रेजी में है और अंग्रेजी की बड़े-बड़े विद्यालय उनकी पहुंच से दूर हैं। केवल अंग्रेजी के बल पर काम योग्य लोग भी आगे बढ़ रहे हैं और मेधावी पीछे छूट रहे हैं। यदि भारतीय भाषाओं के माध्यम से देश की शिक्षा और संपूर्ण व्यवस्था चलने लगे तो कुछ करोड़ ही नहीं बल्कि 140 करोड लोग तेजी से आगे बढ़ने लगेंगे और निश्चित ही भारत अति शीघ्र विश्व की महान शक्ति बन सकेगा।

हमारा चुनावी माँग-पत्र बहुत ही सपष्ट है। हमें चाहिए जनभाषा में विधि- न्याय, व्यापार,-व्यवसाय, सभी स्तरों पर सरकारी या गैर सरकारी आवश्यक सूचनाएँ (जो कानूनी रूप से दी जानी आवश्यक हैं। ) जनभाषा में शिक्षा ही नहीं रोजगार भी देने की व्यवस्था की जाए। सरकारी कार्यालयों और कंपनियों में ही नहीं निजी स्तर पर भी भारतीय भाषाओं में पढ़ने वालों के लिए रोजगार की व्यवस्था करवाई जाए। भारतीय ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-संकृति को शिक्षा में समुचित स्थान दिया जाए। अंग्रेजी के नक़लतंत्र के स्थान पर मौलिक चितंन और मौलिक आविष्कारों का मार्ग प्रशस्त किया जाए।

(लेखक भारत सरकार के गृह मंत्रालय के सेवानिवृत्त क्षेत्रीय उपनिदेशक तथा ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन संस्था’ के संस्थापक व निदेशक हैं।)




आर्य नरेश राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज कोल्हापुर नरेश

 6 मई को पुण्यतिथि पर विशेष
महाराष्ट्र के बाहर बहुत कम लोग जानते है कि वह एक कट्टर ‘आर्य समाजी राजा थे ।1902 मे जब वह इंग्लैंड जा रहे थे तब उनकी मुलाकात जोधपुर के नरेश सर प्रतापसिंह महाराज से हुई। जोधपुर नरेश से उनका आर्य समाज से प्रारंभिक परिचय हुआ। भारत वापिस आने के बाद उनका वडोदरा के महाराज श्री श्याजीराव गायकवाड़ और उनके आर्य समाज प्रचारक मास्टर आत्माराम अमृतसरी जी से परिचय हुआ। इस परिचय का परिणाम यह निकला कि शाहुजी महाराज कट्टर आर्य समाज बन गए।
शाहु महाराज जी ने अपने राज्य में सुधार कार्य प्रारम्भ किया। उनका संकल्प था कि ‘आर्य धर्म विश्व धर्म बने ‘! इस इच्छा से आपने कोल्हापूर नगर में आर्य समाज का डंका जोर-शोर से बजाया ।उन्होनें शिवाजी वैदिक विद्यालय कि स्थापना की। शाहु दयानंद नाम से कॉलेज खुलवाया। स्वामी श्रद्धानंद नाम का आर्य मंदिर बनाया। गो हात्या प्रतिबंधक कानुन को लागु किया। उस काल की सबसे प्रभावशाली बात। उन्होंने कोल्हापूर में 1918 से 1935 तक के काल में 26000 ‘ सत्यार्थ प्रकाश’ ग्रंथ छपवाए। आपने राज्य में जितने भी वरिष्ठ अधिकारी आदि होते थे। उनको ‘ सत्यार्थ प्रकाश ‘का अध्ययन और परिक्षा अनिवार्य किये।
उन्होनें शूद्रों को उपनयन और वेद के शिक्षा का प्रबंध किया। उन्होंने शूद्रों के सभी धार्मिक कृत्यों में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने शूद्रों को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए छात्रवृति दी। उसी छात्रवृति से डॉ. भीमराव अंबेडकर को विदेश जाकर पीएचडी करने का अवसर प्राप्त हुआ। ध्यान दीजिये डॉ अम्बेडकर को यह छात्रवृति मास्टर आत्माराम अमृतसरी जी के सहयोग से मिली थी।
डॉ भीमराव अम्बेडकर कहते है कि शाहु महाराज जी की जयंती को एक वृहद् त्योहार के रुप मे मनाया जाये। स्वामी दयानन्द के अटूट शिष्य एवं दलितोद्धार के संदेशवाहक आर्य नरेश श्री साहू जी महाराज के महान व्यक्तित्व को नमन।
उपरोक्त अंश के लेखक महेश आर्य हैं।
दिनांक 8 मार्च 1920 को सौराष्ट्र के भावनगर में अखिल भारतीय आर्यसभा (आर्यसमाज) की परिषद हुई। इस सभा के प्रमुख अतिथि राजर्षि शाहू महाराज[i] ने भाषण किया। महाराज ने भाषण में स्वामी दयानंदजी के जीवन कार्य बताकर उन्होंने दिखाया हुवा वैदिक धर्म ही देश को जागृत कर सकता है, ऐसा विश्वास प्रकट किया। इस कारण वैदिक धर्म को अधिक महत्व है। इस वैदिक धर्म का मैंने स्वीकार किया ऐसे उन्होंने जाहिर किया था। स्वामी दयानंद जी का बताया हुआ यह धर्म विश्वव्यापी बनेगा ऐसा आशीर्वाद उन्होंने प्रकट किया। संदर्भ पुस्तक “राजर्षि शाहू महाराज आणि आर्य समाज”
सज्जनों,
हम थोड़ा भारतवर्ष के इतिहास पर नजर डालते हैं। हजार वर्ष पूर्व के भारतवर्ष और आज के भारतवर्ष में जमीन और आसमान का अंतर है। आज पराक्रम, ज्ञान, धर्मशिलता, उदारता सद्गुण लुप्त हो गये हैं। हजारों कुसंस्कार और रूढी परंपराओं से भरा हुवा भारतवर्ष देखकर आश्चर्य नहीं होता। बालविवाह, बहुविवाह, मद्यपान, स्त्रियों को शिक्षा पर पाबंदी, वर्णश्रम धर्म कि अव्यवस्था ऐसे अनेक समाज को घातक रूढीयों से निर्जिव सा बना दिया है।
उदाहरण – वर्णव्यवस्था लिजिए। सम्पूर्ण भारत में विशेष रुप से महाराष्ट्र के दक्षिण प्रांत में ब्राह्मणोत्तर जातियों की अवस्था बहुत विकट है। इन जातियों को आगे बढ़ाने के लिये, अपनी प्रगती करने के लिये कोई अवसर ही नहीं दिया जाता है। आज 20 वीं सदी में भी अस्पृश्य में जीवन जीनेवाले लोग हैं। इन लोगों का अपराध इतना ही है कि उनका जन्म एक विशिष्ट जाति में नही हुआ। आज भारतवर्ष में एकता, प्रेम, सत्कार कहीं भी देखने को नहीं मिलता है। इनका कारण हमारी स्वयं की मूर्खता है।
भारतवर्ष में ही ऐसे मनुष्य है, अपने ही बंधू का अपने शरीर पर छाया भी पड़ने नहीं देते। स्वयं को श्रेष्ठ मानने वाले व्यक्ति जाति के नशे में चूर है, और नीच मानव वाले जाति (पिछड़ा समाज) पर अन्याय-अत्याचार करते हैं।
नए मनुष्य को उसकी योग्यता के अनुसार उच्च-नीच वर्ण देने का एक आदर्श होता था।
मुनि ने लोगों ने-
धर्मचर्या जघन्यो वर्ण:
छू्र्व पूर्व वर्णमापद्यते जाति परिवृत्तौ।
अधर्मचर्याया पूर्वो वर्ण: जघन्य:
जघन्य वर्णमापद्यते जाति परवृत्तौं।
ऐसे उपदेश किया। उसी जगह पौराणिक लोगों ने ब्राह्मण: न जाते: ब्राह्मण: यह व्युत्पत्ति करके ब्राह्मणवादी जन्म से अर्थ लगाना प्रारंभ हो गया।[ii]
स्त्रीशुद्रौ नाधीयाताम् यह वेदमंत्र ही कंठश्च किया। इसका परिणाम यह हुआ कि, स्त्री और शूद्रों का ज्ञान का मार्ग ही बंद हो गया। बहुत काल तक यह स्थिति रहने के कारण शूद्र लोग स्वयं को अस्पृश्य समझने लगे। इससे ब्राह्मण लोगों को लाभ हुआ और ब्राह्मणत्व का ठेका अपनी तरफ लिया।[iii]
ब्राह्मणों का जीवन पारमार्थिक जीवन है। जब से योग्यता के अनुसार उच्च-नीचता की परख नष्ट हो गई, तब से नाममात्र गुरुवर्ग का महत्व बढ़ा। जन्म से लेकर – मृत्यु तक लूटते ही रहे, परंतु उसके बाद श्राद्ध जैसी विधि में भी ढोंगी प्रवृत्ति बढ़ती गई।
सज्जनवृंद! जब से देश नौका के कर्णधार ब्राह्मण स्वार्थी बन चुके थे, तब से अष्टवर्षा भवते गौरी यह वैदिक पाठ उच्च स्वर में बोले जाने लगे तब राष्ट्रीयत्व नष्ट हो चुका था। आणिबाणी के समय इसी काठोवाडी प्रांत में जहां हमारी परिषद् (सभा) भरी है, उस भवसागर समीप मोरवी गांव में अपनी स्वदेशी की जागृती के लिए और अखिल भूमण्डल का जागृतिकरण करने के लिए महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म हुआ। उन्होंने तपश्चर्या की तथा वेदों का अध्ययन किया। भारत खंड के अवगत स्थिती का परिक्षण किया है। नि:स्वार्थ बनकर मत मतांतरो का जो अग्नि भारत में प्रज्वलित था, उसमें खुद को झोंक दिया। पथभ्रष्ट ऋषि मुनियों को पुन: सम्मान के मार्ग पर लाकर छोड़ दिया है। चारों ओर जागृति की है। लोगों ने उन्हें गाली प्रदान की। उन पर पत्थरों की वृष्टि की और हो सके उतनी नफरत की, परंतु इन सभी मान अपमान की परवाह न करते हुए महर्षि तपस्वी, त्यागी दयानंद जी ने वैदिक धर्म का ढिंढोरा पीटा। इस बात से ब्राह्मण बेचैन हो गये। उन्होंने दयानंद सरस्वती जी की गति में रूकावट डालने का पूरा प्रयत्न किया, पर जिस पर ईश्वर कि कृपा हो तो उसे कौन-सी शक्ति नष्ट कर सकती है?[iv]
उनके केवल दस वर्ष के कार्यों से ही पंजाब, संयुक्त प्रांत, राजपुत, बंगाल, बिहार जागृत हो चुके। लाखों लोग उनके अनुयायी (शिष्य) बने। उत्तर भारत वर्ष में ही नहीं तो सम्पूर्ण भारत खंड में अवैदिकीय पाठ को बदल वैदिक पाठ शुरु किया। जैसे-
ब्राह्मचर्चेण कन्या युवानं विदते पतिम्।[v]
शुद्रों ब्राह्मणतमिति ब्राह्मणों यति शुद्रनाम्।[vi]
आर्य समाज का कार्य पूरे विश्व में विदित है। स्पृश्यास्पृश्यता के बंधन तोड़कर आर्य समाज ने युद्ध में भी बहुत मदद की है। परदेश गमन मनुष्य को अपवित्र समझा जाता था, वही आज गौरव-अभिमान की बात समझी जाती है। आर्य धर्म पूर्णत: मानव समाज के हित के लिये है। खुशी की बात तो यह है कि, बहुत ही युरोपियन स्त्री पुरूषों ने इस आर्य धर्म का स्वीकार किया है और कर रहे हैं। सच कहा जाए तो लॉर्ड किचनेर, सर हेग, लॉर्ड फ्रेंच प्रभूति की गिनती पहले से ही आर्य समाज में ही हो सकती है। क्योंकि इन योद्धाओं ने क्षत्रिय धर्म का ही पालन किया है। मेरे विचार से यही धर्मशासित शाला में प्रेम रुझाने से एकता निर्माण करने का प्रयत्न कर रहा है। मुझे पूरा भरोसा है कि, इस धर्म के अनुयायी प्रतापसिंह और सज्जनसिंह जैसे नरेश है और थे, यह हमारे लिए अभिमान-गर्व की बात है। हमें भी इसी बात का अनुकरण करना चाहिए। यह भी बड़ी संतोष की बात है कि, आज भी अगर स्वार्थी लोग इधर उधर हाथ पाँव पटक रहै हैं, तथापि सच्चे ब्राह्मण और शिक्षित जनता ये सभी हमें अनुकूल है। परंतु, दक्षिण प्रांत में आज भी बहुत से कर्तव्य करना बाकी है। आर्यों का यह कर्तव्य है कि, इस देश में मातृभाव जागृत करना चाहिए।[vii]
अगर सत्यशोधक समाज जैसे समाजों ने कुछ सुधार किया है, तथापि इस संस्था के कारण विशेष रूप से बहुत कुछ हो नहीं सकता, क्योंकि, शतं प्रति भाठ्यं। इस तत्व पर ही चली आ रही है। परंतु, देश को जागृत करने के लिये रामबाण मात्रा वैदिक धर्म ही है। क्योंकि, हिन्दूमात्र के अंतःकरण में वेदाभिमान विराजमान है और आर्य समाज वेदानुकुल रहने में ही हमारा धर्म समझ जाता है। आर्यसमाज का धर्म सारे विश्व पर (उपकार) एहसान करनेवाला धर्म है।[viii]
सज्जनो! वैदिक धर्म का महत्त्व अन्य विचारों से अधिक है, यह सोचकर ही मैंने इस धर्म का स्वीकार किया है। राजाराम कॉलेज, हाईस्कूल, गुरूकुल, अनाथालय, सरदार बोर्डिंग जैसे सभी संस्था मैंने आर्य प्रसारक सभा, संयुक्त प्रांत इन्हीं के अधीन इसी उद्देश्य से कर दिया है, कि लोगों का मानसिक परिवर्तन हो। यह परिवर्तन ज्ञान के द्वार से ही मुमकीन है, इसिलिए ज्ञान का सूत्र मैंने आर्यसमाज के हाथों सौप दी है। मुझसे जो हो सका वह मैंने कर दिया। मेरी यह इच्छा है कि मेरे जोतिबा, पंढरपुर जैसे क्षेत्रो में भी गुरूकूल, हाईस्कूल, की स्थापना करे। मेरा जो फर्ज था वह मैंने पूरा किया है। आगे का जो भी फर्ज पूरी तरह से आपके हाथों में सौंपा है। अगर इससे भी वैदिक धर्म का प्रसार नहीं हुआ तो इसमें आर्य प्रचारक और आप सभी दोषी होंगे। मेरी इच्छा है कि, कुछ सच्चे कर्मवीर मेरी तरह इस कार्य के लिये अपना समय देंगे।
आर्य बंधुओ! हमसे आज भी कर्महीनता नष्ट नहीं हुई है। ऋषियों की प्रेरणा, शिक्षित समुदाय में दृष्टिगोचर हो रही है। देश की सभी समाज, सभा, सोसायटी वैदिक सिद्धांत के अनुसार अपना फर्ज निभा रही है।
यथेमां वाचं कल्याणिम्।[ix] इस वेद की आज्ञा के अनुसार आर्य समाज ने गुरुकुल, अनाथालय, कॉलेज जैसी संस्था स्थापित करके भेदभावरहित सभी जाति व्यवस्था में वेद वाणी का प्रचार किया है। फिर भी हम आज भी ऋषियों के बहुत से लोग कर्मवीर नहीं बने हैं। अकर्म का यह समय नहीं तो कर्म करने का है।
उदाहरण के तौर पर पटेल बिल लिजिये![x] इस तरह हमें अपना वर्तन करने के लिये प्रारंभ करना चाहिये। वेद प्रतिपादित गुण कर्म के अनुसार हम कृति से वर्ण व्यवस्था का पालन कर रहे हैं, यह सिद्ध करने का समय आ गया है।
मैंने आपका बहुत समय लिया है। परंतु आप सभी ने ध्यानपूर्वक, उत्साह के साथ मेरा भाषण सुन लिया, इसलिये मैं आप सभी का फिर से तहे दिल से शुक्रिया अदा करता हूं। और अंत में आप सभी को सच्चे मन सें बड़ी विनय (नम्रता) पूर्वक बताना चाहता हूं कि, ऋषि दयानंद के कार्य का अपनी मन-दिल में प्रकाश पड़ा हो तो याद रखिए कि इस काठियावाड़ी भूमि में बाल मूलशंकरजी ने कठिन प्रतिज्ञा कर के गृहत्याग किया था, तो हम भी इस तीर्थस्थान से वापस जाते समय कठिन प्रतिज्ञा करेंगे कि वैदिक सिद्धांत और विचार हम कृति में लाने के लिये बिल्कुल भी पीछे नहीं हटेंगे।
बंधुओ! आखिर सत्य का ही विजय होता है, यह ध्यान में रखते हुए ऋषियों के इस कार्य को प्रसारित करने का प्रयत्न करो और इसी कार्य में लगे रहो। परमात्मा आपको शक्ति देगा क्योंकि जो कर्मवीर होते हैं, उन्हें सहायता करनेवाला वही ईश्वर है।
[i] राजर्षि शाहू महाराज (26 जून 1874 –6 मई 1922) भोंसला वंश के कोहलापुर नरेश थे। आप प्रगतिशील विचारों के वैदिकधर्मीशासक थे। आपने अपना प्रेरणास्रोत्र स्वामी दयानन्द सरस्वती जी को बताया है। आपने दलित छात्रों को छात्रवृति विदेश पढ़ने हेतु भेजा। डॉ अम्बेडकर उन्हीं छात्रों में से एक थे जिनके जीवन निर्माण में शाहू जी महाराज का अप्रतिम योगदान है।
[ii] वर्णव्यवस्था गुणों पर आधारित थी जबकि जातिवाद जन्मना कुल पर आधारित है। इस भेद ने जातिवाद रूपी विषवृक्ष को जन्म दिया। वैदिक काल में ब्राह्मण संज्ञा बहुत आदर्श, ज्ञानी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होती थी जो कालांतर में विकृत होकर एक अभिमानी जातिवादी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त होने से दूषित हो गई।
[iii] चारों वेदों में एक भी मंत्र स्त्री और शूद्र को शिक्षा से वर्जित नहीं रखता। इसलिए इस वेद विरुद्ध कथन को असत्य और मिथक कहा जायेगा।
[iv] महर्षि दयानन्द जी लिखते हैं-“वेद पढ़ने-सुनने का अधिकार सब को है। देखो! गार्गी आदि स्त्रियां और छान्दोग्य में जनश्रुति शूद्र ने भी वेद ‘रैक्यमुनि’ के पास पढ़ा था और यजुर्वेद के २६वें अध्याय के दूसरे मन्त्र में स्पष्ट लिखा है कि वेदों के पढ़ने और सुनने का अधिकार मनुष्यमात्र को है।”
[v] अथर्ववेद 11/6/18 में स्पष्ट सन्देश हैं की ब्रह्मचर्य का पालन कर कन्या वर का ग्रहण करे। यहाँ पर ,ब्रह्मचर्य का अर्थ हैं ब्रह्म अर्थात वेद में चर अर्थात गमन, ज्ञान या प्राप्ति करना।
[vi] वेदों में शूद्रों के लिए प्रिय वचनों का प्रयोग है। जैसे प्रार्थना है कि हे परमात्मा! आप मुझे ब्राह्मण का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्यारा बना दें [अथर्ववेद 19/62/1]
हे परमात्मन आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिये, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिये, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिये और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये। [यजुर्वेद 18/46]
हे शत्रु विदारक परमेश्वर मुझको ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए, वैश्य के लिए, शुद्र के लिए और जिसके लिए हम चाह सकते हैं और प्रत्येक विविध प्रकार देखने वाले पुरुष के लिए प्रिय करे। [अथर्ववेद 19/32/8 ]
[vii] स्वामी दयानन्द और आर्यसमाज को भारत में जातिवाद उन्मूलन और दलितोद्धार के लिए महान तप करने वालों में शिरोमणि माना जाना चाहिए। ध्यन्तव्य यह है कि आर्यसमाज द्वारा तैयार की गई उर्वरा भूमि में ही डॉ अम्बेडकर सरीखे समाज सुधारकों का निर्माण हुआ था।
[viii] शाहू जी की आर्यसमाज और वैदिक धर्म के समर्थन में दी गई टिप्पणी को भी राजनेता किसी मंच से कभी स्मरण नहीं करता। क्यों?
[ix] इस मन्त्र का अभिप्राय यह है कि वेदों के पढ़ने-पढ़ाने का सब मनुष्यों को अधिकार है- यजुर्वेद २६/२,स्वामी दयानन्द भाष्य
[x] पटेल एक्ट अनिवार्य शिक्षा हेतु विट्ठल भाई पटेल द्वारा 1917 में पास करवाया गया प्रथम कानून था। स्वामी दयानन्द ने 1875 में सत्यार्थ प्रकाश में संतानों के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान शासक द्वारा हो। ऐसा उपदेश दिया था।
(लेखक राष्ट्रीय व वैदिक विषयों पर शोधपूर्ण लेख लिखते हैं) 



नसीब (1981) फिल्म बनने की 15 रोचक और अनसुनी कहानियां…

अमरनाथ मिश्रा

जब अमिताभ बच्चन के एक गाने के लिए जमा हो गई लगभग पूरी फिल्म इंडस्ट्री। तस्वीर देखकर आप समझ ही गए होंगे कि ये किस फिल्म के और कौन से गीत की बात हो रही है। नसीब फिल्म के जॉन जानी जनार्दन गीत के पिक्चराइज़ेशन के लिए फिल्म इंडस्ट्री के बड़े-बड़े स्टार्स जमा हो गए थे। आज नसीब फिल्म को रिलीज़ हुए 43 साल पूरे हो गए। 1 मई 1981 को नसीब रिलीज़ हुई थी। मनमोहन देसाई द्वारा निर्देशित नसीब ने बॉक्स ऑफिस पर ज़बरदस्त प्रदर्शन किया और सुपरहिट रही। फिल्म के गीत बहुत हिट हुए थे। सभी गीत लिखे थे आनंद बक्षी जी ने और गीत कंपोज़ किए थे लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने। चलिए नसीब फिल्म से जुड़ी कुछ रोचक बातें जानते हैं।

01- नसीब 1981 की दूसरी सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फिल्म थी। पहले नंबर पर थी मनोज कुमार की क्रांति। और तीसरे नंबर पर थी जितेंद्र-हेमा मालिनी की मेरी आवाज़ सुनो। चौथे नंबर पर थी अमिताभ बच्चन की लावारिस और पांचवे नंबर पर थी कुमार गौरव की लव स्टोरी। संजय दत्त की डेब्यू फिल्म रॉकी भी उस साल टॉप 10 फिल्मों की लिस्ट में जगह बनाने में कामयाब रही थी। रॉकी कमाई के मामले में 10वें पायदान पर थी।

02- मनमोहन देसाई चाहते थे कि नसीब में वो एक बार फिर से अमर अकबर एंथोनी की मशहूर तिकड़ी को दोहराएं। अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर तो ईज़िली अवेलेबल हो गए। लेकिन विनोद खन्ना से नसीब फिल्म के लिए बात नहीं बन सकी। क्योंकि उस वक्त विनोद खन्ना फिल्मों से ब्रेक लेने की तैयारी कर चुके थे। तब वो रोल जिसमें मनमोहन देसाई विनोद खन्ना को लेना चाहते थे, वो शत्रुघ्न सिन्हा को मिला।

03- नसीब आखिरी फिल्म है जिसमें अमिताभ बच्चन ने शत्रुघ्न सिन्हा के साथ काम किया था। कहा जाता है कि शत्रुघ्न सिन्हा की लेट-लतीफी अमिताभ बच्चन को बिल्कुल भी पसंद नहीं आती थी। क्योंकि अमिताभ बच्चन ठहरे वक्त के एकदम पाबंद। और शत्रुघ्न सिन्हा शूटिंग पर पहुंचते थे काफी लेट। वैसे साल 2008 में ‘यार मेरी ज़िंदगी’ नाम से इन दोनों की एक फिल्म ज़रूर आई थी। लेकिन वो बहुत साल पहले की फिल्म थी जो बहुत देर से रिलीज़ हुई थी। वो फिल्म तो नसीब से भी काफी पहले बननी शुरु हुई थी।

04- नसीब पहली फिल्म थी जिसका ट्रेलर दूरदर्शन पर दिखाया गया था। उससे पहले अपकमिंग फिल्मों के ट्रेलर्स सिनेमाघरों में रिलीज़ हो चुकी फिल्मों के साथ ही नज़र आते थे। लेकिन नसीब पहली भारतीय फिल्म बनी जिसका ट्रेलर टीवी पर दिखाया गया था। वैसे, सिनेमाघरों में ट्रेलर दिखाने की परंपरा तो आज भी जारी है। और ये एक अच्छी परंपरा है।

05- नसीब फिल्म के गीत ‘रंग जमाके जाएंगे’ से एक दिलचस्प कहानी जुड़ी है। अब जब आप इस गाने को देखेंगे तो नोट कीजिएगा कि शत्रुघ्न सिन्हा के अधिकतर क्लॉज़ शॉट्स इस गाने में नज़र आते हैं। वो इसलिए क्योंकि शत्रुघ्न सिन्हा सही से डांस नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में उनके एक बॉडी डबल को लॉन्ग शॉट्स में रखा गया था। और उनके सभी शॉट्स क्लॉज़ लिए गए थे।

06- ‘रंग जमाके जाएंगे’ गीत को मनमोहन देसाई एक एक्चुअल रिवॉल्विंग रेस्टोरेंट में पिक्चराइज़ करना चाहते थे। लेकिन उस वक्त मुंबई में मौजूद जो भी रिवॉल्विंग रेस्टोरेंट्स थे उन सभी के घूमने की स्पीड उससे कहीं ज़्यादा थी जितनी की मनमोहन देसाई चाहते थे। इसलिए उन्हें बाकायदा एक सेट बनवाना पड़ा और वहां वो गीत फिल्माना पड़ा।

07- नसीब फिल्म के सॉन्ग जॉनी जॉनी जनार्दन को पूरी तरह शूट करने में एक सप्ताह का वक्त लग गया था। और एक सप्ताह तक हर वो आर्टिस्ट स्टूडियो आया था जो उस गाने में दिखाई देता है। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि सभी आर्टिस्ट्स को मैनेज करने का काम राज कपूर जी को सौंपा गया था। हालांकि मुझे इस पर यकीन नहीं होता। लेकिन फिलहाल मैं इस बात को पूरी तरह से नकारने कहने की स्थिति में भी नहीं हूं।

08- नसीब में ऋषि कपूर के अपोज़िट पहले नीतू सिंह थी। नीतू सिंह ने एक सीन भी शूट कर लिया था। लेकिन फिर उन्होंने फिल्म छोड़ दी। उनकी जगह एक्ट्रेस किम को साइन किया गया। और जानते हैं नीतू सिंह ने नसीब क्योंं छोड़ी थी? क्योंकि ऋषि कपूर संग उनकी शादी हो गई थी। वैसे, किम से पहले एक्ट्रेस रंजीता से भी उस रोल के बारे में बात चली थी। लेकिन वो बात बनी नहीं।

09- नसीब में अभिनेता यूसुफ खान ज़िबिस्को भी दिखाई दिए थे। वास्तव में यूसुफ खान को ज़िबिस्को नाम मनमोहन देसाई ने ही दिया था। मनमोहन देसाई की फिल्म अमर अकबर एंथोनी में यूसुफ खान के कैरेक्टर का नाम ज़िबिस्को रखा गया था। उस फिल्म के बाद से ही यूसुफ खान फिल्म इंडस्ट्री में ज़िबिस्को के नाम से मशहूर हो गए थे।

10- मनमोहन देसाई ने पहले इस फिल्म की तीन रील्स ही शूट की और उन्हें अच्छे से एडिट करके डिस्ट्रीब्यूटर्स को दिखाया। इसलिए ताकि डिस्ट्रीब्यूटर्स को अंदाज़ा हो सके कि फिल्म पर कितना खर्च होगा। डिस्ट्रीब्यूटर्स ने फिल्म देखी और उन्हें फिल्म पसंद आई। उन्होंने मनमोहन देसाई को ये फिल्म बनाने की हरी झंडी दिखा दी।

11- इस फिल्म में आपने जीवन साहब को भी देखा होगा। जीवन साहब इस फिल्म में स्कूल प्रिंसिपल प्रोफेसर प्रेमी के किरदार में दिखे थे। और ये बात भी बड़ी अनोखी है कि जीवन साहब का रोल विलेनियस नहीं, बल्कि एक कॉमिक रोल था। बहुत कम ऐसी फिल्में हैं जिनमें जीवन जी ने विलेनियस किरदार नहीं निभाए हैं।

12- नसीब में रीना रॉय शत्रुघ्न सिन्हा के अपोज़िट दिखी हैं। पहले ये रोल एक्ट्रेस परवीन बॉबी निभाने वाली थी। लेकिन किन्हीं कारणों से परवीन बॉबी ने फिल्म छोड़ दी। रीना रॉय और अमिताभ बच्चन ने कभी किसी फिल्म में हीरो-हीरोइन की तरह काम नहीं किया। पूरे करियर में अमिताभ बच्चन ने रीना रॉय संग दो ही फिल्मों में काम किया था। एक तो थी नसीब जिसमें रीना रॉय अमिताभ बच्चन की बहन बनी थी। और दूसरी थी अंधा कानून जिसमें रीना रॉय और अमिताभ बच्चन का साथ में कोई सीन नहीं था।

13- एक्टर शक्ति कपूर को मनमोहन देसाई ने फिरोज़ खान की सिफारिश पर कास्ट किया था। शक्ति कपूर ने फिरोज़ खान की कुर्बानी फिल्म में अच्छा काम किया था। फिरोज़ खान शक्ति कपूर से काफी इंप्रैस थे। उन्होंने उस वक्त कई लोगों से शक्ति कपूर की सिफारिश की थी। मनमोहन देसाई उनमें से एक थे।

14- शक्ति कपूर ने साल 1997 में आई गोविंदा की फिल्म नसीब में भी एक छोटा सा विलेनियस रोल निभाया था। गोविंदा वाली नसीब में कादर खान भी थे। और कादर खान ने मनमोहन देसाई वाली नसीब में भी काम किया था। मनमोहन देसाई की नसीब में कादर खान शक्ति कपूर के बाप के रोल में थे। मनमोहन देसाई की नसीब में कादर खान के बड़े बेटे के रोल में अभिनेता प्रेम चोपड़ा नज़र आए थे। जबकी असल जीवन में कादर खान उम्र में प्रेम चोपड़ा से छोटे थे।

15- कुछ लोग कहते हैं कि एक्ट्रेस किम को नसीब में इसलिए काम मिला था क्योंकि उनका अफेयर मनमोहन देसाई के बेटे केतन देसाई से चल रहा था। हालांकि किम इन बातों को बकवास बताती हैं और कहती हैं कि वो और केतन सिर्फ अच्छे दोस्त थे। हालांकि ये बात सच है कि नसीब में उन्हें केतन की वजह से काम मिला था। नसीब के बाद किम को उम्मीद थी कि उनके पास फिल्मों के खूब ऑफर्स आएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

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