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किस खतरे का संकेत है पत्रकारों की ये चुप्पी

देश फिर ऐसे दौर से गुजर रहा है, जब अक्सर सुनने को मिलता है कि पत्रकार चुप क्यों हैं। खासकर धार्मिक और सामुदायिक अनर्थ के मामले में सत्ता के खिलाफ उनकी आवाज नहीं उठती। और तो और खुद पत्रकारों के मुंह से पत्रकारों की "चुप्पी" के बारे में सुनने को मिलता है। यह सच्चाई है कि बेधड़क लिखने-बोलने वाले पत्रकार घट गए हैं। पर इसके लिए जिम्मेदार आखिर कौन है?

इस संदर्भ में मुझे कुलिश जी का एक दृष्टांत स्मरण होता है। कुलिश जी कहते थे – पत्रकार जब-तब अपनी आजादी को लेकर बहुत चिंतित होते हैं। लेकिन सौ बात की एक बात यह है कि कितने लोगों ने लिखा और उनका लिखा छप नहीं सका? 

इसके विरल उदाहरण ही मिलेंगे। आप लिखें जो जरूरी और सार्थक समझते हैं। जो लिखते हैं कभी कोई उनका हाथ नहीं पकड़ता। कोशिशें होंगी, तब भी आप लिखेंगे; अगर ईमानदार अनुभूति है, छपने से आपका लिखा सचमुच रोका गया तो आप अपनी राह खोज लेंगे। इसलिए कहता हूं, पहले लिखने का साहस तो दिखाइए। बगैर लिखे न लिखने के कारण ढूंढ़ना आसान होता है, लिखना नहीं।

अपनी बात के समर्थन में वे खुद की एक आपबीती सुनाते थे। तब कुलिश जी "राष्ट्रदूत" में रिपोर्टर थे। नवंबर 1955 में जब सोवियत नेता ख्रुशचेव और बुल्गानिन भारत आए तो तफरीह के लिए जयपुर की राह पकड़ी। जयपुर की मुख्य सड़कों पर रंगाई-पुताई हुई। 

मगर मजा यह रहा कि राजप्रमुख और जयपुर के पूर्व महाराजा मानसिंह ने रूसी मेहमानों के प्रवास के नाम पर सरकारी खजाने से राजमहल में भी रंग-रोगन करवा लिया। 

कुलिश जी ने इस पर दो टिप्पणियां "घुमक्कड़" नाम से छपने वाली डायरी में लिख दीं। तब भी उनका हाथ तो किसी ने नहीं पकड़ा, पर उन पर पहरा जरूर बैठ गया। कुलिश जी बताते थे, स्तंभ लिखने के वक्त एक वरिष्ठ सहयोगी उनकी बगल में आकर बैठ जाते थे। जाहिर था, वे मालिकों के कहे का पालन भर कर रहे थे।

तब से कुलिश जी पहरे में लिखने की उस विवशता का तोड़ तलाशने में लग गए। अंतत: उधार के पांच सौ रूपए जुटाकर खुद का अखबार शुरू किया। बाकी दास्तान तो अब "पत्रिका" का इतिहास हो चुकी है।

इसका मतलब यह कतई न लें कि उनकी हिदायत हर पत्रकार को अपना-अपना अखबार निकाल लेने की थी। उनका संकेत इतना भर था कि लिखने वाला लिखता है और न लिखने वाला न लिखने के कारण खोजता है। 

उनकी यह बात मुझे जब-तब खयाल आती रहती है, खासकर तब जब लोग न लिखने के "घुटन भरे" माहौल की चर्चा बढ़-चढ़ कर करते हैं। कभी-कभी लोग मौजूदा परिवेश को आपातकाल तक जा जोड़ते हैं। मुझे कुलिश जी के उक्त हवाले की रोशनी में ऐसी बातें अतिरंजना में लिपटी प्रतीत होती हैं।

(साभार : राजस्थान पत्रिका)

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