विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस पर डॉ. सुभाष चंद्रा का संदेश
वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम डे’ के मौके पर पूर्व राज्यसभा सांसद डॉ. सुभाष चंद्रा ने देशवासियों को संदेश दिया और बताया कि कैसे जी ग्रुप ने भारत में पहले निजी सेटेलाइट टीवी इंडस्ट्री की नींव रखकर भारत के टेलीविज़न मनोरंजन व मीडिया के क्षेत्र में क्रांति कर दी थी।
3 मई को हर साल विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया जाता है। यह दिन लोगों को मीडिया के महत्व से रूबरू करवाने और सच सामने लाने के लिए कई चुनौतियों का सामना कर रहे पत्रकारों को सम्मानित करने के मकसद से मनाया जाता है। ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस’ के मौके पर पूर्व राज्यसभा सांसद डॉ. सुभाष चंद्रा ने ‘जी न्यूज’ के ‘डीएनए’ कार्यक्रम से देशवासियों को संदेश दिया और बताया कि कैसे जी ग्रुप ने ही भारत में सेटेलाइट टीवी इंडस्ट्री की नींव रखी थी। उन्होंने बताया कि कैसे देश में दूरदर्शन के बाद जी ग्रुप ने ही मनोरंजन और खबरें देखने के अधिकार को लोकतांत्रिक रूप दिया था।
डॉ. सुभाष चंद्रा ने कहा कि ये दुर्भाग्य है कि प्रेस फ्रीडम में विश्व में भारत की रैकिंग 180 देशों में 159 नंबर पर है। जब इस बारें में मैं सोच रहा था, तो मेरे दिमाग में पूरी एक फिल्म रीप्ले कर गई। इस देश में मैं निजी सेटेलाइट टेलिविजन के फाउंडर के रूप में भी जाना जाता हूं। 1991 में दूरदर्शन के अलावा कोई दूसरा टेलीविजन चैनल नहीं था और तब मैंने इसकी शुरुआत की थी और आज ये एक इंडस्ट्री बन चुकी है। आज भारत में शायद पांच सौ से ज्यादा निजी टेलीविजन चैनल हैं। लगभग आठ लाख से ज्यादा लोग सीधे तौर पर इस इंडस्ट्री से रोजगार के तौर पर जुड़े हुए हैं। अप्रत्यक्ष रूप से यह संख्या लगभग सत्रह से बीस लाख के करीब हो सकती है, जो लाभार्थी हुए हैं।
इस दौरान डॉ. चंद्रा ने एक पुरानी घटना का जिक्र करते हुए कहा कि मुझे 1991 के दिवाली के समय का वो दिन याद आया, जब उस समय के भारत सरकार के सूचना-प्रसारण मंत्रालय के तत्कलीन सचिव स्वर्गीय श्री महेश प्रसाद जी से उनके दफ्तर में मिलने गया था और जब उनसे कहा कि मैं एक निजी सेटेलाइट टीवी चैनल शुरू कर रहा हूं, लिहाजा कानून के न होते हुए मैं आपको समर्पित करता हूं। जिस तरह से आप दूरदर्शन को निर्देशित करते हैं, उसी तरह से आप इस चैनल को भी निर्देशित कर सकते हैं। इस पर वह नाराज हो गए और नाराजगी भरे लहजे में उन्होंने कहा कि डॉ. चंद्रा मैं आपको यह नहीं करने दूंगा और यदि आप ऐसा करेंगे तो मैं आपको जेल में डाल दूंगा। उन्होंने बताया कि यह सुनकर मैं स्तब्ध रह गया और मैं उनसे यह कहकर निकल आया, मैं तो ऐसा करूंगा, आपको जो करना हैं आप करिए और मुझे जो करना है, वो मैं करूंगा।
डॉ. चंद्रा ने आगे कहा कि आज करीब तेतीस वर्ष बाद भी ऐसा ही कुछ महसूस हो रहा है, पर इसका जिक्र मैं फिर कभी करूंगा, लेकिन आज इतना ही कहूंगा कि जी नेटवर्क को देश-विदेश भारतीय भाषाओं में और दस विदेशी भाषाओं में मिलाकर हर रोज करीब 150 से 155 करोड़ लोग देखते हैं।
इस दौरान डॉ. चंद्रा ने दर्शकों से अपील की कि आप सबका प्यार जी नेटवर्क के साथ, जी न्यूज के साथ बना रहे। इसके लिए मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि हम भरसक प्रयास करेंगे कि सीधी, सच्ची न्यूज आपके घर तक, आपके मोबाइल्स में हर जगह पहुंचती रहे।
पूर्व राज्यसभा सांसद डॉ. सुभाष चंद्रा का ये पूरा संदेश आप यहां सुन सकते हैं-
हिंदुओं और राष्ट्र प्रेमियों, जागो, उठो, मोदी के लिये नहीं, राष्ट्र रक्षा के लिए १०० % मतदान करो
विदेश मंत्री डा. जय शंकर ने क्या कहा- विश्व एक बहुत ही गंभीर दौर से गुजर रहा है। भारत को कमजोर करने की कोशिशें निरंतर चल रही हैं। आने वाले दिनों में ये कोशिशें और षड्यंत्र और तेज होगें। देश को एक बहुत ही समर्थ नेतृत्व व शक्तिशाली सरकार की आवश्यकता है जो इन भारत विरोधी शक्तियों से प्रभावशाली ढंग से लड़ सके। पिछले १० वर्षों में मोदी जी के नेतृत्व में भारत ने विश्व में एक ऐसा स्थान बना लिया है कि वो अग्रणी राष्ट्रों की श्रेणी में खड़ा दिखाई देता है। वह विश्व कि पांचवी अर्थ व्यवस्था से चौथी बनने के कगार पर है।
२०% की एक जिहादी, खालिस्तानी, और वामी देशतोड़कों की आबादी है जो तय कर के बैठी है कि हिंदु भारत को नीचा दिखाना है। कुछ अन्य भी स्वार्थी तत्व हैं जो भारत को तहस नहस करना चाहते हैं सत्ता में अाने के लिये। ये हिंदु परिवारों को तोड़ देना चाहते हैं और पूरे समाज को अमीर-गरीब, जात-पांत, भाषा, क्षेत्र, वर्ग, आदि के नाम पर बांट कर सत्तानशीन होना चाहते हैं इनके षडयंत्र अब ढके छुपे भी नहीं है। देश के बाहरी शत्रु इन तत्वों को अब खुला समर्थन दे रहे हैं।
आप सब जानते हैं और साफ देख सकते हैं कि पिछले दस वर्षों में देश कितनी तीव्र गति से आगे बढ़ा है। मैने अपने जीवन काल में विकास की ऐसी रफ्तार नहीं देखी। पिछले दस वर्षों में हमने किसानों की आत्महत्या या भूखमरी की खबरें नहीं पढ़ीं । सड़कों पर भिखारी नहीं मिलते। घर के काम के लिये किसी बढ़ई, कारीगर, प्लंबर, पेंटर, इलेक्ट्रिशियन। आदि को खोजने जाइये तो कोई नहीं मिलता। सब्ज़ी भाजी और फलों के रंग बिरंगी ठेले भरे पड़े हैं। सब संपन्न हो रहे हैं। गरीबी घटी है, मिटने की कगार पर है। भ्रष्टाचार कम होता जा रहा है। सरकारी योजनायों का लाभ आम जन तक पहुंच रहा है।
दिल्ली में हिंदू सरकार बनानी है। प्रत्याशी से वैसे भी हमारा काम कम ही पड़ता है। उसे देखने से बस आँख को सुकून भर ही मिलता है। वह प्रत्याशी जीत कर देश के नेतृत्व के साथ खड़ा रहे यही आवश्यक है। आप की बात ऊपर तक पहुंचाता रहे। देश की रीतियों और नीतियों को देखना है। उन्हीं के कारण देश का सम्मान बढ़ा है और सही अर्थों में विकास की बहार दिखने लगी है। चाहे वो मुंबई हो या बनारस, आमूल चूल परिवर्तन हो रहे हैं। इसीलिये पूरे उत्साह के साथ बाहर निकलिये। EVM पर कमल या राजग के दलों के चुनाव चिन्ह देखिये और बटन दबा दीजिये।
बहुत सिद्धांतवादी मत बनिये। यदि प्रभु राम और कृष्ण बहुत सिद्धांतवादी बनते तो अधर्म पर धर्म की जीत नहीं होती, न रामायण में न महाभारत में। व्यक्तिगत नहीं वृहत्तर सामाजिक और राष्ट्रीय स्वार्थ के लिये मतदान किजिये। हरदम मुझे ये नहीं मिला, वो नहीं मिला करने में कोई सुख नहीं है। प्रत्याशी की मीन मेख निकालने निकलेगें तो सब में कमी निकलेगी। वो हमारे समाज से ही आते हैं। उनका दूध का धुला होना संभव नहीं है। वो किन नीतियों के साथ खड़े होंगे आगामी लोकसभा में वह महत्वपूर्ण है।
सोचने की बात ये भी है कि क्या कट्टर मुसलमान और कुटिल ईसाईयों का एक बड़ा वर्ग प्रत्याशी देख कर या विकास के नाम पर मतदान कर रहा है? नहीं न। वो मोदी को अपदस्थ करने के लिये मतदान केंद्र पर लंबी कतार में खड़ा दिखता है। वो माफिया सरगनाओं और भ्रष्टाचारी मक्कारों तक को बेहिचक वोट देता है।
उसे बस यही लगता है कि मोदी राज में हिंदुओं का वर्चस्व है और उसे अभ्यास नहीं है हिंदु राज में रहने का। यथार्थ है कि मोदी ने उनका कोई बुरा नहीं किया। फिर भी वो मोदी विरोध में खड़े हैं, अपने मुल्ला मौलवियों और पादरियों की पुकार पर।
हिंदुओं में तो ऐसी कोई संस्था नहीं है जो ऐसी पुकार लगाये। इसीलिये हिंदुओं को स्वप्रेरणा से ऐसा करना होगा। जब ईसाई और मुसलमानों का एक बड़ा तबका १००% मतदान कर सकता है केवल मोदी को हटाने के लिये तो हम हिंदू और राष्ट्रवादी कौन से गये गुजरे हैं कि १००% मतदान नहीं कर सकते मोदी को जिताने के लिये? तो टूट पड़िये मतदान केंद्रों पर, धर्म और अधर्म की लड़ाई के इस कुरुक्षेत्र में धर्म की पताका फहरानी है।
ईमान (इस्लाम) के लिये हिंदुस्तान को भी बर्बाद कर देगें ये। ऐसे ही मुल्ला मौलवी हिंदु नेताओं का सिर तन से जुदा करने का षड़यंत्र रच रहे हैं। ये ज़ोर शोर से हिम्मत कर के बोल रहे हैं। इनका नंगा नाच तब दिखेगा जिस दिन मोदी और योगी जैसे नहीं रहेगें। ये स्वयं ऐसा कहते चलते हैं।
फिर हम देख रहे हैं कर्नाटक, बंगाल, तेलंगाना, केरल और तमिलनाडु में ऐसा होता हुआ। गरीब हिंदुओं को ये मुस्टंडे भैंसानुमा मौलाना डरा कर रखते रहे हैं अपने डील डौल से। अब जा कर उनका आत्म सम्मान लौटने लगा है, ये दुखी और विचलित हैं।
जहाँ भी मूलत: इनके वोटों से चुनी हुई सरकारें हैं वहां ये किसी कानून को नहीं मानते। वो सरकारें इनके अतिवादियों को सुरक्षा प्रदान करती हैं। मुख्यमंत्री स्तर के जातिवादी नेता भी इनके सामने नतमस्तक रहते हैं। चाहे वो मुलायम या अखिलेश हों, लालू या तेजस्वी हों, ममता बनर्जी हों, या सोनिया-राहुल हों, सब नतमस्तक रहते रहे हैं अतीक, मुख्तार, शहाबुद्दीन, बुखारी, और शाहजहां जैसों के आगे। सारा यदुवंशी, बंगाली, और नेहरु खानदानी आत्मसम्मान इस जिहादी माफिया के आगे दंडवत् लेट जाता है।
इनका विकास से कुछ नहीं लेना देना। ये सपना देखते हैं गजवा-ए-हिंद का। एक फ़तवे पर ये टिड्डी दलों की तरह मतदान की पंक्ति में जा खड़े होते हैं। ये प्रत्याशियों के जीवन चरित्र नहीं पढ़ते मतदान करने से पहले। इनके मतदान का बस एक ही आधार है, मोदी और योगी को हराना और हिंदुओं का मान-मर्दन। हिंदु इनके इलाकों से सिर उठा कर न निकल पाये यही चाहते हैं ये। इन्हें यही दुख सालता है कि मोदी और योगी राज में हिंदु सिर उठा कर घूमने लगा है।
तो जात पाँत भूल जाइये, और मंहगाई-बेरोज़गारी के झूठे रोने धोने के नाटक में मत फँसिये। राम घर घर और कण कण में हैं, राम मंदिर तो व्यापार है ये क़िस्सा भी सुनाया जायेगा आप को लेकिन ये कोई नहीं बतायेगा कि ख़ुदा की इबादत के लिये बाबरी मस्जिद ही क्यों चाहिये।
ध्यान रखिये जिद दिन आप अपने आराध्य का सम्मान करना और ऊनके लिये लड़ना छोड़ देगें, ये जिहादी आप के सीने पर मूंग दलेगें; आप की माता, बहन, और बेटियों का सम्मान और उनका शील क्षत् विक्षत् होगा। ये हो चुका है, और हो रहा है। जब पप्पू, अखिलेश, तेजस्वी राज में लव जिहादियों के झूंड निकलेगें आप सहन नहीं कर पायेगें और ना ही उनको रोक पाएँगें।
मतदान कीजिये जिससे कि आप अपने आराध्य की निर्बाध पूजा कर सकें, अपना अत्म सम्मान बचा सकें। आत्म सम्मान के आगे सब कुछ नगण्य है।
हिंदुओं और राष्ट्र प्रेमियों, निकलो बाहर मतदान के लिये। ये धर्म और राष्ट्र रक्षा का युद्ध है। पुरानी गलती नहीं दुहरानी है। घूस खा कर अपने क़िले के दरवाज़ों को नहीं खोलना है।
जन्म कुंडली में मांगलिक दोष
तहक्षी
मांगलिक दोष क्या है? मांगलिक दोष तथा विवाह का संबंध मंगल दोष से मुक्ति के उपाय कुंडली में मंगल की स्थिति के कारण मांगलिक दोष होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जब किसी व्यक्ति की कुंडली में मंगल 1, 4, 7, 8 तथा 12 वें भाव में होता है तो माना जाता है कि व्यक्ति मांगलिक है।
मंगल (ग्रहों का सेनापति) मंगल को शक्ति, साहस, पराक्रम और ऊर्जा का कारक माना जाता है। कुंडली में इसकी शुभ स्थिति किसी भी व्यक्ति के लिए शुभ साबित होती है। लेकिन अगर कुंडली में इसका स्थान पहले, चौथे, सातवें, आठवें और बारहवें भाव में हो तो इस स्थिति को मांगलिक दोष कहते हैं। यह दोष वैवाहिक जीवन को प्रभावित करता है और इसके कारण व्यक्ति के विवाह में अनेक रूप की बाधाएं भी आती हैं।
मांगलिक दोष तथा विवाह का संबंध ज्योतिष शास्त्र के अनुसार मंगल का विवाह से बहुत संबंध है। जब किसी व्यक्ति की कुंडली में मंगल की स्थिति कमजोर होती है तो वह मांगलिक होता है। ऐसे में अगर किसी व्यक्ति की शादी गैर मांगलिक लड़के या लड़की से हो जाती है तो वैवाहिक जीवन में कई तरह की परेशानियां आने लगती हैं। कई बार कलह इतनी बढ़ जाती है कि जीवनसाथी से अलगाव हो जाता है।
मंगल दोष से मुक्ति के उपाय ज्योतिष शास्त्र में लड़का या लड़की के मांगलिक होने पर कई उपाय बताए गए हैं। इन्हें अपनाकर मांगलिक समस्या से मुक्ति पाई जा सकती है। अगर लड़की मांगलिक है तो विवाह से पहले कुंभ विवाह, विष्णु विवाह या अश्वत्थ विवाह कराया जाता है। हर मंगलवार को हनुमान चालीसा का पाठ करें। प्रतिदिन शिवलिंग पर जलाभिषेक और दूधाभिषेक के साथ लाल फूल भी चढ़ाएं। घर आने वाले मेहमानों को मिठाई खिलाने से भी मंगल दोष काफी हद तक कम हो सकता है। हर मंगलवार को भगवान शिव को शहद चढ़ाएं। इससे भी मंगल दोष से राहत मिलती है।
हनुमान जी को केसरिया रंग का चोला चढ़ाएं। मंगलवार को घर में केसरिया आकार के छोटे गणपति लाएं और उनकी नियमित पूजा करें। मंगल दोष से मुक्ति पाने के लिए आप हर मंगलवार को मंगल ग्रह स्तोत्र का पाठ भी कर सकते हैं। मंगल दोष को कम करने के लिए आप किसी कर्मकांडी पंडित जी से मंगल की शांति के लिए हवन करवा सकते हैं। हवन में भगवान मंगल को कुछ आहुति देने से यह दोष जल्द ही कम हो जाता है। ग्रहों का संबंध रंगों से भी होता है। लाल रंग भी मंगल का प्रतिनिधित्व करता है।
इसलिए मंगल दोष से मुक्ति पाने के लिए आप लाल रंग के कपड़े पहन सकते हैं। मंगलवार के दिन स्नान आदि से निवृत्त होकर लाल रंग के कपड़े पहनें और मूंगे की माला से मंगल के मंत्र का जाप करें। मंत्र इस प्रकार है- ॐ अंग अंगारकाय नमः। ऐसा करने से आपको मंगल के दुष्प्रभावों से कुछ हद तक राहत मिलेगी।
साभार- https://twitter.com/yajnshri से
मनुष्य इसी वन में जंगली जानवरों के बीच फँसा हुआ है
एक बार विदुर जी संसार भ्रमण करके धृतराष्ट्र के पास पहुँचे तो धृतराष्ट्र ने कहा, “विदुर जी ! सारा संसार घूमकर आए हो आप, कहिये कहाँ-कहाँ पर क्या देखा आपने ?”
विदुर जी बोले, “राजन् ! कितने आश्चर्य की बात देखी है मैंने। सारा संसार लोभ शृंखलाओं में फँस गया है। काम, क्रोध, लोभ, भय के कारण उसे कुछ भी दिखाई नहीं देता, पागल हो गया है। आत्मा को वह जानता ही नहीं।”
तब एक कथा उन्होंने सुनाई। एक वन था बहुत भयानक। उसमें भूला-भटका हुआ एक व्यक्ति जा पहुँचा। मार्ग उसे मिला नहीं। परन्तु उसने देखा कि वन में शेर, चीते, रीछ, हाथी और कितने ही पशु दहाड़ रहे हैं। भय से उसके हाथ-पाँव काँपने लगे। बिना देखे वह भागने लगा।
भागता-भागता एक स्थान पर पहुँच गया। वहाँ देखा कि पाँच विषधर साँप फन फैलाये फुङ्कार रहे हैं। उनके पास ही एक वृद्ध स्त्री खड़ी है। महाभयंकर साँप जब इसकी और लपका तो वह फिर भागा और अन्त में हाँफता हुआ एक गड्ढे में जा गिरा जो घास और पौधों से ढका पड़ा था।
सौभाग्य से एक बड़े वृक्ष की शाखा उसके हाथ में आ गई। उसको पकड़कर वह लटकने लगा। तभी उसने नीचे देखा कि एक कुआँ है और उसमें एक बहुत बड़ा साँप ―एक अजगर मुख खोले बैठा है। उसे देखकर वह काँप उठा। शाखा को दृढ़ता से पकड़ लिया कि गिरकर अजगर के मुख में न जा पड़े। परन्तु ऊपर देखा तो उससे भी भयंकर दृश्य था। छः मुख वाला एक हाथी वृक्ष को झंझोड़ रहा था और जिस शाखा को उसने पकड़ रखा था, उसे सफेद और काले रंग के चूहे काट रहे थे। भय से उसका रंग पीला पड़ गया, परन्तु तभी शहद की एक बूँद उसके होंठों पर आ गिरी।
उसने ऊपर देखा। वृक्ष के ऊपर वाले भाग में मधु-मक्खियों का एक छत्ता लगा था, उसी से शनैः–शनैः शहद की बूँदें गिरती थीं। इन बूँदों का स्वाद वह लेने लगा। इस बात को भूल गया कि नीचे अजगर है। इस बात को भूल गया कि वृक्ष को एक छः मुख वाला हाथी झंझोड़ रहा है। इस बात को भी भूल गया कि जिस शाखा से वह लटका है उसे सफेद और काले चूहे काट रहे हैं और इस बात को भी कि चारों ओर भयानक वन है जिसमें भयंकर पशु चिंघाड़ रहे हैं।
धृतराष्ट्र ने कथा को सुना तो कहा, “विदुर जी ! यह कौन से वन की बात आप कहते हैं? कौन है वह अभागा व्यक्ति जो इस भयानक वन में पहुँचकर संकट में फँस गया?”
विदुर जी ने कहा―”राजन् ! यह संसार ही वह वन है। मनुष्य ही वह अभागा व्यक्ति है। संसार में पहुँचते ही वह देखता है कि इस वन में रोग, कष्ट और चिन्तारुपी पशु गरज रहे हैं। यहाँ काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार के पाँच विषधर साँप फन फैलाये फुफकार रहे हैं।
यहीं वह बूढ़ी स्त्री रहती है जिसे वृद्धावस्था कहते हैं और जो रुप तथा यौवन को समाप्त कर देती है। इनसे डरकर वह भागा। वह शाखा, जिसे जीने की इच्छा कहते हैं, हाथ में आ गई। इस शाखा से लटके-लटके उसने देखा कि नीचे मृत्यु का महासर्प मुंह खोले बैठा है।
वह सर्प, जिससे आज तक कोई भी नहीं बचा, ना राम, न रावण, न कोई राजा न महाराजा, न कोई धनवान न कोई निर्धन, कोई भी कालरुपी सर्प से आज तक बचा नहीं; और छः मुख वाला हाथी जो इस वृक्ष को झंझोड़ रहा था वह वर्ष है― छः ऋतु वाला। छः ऋतुएँ ही उसके मुख हैं। लगातार वह इस वृक्ष को झंझोड़ता रहता है; और इसके साथ ही काले और श्वेत रंग के चूहे इस शाखा को तीव्रता से काट रहे हैं; ये रात और दिन आयु को प्रतिदिन छोटा कर रहे हैं, यही दो चूहे हैं।
वैश्विक हिंदी सम्मेलन का चुनावी माँग-पत्र
डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’
राष्ट्र केवल कोई भूमि का टुकड़ा नहीं होता। राष्ट्र बनता है उसकी सभ्यता और संस्कृति से, वहाँ के ज्ञान – विज्ञान, धर्म आध्यात्म और मौलिक चिंतन से। भाषा के माध्यम से ये निरंतर आगे बढ़ते हैं। यह भी कह सकते हैं कि भाषा एक बहती हुई नदी की तरह है, जिनके किनारों पर सभ्यताएँ जन्म लेती और बढ़ती हैं। जिस प्रकार किसी नदी में विभिन्न प्रकार के जीव पलते और बढ़ते हैं, वैसे ही भाषा रूपी नदी में वहाँ का ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-संस्कृति, धर्म-आध्यात्म, विचार-चिंतन, समय और स्थान के साथ-साथ अपना स्वरूप बदलते हुए पलते और आगे बढ़ते है। भाषा रूपी नदी सूखी तो इनमें से कुछ न बचेगा। इसीलिए विश्व के सभी विद्वानों, चिंतकों, शिक्षाविदों एवं दार्शनिकों ने मातृभाषा को श्रेष्ठतम भाषा माना है।
अगर हम पीछे मुड़कर देखें तो यह माना जाता रहा है और बार- बार यह हुआ है कि किसी देश को मिटाना हो तो उसकी भाषाएँ मिटा दीजिए, उनका अपना तो कुछ भी है स्वत: मिट जाएगा. स्वाभिमान तक भी न बचेगा। जब कोई भाषा मिटती है या सिमटती है तो उसके साथ-साथ उसकी पूरी संस्कृति और हजारों वर्ष की विरासत भी बह जाती है। भाषा जाएगी तो उसका मौलिक ज्ञान – विज्ञान उसकी संस्कृति और हजारों वर्षों से अर्जित उसकन ज्ञान-विज्ञान सब मिटता जाएगा।
इतिहास गवाह है, जब कोई आक्रांता या विदेशी शासक आता है तो पहले वहाँ की भाषा-संस्कृति को नष्ट करने का प्रयास करता है। जब भाषा जाएगी तो उसमें निहित समग्र ज्ञान-विज्ञान को भी बहा कर ले जाएगी। फिर जो भाषा आएगी वह अपने साथ अपनी संस्कृति भी लाएगी, और वहाँ के लोगों के दिलो-दिमाग को उसके माध्यम से मानसिक गुलाम भी बनाएगी।
यहाँ यह बताना अनुचित न होगा कि समाज को अपने धर्म और आध्यात्म से मिटा कर अपना लाने के लिए भी भाषा को मिटाया जाता है। यदि हम लॉर्ड मैकॉले द्वारा अपने पिता को लिखे गए पत्रों को देखें तो उससे साफ समझ में आता है कि भारत के अंग्रेजीकरण के पीछे उसका एक उद्देश्य भारत के लोगों को मानसिक रूप से गुलाम बनाने, अपने स्वाभिमान तथा आत्म गौरव के साथ-साथ धर्मांतरण का मार्ग प्रशस्त करना भी था।
यदि हम विश्व की बात करें तो भी हम पाते हैं कि किसी भी देश में विदेशी आक्रमणकारियों द्वारा अपना शासन अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए स्थानीय भाषा अथवा भाषाओं को मिटाते हुए वहाँ पर उन्होंने अपनी भाषाओं का आधिपत्य स्थापित किया। इंग्लैंड ही नहीं फ्रांस, पुर्तगाल, हॉलैंड आदि अनेक देश जिन्होंने अनेक देशों पर शासन किया और उन्हें अपना उपनिवेश बनाया, वहाँ आज भी कमोबेश उनकी भाषा का आधिपत्य है। आज भी वहाँ के लोगों को अपनी भाषा, अपनी विरासत और अपने ज्ञान-विज्ञान से अधिक उस देश की भाषा-संस्कृति और ज्ञान-विज्ञान पर गर्व है, जिन्होंने उन पर शासन किया था, जिन्होंने उन पर अत्याचार किए और जिन्होंने उन पर तरह-तरह के जुल्म किए थे।
अगर भारत की बात की जाए तो भारत पर करीब 1300 वर्ष विदेशी शासन रहा। लगभग सभी आक्रांताओं ने हम पर लगातार अनेक जुल्म किए। इस्लामी आक्रांता कभी लूट के लिए या कभी सत्ता के लिए भारत पर आक्रमण करते रहे और उन सब ने लूट के अलावा तलवार की नोक पर बड़े पैमाने पर भारत के लोगों का धर्मांतरण भी किया। भारत पर इस्लामी आक्रांता अलग- अलग समय में किसी एक जगह से नहीं बल्कि अलग-अलग दिशाओं से आते रहे। जो आया उसने अपनी भाषा चलाने की कोशिश की।
इनमें से कुछ ने भारत के अलग-अलग हिस्सों पर अपना शासन भी कायम किया। इसीका परिणाम था कि कभी अरबी, कभी फ़ारसी और कभी इनके मिश्रित रूप शासन, प्रशासन, न्याय और रोजगार का माध्यम बने रहे। इस्लामी शासन के दौर की कुछ कहावतें आज भी इनकी पुष्टि करती दिखाई देती हैं। ‘हाथ कंगन को आरसी क्या और पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या?’ एक और कहावत है, ‘पढ़े फ़ारसी बेचे तेल’ यानी उस दौर में पढ़ा-लिखा, विद्वान और बड़े पदों का दावेदार उसे ही माना जाता था जो उनकी भाषा यानी ‘फ़ारसी’ जानता था।
क्योंकि विदेशी आक्रांता तो मुट्ठी भर थे, बाकी उनकी पालकी ढोने वाले और उनके शासन-प्रशासन और लश्कर में शामिल लोग तो स्थानीय ही थे। इसलिए आगे चलकर स्थानीय भाषाओं में अरबी, फारसी के शब्द मिलकर एक नई भाषा का जन्म हुआ जिसे उर्दू कहा गया। उर्दू के लिए फारसी लिपि को अपनाया गया। अगर लिपि की बात छोड़ दें तो यह भाषा, अरबी फारसी आदि के शब्दों से लदी हिंदी ही तो है। यदि इसमें जबरन ठूँसे गए अरबी-फारसी के कुछ जटिल शब्दों को कम कर दें तो यह सरल हिंदी या हिंदुस्तानी ही तो है।
मुगल साम्राज्य के पतन के दौरान ही भारत में क्रमशः पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों और अंग्रेजों का आगमन शुरू हो गया था, जो भारत के विभिन्न भागों में अपनी सत्ता कायम करते जा रहे थे। सभी ने जनभाषा की उपेक्षा करते हुए स्थानीय भारतीय भाषाओं को मिटा कर शासन-प्रशासन और व्यवस्था में अपनी भाषा को स्थापित किया। आगे चलकर उनके बीच भारत में सत्ता के लिए संघर्ष भी हुआ। अंततः जब इस संघर्ष में अंग्रेज विजयी रहे तो भारत पर अंग्रेजों का साम्राज्य छाने लगा।
स्वतंत्रता पूर्व के समय तक भी गोवा, दमण-दीव और दादरा नगर हवेली में पुर्तगाली शासन कायम रहा और पुडुचेरी में फ्रांसीसियों का शासन रहा। आज भी आपको बड़ी संख्या में वहाँ ऐसे लोग मिल जाएंगे जो अपने स्थानीय भाषा कोंकणी के बजाय पुर्तगाली भाषा यानी पोर्तगीज़ पर गर्व करते मिलेंगे। पुडुचेरी जो की भाषा संस्कृति की दृष्टि से तमिल क्षेत्र है, वहां भी फ्रेंच पर गर्व करने वालों की कमी नहीं है। शेष भारत पर अंग्रेजी की वर्चस्व आज भी है। कारण साफ है कि विदेशी भाषा मौलिकता के बजाए विदेशी-गुलामी, विदेशी-सोच की ओर ले जाती है।
यह कहना अतिशयोक्ति न होगा कि स्वतंत्रता-संग्राम के दौरान महात्मा गांधी, विनोबा भावे, सुभाष चंद्र बोस, वीर सावरकर, सेठ गोविंद दास, पुरुषोत्तम दास टंजन, सरोजिनी मायडू, लाला लाजपत राय जैसे नेताओं के विचारों और प्रयासों के बावजूद अंग्रेजी-परस्तों की अच्छी खासी संख्या थी। संविधान सभा में भी डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अंग्रेजी के प्रयोग की छूट केनल 15 वर्ष के लिए ही दी थी। स्वतंत्रता के समय पूरे देश की आकांक्षा थी कि अंग्रेजों के साथ अंग्रेजी की सत्ता को भी हटाया जाए और देश का काम देश की भाषाओँ में हो। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। हुआ इसके ठीक उलट। स्वतंत्रता के समय भी देश में 99% से अधिक आबादी मातृभाषा में ही पड़ती थी लेकिन आगे चलकर जिस प्रकार की नीतियां अपनाई गई गांव-गांव तक और उच्च शिक्षा नहीं नर्सरी स्तर तक अंग्रेजी माध्यम को पहुंचा दिया गया व्यवस्था की रग-रग में अंग्रेजी को बसा दिया गया।
पूरे भारत में एक ऐसा वातावरण बना गया है कि ज्ञान-विज्ञान का मतलब अंग्रेजी है, शिक्षा रोजगार का मतलब अंग्रेजी है। संपन्नता और महत्वपूर्ण होने का मतलब अंग्रेजी है। एक प्रसिद्ध पुराना फिल्मी गाना है, ‘जाना था जापान पहुंच गए चीन, समझ गए ना।’ भारतीय भाषाओं के साथ यही हुआ। कहा तो यह गया था कि भारतीय भाषाओं को बढ़ाया जाएगा और अंग्रेजी को धीरे-धीरे हटाया जाएगा। देश की व्यवस्था देश की भाषाओं में चलेगी, लेकिन हुआ उसकी ठीक विपरीत।
हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के नाम पर लोग नाचते रहे, गाते रहे, धूम मचाते रहे, भाषा के दिवस मनाते रहे, सम्मेलन रचाते रहे, खाते और कमाते रहे। लेकिन धीरे-धीरे भारतीय भाषाओं को बहुत ही कमजोर कर दिया गया। तत्कालीन सरकारों ने हर क्षेत्र में अंग्रेजी को पुरजोर ढंग से बढ़ाया। आज भी देश के उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों में भारतीय भाषाओं का नहीं अंग्रेजी का वर्चस्व है। जबकि सच्चाई तो यह है कि विश्व के सभी संपन्न और विकसित देश वही है जहाँ अपनी मातृभाषा के माध्यम से पढ़ाई होती है और काम होता है। उन देशों की समग्र व्यवस्था और विधि व न्याय-प्रणाली उनकी भाषा में ही है। लाकिन भारत में इसके ठीक विपरीत धारणा विकसित की गई है।
नई शिक्षा नीति के माध्यम से भारत सरकार भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाती हुई दिख तो रही है लेकिन इस मामले में कोई ठोस प्रगति अभी धरातल पर नजर नहीं आती। यहाँ भी न्यायपालिका अंग्रेजी के पक्ष में खड़ी दिखाई देती है। शासन-प्रशासन में भी भारतीय भाषाओं को ले कर कोई बड़ा परिवर्तन दिखाई नहीं देता।
ऐसी में हमारी तो सभी राजनीतिक दलों से यह माँग है कि वे वादा करें कि वे भारतीय भाषाओं को आगे बढ़ाएंगे, कम से कम स्कूली स्तर पर इस शिक्षा का माध्यम बनाएंगे। नई शिक्षा नीति के अनुसार स्कूलों में दो भारतीय भाषाएं कम से कम पढ़ने की व्यवस्था करेंगे। जब पूरी दुनिया के लोकतांत्रिक देश में सभी स्तरों पर जनभाषा में न्याय मिलता है तो हमारे यहां यह अन्याय क्यों है? नौकरी पाने के लिए विषय के ज्ञान की बजाए अंग्रेजी के ज्ञान पर जोर क्यों है ? लोगों को अपनी भाषा में नौकरी क्यों न मिले ? क्या कोई राजनीतिक दल इसके लिए अपनी बात कहेगा।
विदेशी भाषा के रूप में अंग्रेजी पढ़ाई जाए, इसमें किसी को कोई एतराज नहीं। अंग्रेजी ही नहीं, किसी विशेष उद्देश्य के लिए यदि कोई विद्यार्थी कोई अन्य विदेशी भाषा भी यदि विद्यार्थी सीखना चाहे तो विश्वविद्यालयों में विदेशी भाषा विभागों के माध्यम से उसकी व्यवस्था भी की जाए। हमारा मानना स्पष्ट है कि ज्ञान का कोई भी द्वारा कहीं से भी बंद न किया जाए। लेकिन अपनी भाषा की जगह विदेशी भाषा को ना लादा जाए। किसी देश में ज्ञान-विज्ञान का विकाल मौलिक चिंतन से ही होता है और मौलिक चिंतन अपनी भाषा में ही संभव है।
महात्मा गांधी का नाम और उनकी विरासत की राजनीति करने वालों को इस संबंध में महात्मा गांधी को पढ़ना भी चाहिए। उन्होंने कहा था ति यदि भारत में विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा से दी जाती तो आज जो हम भारत के तीन-चार आविष्कारकों के नाम लेते हैं, हमारे यहाँ इतने आविष्कारक होते कि हम इन्हें याद तक न करते। लेकिन अंग्रेजी-परस्ती के इतिहास ने मौलिक-चिंतन के माध्यम, यानी मातृभाषा में शिक्षा के मार्ग को पूरी तरह बंद कर दिया।
देश के करोड़ों विद्यार्थी, प्रतिभाशाली और मेधावी विद्यार्थी केवल इसलिए आगे नहीं बढ़ पाए और पीछे रह जाते हैं क्योंकि सारी व्यवस्थाएं अंग्रेजी में है और अंग्रेजी की बड़े-बड़े विद्यालय उनकी पहुंच से दूर हैं। केवल अंग्रेजी के बल पर काम योग्य लोग भी आगे बढ़ रहे हैं और मेधावी पीछे छूट रहे हैं। यदि भारतीय भाषाओं के माध्यम से देश की शिक्षा और संपूर्ण व्यवस्था चलने लगे तो कुछ करोड़ ही नहीं बल्कि 140 करोड लोग तेजी से आगे बढ़ने लगेंगे और निश्चित ही भारत अति शीघ्र विश्व की महान शक्ति बन सकेगा।
हमारा चुनावी माँग-पत्र बहुत ही सपष्ट है। हमें चाहिए जनभाषा में विधि- न्याय, व्यापार,-व्यवसाय, सभी स्तरों पर सरकारी या गैर सरकारी आवश्यक सूचनाएँ (जो कानूनी रूप से दी जानी आवश्यक हैं। ) जनभाषा में शिक्षा ही नहीं रोजगार भी देने की व्यवस्था की जाए। सरकारी कार्यालयों और कंपनियों में ही नहीं निजी स्तर पर भी भारतीय भाषाओं में पढ़ने वालों के लिए रोजगार की व्यवस्था करवाई जाए। भारतीय ज्ञान-विज्ञान, साहित्य-संकृति को शिक्षा में समुचित स्थान दिया जाए। अंग्रेजी के नक़लतंत्र के स्थान पर मौलिक चितंन और मौलिक आविष्कारों का मार्ग प्रशस्त किया जाए।
(लेखक भारत सरकार के गृह मंत्रालय के सेवानिवृत्त क्षेत्रीय उपनिदेशक तथा ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन संस्था’ के संस्थापक व निदेशक हैं।)
आर्य नरेश राजर्षि छत्रपति शाहू महाराज कोल्हापुर नरेश
नसीब (1981) फिल्म बनने की 15 रोचक और अनसुनी कहानियां…
अमरनाथ मिश्रा
जब अमिताभ बच्चन के एक गाने के लिए जमा हो गई लगभग पूरी फिल्म इंडस्ट्री। तस्वीर देखकर आप समझ ही गए होंगे कि ये किस फिल्म के और कौन से गीत की बात हो रही है। नसीब फिल्म के जॉन जानी जनार्दन गीत के पिक्चराइज़ेशन के लिए फिल्म इंडस्ट्री के बड़े-बड़े स्टार्स जमा हो गए थे। आज नसीब फिल्म को रिलीज़ हुए 43 साल पूरे हो गए। 1 मई 1981 को नसीब रिलीज़ हुई थी। मनमोहन देसाई द्वारा निर्देशित नसीब ने बॉक्स ऑफिस पर ज़बरदस्त प्रदर्शन किया और सुपरहिट रही। फिल्म के गीत बहुत हिट हुए थे। सभी गीत लिखे थे आनंद बक्षी जी ने और गीत कंपोज़ किए थे लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल ने। चलिए नसीब फिल्म से जुड़ी कुछ रोचक बातें जानते हैं।
01- नसीब 1981 की दूसरी सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फिल्म थी। पहले नंबर पर थी मनोज कुमार की क्रांति। और तीसरे नंबर पर थी जितेंद्र-हेमा मालिनी की मेरी आवाज़ सुनो। चौथे नंबर पर थी अमिताभ बच्चन की लावारिस और पांचवे नंबर पर थी कुमार गौरव की लव स्टोरी। संजय दत्त की डेब्यू फिल्म रॉकी भी उस साल टॉप 10 फिल्मों की लिस्ट में जगह बनाने में कामयाब रही थी। रॉकी कमाई के मामले में 10वें पायदान पर थी।
02- मनमोहन देसाई चाहते थे कि नसीब में वो एक बार फिर से अमर अकबर एंथोनी की मशहूर तिकड़ी को दोहराएं। अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर तो ईज़िली अवेलेबल हो गए। लेकिन विनोद खन्ना से नसीब फिल्म के लिए बात नहीं बन सकी। क्योंकि उस वक्त विनोद खन्ना फिल्मों से ब्रेक लेने की तैयारी कर चुके थे। तब वो रोल जिसमें मनमोहन देसाई विनोद खन्ना को लेना चाहते थे, वो शत्रुघ्न सिन्हा को मिला।
03- नसीब आखिरी फिल्म है जिसमें अमिताभ बच्चन ने शत्रुघ्न सिन्हा के साथ काम किया था। कहा जाता है कि शत्रुघ्न सिन्हा की लेट-लतीफी अमिताभ बच्चन को बिल्कुल भी पसंद नहीं आती थी। क्योंकि अमिताभ बच्चन ठहरे वक्त के एकदम पाबंद। और शत्रुघ्न सिन्हा शूटिंग पर पहुंचते थे काफी लेट। वैसे साल 2008 में ‘यार मेरी ज़िंदगी’ नाम से इन दोनों की एक फिल्म ज़रूर आई थी। लेकिन वो बहुत साल पहले की फिल्म थी जो बहुत देर से रिलीज़ हुई थी। वो फिल्म तो नसीब से भी काफी पहले बननी शुरु हुई थी।
04- नसीब पहली फिल्म थी जिसका ट्रेलर दूरदर्शन पर दिखाया गया था। उससे पहले अपकमिंग फिल्मों के ट्रेलर्स सिनेमाघरों में रिलीज़ हो चुकी फिल्मों के साथ ही नज़र आते थे। लेकिन नसीब पहली भारतीय फिल्म बनी जिसका ट्रेलर टीवी पर दिखाया गया था। वैसे, सिनेमाघरों में ट्रेलर दिखाने की परंपरा तो आज भी जारी है। और ये एक अच्छी परंपरा है।
05- नसीब फिल्म के गीत ‘रंग जमाके जाएंगे’ से एक दिलचस्प कहानी जुड़ी है। अब जब आप इस गाने को देखेंगे तो नोट कीजिएगा कि शत्रुघ्न सिन्हा के अधिकतर क्लॉज़ शॉट्स इस गाने में नज़र आते हैं। वो इसलिए क्योंकि शत्रुघ्न सिन्हा सही से डांस नहीं कर पा रहे थे। ऐसे में उनके एक बॉडी डबल को लॉन्ग शॉट्स में रखा गया था। और उनके सभी शॉट्स क्लॉज़ लिए गए थे।
06- ‘रंग जमाके जाएंगे’ गीत को मनमोहन देसाई एक एक्चुअल रिवॉल्विंग रेस्टोरेंट में पिक्चराइज़ करना चाहते थे। लेकिन उस वक्त मुंबई में मौजूद जो भी रिवॉल्विंग रेस्टोरेंट्स थे उन सभी के घूमने की स्पीड उससे कहीं ज़्यादा थी जितनी की मनमोहन देसाई चाहते थे। इसलिए उन्हें बाकायदा एक सेट बनवाना पड़ा और वहां वो गीत फिल्माना पड़ा।
07- नसीब फिल्म के सॉन्ग जॉनी जॉनी जनार्दन को पूरी तरह शूट करने में एक सप्ताह का वक्त लग गया था। और एक सप्ताह तक हर वो आर्टिस्ट स्टूडियो आया था जो उस गाने में दिखाई देता है। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि सभी आर्टिस्ट्स को मैनेज करने का काम राज कपूर जी को सौंपा गया था। हालांकि मुझे इस पर यकीन नहीं होता। लेकिन फिलहाल मैं इस बात को पूरी तरह से नकारने कहने की स्थिति में भी नहीं हूं।
08- नसीब में ऋषि कपूर के अपोज़िट पहले नीतू सिंह थी। नीतू सिंह ने एक सीन भी शूट कर लिया था। लेकिन फिर उन्होंने फिल्म छोड़ दी। उनकी जगह एक्ट्रेस किम को साइन किया गया। और जानते हैं नीतू सिंह ने नसीब क्योंं छोड़ी थी? क्योंकि ऋषि कपूर संग उनकी शादी हो गई थी। वैसे, किम से पहले एक्ट्रेस रंजीता से भी उस रोल के बारे में बात चली थी। लेकिन वो बात बनी नहीं।
09- नसीब में अभिनेता यूसुफ खान ज़िबिस्को भी दिखाई दिए थे। वास्तव में यूसुफ खान को ज़िबिस्को नाम मनमोहन देसाई ने ही दिया था। मनमोहन देसाई की फिल्म अमर अकबर एंथोनी में यूसुफ खान के कैरेक्टर का नाम ज़िबिस्को रखा गया था। उस फिल्म के बाद से ही यूसुफ खान फिल्म इंडस्ट्री में ज़िबिस्को के नाम से मशहूर हो गए थे।
10- मनमोहन देसाई ने पहले इस फिल्म की तीन रील्स ही शूट की और उन्हें अच्छे से एडिट करके डिस्ट्रीब्यूटर्स को दिखाया। इसलिए ताकि डिस्ट्रीब्यूटर्स को अंदाज़ा हो सके कि फिल्म पर कितना खर्च होगा। डिस्ट्रीब्यूटर्स ने फिल्म देखी और उन्हें फिल्म पसंद आई। उन्होंने मनमोहन देसाई को ये फिल्म बनाने की हरी झंडी दिखा दी।
11- इस फिल्म में आपने जीवन साहब को भी देखा होगा। जीवन साहब इस फिल्म में स्कूल प्रिंसिपल प्रोफेसर प्रेमी के किरदार में दिखे थे। और ये बात भी बड़ी अनोखी है कि जीवन साहब का रोल विलेनियस नहीं, बल्कि एक कॉमिक रोल था। बहुत कम ऐसी फिल्में हैं जिनमें जीवन जी ने विलेनियस किरदार नहीं निभाए हैं।
12- नसीब में रीना रॉय शत्रुघ्न सिन्हा के अपोज़िट दिखी हैं। पहले ये रोल एक्ट्रेस परवीन बॉबी निभाने वाली थी। लेकिन किन्हीं कारणों से परवीन बॉबी ने फिल्म छोड़ दी। रीना रॉय और अमिताभ बच्चन ने कभी किसी फिल्म में हीरो-हीरोइन की तरह काम नहीं किया। पूरे करियर में अमिताभ बच्चन ने रीना रॉय संग दो ही फिल्मों में काम किया था। एक तो थी नसीब जिसमें रीना रॉय अमिताभ बच्चन की बहन बनी थी। और दूसरी थी अंधा कानून जिसमें रीना रॉय और अमिताभ बच्चन का साथ में कोई सीन नहीं था।
13- एक्टर शक्ति कपूर को मनमोहन देसाई ने फिरोज़ खान की सिफारिश पर कास्ट किया था। शक्ति कपूर ने फिरोज़ खान की कुर्बानी फिल्म में अच्छा काम किया था। फिरोज़ खान शक्ति कपूर से काफी इंप्रैस थे। उन्होंने उस वक्त कई लोगों से शक्ति कपूर की सिफारिश की थी। मनमोहन देसाई उनमें से एक थे।
14- शक्ति कपूर ने साल 1997 में आई गोविंदा की फिल्म नसीब में भी एक छोटा सा विलेनियस रोल निभाया था। गोविंदा वाली नसीब में कादर खान भी थे। और कादर खान ने मनमोहन देसाई वाली नसीब में भी काम किया था। मनमोहन देसाई की नसीब में कादर खान शक्ति कपूर के बाप के रोल में थे। मनमोहन देसाई की नसीब में कादर खान के बड़े बेटे के रोल में अभिनेता प्रेम चोपड़ा नज़र आए थे। जबकी असल जीवन में कादर खान उम्र में प्रेम चोपड़ा से छोटे थे।
15- कुछ लोग कहते हैं कि एक्ट्रेस किम को नसीब में इसलिए काम मिला था क्योंकि उनका अफेयर मनमोहन देसाई के बेटे केतन देसाई से चल रहा था। हालांकि किम इन बातों को बकवास बताती हैं और कहती हैं कि वो और केतन सिर्फ अच्छे दोस्त थे। हालांकि ये बात सच है कि नसीब में उन्हें केतन की वजह से काम मिला था। नसीब के बाद किम को उम्मीद थी कि उनके पास फिल्मों के खूब ऑफर्स आएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।
साभार-https://www.facebook.com/amarnath.mishra1
उस बच्चे ने मन की बात न्यायालय के सामने कह दी
एक दिन सुनवाई के दौरान वह बच्चा भी कोर्ट आया. मैं उसे लेकर अपने चैंबर में गई ताकि यह सुनिश्चित कर सकूं कि वाकई में उसके लिए क्या उचित है. मैंने उससे पूछा, ‘तुम किसके साथ रहना चाहते हो ?’ उसने अंग्रेज़ी में जवाब दिया- ‘अपने पिता के साथ..’ ‘जब मैंने यह पूछा कि वह अपने पिता के साथ ही क्यों रहना चाहता है तो उसका कहना था, ‘क्योंकि वे मुझे बेहद प्यार करते हैं.’ मैंने कहा, ‘तुम्हारी मां तुम्हें प्यार नहीं करती हैं?” उसने चुप्पी साध ली.
सेठ लिखती हैं कि इसके बाद मैंने आगे पूछा, ‘क्या तुम्हें अपने पिता का घर पसंद है?’ जवाब था, ‘हां, हां, मैं पिता के साथ रहना चाहता हूं.” क्या तुमने अच्छी तरह सोच लिया है ?’ तो उसने कहा, ‘ हां, मैं अपने पिता को प्यार करता हूं और उनके साथ ही रहना चाहता हूं…’
लीला सेठ लिखती हैं इस सवाल-जवाब के क्रम में मैंने नोटिस किया कि बच्चा काफी तनाव में नजर आ रहा है. थोड़ी देर बाद मैंने अचानक हिंदी में सवाल-जवाब शुरू कर दिया और उससे पूछा, ‘अच्छी तरह सोचकर बताओ कि तुम कहां रहना चाहते हो?’ तो उसने तपाक से जवाब दिया, ‘मैं अपने नाना-नानी के साथ रहना चाहता हूं. वो मुझे बहुत चाहते हैं और मैं भी उन्हें बेहद प्यार करता हूं. फिर मैं अपनी मां से भी मिल सकूंगा जो कभी-कभार वहां आती रहती है.
बच्चे ने आगे कहा, ‘मैं कई साल तक अपने नाना-नानी के साथ रहा हूं, लेकिन जब मां को दूसरे शहर में नौकरी मिल गई तो पिता मुझे अपने साथ ले आए..’ यह कहकर वह रोने लगा.
इसके बाद मुझे अहसास हुआ कि अब वह बच्चा अपनी सच्ची भावनाएं अभिव्यक्त कर रहा है और पहले जो कुछ भी वह अंग्रेजी में कह रहा था, वो सब उसे तोते की तरह रटाकर लाया गया था. जाहिर है कि यह जानते हुए कि हाईकोर्ट की भाषा अंग्रेज़ी है और बच्चे से अंग्रेजी में ही सवाल किए जाएंगे, उसके पिता ने उसे जवाब रटाकर भेजे थे, लेकिन उसकी मातृभाषा हिंदी में बात करते ही सच्चाई सामने आ गई. लेकिन अब उसे यह डर सता रहा था कि उसने जो कुछ भी कह दिया है उस पर उसके पिता नाराज होंगे.
पद्म पुरस्कार-2025 के लिए नामांकन शुरू
गणतंत्र दिवस, 2025 के अवसर पर घोषित किए जाने वाले पद्म पुरस्कार-2025 के लिए ऑनलाइन नामांकन/सिफारिशें आज से शुरू हो गया है। पद्म पुरस्कारों के नामांकन की अंतिम तारीख 15 सितंबर, 2024 है। पद्म पुरस्कारों के लिए नामांकन/सिफारिशें राष्ट्रीय पुरस्कार पोर्टल https://awards.gov.in पर ऑनलाइन प्राप्त की जाएंगी।
पद्म पुरस्कार, अर्थात पद्म विभूषण, पद्म भूषण और पद्म श्री देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में शामिल हैं। वर्ष 1954 में स्थापित, इन पुरस्कारों की घोषणा प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस के अवसर पर की जाती है। इन पुरस्कारों के अंतर्गत ‘उत्कृष्ट कार्य’ के लिए सम्मानित किया जाता है। पद्म पुरस्कार कला, साहित्य एवं शिक्षा, खेल, चिकित्सा, समाज सेवा, विज्ञान एवं इंजीनियरी, लोक कार्य, सिविल सेवा, व्यापार एवं उद्योग आदि जैसे सभी क्षेत्रों/विषयों में विशिष्ट और असाधारण उपलब्धियों/सेवा के लिए प्रदान किए जाते हैं। जाति, व्यवसाय, पद या लिंग के भेदभाव के बिना सभी व्यक्ति इन पुरस्कारों के लिए पात्र हैं। चिकित्सकों और वैज्ञानिकों को छोड़कर अन्य सरकारी सेवक, जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में काम करने वाले सरकारी सेवक भी शामिल है, पद्म पुरस्कारों के पात्र नहीं हैं।
सरकार पद्म पुरस्कारों को “पीपल्स पद्म” बनाने के लिए प्रतिबद्ध है। अत:, सभी नागरिकों से अनुरोध है कि वे नामांकन/सिफारिशें करें। नागरिक स्वयं को भी नामित कर सकते हैं। महिलाओं, समाज के कमजोर वर्गों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों, दिव्यांग व्यक्तियों और समाज के लिए निस्वार्थ सेवा कर रहे लोगों में से ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों की पहचान करने के ठोस प्रयास किए जा सकते हैं जिनकी उत्कृष्टता और उपलब्धियां वास्तव में पहचाने जाने योग्य हैं।
नामांकन/सिफारिशों में पोर्टल पर उपलब्ध प्रारूप में निर्दिष्ट सभी प्रासंगिक विवरण शामिल होने चाहिए, जिसमें वर्णनात्मक रूप में एक उद्धरण (citation) (अधिकतम 800 शब्द) शामिल होना चाहिए, जिसमें अनुशंसित व्यक्ति की संबंधित क्षेत्र/अनुशासन में विशिष्ट और असाधारण उपलब्धियों/सेवा का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया हो।
इस संबंध में विस्तृत विवरण गृह मंत्रालय की वेबसाइट (https://mha.gov.in) पर ‘पुरस्कार और पदक’ शीर्षक के अंतर्गत और पद्म पुरस्कार पोर्टल (https://padmaawards.gov.in) पर उपलब्ध हैं। इन पुरस्कारों से संबंधित संविधि (statutes) और नियम वेबसाइट पर https://padmaawards.gov.in/AboutAwards.aspx लिंक पर उपलब्ध हैं।