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टूटती प्रतिमायें बिखरते विचार और भगवान बुद्ध

कई संग्रहालय देखे और अधिकतर भगवान बुद्ध की खण्डित मूर्तियों से अटे पड़े हैं। निस्संदेह वे आक्रांता न केवल क्रूर थे अपितु मष्तिष्क से पैदल…केवल और केवल साम्राज्यवादी रहे थे अन्यथा कला-संस्कृति-धरोहर-साहित्य किसी के तो मायने उन्होंने समझे होते? मेरी स्मृति में बामियान की वह बुद्ध प्रतिमा साकार हो उठी जिसे तालिबानियों नें विस्फोट से उड़ा दिया था। तब सारा विश्व केवल मूक दर्शक बना रहा था और अब हम उस कलंक के साथ जीते रहने के लिये विवश हैं कि हम साक्षी है एक भयानक दृश्य के जब महान और मूक विरासत पर कायरता पूर्वक धमाके किये जाते रहे। बुद्ध प्रतिमा को यदि तब का अफगानी शासक – तालिबान अपनी धरती पर बरदाश्त नहीं कर पाया तो उसने उन प्रयासरत देशों को इसे क्यों नहीं सौंप दिया जो अपनी धरती पर विरासत को संरक्षित रख पाते। वस्तुत: समस्या भगवान बुद्ध की इस विशालकाय प्रतिमा से नहीं थी; न ही इसे स्थानांतरित किये जाने से बेहतर कोई अन्य समाधान हो सकता था लेकिन उस सनक का उपाय किसके पास होता जिसके परोक्ष में स्वयं को सर्वेसर्वा समझे जाने की परिपाटी कार्य करती हो? वे धार्मिक मान्यतायें दकियानूसियत हैं जो किसी दूसरे का मिटा कर अपनी पीठ ठोकने की प्रवृत्ति रखती हैं; संभवत: नियति भी इसे बर्दाश्त नहीं करती। यह बामियान का ही अभिशाप है कि अब मुल्ला उमर दर दर की ठोकरे खा रहा है और तालिबानियत पतन की दहलीज तक पहुँच गयी है। इसके ठीक उलट बुद्ध अब भी हैं और हमेशा रहेंगे।

बौद्ध धर्म के उत्थान और उसके स्वर्णयुग पर अनेको विमर्श उपलब्ध हैं। यह समय है पलट कर देखने का कि इतनी समृद्ध विरासत आखिर मिटने की कगार तक कैसे पहुँची थी? मुझे महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन की पुस्तक बौद्ध संस्कृति के पृष्ठ 67 में यह विवरण प्राप्त हुआ जिस पर विमर्श होना चाहिये – “भारतीय जीवन के निर्माण में इतनी देन दे कर बौद्ध धर्म भारत से लुप्त हो गया, इससे किसी भी सहृदय व्यक्ति को खेद हुए बिना नहीं रहेगा। उनके लुप्त होने के पीछे कई भ्रांतिमूलक धारणायें फैली हैं। कहा जाता है शंकराचार्य नें बौद्ध धर्म को भारत से निकाल बाहर किया। किंतु शंकराचार्य के समय आठवीं सदी में बौद्ध धर्म लुप्त नहीं प्रबल होता देखा गया है। यह नालंदा के उत्कर्ष तथा विक्रमशिला की स्थापना का काल था। आठवी सदी में ही पालों जैसा शक्तिशाली बौद्ध राजवंश स्थापित हुआ था। यही समय है जब कि नालंदा नें शांतरक्षित, धर्मोत्तर जैसे प्रकाण्ड दार्शनिक पैदा किये। तंत्र मत के सार्वजनिक प्रचार के कारण भीतर में निर्बलतायें भले ही बढ़ रही हों किंतु जहाँ तक विहारों और अनुयाईयों की संख्या का प्रश्न है, शंकराचार्य के चार सदियों बाद बारहवीं सदी के अंत तक बौद्धों का ह्रास नहीं हुआ था। उत्तरी भारत का गहड़वार वंश केवल ब्राम्हण धर्म का ही परिपोषक नहीं था बल्कि वह बौद्धों का भी सहायक था…..स्वयं शंकराचार्य की जन्म भूमि केरल भी बौद्ध शिक्षा का बहिष्कार नहीं कर पायी थी, उसने तो बल्कि बौद्धों के ‘मंजूश्री मूलकल्प’ को रक्षा करते हुए हमारे पास तक पहुँचाया। वस्तुत: बौद्ध धर्म को भारत से निकालने का श्रेय अथवा अयश किसी शंकराचार्य को नहीं है”।

कुछ दोष हमें उन अपभ्रंशकारी ताकतों अथवा व्याख्यानकर्ताओं को भी देने चाहिये जो साधारण वक्तव्यों के गूढ़ार्थ निकालते हैं। धीरे धीरे सरलता और सादगी भरे कथन गौण हो जाते हैं और व्याख्यायें हावी हो जाती हैं। भगवान बुद्ध नें वैदिक धर्म की बुराईयों के खिलाफ वैचारिक क्रांति का सूत्रपात किया था लेकिन बुद्ध के कथनों का बुद्ध के पश्चात क्या हुआ? भगवान बुद्ध नें अपने अंतिम समयों में आनंद से कहा – “जो सिद्धांत मैने इस जीवन में प्रतिपादित किये हैं वे ही तुम्हारा पथ प्रदर्शन करेंगे”। उन पथों की ओर दृष्टि डालना आवश्यक हो जाता है जिसपर भगवान के महापरिनिर्वाण के पश्चात बुद्धानुयाई चलते रहे। उन चार बौद्ध सभाओं के निष्कर्षों पर हमें दृष्टिपात करना चाहिये जिसने बौद्ध धर्म की परिपाटी बनायी। पहली बौद्ध सभा राजगृह की सप्तपर्णी गुफा में सम्पन्न हुई जिसमें पाँच सौ प्रमुख भिक्षुओं नें भाग लिया। यहाँ भगवान बुद्ध के भाषणों, वार्तालापों तथा प्रवचनों को संकलित किया गया था।

दूसरी बौद्ध सभा वैशाली में इसके लगभग सौ वर्ष पश्चात हुई जहाँ विचारकों के मध्य मतभेद खुल कर उजागर हुए। वैशाली के बौद्ध भिक्षुओं ने कुछ एसी प्रथाओं को मान लिया जो विनयपिटिक से विपरीत थी। अत्यधिक विवाद उत्पन्न हुआ जिसके पश्चात भिक्षु पहली बार दो भागों में विभाजित हुए पहले थे परिवर्तन पक्षीय अर्थात महासंघिक एवं दूसरे परिवर्तन विरोधी अर्थात स्थविर। तीसरी बौद्ध सभा अशोक के शासनकाल में पाटलीपुत्र में सम्पन्न हुई तथा सहमतियों की कोशिश करते हुए प्रथम दो पिटकों की धार्मिक तथा दार्शनिक व्याख्या करते हुए नये पिटक का निर्माण किया गया जिसे ‘अभिधम्मपिटक’ कहा गया। सम्राट कनिष्क के शासनकाल में चौथी बौद्ध सभा कश्मीर के कुण्डलवन में आयोजित की गयी; यहाँ प्रतीत होता है कि वैचारिक भिन्नताओं का महामंथन हुआ होगा किस कारण तीनो पिटकों के तीन महाभाष्यों की रचना हुई। इसी समय बौद्ध धर्म महायान तथा हीनयान सम्प्रदायों में विभाजित हो गया। हीनयान बुद्ध को मानव मानते हुए इस धर्म के शुद्ध एवं प्रारंभिक रूप को ही मानयता देता है जबकि महायान के संस्थापक नागार्जुन बताये जाते हैं जो बुद्ध को दिव्य आत्मा, ईश्वर अथवा ईश्वर का अवतार मानते हैं। महायान सम्प्रदाय नें मूर्तिपूजा को मान्यता प्रदान की। चतुर्थ संगति में महायान सम्प्रदाय की सर्वश्रेष्ठता की घोषणा सम्राट कनिष्क नें की थी। महायान सम्प्रदाय ने संस्कृत भाषा को अपनाया। इस सम्प्रदाय के प्रमुख विद्वानों में नागार्जुन, पार्श्व, अश्वघोष, वसुमित्र आदि गिने जाते हैं।

महायान मत का इस तीव्रता से प्रचार हुआ कि देखते ही देखते अनुयाईयों की संख्या करोडों में पहुँच गयी। तिब्बत, चीन, जापान तथा मध्य एशिया में महायान सम्प्रदाय की व्यापक पैठ बन गयी। यह कटु सत्य है कि राजाश्रय एवं प्रसार के अभाव तथा भव्यता-विहीनता के कारण हीनयान धीरे-धीरे व स्वत: पतनोन्मुख होने लगा था। मतभिन्नता का सिलसिला बौद्ध मतानुयाईयों में यहीं नहीं रुका अपितु मंत्रयान, तंत्रयान, वज्रयान जसी धारायें बनती गयीं और अपनी जडों से बुद्ध के उपदेशो की मूल भावना का क्षरण होता चला गया। वज्रयान सम्प्रदाय के उद्भव के साथ ही बौद्ध धर्म में हठयोग, तंत्र-मंत्र, सुरा, सुन्दरी और भोग-विलास का प्रवेश हो गया था। जिन व्याधियों के उपचार स्वरूप बौद्ध-धर्म का पावन पदार्पण हुआ था उस में वही व्याधियाँ महामारियाँ बन कर लिपट गयीं। कई विद्वान मानते हैं कि राजाश्रय प्राप्त होने के कारण बौद्धविहारों को मिलने वाली मूल्यवान भेंटों और सम्पदा के अम्बार नें भी बुद्ध के अनुशासन के दसो नियमों से भिक्षुओं को विमुख कर दिया था तथा अनेक अवसरवादियों नें भ्रष्टाचार को इन संघों के भीतर जन्म दिया। संघों में एक केन्द्रीय सत्ता का बुद्ध के बाद अभाव हो गया था। चूँकि स्वेच्छाचारिता में संगठन की मूल भावना नहीं होती, अत: सूत्र के अभाव में बहुत से बहुमूल्य मोती माला बनने में सफल नहीं हो सके अपितु बिखरते चले गये।

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श्री राजीव रंजन प्रसाद के फेसबुक पेज https://www.facebook.com/rajeev.prasad.18?fref=nf से