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इसाई धर्म को भारत में फैलाने के षड़यंत्र की पृष्ठभूमि

भारत में ईसाई मत का प्रचार करने वाले प्रमुख मिशनरी डॉ. काल्डवेल ने 1874 में अंतर्राष्ट्रीय ईसाई मिशन और प्राच्य धार्मिक व्यवस्थाओं से संबंधित एक संगोष्ठी में एक पत्र पढ़ा। (पृष्ठ 11, The Relation of Christianity to Hinduism) इस पत्र में उन्होंने कहा, “कुछ वर्ष पहले इस बात पर ज़ोर दिया जाता था कि भारतीय जनता का जो उच्च वर्ग है उस में ईसाई मत का फैलाव इतना कम इसलिए हुआ है कि ईसाई मिशनरियों को हिन्दू दर्शन का ज्ञान सामान्यत: नहीं था, अत: सुझाव दिया गया कि वे प्रमुख हिन्दू धार्मिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करें, जिससे कि वे पढ़े-लिखे हिन्दुओं के सामने ईसाइयत को एक दार्शनिक आवरण में लपेट कर प्रस्तुत करने में सक्षम हो सकें।

मुझे नहीं लगता कि यह बात सही है। इस बात में संदेह नहीं है कि मैं हमेशा से ही कम से कम हिन्दू दर्शनों के मूल सिद्धांतों का अध्ययन करने का पक्षधर रहा हूं, परन्तु इसके पीछे एक भिन्न और सामान्य सा कारण रहा है—वह यह कि मिशनरी उन बौद्धिक आधारों को समझ सकें जो शिक्षित हिन्दुओं को उनके धर्म से जोड़े रखते हैं और ईसाइयत के प्रति घृणा पैदा करते हैं; या वे उन कठोर शब्दों का अर्थ समझ सकें जिनका प्रयोग करने में कभी उन्हें मज़ा आता था, या यों कहें कि उन्हें लगता था कि उनके शब्दों में दुनिया भर का विवेक और शक्ति है। इस सीमा तक मैं समझता हूं कि हिन्दू दर्शनों का अध्ययन आवश्यक है। कुछ मामले ऐसे भी हैं जहां मैं समझता हूं कि यह अध्ययन अनिवार्य है, इस उद्देश्य से नहीं कि इससे मिशनरियों को अपने आध्यात्मिक युद्ध के लिए एक हथियार मिल जाएगा, क्योंकि बेहतरीन हथियार तो पहले ही उनके हाथों में है, उद्देश्य तो केवल आत्मरक्षा है। मिशनरी को दर्शन के बारे में जितना भी मालूम होगा, चाहे वह पाश्चात्य हो या प्राच्य, उतना ही वह दार्शनिक प्रश्नों को परे धकेलकर अंतरात्मा से दो-दो हाथ करने में सक्षम हो सकेगा, क्योंकि हमेशा ही देखा गया है कि प्रभु यीशु के उपदेश का कहीं से भी कोई भी विरोध हो, उस विरोध का सर्वश्रेष्ठ उत्तर यीशु के उपदेशों में ही मिलता है।”

स्पष्ट है कि इस पत्र में सन् 1874 के आसपास के उस आध्यात्मिक विमर्श की एक बानगी देखने को मिलती है जो साम्राज्यवादी शासकों में विकसित हो रहा था और स्वाभाविक है कि ईसाई मिशनरी सत्ताधारी वर्ग के ही आध्यात्मिक प्रतिनिधि थे। यह वह विमर्शात्मक रणनीति है जिसका आधारबिन्दु यह है कि सत्ता को बनाए रखने के लिए भारत के सांस्कृतिक सार तत्त्व को समझना आवश्यक है हालांकि इसके बावजूद प्रभु यीशु के उपदेश को ही सर्वोपरि रखा गया है।

यह उस सत्ताधारी वर्ग की विमर्शात्मक रणनीति का एक हिस्सा है जो 1857 मे गुलाम जनता की तरफ़ से एक झटका झेल चुका है इसीलिए डॉ. काल्डवेल मिशनरियों को समझाने का प्रयत्न करते हैं कि भारतीय दर्शनों के अध्ययन से उन्हें उन कठोर शब्दों का अर्थ समझ में आ जाएगा जिनका इस्तेमाल वे कभी भारतीयों में प्रचार करते समय किया करते थे। ईसाई मिशनरी भारत के साथ एक ‘आध्यात्मिक युद्ध’ कर रहे हैं और मानते हैं कि उपनिवेश की जनता का प्रभुत्वशाली दर्शन हिन्दू दर्शन है और इसका इस्तेमाल किए बिना अपने मत का प्रचार सुचारु रूप से नहीं हो पाएगा। भारतीय दर्शन उनके लिए आत्मरक्षा का एक साधन है जिससे कि वे भारतीय जनता के प्रतिविमर्श को झेल सकें।
डॉ.काल्डवेल की उपरोक्त पंक्तियों से स्पष्ट होता है कि भारत का साम्राज्यवादी शासक वर्ग एक नए स्वत्व के निर्माण पर बल दे रहा था जो मूल रूप से एक एक ईसाई स्वत्व ही है क्योंकि अंतत: इस ‘आध्यात्मिक युद्ध’ में प्रभु यीशु के उपदेशों के विरोध का उत्तर स्वयं उनके उपदेशों में उपलब्ध होता है। यह विमर्श एक ऐसी व्यवस्था को प्रोत्साहित करता है जिसमें तिकड़म भिड़ा कर अपनी सत्ता को बनाए रखने की व्यवस्था की गई है। विमर्श की संरचना पर विचार करते हुए फूको ने कहा है कि हमें उन जटिल और अस्थिर प्रक्रियाओं को ध्यान में रखना चाहिए जिनसे विमर्श सत्ता के उपकरण और प्रभाव दोनों के रूप में सामने आने के साथ साथ एक व्यवधान, रुकावट, प्रतिरोध बिन्दु या प्रतिरोधी रणनीति के आरंभ का रूप भी ले लेता है। विमर्श सत्ता को प्रसारित और उत्पन्न करता है, इसे बल देता है परन्तु साथ ही विघटन भी करता है और इसे बेनक़ाब भी करता है, जिससे वह कमज़ोर पड़ जाती है और इसे विफल कर देना भी संभव हो जाता है।(Foucault the History of Sexuality, Vol I; An introduction, [translation:Robert Hurley], Harmondsworth;Penguin.)

डॉ काल्डवेल के इस आध्यात्मिक युद्ध का विमर्श सत्ताधारी वर्ग के आध्यात्मिक प्रतिनिधियों अर्थात ईसाई मिशनरियों का विमर्श है। इस विमर्श में हिन्दू दर्शन को महत्व दिया गया है। आध्यात्मिक युद्ध के इस विमर्श में मौजूद हिन्दू दर्शन के इसी तत्त्व के आधार पर भारतेन्दु के नाटक एक नए प्रतिरोधी भारतीय स्वत्व के निर्माण का आह्वान करते हैं। जिस हिन्दू दर्शन को मिशनरी आत्मरक्षा के लिए इस्तेमाल करना चाहते हैं उसी दर्शन को भारतेन्दु भी आत्मरक्षा के लिए इस्तेमाल करते हैं। उनके लिए आध्यात्मिक युद्ध का यह विमर्श हिन्दुत्व के विमर्श के भीतर भी स्थित है और यह अकारण नहीं है कि आध्यात्मिक युद्ध के इस विमर्श को उनके पहले मौलिक नाटक ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ में स्थान मिला है।

‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ सन् 1873 ई. में लिखा गया था। स्वाभाविक है कि जो विमर्श डॉ. काल्डवेल के पत्र के रूप में 1874 में पढ़ा गया और पुस्तक रूप में छपा भी वह तत्कालीन भारतीय जनमानस के लिए अनजाना नहीं हो सकता। ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ (पाठ) को डॉ. काल्डवेल के पत्र (सहपाठ) के साथ रखकर पढ़ने से तत्कालीन विमर्शात्मक पर्यावरण में उपस्थित यह आध्यात्मिक युद्ध हमारे सामने स्पष्ट हो जाता है। साहित्यिक ‘पाठ (text)’ को एक ग़ैर-साहित्यिक सहपाठ (co-text) के साथ रखकर पढ़ना नवइतिहासवादी पद्धति का आधारभूत व्यवहार है। नवइतिहासवाद साहित्यिक पाठ को प्राथमिकता देने से इन्कार करता है और साहित्यिक अग्रभूमि और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की बजाय अध्ययन की ऐसी पद्धति की कल्पना और व्यवहार करता है जिसमें साहित्यिक और ग़ैर साहित्यिक पाठों को समान महत्व दिया जाता है और दोनों ही एक दूसरे को प्रभावित करते चले जाते हैं।(p.172 Beginning Theory:An introduction to literary and cultural theory—Peter Barry)

डॉ.काल्डवेल का पत्र सहपाठ के रूप में पाठ के साथ मिलकर एक ऐतिहासिक विमर्शात्मक संदर्भ उपलब्ध कराता है। सहपाठ से उपलब्ध संदर्भ की सार्थकता के बारे में अंग्रेज़ी समाचारपत्र ‘दि हिन्दू’ को दिए गए एक साक्षात्कार में नवइतिहासवाद के जनक स्टीफन ग्रीनब्लाट ने कहा था, “ हम चाहते थे कि संदर्भ एक सुरक्षित पृष्ठभूमि नहीं अपितु वास्तव में इस उद्यम (नवइतिहासवाद) का एक अंग बने। पुराने इतिहासवाद में आप कलाकृति के अर्थ को सुरक्षित रखने के लिए एक संदर्भ प्रस्तुत करते थे। हम कहना चाहते थे कि संदर्भ के रूप में जिस चीज़ का वर्णन हो रहा था उस की व्याख्या भी की जा सकती थी। यहां जो पृष्ठभूमि थी स्थिर नहीं थी। हम चाहते थे कि जो पृष्ठभूमि कहलाती थी, वह भी व्याख्यात्मक संघर्ष में सहभागी बने।” (June 5, 2005, Sunday, (www.hindu.com)

डॉ.काल्डवेल के पत्र अर्थात सहपाठ, जिससे भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के नाटक ‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ के लिए पृष्ठभूमि उपलब्ध होती है।

(दिलीप कुमार कौल के शोध पत्र ‘नवइतिहासवादी दृष्टि और भारतेंदु का नाटक’ का एक अंश)