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भारत की समुद्री विरासत का गौरवशाली इतिहास

भारत का अपना एक समृद्ध समुद्री इतिहास रहा है और समुद्री क्रियाकलापों संबंधी बातों का उल्लेख सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता हैI भारतीय पुराणों में महासागर, समुद्र और नदियों से जुड़ी हुई ऐसी कई घटनाएँ मिलती हैं जिससे इस बात का पता चलता है कि मानव को समुद्र और महासागर रूपी संपदा से काफ़ी फ़ायदा हुआ हैI भारतीय साहित्यकला, मूर्तिकला, चित्रकला और पुरातत्व-विज्ञान से प्राप्त कई साक्ष्यों से भारत की समुद्री परंपराओं का अस्तित्व प्रमाणित होता हैI

हमारे देश के समुद्री इतिहास का अध्ययन करने से इस बात का पता चलता है कि प्राचीन काल से लेकर 13 वीं शताब्दी तक हिंद महासागर पर भारतीय उप महाद्वीप का वर्चस्व कायम रहाI राजनीतिक कारणों से अधिक व्यापार के लिए भारतीय समुद्री रास्तों का प्रयोग करते थेI इस प्रकार 16 वीं शताब्दी तक का काल देशों के मध्य समुद्र के रास्ते होने वाले व्यापार, संस्कृति और परंपरागत लेन-देन का गवाह रहा हैI हिंद महासागर को हमेशा एक विशेष महत्व का क्षेत्र माना जाता रहा है और भारत का इस महासागर में केंद्रीय महत्व हैI

प्राचीन काल (3000-2000 ई. पू.)

भारत के समुद्री इतिहास का आरंभ 3000 ई. पू. से होता हैI इस दौरान, सिंधु घाटी सभ्यता के निवासियों का समुद्री व्यापार मेसोपोटामिया के साथ होता थाI मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से प्राप्त साक्ष्यों से यह बात सामने आई है कि इस काल में समुद्री गतिविधियों में अच्छी प्रगति हुईI

लोथल (अहमदाबाद से लगभग 400 कि.मी. दक्षिण पश्चिम दिशा में स्थित) में शुष्क गोदी (ड्राई-डॉक) की खोज से यह पता चला है कि ज्वार भाटा, पवनों और अन्य समुद्री कारक उस काल में भी विद्यमान थेI लोथल से प्राप्त ड्राई-डॉक 2400 ई. पू. का है और इसे विश्व की प्रथम ऐसी सुविधा माना जाता है जिस पर पोतों के आश्रय और उनकी मरम्मत की सुविधा थीI

वैदिक काल (2000-500 ई. पू. )

वैदिक साहित्य में नौकाओं पोतों और समुद्री यात्राओं का उल्लेख कई बार आया हैI अभिलेख की बात करें तो ऋग्वेद वह सबसे पुराना साक्ष्य है जिसके अनुसार वरुण समुद्र के देवता हैं और पोतों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले महासागरीय मार्गों का उन्हें ज्ञान थाI ऋग्वेद में इस बात का उल्लेख है कि व्यापार और धन की खोज में व्यापारी महासागर के रास्ते दूसरे देश में जाया करते थेI महाकाव्य रामायण और महाभारत में भी पोतों और समुद्री यात्राओं का वर्णन हैI यहाँ तक कि पुराणों में भी समुद्री यात्राओं की कथाएँ वर्णित हैंI

नंद और मौर्य काल (500-200 ई. पू.)

नंद और मौर्य काल में बड़े पैमाने पर समुद्री व्यापार गतिविधियाँ हुईं जिनसे अनेक राष्ट्र और भारत के बीच नज़दीकियाँ बढ़ींI इससे भारत की संस्कृति और धार्मिक विश्वासों का प्रचार-प्रसार अन्य देशों में हुआI मौर्य वंश की समुद्री गतिविधियों के चलते भारतीय इंडोनेशिया और आस-पास के द्वीपों पर जाने का मार्ग प्रशस्त हुआI इस काल में, भारत पर सिकंदर ने आक्रमण कियाI यूनान और रोम के साहित्यिक अभिलेखों से नंद और मौर्य साम्राज्यों के दौरान समुद्री व्यापार होने के पर्याप्त प्रमाण मिलते हैंI यूनान के मानव विज्ञानी और चंद्रगुप्त मौर्य के दरबार में मकदूनिया के दूत रहे मेगस्थनिज ने उस दौरान पाटलिपुत्र में सशस्त्र सेनाओं के प्रशासन का वर्णन किया हैI और एक विशेष समूह के होने की बात कही है जो समुद्री-युद्ध के विभिन्न पहलुओं को देखा करता था यही कारण है कि मगध साम्राज्य की जल सेना को साक्ष्य के आधार पर विश्व की प्रथम जल सेना होने की संज्ञा दी जाती हैI चंद्रगुप्त के मंत्री चाणक्य ने अर्थशास्त्र की रचना इसी कल में की जिसमें एक नवध्यक्ष (पोतों के अधीक्षक के अधीन जलमार्ग विभाग के कार्य करने संबंधी ब्यौरे उपलब्ध हैंI अर्थशास्त्र में ‘युद्ध कार्यालय’ के रूप में स्थापित एडमिरल्टी डिवीजन का भी उल्लेख है जिसे महासागरों, झीलों और समुद्रों में नौचालन की ज़िम्मेदारी सौंपी गई थीI मौर्य शासन के दौरान रखी जाने वाले विभिन्न प्रकार की नौकाओं और उनके प्रयोजन की विस्तृत जानकारी भी इस पुस्तक में उपलब्ध हैI

सम्राट अशोक

अशोक महान के शासन काल में मौर्य साम्राज्य लगभग पूरे भारतीय उपमहाद्वीप तक फैला था और उसके व्यापारिक संबंध श्री लंका, मिस्र, सीरिया और मकदूनिया के साथ थेI अशोक के प्रिय कार्यों में से एक था-बोध धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसारI इस बात के प्रमाण हैं कि अशोक के पुत्र महेंद्र और पुत्री संघमित्रा बौध धर्म के प्रचार के लिए पश्चिम बंगाल के ताम्रलिटित से समुद्र के रास्ते सिलोन जाते समय उपहार के तौर पर अपने साथ पवित्र बरगद वृक्ष का एक पौधा ले गए थेI अशोक ने दक्षिण-पूर्व एशिया में समुद्र के रास्ते कई साम्राज्यों में अपने दूत भी भेजे थेI

सातवाहन वंश (200 ई. पू. – 200 ई.)

सातवाहनों (200 ई.पू.-.200 ई.) ने दक्कन क्षेत्र में शासन किया और उनका साम्राज्य आज के कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात के सौरास्ट्र के हिस्सों तक फैला हुआ थाI बंगाल की खाड़ी से लगे भारत के पूर्वी तट पर उनका नियंत्रण था और रोम साम्राज्य के साथ उनके व्यापारिक संबंध काफ़ी अच्छे थेI सातवाहन भारतीय मूल के प्रथम शासक हुए जिन्होनें अपने सिक्कों पर पोत अंकित किए दक्षिण-पूर्व एशिया के विभिन्न भागों में समुद्र के रास्ते संस्कृति, भाषा और हिंदू धर्म के प्रचार किए जाने के भी साक्ष्य मिलते हैंI

गुप्त वंश (320-500 ई.) – स्वर्ण युग

320-500 ई. के बीच गुप्त साम्राज्य उत्तर, मध्य और दक्षिण भारत के भागों तक फैल चुका थाI इस काल को ‘भारत का स्वर्ण युग’ कहा जाता है चंद्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त और चंद्रगुप्त द्वितीय गुप्त वंश के सर्वाधिक प्रसिद्ध शासक थेI बोधगया, सारनाथ और वाराणसी में बौध धर्म का अध्ययन करने के उद्देश्य से 399 ई. में भारत आए चीन के सन्यासी फाह्यान ने गुप्त साम्राज्य के बारे में आँखों देखा वर्णन किया हैI विदेशी व्यापार में विस्तार होने के साथ ही गुप्त काल में सामान्य समृद्धि, आर्थिक-प्रगति, सांस्कृतिक अभिवृद्धि कलात्मक विकास और स्थापत्य कला के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति देखने को मिलीI 413 ई. में फाह्यान अपनी मात्रभूमि लौटते समय बंगाल मे ताम्रलिटित से जलमार्ग के रास्ते रवाना हुआ और 14 दिनों के बाद सिलोन पहुँचकर जावा के लिए पोत द्वारा निकोबार और मलक्का के जलडमरूमध्य को पार करते हुए प्रशांत महासागर पहुँचाI फाह्यान की रचनाओं से यह प्रमाणित होता है कि ईसा काल के आरंभिक वर्षों में महासागरीय नौचालन भलीभाँति विकसित थाI 633-645 ई. के बीच भारत का भ्रमण करने वाले एक अन्य चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी इस बात का आँखों देखा वर्णन किया है कि गुप्त काल के दौरान अन्य देशों के साथ हमारा व्यापार बड़े पैमाने पर हो रहा थाI इस काल के दौरान खगोल विज्ञान के क्षेत्र में भी उल्लेखनीय प्रगति हुईI इतिहास में महान खगोलविद के रूप में प्रसिद्ध आर्यभट्ट और वराहमिहिर जैसे विद्वानों का संबंध भी इसी काल से थाI खगोलीय पिंडों की माप इस काल में सही ढंग से होने लगी और ज्ञात तारों की मदद से स्थिति के अनुमानित आकलन के आधार पर महासागरीय नौचालन कला की शुरुआत हो गईI इस काल के दौरान, पूर्व और पश्चिम में कई पत्तनो का निर्माण किया गया जिनसे यूरोप और अफ्रीका के देशों के साथ हमारे समुद्री व्यापार बड़े पैमाने पर पुनः शुरू हुएI

दक्षिणी राजवंश

चोल, चेर और पांड्य भारतीय प्रायद्वीप की बड़ी शक्तियाँ थींI इन शासकों ने सुमात्रा, जावा, मलय प्रायद्वीप, थाईलैंड और चीन के स्थानीय शासकों के साथ समुद्री व्यापारिक रिश्ते मजबूत कर लिए थेI समुद्री यात्राओं के दौरान मौसमी पावनों का ज्ञान भी विकसित हुआI चोल राजवंश (3 ई. – 13 वीं शताब्दी) शासन कल में समुद्री व्यापार विस्तृत पैमाने पर होता था और इस काल में आवास भंडार ग्रहों और वर्कशॉप वाले नए पत्तनो की स्थापना हुईI अपने व्यापारिक पोतों की सुरक्षा में लगी शक्तिशाली नौसेना की सहायता के लिए भारतीय तटों के किनारे पोतों की मरम्मत के लिए यार्ड, गोदी और लाइट हाउस बनाए गए थेI भारत के पूर्वी समुद्र तटीय भाग और सुदूर पूर्व के बीच फैले श्री विजय साम्राज्य के दौरान 5 वीं से 12 वीं शताब्दी के बीच हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति का प्रचार प्रसार हुआI श्री विजय साम्राज्य, सांस्कृतिक और व्यापारिक अभियान का परिणाम यह हुआ कि वे सुमात्रा, बर्मा, मलय प्रायद्वीप, जावा, थाईलैंड, और इंडोनेशिया जैसे सुदूरवर्ती देशों के संपर्क में आएI भारत, अरब और चीन के व्यापारी वर्ग उत्कृष्ट सुविधाओं वाले पत्तनो की ओर आकर्षित हुएI चोलों, तमिल राजाओं और श्री विजय साम्राज्य के बीच आपसी मतभेदों के कारण 10 वीं शताब्दी के अंत में उनकी जलसेनाओं के मध्य कई समुद्री लड़ाइयाँ लड़ी गई और नतीजतन ये साम्राज्य कमजोर हो गए तथा इस क्षेत्र में अरबों को अपना प्रभुत्व स्थापित करने का मौका मिलाI 1007 ई. में चोलों ने श्री विजय को हराकर मलय प्रायद्वीप, जावा, सुमात्रा और कुछ पड़ोसी द्वीपों पर शासन कियाI पांड्य राजवंश (6 ठीं -16 वीं शताब्दी) प्रसिद्ध नाविक और समुद्री व्यापारी थे जिनके संबंध रोम साम्राज्य और पश्चिम में मिश्र से लेकर पूर्व में चीन तक फैले थे भारत की दक्षिणी तटरेखा पर किए जाने वाले मोती के उत्पादन उनके नियंत्रण में थी जिसमें उस समय के सबसे उत्कृष्ट मोती का उत्पादन किया गयाI

यूनान और रोम के साथ चेर साम्राज्य (12 वीं शताब्दी) के व्यापारिक संबंध बहुत फले फूलेI वे अपना नौचालन अरब सागर से मिलने वाली नदियों के ज़रिए करते थेI वे टिडीज (कोच्चि के नज़दीक आज के पेटीयापत्तनम) और मुजरिस (कोच्चि के ही नज़दीक आज के पत्तनम) से अरब के पतनों तक सीधा अपने पोतों को ले जाने के लिए मानसूनी पवनों का प्रयोग करते थेI

विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ई.) ने दक्षिण पूर्व एशिया के विभिन्न भागों के साथ मजबूत रिश्ते बना लिए और इस प्रकार भारत की संस्कृति और परंपरा को फैलायाI दक्षिण पूर्व एशिया में आज भी इसका प्रभाव देखने को मिलता है जहाँ अनेक स्थानों और लोगों के नाम भारतीय मूल के हैं इस क्षेत्र में हिंदू और बोद्ध दोनों धर्मों, संस्कृतियों और वास्तुकला को फैलने में भी इन साम्राज्यों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाईI

विजय नगर साम्राज्य

13 वीं और 15 वीं शताब्दी के बीच उत्तर भारत के अधिकांश भागों पर जहाँ दिल्ली सल्तनत का प्रभुत्व कायम था वहीं दक्षिण भारत के अधिकांश हिस्सों पर विजय नगर साम्राज्य का नियंत्रण थाI

अरबों का आगमन

8 वीं शताब्दी तक अरब लोग व्यापारी वर्ग के रूप में समुद्र के रास्ते बड़ी संख्या में भारत आने लगे थेI कुछ समय के बाद, आज के पश्चिम एशिया के कई भाग यूरोप, दक्षिण पूर्व एशिया और भारत के बीच व्यापार के केन्द्र बिन्दु बन शीघ्र ही, अरबों ने व्यापार मार्गों पर नियंत्रण रखना शुरू कर दिया और पश्चिम तथा पूर्व के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने लगेI 900 ई. से 1300 ई. तक के काल को दक्षिण पूर्व एशिया में समुद्री व्यापार का आरंभिक युग माना जाता हैI

समुद्री भारत और यूरोपियन

मुगल वंश ने 1526 ई. से 1707 ई. तक उत्तर भारत के अधिकांश भागों पर शासन कियाI भू-संसाधनों से पर्याप्त राजस्व प्राप्त होने के कारण उन्होंने समुद्री मामलों पर विशेष ध्यान नहीं दियाI इसका परिणाम यह हुआ कि अरबों का हिंद महासागर में व्यापार पर एकाधिकार स्थापित हो गयाI पूरब में हिन्दुस्तान के नाम से प्रसिद्ध समृद्ध भूमि के बारे में सुनकर यूरोप के कई देशों को यह लगा कि व्यापार के लिए उन्हें किसी सीधे समुद्री मार्ग की तलाश करनी चाहिएI इसमें सबसे पहले पुर्तगाल को सफलता मिली और भारतीय तटों पर पहुँचने वाला वह प्रथम यूरोपियन देश बन गयाI

पुर्तगालियों का आगमन

16 वीं शताब्दी को एक महत्वपूर्ण सदी माना जाता हैI इस शताब्दी से पहले, हिंद महासागर के शान्त जल में संक्रिय और समृद्ध वाणिज्यिक व्यापार होता था जिसमें पूर्व अफ्रीका के अधिकतर तटीय और समुद्री समुदायों से लेकर मलेशिया और इंडोनेशिया द्वीप तक के लोग सक्रिय रूप से भाग लेते थेI वास्को डी गामा (1400-1524) पुर्तगाल का अन्वेषक थाI जिसने पुर्तगाल से भारत तक के महासागरीय मार्ग की खोज कीI पुर्तगाल से जलयात्रा शुरू कर उसने अफ्रीका के ‘केप ऑफ गुड होप’ का चक्कर लगाया और तब जाकर मई 1498 में वह केरल के कालिक पहुँचाI उसके आगमन से भारत के समुद्री इतिहास में एक नए अध्याय की शुरुआत हुईI पूरे हिंद महासागर पर नियंत्रण रखने की रणनीति बनाने वाले पुर्तगाली व्यापारियों के आगमन से शांतिपूर्ण ढंग से हो रहे समुद्री व्यापार में बाधा उत्पन्न हुईI

पुर्तगालियों ने कालिकट, कोचीन, गोवा, सूरत और पश्चिमी तट पर स्थित अन्य पत्तनों के समीप कारखानें स्थापित किएI उन्होंने हर्मुज, सोकोट्रा अदन और मलक्का जैसे महत्वपूर्ण पत्तनों का नियंत्रण अपने हाथों में ले लियाI ऐसा उन्होंने हिन्द महासागर से हो रहे व्यापार पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के लिए कियाI इससे हिन्द महासागर क्षेत्र में होने वाले व्यापार पर अरबों के एकाधिकार समाप्त हो गयाI

जमोटिन, जिनकी राजधानी कालिकट थी, एक बहुत बड़ा व्यापार पत्तन था जहाँ से ज़मीन और समुद्र के रास्ते बड़े पैमाने पर व्यापार होता थाI जब वास्को डी गामा कालिकट पहुँचा तो जमोटिन के शासक ने पुर्तगालियों को व्यापार करने की अनुमति दे दीI यह बात अरब के उन व्यापारियों को पसंद नहीं आई जो जमोटिन के साथ पहले से व्यापार कर रहे थेI जब जमोटिन के राजा ने उनसे सामान्य सीमाशुल्क की माँग की तब वास्को डी गामा ने शुल्क चुकाने से मना कर दिया और यूरोप वापस जाने हेतु कालिकट से निकलाI इसके बाद कोच्चि और कन्नानूर के राजाओं के साथ पुर्तगालियों के मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित हो गए और इन सब ने मिलकर जमोटिन पत्तनों पर कई आक्रमण किएI जमोटिन ने एक शताब्दी से अधिक समय तक पुर्तगालियों का मुकाबला कियाI इस संघर्ष के दौरान, उस समय के नेवल कमांडर कुंजाली मरक्कारों ने कई अवसरों पर अपनी सामरिक कुशलता और पराक्रम को साबित कियाI कुंजाली मरक्कार की उपाधि जमोटिन के राजा के नेवल प्रमुख को दी गई थीI 1502 और 1600 के बीच पुर्तगालियों और जमोटिन की नौसेनाओं के बीच हुए जल युद्ध में चार प्रमुख कुंजालियों ने भाग लियाI चार मरक्कारों में, कुंजाली मरक्कार द्वितीय सर्वाधिक प्रसिद्ध हुआI भारतीय तटों की नेवल सुरक्षा का संगठन प्रथम बार करने का श्रेय कुंजाली मरक्कार को ही दिया जाता हैI कुंजाली शब्द “कुंज और अली” से मिलकर बना है जिसका अर्थ मलयालम में ‘प्रिय अली’ होता हैI कुंजाली मरक्कारों के पास भले ही गोला-बारूद और विशाल पुर्तगाली जलयान जैसे संसाधनों का अभाव रहा हो, उन्होंने 90 वर्ष से अधिक समय तक पुर्तगालियों को मलाबार तट पर पाँव जमाने नहीं दियाI

1509 में अल्फ़ासों डी अल्बुकर्क कोच्चि में पुर्तगाली गवर्नर बनकर आयाI जमोटिन को हटाने में नाकाम रहने के उपरांत अल्बुकर्क ने 1510 ई. में बीजापुर (आज के कर्नाटक) के सुल्तान को हटाकर गोवा और इसके आस-पास के इलाक़ों को अपने अधिकार में ले लियाI इसके बाद से गोवा पुर्तगाली भारत का मुख्यालय और पुर्तगाली वायसराय का निवास स्थान बन गया

डच

नीदरलैंड्स के एमसटर्डम में 1592 ई. में स्थापित डच ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने पहले व्यापारिक बेड़े को रवाना किया जो 1595 ई. में भारत पहुँचाI हिन्द महासागरीय क्षेत्र में प्रथम डच बेस की स्थापना बटाविया (वर्तमान में जकार्ता, इंडोनेशिया के रूप में प्रसिद्ध) में की गईI उन्होनें पुर्तगालियों को चुनौती नहीं दी और उन्हें 1608 ई. में पुलिकट में व्यापार केन्द्र स्थापित करने की अनुमति दे दी गईI जिससे डच कोरोमंडल का निर्माण हुआI बाद में, डच सूरत और डच बंगाल की स्थापना क्रमशः 1616 और 1627 ई. में हुईI डचों ने 1661 के आस-पास मालाबर तट के किलों आर विजय प्राप्त की और सिलोन को पुर्तगाली आक्रमण से बचाने के लिए डच मालाबार की नींव रखीI वस्त्रों के अतिरिक्त, डच जिन चीज़ों का व्यापार करते थेI उनमें कीमती रत्न, नील, रेशम, अफी, दालचीनी और कालीमिर्च शामिल थेI

अंग्रेज

ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना 31 दिसंबर 1600 को इंग्लैंड में हुईI कैप्टन विलियम हॉकिन्स के नेतृत्व में कंपनी का एक पोत ‘हेक्टर’ सूरत पहुँचाI कैप्टन विलियम हॉकिन्स अपने साथ सम्राट जहाँगीर के लिए एक पत्र लाए थे जिसमें मुगल के अधिकार वाले क्षेत्रों के साथ व्यापार करने का अनुरोध किया गया थाI सम्राट जहाँगीर ने व्यापार करने की अनुमति दे दी और अन्य व्यापारिक सुविधाएँ प्रदान करने का वादा भी कियाI उस समय भारत में यूरोपियन शक्ति के रूप में पुर्तगालियों का वर्चस्व कायम था और यह सोचकर कि अंग्रेज़ों के आगमन से उनका व्यापार प्रभावित हो सकता है, पुर्तगालियों को भारत में अंग्रेज़ों का आगमन अच्छा नहीं लगाI

फ्रांसीसी

हिन्द महासागरीय क्षेत्र में फ्रांसीसियों का आगमन 1740 ई. में हुआ और उन्होंने मॉरीशस में एक सुदृढ़ बेस की स्थापना कीI आख़िरकार, वे सूरत और पांडिचेरी पहुँचे जहाँ उन्होंने व्यापारिक केन्द्रों की स्थापना कीI बाद के वर्षों में फ्रांसीसी प्रतिष्ठानों की स्थापना कराईकल, यानाओन, माहे और चंद्रनागोर आज बंगाल में चंदननगर के रूप में प्रसिद्ध में हुईI 18 वीं शताब्दी के दौरान, हिन्द महासागर में अंग्रेज़ों के आधिपत्य को मुख्य चुनौती फ्रांसीसियों से मिल रही थीI 1744 और 1760 के बीच दक्षिण भारत और बंगाल के पूर्वी तट के किनारे किलों और शहरों पर विजय प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ों और फ्रांसीसियों ने लगातार एक दूसरे पर आक्रमण किएI फ्रांसीसियों को आरंभ में कुछ सफलता मिली परंतु 1760 में तमिलनाडु के वॉडीवाश के युद्ध में अंग्रेज़ों ने फ्रांसीसियों पर निर्णायक विजय प्राप्त कीI

अंग्रेज समुद्र के महत्व को जानते थेI प्रांतों की भूमि को अधिकार में लेने के अतिरिक्त उन्होंने एक नौसेना की स्थापना की जो उनके समुद्री व्यापार की सुरक्षा करने के साथ शत्रुओं को दूर रखने का कार्य करती थीI इस प्रकार एक बलशाली नौसेना ने भारत पर शासन करने में भी अंग्रेज़ों की सहायता कीI

मराठो का समुद्री पराक्रम

भारतीय तटों पर नियंत्रण करने अंग्रेज़ों के प्रयासों का मराठो ने डटकर सामना कियाI मुगलों के लगातार आक्रमण का सामना कर रहे मराठो के पास आरंभ में कोई नौसेना नहीं थीI शिवाजी वे प्रथम योद्धा थे जिन्हें एक मजबूत नौसेना की आवश्यकता महसूस हुईI सिद्दियों (जिनके बेस मुरुद जंजीरा में थे) से लड़ने के क्रम में और कोंकण तट पर पुर्तगालियों की नौसैन्य शक्ति को देखकर शिवाजी को कुशल पत्तन प्रणाली और मजबूत नौसेना के महत्व का पता चलाI शिवाजी का दुर्गों में विश्वास था और उन्होंने विजयदुर्ग, सिन्धुदुर्ग और अन्य स्थानों की तरह कोंकण तट पर कई तटीय दुर्गों का निर्माण करवायाI उन्होंने तटों की अपेक्षा छोटी पहाड़ियों पर किलों का निर्माण करवाया ताकि किलों की ठोस सुरक्षा सुनिश्चित की जा सकेI

मराठो की नौसेना शीघ्र ही बलशाली हो गई और उसने कोलाबा, सिन्धुदुर्ग, विजयदुर्ग और रत्नागिरी स्थित दुर्गों पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लियाI मराठो ने 40 वर्ष से अधिक तक अपने दम पर पुर्तगालियों और अंग्रेज़ों को रोक कर रखाI शिवाजी के समय में मराठो की नौसेना एक प्रबल सेना के रूप में विकसित हो गई थीI जिसमें 500 से अधिक पोत थे लेकिन 1680 ई. में शिवाजी की मृत्यु के उपरांत मराठो की नौसेना कमजोर हो गईI

कान्होजी आंग्रे की कहानी

कन्होजी आंग्रे 1699 ई. में मराठा बेड़े सारकेल (एडमिरल) के रूप में शामिल हुएI पहले तो कान्होजी का पूरा ध्यान अपने बेड़े में पोतों की संख्या 10 से बढ़ाकर लगभग 50 गलबट और 10 जुटाव करने पर केंद्रित रहाI ऐसा करने से उसकी सेना एक विशाल नौसेन्य बल में तब्दील हो गईI उन्होंने उन किलों को पुनः अधिकार में लिया जिन्हे मराठो की नौसेना सिद्दियों के हाथों गँवा चुकी थीI सिद्दियों पर निर्णायक विजय प्राप्त करने के उपरांत उनका ध्यान पुर्तगालियों की ओर गयाI

कान्होजी ने उन पुर्तगाली व्यापारिक पोतों आर आक्रमण करना तथा उन्हें कब्ज़े में लेना शुरू कियाI जिन्होंने कान्होजी का पासपोर्ट खरीदने से इनकार कर दियाI पुर्तगालियों ने इन आक्रमणों का प्रतिकार तो किया परंतु मराठो की संख्या के आगे टिक न सके और पराजित हुएI अंततः पुर्तगालियों और मराठो के बीच शांति समझौता हुआI पुर्तगाल के मामले को निपटने और अपने पक्ष में करने के बाद कान्होजी ने अपना ध्यान अंग्रेज़ों पर केंद्रित कियाI मुंबई में अंग्रेज़ों का पत्तन कान्होजी के कोलाबा के किले से काफ़ी नज़दीक अंग्रेज़ों ने कान्होजी को अपने लिए ख़तरा मानते हुए सभी शत्रुओं को अपने पक्ष में करना शुरू कियाI ब्रिटिश गवर्नर चार्ल्स बून और विख्यात सारकेल कान्होजी के बीच 10 वर्षों से भी अधिक समय तक कई लड़ाइयाँ लड़ी गईI जिनमें दोनों को भारी नुकसान हुआI आख़िरकार, 1724 में सारकेल कान्होजी ने ब्रिटिश गवर्नर विलियम फिपस के पास शांति का प्रस्ताव भेजाI किसी प्रकार का औपचारिक समझौता न होने और दोनों के किन्हीं गतिविधियों में भाग न लेने से युद्ध विराम के भंग होने का ख़तरा बना रहाI कान्होजी इस प्रकार समुद्र में किसी से नहीं हारेI कुछ वर्षों बाद, कान्होजी आंग्रे की मृत्यु हो गई और अंग्रेज़ों ने आख़िरकार 1756 में मराठा के गढ़ माने जाने वाले घेरिया के किले (विजयदुर्ग) को अपने अधिकार में ले लिया और इस प्रकार मराठो के पतन की शुरुआत हो गईI

अँग्रेज़ी हुकूमत में समुद्री भारत

ईस्ट इंडिया कंपनी 01 मई 1830 को ब्रिटिश क्राउन के अधीन आई और इसे योधी का दर्जा मिल गयाI तब इस सर्विस को इंडियन नेवी नाम दिया गयाI 1858 में पुनः नामकरण करते हुए इसे ‘हर मेजेस्टीज़ इंडियन नेवी’ अभिहित किया गयाI 1863 में इसका पुनर्गठन करते हुए इसे दो शाखाओं में बाँटा गयाI बॉम्बे स्थित शाखा को बॉम्बे मरीन और कलकत्ता स्थित शाखा को बंगाल मरीन कहा गयाI भारतीय जलराशि की सुरक्षा करने का कार्य रॉयल नेवी के सुपुर्द किया गयाI

द रॉयल इंडियन मरीन (आर आई एम) का गठन 1892 में हुआI प्रथम विश्व युद्ध के दौरान रॉयल इंडियन मरीन को समुद्री सर्वेक्षण, लाइट हाउसों के रख-रखाव और सैनिकों को लाने ले जाने जैसे कार्य सौंपे गए थेI 1918 में प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के उपरांत शीघ्र ही ब्रिटिश सरकार ने भारत में रॉयल इंडियन मरीन की नफरी को कम कर दियाI 02 अक्तूबर 1934 को इस सर्विस का नाम पुनः बदलकर रॉयल इंडियन नेवी (आर आई एन) किया गयाI जिसका मुख्यालय बम्बई में थाI

जब 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत हुई तब रॉयल इंडियन नेवी में अफसरों की संख्या 114 और नाविकों की संख्या 1732 थीI उस समय बम्बई के नेवल डॉकयार्ड के भीतर स्थित नेवल हेडक्वार्टर्स में केवल 16 अफ़सर तैनात थेI चूकि, युद्ध के दौरान कमान और नियंत्रण का केंद्र बिंदु नई दिल्ली हुआ करता था, एक नेवल संपर्क अफ़सर के अक्तूबर 1939 में नई दिल्ली में तैनात किया गयाI ऐसा करने का उद्देश्य महत्वपूर्ण कागज़ातों पर होने वाली कार्रवाई में लगने वाले समय को कम करना था लेकिन जब यह भी असंतोषजनक प्रतीत हुआ तो मार्च 1941 में नौसेना मुख्यालय को बम्बई से नई दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गयाI

द्वितीय विश्व युद्ध के आरंभिक चरण में रॉयल नेवी की सहायता के लिए रॉयल इंडियन नेवी के पास छ: मार्ग रक्षी जलयानों वाला एक स्क्वाड्रन थाI जो समुद्र में गश्त लगाया करता था और स्थानीय नेवल परीक्षा का दायित्व निभाता थाI व्यापारिक पोतों को हथियार उपलब्ध कराए गए और भारतीय पत्तनो और उन तक जाने वाले समुद्री मार्गों की सुरक्षा के लिए बेड़े में नए प्रकार के जलयान शामिल किए गएI रॉयल नेवी का पूर्वी बेड़ा पृष्टभूमि में अवश्य था लेकिन स्थानीय नेवल प्रतिरक्षा की ज़िम्मेदारी रॉयल इंडियन नेवी (आर आई एन) की थीI रॉयल इंडियन नेवी ने समाघात ड्यूटियों का निर्वाह करते हुए मध्य-पूर्व और बंगाल की खाड़ी में सराहनीय कार्य कियाI उसके जलयानों ने भूमध्य और अटलांटिक दोनों यूरोपीय महासागरों में ऑपरेशन किए और शायद इसे इसका सर्वप्रथम और सर्वाधिक महत्वपूर्ण समाघात दायित्व लाल सागर में सौंपा गयाI जहाँ भारतीय पोतों ने इटली से मसावा को छीनकर उसपर अधिकार करने और सोमाली लैंड के अपतट पर इटली की नौसेना का मुकाबला करने में सक्रिय भूमिका निभाईI फ्रांस की खाड़ी में उनकी ड्यूटियाँ विशेषकर तटों की निगरानी करने और आपूर्ति करने वाले पोतों को सुरक्षा प्रदान करने की थी, वहाँ भी उन्होने सफलतापूर्वक आपरेट कियाI जापान के युद्ध में शामिल होने के उपरांत, रॉयल इंडियन नेवी (आर आई एन) के लिए बर्मा के पास की जलराशि मुख्य कार्य क्षेत्र बन गयाI बहादुरी और कौशल का शानदार परिचय देते हुए, उसने गश्ती कार्य और संयुक्त ओपरेशनों में कारगर ढंग से सहयोग कियाI

स्वतंत्रता के बाद का समुद्री भारत

स्वतंत्रता के उपरांत, भारत का विभाजन होने पर रॉयल इंडियन नेवी रॉयल इंडियन नेवी और रॉयल पाकिस्तान नेवी में बँट गईI 22 अप्रैल 1958 को वाइस एडमिरल आर डी कटारी ने भारतीय नौसेना के नौसेनाध्यक्ष का पद भार संभाला और इस गौरव को प्राप्त करने वाले वे प्रथम नेवल अफ़सर बनेI रॉयल इंडियन नेवी की दो-तिहाई परिसंपत्ति भारत के पास रही और शेष पाकिस्तान की नेवी के पास चली गईI 15 अगस्त 1947 को रियर एडमिरल जे टी एस हॉल, आर आई एन को भारत के प्रथम फ्लैग अफ़सर कमांडिंग रॉयल इंडियन नेवी के रूप में नियुक्त किया गयाI

26 जनवरी 1950 को भारत के गणतंत्र बनने के बाद ‘रॉयल इंडियन नेवी’ से ‘रॉयल’ शब्द को हटा दिया गया और ‘इंडियन नेवी’ के रूप में इसका पुनः नामकरण किया गयाI 26 जनवरी 1950 को भारतीय नौसेना के प्रतीक चिह्न के रूप में रॉयल नेवी के क्रेस्ट के क्राउन का स्थान अशोक स्तंभ ने ले लियाI वेदों में वरुण देवता (समुद्र के देवता) की आराधना भारतीय नौसेना द्वारा चयनित आदर्श वाक्य “श नो वरुण:” से शुरू होती है जिसक अर्थ “वरुण देवता की कृपा हम पर हमेशा बनी रहे”I राज्य के प्रतीक के नीचे अंकित वाक्य “सत्यमेव जयते” को भारतीय नौसेना के क्रेस्ट में शामिल किया गयाI

ग्रेट ब्रिटेन में, सैन्य बलों के कमांडर-इन-चीफ़ और वहाँ की नेवी, आर्मी तथा एयर फोर्स को वहाँ के राजा, ध्वज प्रदान किया करते थेI हर विशेष समारोह के अवसर पर राजा के ध्वज तट पर होने वाली परेड में हिस्सा लेते थेI 1924 में, किंग जॉर्ज ने ब्रिटिश नेवी को अपना ध्वज प्रदान कियाI 1935 में रॉयल इंडियन नेवी को ‘राजा का ध्वज’ प्रदान किया गयाI हमारा देश भारत 26 जनवरी 1950 को गणतंत्र बना और इससे एक दिन पहले 25 जनवरी को रॉयल इंडियन नेवी, रॉयल इंडियन आर्मी और रॉयल इंडियन एयर फोर्स और उनकी संबंधित कमानों को भेंट किए गए सभी 33 राजा के ध्वजों की देहरादून स्थित भारतीय सैन्य अकादमी में प्रदर्शनी लगाई गईI

भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति, डा. राजेंद्र प्रसाद ने 27 मई 1951 को भारतीय नौसेना (इंडियन नेवी) को ध्वज प्रदान कियाI 21 अक्तूबर 1944 को पहली बार नौसेना दिवस मनाया गयाI इस समारोह को उल्लेखनीय सफलता मिली और इससे उत्साह का संचार हुआI इस समारोह की सफलता के बाद इस प्रकार के कई कार्यक्रमों का और बड़े स्तर आयोजन प्रति वर्ष और सर्दी के मौसम में किया गयाI अरब सागर और बंगाल की खाड़ी में नौसेना की सफल कार्रवाइयों, 1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान कराची के बंदरगाह पर किए गएI मिसाइल आक्रमण तथा युद्ध में मारे गए सभी शहीदों की याद में 1972 से नौसेना दिवस प्रति वर्ष 04 दिसंबर को मनाया जाता रहा हैI इस दौरान आगन्तुक और स्कूल के बच्चे भारतीय नौसेना के पोतों, एयरक्राफ़्टो और स्थापनाओं के दर्शन कर सकते हैंI

साभार https://www.joinindiannavy.gov.in/hi से