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विकास का स्वदेशी प्रतिमान, आत्मनिर्भर मॉडल ही इस महामारी के मकड़जाल से निकलने का सही मंत्र

आज का ज्वलंत मुद्दा है कि कोरोना महामारी से जर्जर हो चुकी देश की अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर कैसे लाया जाए। वर्तमान प्रचलित उपचार पद्धति कहती है कि कोरोना की दवा किसी के पास नहीं, परंतु भारत की हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्विन जैसी दवा मांगने के लिए दुनिया के तमाम देशों ने गुहार लगाई। आयुर्वेदिक काढ़े व जड़ी-बूटियों आदि की मांग भी बढ़ रही है। दूसरी ओर वैश्विक सामाजिक-आर्थिक संरचनाएं भी इस समय निरर्थक सिद्ध हो रही हैं और भारत जैसे देश का मुंह ताक रही हैं। भारतीय मेधा ने जिस स्वदेशी प्रतिमान को कभी इस देश में खड़ा किया, कोरोना महामारी से लड़खड़ाती दुनिया उसे बड़ी आशा से निहार रही है। इसलिए जरूरी हो गया है कि इसे एक विमर्श का मुद्दा बनाया जाए।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूज्य सरसंघचालक मोहनराव भागवत ने बड़े ही सटीक व सम-सामयिक ढंग से इस ओर कई संकेत किए हैं, जिन्हें हमें समझने का प्रयास करना चाहिए। उन्होंने इस समय राष्ट्र के आर्थिक पुनर्निर्माण में दो प्रकार के विषयों को छुआ है, तात्कालिक व दीर्घकालीन। तात्कालिक कामों में पहले उल्लेख किया शहरों से गांव लौटते हुए मजदूरों का। क्या हम गांव में ही उन्हें रोजगार के नए नए अवसर उपलब्ध करा सकते हैं? ऐसे में महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज, एपीजे अब्दुल कलाम के ‘पूरा’ (प्रोविजन ऑफ अरबन एमिनीटिज इन रूरल एरियाज) से लेकर नानाजी देशमुख के समग्र विकास तक के उदाहरणों के संदर्भ ताजा हो गए हैं। इस टिप्पणी के पीछे एक पूरी संघ दृष्टि है। ग्राम विकास के कार्यों में लगे हजारों स्वयंसेवक कार्यकर्ताओं का परिश्रम और प्रयोगधर्मिता इसकी अधोरचना है। ऐसे में इन लाखों कामगारों को गांव में ही रोजगार मुहैया करवा कर एक बड़ी समस्या का समाधान खोजा जा सकता है।

दूसरा तात्कालिक काम है, गांव से दोबारा शहर जाने वालों के लिए काम-धंधे ढूंढना। चूंकि अधिकांश उद्योग बंद हैं, वैश्विक मांग में भी भारी कमी हो गई है। ऐसे में दोबारा उन्हें खपाने व रोजगार दिलाने की कितनी क्षमता यहां है, इसे देखना पड़ेगा। वे उद्योग भी घाटे में चल रहे होंगे, लिहाजा आपसी सद्भाव व समझदारी से दोनों को कुछ न कुछ छोड़ना पड़ेगा। यानी पुनर्निर्माण में मालिक-मजदूर का समन्वय आवश्यक है। दत्तोपंत ठेंगड़ी जिस मालिक-मजदूर के आपसी सौहार्द की बात करते थे, यह उस विचार की ओर संकेत है।

तीसरा बड़ा दीर्घकालीन विचार विकास का वैकल्पिक मॉडल है। ‘स्वावलंबन’ शब्द और इसके लिए उन्होंने प्रधानमंत्री की देश भर के सरपंचों से हुई बातचीत का संदर्भ दिया। यह संदर्भ एक संकेत दे रहा है कि किस प्रकार इस समय शासन ‘विकेंद्रित’ आर्थिक संरचना के लिए तैयारी कर रहा है। कोरोना महामारी आज एलपीजी मॉडल (लिबरेलाइजेशन, प्राइवेटाइजेशन व ग्लोबलाइजेशन) के खोखलेपन को उजागर कर रही है। यह बाजार की ताकतों का बनाया हुआ प्रतिमान था, जो इस समय दम तोड़ रहा है। उसकी जगह ग्राम स्वराज्य व जिलों पर आधारित अर्थव्यवस्था का आत्मनिर्भर मॉडल इस महामारी रूपी आपत्तिकाल का मंत्र है। इसी को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने ‘स्व’ शब्द पर जोर दिया और स्वदेश के विकास मॉडल को विकसित करने का उल्लेख किया। चौथी बात कही कि आधुनिक विज्ञान का प्रयोग हो, परंतु अपनी परंपरा का भी ध्यान रखना चाहिए।

विदेशी विकास मॉडल की खामियां: आज विदेशी विकास मॉडल की खामियां जगजाहिर हैं। यह अत्यधिक उर्जाभक्षी, रोजगार विहीन व पर्यावरण भक्षक है। ऐसे मॉडल की गहन विवेचना राष्ट्रऋषि दत्तोपंत ठेंगड़ी ने पुस्तिका ‘द कॉन्सेप्ट ऑफ डेवलपमेंट एंड थर्ड वे’ में की है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय व गांधीजी ने भी हिंद स्वराज में इस पश्चिमी मॉडल की धच्जियां उड़ाई हैं। विदेशों में भी इस विकास मॉडल की चीर-फाड़ हुई है। सिंगापुर यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि कोरोना के फैलाव का मुख्य कारण अति-शहरीकरण, वैश्वीकरण तथा अत्यधिक संपर्क है। जहां-जहां यह पश्चिम मॉडल प्रसिद्ध हुई, वहां भी इसके दुष्परिणामों के कारण इसका विरोध हो रहा है। इसलिए कोई विकेंद्रित व आत्मनिर्भर मॉडल ही इन बीमारियों से बचा सकता है, ऐसी चहुंओर चर्चा है।

एक अहम प्रश्न यह है कि इस वैकल्पिक स्वदेशी संरचना को कौन लागू करेगा। दरअसल यह तीन स्तरों पर हो सकता है। शासन, प्रशासन एवं समाज द्वारा। शासन प्रमुख रुचि दिखा रहे हैं। सरपंचों के साथ अपनी वार्ता में प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भर मॉडल के चार पायदान बताए- गांव, जिला, प्रांत व देश। जहां तक प्रशासन का सवाल है तो कायदे से वह उसी को करने को प्रतिबद्ध है जिसे शासन कहेगा या उनसे करवा लेगा। अत: तीसरा काम समाज को करना होता है और वह काम सतत व नियोजित जनजागरण से होता है।

स्वदेशी बने मूलमंत्र: जीवन में स्वदेशी अपनाने पर पूरा जोर देना होगा और विदेशी से दूरी बनाए रखना होगा। जीवन के लिए जो आवश्यक है, उसे यहां तैयार करना होगा और उसकी गुणवत्ता पर कोई समझौता नहीं होना चाहिए। आज नई चुनौती चीन से अत्यधिक आयात की है। प्रति वर्ष 54 से 64 अरब डॉलर का व्यापार घाटा हमें चीन से हो रहा है। जिस प्रकार कोरोना महामारी के बाद भी दुनिया को घेरने में चीन संलग्न है, वह एक खतरे की घंटी है। इस कारक को समझना होगा। इस समय दुनिया के अधिकांश देश चीन से त्रस्त हैं, वहां से कंपनियां आज अन्य देशों में जाने को आतुर हैं। ऐसे में भारत को अपनी बड़ी भूमिका निभानी होगी। साथ ही स्वदेशी ज्ञान व विज्ञान संवर्धन भी आवश्यक है। इसके अतिरिक्त पर्यावरण संरक्षण, स्वच्छता, जैविक कृषि, योग, आयुर्वेद आदि को बढ़ावा देना होगा।

(लेखक स्वदेशी जागरण मंच के राष्ट्रीय संगठक हैं )