डॉ. वैदेही गौतम के सृजन से गूंजते आशावादी स्वर

थका हारा सोचता मन

उलझती जा रही है उलझन
ओ! निराशा, तू बता क्या चाहती है?
मैं कठिन तूफान कितने झेल आया
मैं न हारा हूँ न हारूंगा कभी
अभी तो मेरे बहुत से बसंत है बाकी……..
थका हारा मन, उलझन, निराशा,हिम्मत और आशा के तानेबाने को कितने  ह्रदय स्पर्शी और  भावपूर्ण रूप से मुक्तक कविता में बुना है यह कवियित्री के शब्दोंं का ही जादू और सम्मोहन है, जिसकी दशा और चिंतन दिल को गहराई तक छू जाती है।
 ऐसी ही भावपूर्ण रचनाएं “न जा तू परदेश”रचना में नायिका अपने प्रीतम को अपने पास रखने के लिए कई तरह के जतन करती नजर आती है, “अंधों की सरकार”में आज के राजनैतिक माहौल पर कटाक्ष किया गया है,”प्रदूषण फैलाता इंसान”में आज के स्वार्थ वादी इंसान को दिखाया गया है, “स्त्री होना पाप है क्या ?” कविता में स्त्री का हर किसी से यही सवाल है कि स्त्री होना पाप होता है क्या ? ऐसे ही कई विषयों को लेखनी का माध्यम बना कर समाज में व्याप्त बुराईयों को उजागर करके आदर्श समाज की परिकल्पना कर आशावादी दृष्टिकोण का संदेश देना डॉ. वैदेही गौतम के सृजन का मूल उद्देश्य है। साथ ही इनकी रचनाएं व्यक्ति के व्यक्तित्व का चित्रण करके उसकी अच्छाइयों को उजागर करती है ताकि सकारात्मक सोच के माध्यम से समाज उन्नति व प्रगति कर सके। इनका लेखन  समाज की यथार्थता व समसामयिक परिस्थिति को उजागर करता प्रतीत होता है।
 यह गद्य और पद्य दोनों  विधाओं में लिखती है। कविताएं लिखना इनकी रुचि का विषय है। कविताओं, गीत और मुक्तकों में मनोवैज्ञानिक शैली का उपयोग कर मौलिक व स्वतंत्र लेखन से समाज में उन्नति, प्रगति, सकारात्मकता व प्रेम का संदेश देती है। इनकी रचनाएं मनुष्य को विषम परिस्थितियों में आशावादी दृष्टिकोण रखते हुए सतत गतिमान रहने के लिए प्रेरित करती हैं। गद्य विधा में ये अपने उद्देश के अनुरूप विचारात्मक व भावात्मक शैली में लेखन करती हैं। हिंदी भाषा को ही इन्होंने अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाया है। इनका  काव्य सृजन श्रृंगार रस और वीर रस से ओतप्रोत है। इनका साहित्य भक्ति कालीन कवि गोस्वामी तुलसीदास जी के  “रामचरितमानस ” को आदर्श मानकर लिखा गया है। इनकी रचनाएं मनोवैज्ञानिक कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय” व धर्मवीर भारती से प्रभावित काव्य रचनाएँ हैं। मन की शांति का अनुभव करना लेखन का मर्म है।
आज समाज में स्वार्थ इतना हावी हो गया है कि प्रेम भी दिखावटी बन गया है । अपनी काव्य रचना “अपना” में स्वार्थी व दिखावटी प्रेम करनें वाले व्यक्तिव पर कटाक्ष करते हुए लिखती  हैं…………….
यूँ ही मिल जाते हैं अपनें, जोड़ा तो जुड़ जाते
हैं,
छोड़ा तो साया बन जाते हैं ।
अपना- अपना कहने को, कोई अपना न नजर आता है,
 जो अपना है, समय आने पर वह सपना बन जाता है,
अपनों के साथ समय का पता चले न चले, समय के साथ अपनों का पता चल ही जाता है……..
स्वार्थी और दिखावटी प्रेम करने वालों की दुनिया में  ” ओ मेरे कान्हा ” काव्य में कवयित्री ने निश्छल प्रेम के प्रतीक कृष्ण को सर्वस्व अर्पण करते हुए लिखा है …..
ओ मेरे कान्हा, तुम्ही को अपना माना,
तुम्ही हो मेरे मन में, तुमने मन को जाना,
तुम्हे किया सर्वस्व अर्पण, तुमसे क्या छिपाना,
जैसे मुझे तुम प्यारे हो, वैसे ही तुम्हे मै प्यारी हूँ,
प्रेम का कोई मोल नहीं, अनमोल प्रेम को करना और कराना, प्रेम से ही होता है,
ओ मेरे कान्हा, तुम्ही को अपना माना…….
तेरी भक्ति से शक्ति मिली, शक्ति से तुष्टी मिली, तुष्टी से पुष्टि मिली, पुष्टि से संतुष्टि मिली, ओ मेरे कान्हा…..
“ओ मेरे प्रियतम, तुम हो मेरे ह्रदय की धड़कन, तुमको ढूंढा करते हरपल मेरे दो नयन” कविता में अपनें प्रियतम पर सर्वस्व न्यौछावर करने वाली नायिका का समर्पण भाव प्रदर्शित हुआ है। “प्रकृति पौरुष में तल्लीन” काव्य में प्रकृति व पौरुष के बीच मनमुटाव व अहम् का भाव आने पर निश्छल प्रेम गौण हो जाता है, ऐसी परिस्थितियों में प्रकृति रूपी नारी को दृढ़ निश्चयी व समरसता जन्म आनंदवाद की दात्री माना है, जो संधि पत्र लिखने की पहल करती है।
“संधि पत्र” काव्य में ” अन्तरात्मा का आर्तनाद, भरता मन में अति विषाद, करुणा से सजल अश्रु पात, करते प्रकृति में जल प्रपात, सरल सहज मन आत्मलीन का भावपूर्ण सृजन है। देखिए इस काव्य सृजन की बानगी…….
अन्तरात्मा का आर्तनाद, भरता मन में अति विषाद
करूणा से सजल अश्रुपात, करते प्रकृति में जलप्रपात
सरल सहज मन आत्मलीन प्रकृति पौरुष में तल्लीन
समष्टि- व्यष्टि में आत्मसात,जड़ चेतन का है एकनाद
समरसता जन्य आनंद वाद,कामायनी का यही सार
जन मन में भरता अति उल्लास,सहसा आया झंझावात
किसने किया वज्रपात,मनु श्रद्धा बीच इडा आयी
पुरुष प्रकृति में वह समाई,अहंकार नें विजय पायी
फिर भी नारी न डगमगाई,नारी तुम केवल श्रद्धा हो
समग्र सृष्टि के नभतल में,पीयूष स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुन्दर समतल में,अश्रु से भीगे अंचल पर
सर्वस्व समर्पण करना होगा,तुमको अपनी स्मित रेखा से
यह संधि पत्र लिखना होगा…. यह संधि पत्र  लिखना होगा….
“आत्माभिव्यक्ति: उडा़न” एक ऐसा काव्य सृजन है जिसमें रचनाकार ने स्वयं अपने मनोभावों को अभिव्यक्ति प्रदान की है। देखिए वे अपने बारे में क्या सोचती है, कहां उड़ान भरना चाहती हैं…………….
मैं इक नन्ही सी आशा,उड़ना चाहती इह लोक में
उड़ ना पाती इह लोक में,मीठी मीठी मेरी बोली
मिश्री सी उसमें है घोली,कुछ कहतें है प्यारी बोली
कुछ कहतें है है दोगली,मेरी आशा आह!बावली
सबको है अपना सा समझी,मेरा मन कम जन से बोले
निरख परख कर मन को खोले,कम बोलूं तो बोले घुन्नी
ना बोलूं तो मुंहचडी़ है मिन्नी, सुख दुःख में समरस हूँ रहती
अनुज अग्रज का आदर हूँ करती, इहलोक की परवाह न करती
अपने लक्ष्य पर बढती जाती, कर्म क्षेत्र से कभी न डरती
जब भी मे विचलित हो जाऊँ ,नीलकंठ की शरण में जाऊँ
मन हल्का कर वापस आऊं,नयी ऊर्जा को तन में पाऊँ
स्वनिंदक से कहतीं जाऊँ, मातपिता और सास ससुर की
आशाओं पर खरी उतरूंगी,उच्च शिक्षा में पदवी पाकर
उनके चरणों में सोपूंगी ,चाहे कितने कंटक आयें
कभी न हारूँ, कभी न भागूं ,मैं इक नन्ही सी आशा
उड़ती जाऊँ….. ,उड़ती जाऊँ….
 कोरोना जैसी महामारी के समय  “कोरोना वायरस” को धन्यवाद! देते हुए आशावादी व सकारात्मक भाव से जीवन में निरंतर आगे बढते रहने का संदेश दिया है। जब की सम्पूर्ण विश्व में कोरोना महामारी से  त्राहि माम् त्राहि माम् की पुकार हो रही थी वही कवियत्री ने विपरीत परिस्थितियों में भी आत्मविश्वास व सकारात्मक दृष्टिकोण से हिम्मत रखते हुए आगे बढ़ने की प्रेरणा दी है। देखिए इसकी बानगी….
धन्यवाद ! कोरोना …..
आश्चर्य मत कर! जहाँ अखिल मही तेरी विदाई की वैक्सीन ढूंढ रही है, वहीं यह कवियत्री तुझे धन्यवाद दे रही है, तेरे आने से ही जाना, घर की चार दीवारी का सुख, बच्चों की हंसी, बड़ो का प्यार, पति का दुलार, स्वयं का साज श्रृंगार, नौकरी की भागा दौडी़  में गयी थी भूल घर का कोना- कोना, धन्यवाद ! कोरोना ।
विद्या और संगीत की देवी माँ सरस्वती की असीम कृपा से इनकी वाणी को ओज और माधुर्य मिला । वाणी मधुर होने से जो भी मिलते हैं वे कविता , गीत  सुनने के इच्छुक होते हैं। मन के गत्यात्मक पक्ष इदम् , अहम् , पराहम्  के आधार पर व्यक्ति के व्यक्तित्व का आप बखूबी विश्लेषण करने में दक्ष हैं। अपने समीपस्थ का चित्रण किया जिसमें तारुणी , आत्माभिव्यक्ति : उड़ान, मेरे बाबा, तुषार, शशांक, अक्षिता, सासु माँ, पुरषोत्तम आदि काव्य रचनाएँ प्रमुख हैं। इन्होंने अन्तर्मन में उत्पन्न उथल-‌ पुथल, कुंठा द्वंद्व आदि
मनोविकार को लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्ति प्रदान की।
परिचय
सशक्त अभिव्यक्ति से अपनी रचनाओं में आशावादी भावनाएं जगाने के वाली रचनाकार डॉ.वैदेही गौतम धर्मवीर भारती के साहित्य में मनोवैज्ञानिकता विषय पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। इनकेअनेक शोध पत्रिकाओं में आपके आलेख प्रकाशित हुए हैं। साहित्य मंडल, श्रीनाथ द्वारा “साहित्य सौरभ सम्मान” सहित अनेक संस्थाओं द्वारा आपको पुरस्कृत और सम्मानित किया गया है। आप कई साहित्यिक मंचों से जुड़ी हैं और काव्यपाठ करती हैं। वर्तमान में ये राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय केशवपुरा सेक्टर 6 में प्रधानाचार्य पद पर सेवारत हैं और निरंतर साहित्य सृजन में सक्रिय हैं।
चलते – चलते………..
कौन कहता है पेंशन हो आयी है
अभी तो शायरी लिखने की उम्र आयी है
मैं तो वह दरिया हूँ, जो समुन्दर में उतर जाऊंगा
देखना यारों!
एक दिन मशहूर शायर कह लाऊंगा…
संपर्क :
96- बी वल्लभ नगर, कोटा (राजस्थान)
मोबाइल : 94142 60924