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भारतीय महाराजा, जिसे पौलेंड के लोग देवता मानते हैं

जामनगर। अतिथियों का सत्कार भारतीयों से बेहतर और कोई नहीं कर सकता है। यही वजह है कि भारत के एक महाराज के नाम पर पोलैंड के स्कूल का नाम रख दिया गया है। इस कहानी को पढ़कर आप भी गर्व महसूस करेंगे। यह महाराज जामनगर के दिग्विजय सिंह हैं, जिन्हें जामनगर की पहचान के साथ जाम साहेब दिग्विजय सिंह भी कहा जाता था। साल 2013 में पोलैंड सरकार ने जामनगर के महाराजा दिग्विजय सिंह के सम्मान में वॉर्सा में ‘गुड महाराजा स्क्वायर’ का उद्घाटन किया। पोलैंड ने वॉर्सा के लोकप्रिय बेडनारस्का हाई स्कूल के मानक संरक्षक के रूप में महाराजा का नाम दिया है। उन्हें मरणोपरांत राष्ट्रपति द्वारा कमांडर का क्रॉस ऑफ द ऑर्डर ऑफ मेरिट का सम्मान भी दिया गया है।

बात द्वितीय विश्वयुद्ध की है। 23 अगस्त 1939 मोस्को में नाज़ी,जर्मनी और सोवियत संघ में एक समझौता हुआ की दोनों देश एक दुसरे पर हमला नहीं करेगे इसमें पोलेंड के विभाजन की भी एक शर्त रखी थी ये दोनों देश नाजी और सोवियत संघ दोनों ने पोलेंड पर हमला बोल दिया ,सोचिये एक देश पर दो तरफ से इतना भयंकर हमला हो जाए तो वे कैसे जान बचाएँगे? रेड आर्मी बड़ी संख्या में पोलैंड के निवासियों को सोवियत संघ के द्वारा चलाए जाने वाले लेबर कैंप में काम करने के ले जा रही थी। रेड आर्मी से महिलाओं और बच्चों की रक्षा के लिए करीब 5000 बच्चों को एक सुरक्षित देश में शरण लेने के लिए जहाज में भेजा गया था। मगर, तब सहयोगी देशों सहित किसी भी देश ने उन्हें शरण नहीं दी। बुरी तरह कुपोषित और थका हुआ अनाथ बच्चों और महिलाओं का पहला जत्था जब भारत आया, तो महाराज ने खुद नवानगर जाकर उनका स्वागत किया। महाराज ने कहा कि आप खुद को अनाथ मत समझो। अब आप नवानगर के रहने वाले हैं और मैं नवानगर के रहने वालों का बापू (पिता) हूं और आपका भी बापू हैं। यह सुनकर पोलैंड की महिलाएं और बच्चे आश्चर्यचकित हो गए थे। फिर महाराजा दिग्विजय सिंह आगे आए और उन्होंने पोलैंड के इन बच्चों और महिलाओं को शरण दी।

इतने मुश्किल वक्त में पोलेंड के सैनिकों ने एक जहाज में अपने बच्चों और महिलाओं को बिठा दिया और केप्टन से कहा इन्हें किसी देश में ले जाओ जहा शरण मिले .जिन्दा रहे तो फिर मिलेगे .वो जहाज ईरान गया वहाँ उन्हें अनुमति नहीं मिली .फिर सेशेल्स और अदन पहुँचा मगर वहाँ भी उनको शरण नहीं मिली। अंत में ये जहाज ठोकरें खाता भारत के गुजरात के जामनगर तट पर आ पहुँचा। जामनगर के राजा को ये बात पता चली .जामनगर के राजा जिन्हें जाम साहेब के नाम से भी जाना जाता था उन्होंने उन १००० पोलेंड के लोगो की न सिर्फ जान बचाई बल्कि उन्हें एक पिता का प्रेम दिया और पालन पोषण भी किया .उनकी रियासत में एक महल था जिसे हवामहल कहते हे वे सभी वहा रहे यही नहीं वहा की बालाचढ़ी की सेनिक स्कुल में उन बच्चो को पठाई लिखाई की व्यवस्था भी की .जाम साहेब ने उनकी राष्ट्रिय पहचान न खोये इसके लिए भी बहुत कुछ किया था .

दिग्विजय सिंह ने न केवल शरणार्थियों का स्वागत किया, बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि उनके पास विशेष आवास, स्कूल, चिकित्सा सुविधाएं और जामनगर के पास बालछाडी में आराम से रहने की व्यवस्था भी हो। महाराजा ने चेला में एक शिविर भी खोला और पटियाला व बड़ौदा के शासकों को भी शरणार्थियों की सहायता के लिए जोड़ा, जिनके साथ उनके अच्छे संबंध थे।

साल 1942 और 1948 के बीच करीब 20,000 शरणार्थी यहां आए और तत्कालीन अविभाजित भारत में वे छह महीने से लेकर छह वर्षों तक रहे। उस दौर के जो लोग आज भी जिंदा बचे हैं, वे इस कहानी को याद करते हुए भावुक हो जाते हैं और अपने आंसुओं को नहीं रोक पाते हैं। महाराजा उन्हें विदा करने के लिए खुद रेलवे स्टेशन पर पहुंचे थे।

आज़ादी के पहले जामनगर नवानगर नाम से जाना जाता था ,1540 में राजा जाम रावल ने इसकी स्थापना की थी ,नवानगर अब जामनगर नाम से जाना जाता है।