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भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों के प्रेरणास्रोत्- सरदार अर्जुन सिंह

इस लेख को पड़ने वाले ज्यादातर वे पाठक हैं जिन्होंने आजाद भारत में जन्म लिया.यह हमारा सौभाग्य हैं की आज हम जिस देश में जन्मे हैं उसे आज कोई गुलाम भारत नहीं कहता, उपनिवेश नहीं कहता बल्कि संसार का एक मजबूत स्वतंत्र राष्ट्र के नाम से हमें जाना जाता हैं. इस महान भारत देश को आजाद करवाने में हजारों क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की आहुति आज़ादी के पवित्र यज्ञ में डाली तब कहीं जाकर हम आजाद हुए. भगत सिंह का नाम भारत देश की आज़ादी के आन्दोलन में एक विशेष महत्व रखता हैं. प्रथम तो भगत सिंह नौजवानों के लिए जिन्हें अंग्रेजों से भीख में आज़ादी मांगने में कोई रूची नहीं थी उनके लिए प्रेरणास्रोत्र बने दूसरे १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता आन्दोलन के असफल हो जाने के बाद अंग्रेजी सरकार द्वारा बड़ी निर्दयता से आज़ादी के दीवानों पर प्रहार किया था, उनका उद्देश्य था की भारत देश की प्रजा के मन में अंग्रेज जाति की श्रेष्ठता और अपराजय होने के भय को बैठा देना जिससे वे दोबारा आज़ादी प्राप्त करने का प्रयास सशत्र न करे इस भय को मिटने में भी भगत सिंह की क़ुरबानी सदा याद रखी जाएगी. किसी भी व्यक्ति का महान बनने के लिए महान कर्म यानि की तप करना पड़ता हैं और उस तप की प्रेरणा उसके विचार होते हैं. किसी भी व्यक्ति के विचार उसे ऊपर उठा भी सकते हैं उसे नीचे गिरा भी सकते हैं.

भगत सिंह के जीवन में उन्हें कई महान आत्माओं ने प्रेरित किया जैसे करतार सिंह सराभा, भाई परमानन्द , सरदार अर्जुन सिंह, सरदार किशन सिंह आदि. सरदार अर्जुन सिंह भगत सिंह के दादा थे और स्वामी दयानंद के उपदेश सुनने के बाद वैदिक विचारधारा से प्रभावित हुए थे.सरदार अर्जुन सिंह उन महान व्यक्तियों में से थे जिन्हें न केवल स्वामी दयानंद के उपदेश सुनने का साक्षात् अवसर मिला अपितु वे आगे चलकर स्वामी जी की वैचारिक क्रांति के क्रियात्मक रूप से भागिदार भी बने. स्वामी दयानंद के हाथों से उन्हें यज्ञोपवित प्राप्त हुआ और उन्होंने आजीवन वैदिक आदर्शों का पालन करने का व्रत लिया. उन्होंने तत्काल मांस खाना छोड़ दिया और शराब की पीर जीवन भर मुहँ नहीं लगाया. अब नित्य हवन उनका साथी और वैदिक संध्या उनके प्रहरी बन गए. समाज में फैले अन्धविश्वास जैसे मृतक श्राद्ध, पाखंड आदि के खिलाफ उन्होंने न केवल प्रचार किया अपितु अनेक शास्त्रार्थ भी किये.१८९७ में अज्ञानी सिखों में अलगाववाद की एक लहर चल पड़ी. काहन सिंह के नाम से एक सिख लेखक ने “हम हिन्दू नहीं” के नाम से पुस्तक लिखकर सिख पंथ को हिन्दू समाज से अलग दिखने का प्रयास किया तो सरदार अर्जुन सिंह ने “हमारे गुरु वेदों के पैरो (अनुयायी) थे” शीर्षक से उत्तर लिखा था. इस पुस्तक में उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब में दिए गए श्लोकों को प्रस्तुत लिया जो वेदों की शिक्षाओं से मेल खाते थे और इससे यह सिद्ध किया की गुरु ग्रन्थ साहिब की शिक्षाएँ वेदों पर आधारित हैं.

सरदार अर्जुन ने अपने ग्राम बंगा जिला लायलपुर (पाकिस्तान) में गुरूद्वारे को बनाने में तो सहयोग किया और वे गुरुद्वारा में तो जाते थे पर कभी गुरु ग्रन्थ साहिब के आगे माथा नहीं टेकते थे. वे कहते थे की गुरु साहिबान की शिक्षा पर चलना ही सही हैं, वे कहते थे की मूर्ति पूजा की भांति ही यह पुस्तक पूजा हैं. वे ग्राम के बड़े जमींदार थे, ग्राम के विकास के लिए उन्होंने कुएँ और धर्मशालाभी बनवाई. हर वर्ष अपने ग्राम में आर्यसमाज के प्रचारकों को बुला कर हवन और उपदेशकों के प्रवचन आदि करवाते थे जिससे ग्राम में छुआछुत, अंधविश्वास और नशे आदि का कलंक सदा के लिए मिट जाएँ।

सन १९०९ में पटियाला रियासत में आर्यसमाज पर राजद्रोह का अभियोग अंग्रेज सरकार ने चलाया. निर्दोष आर्यसमाज के अधिकारीयों और सदस्यों को बिना कारण जेल में बंद कर दिया गया.इस कदम का उद्देश्य सिखों और आर्यों में आपसी वैमनस्य को पैदा करना था व देसी रियासतों में से आर्यसमाज की जागरण क्रांति की मशाल को मिटा देना था.स्वामी श्रधानंद ने इस संकट की घड़ी में जब कोई भी वकील आर्यसमाज का केस लड़ने को तैयार न हुआ तो खुद ही आर्यसमाज के वकील के केस की पैरवी करी और कोर्ट में सिद्ध किया की आर्यसमाज का उद्देश्य समाज का कल्याण करना हैं न की राज द्रोह करना. इस मामले में अर्जुन सिंह भी सक्रिय हुए. अन्य आर्यों के साथ मिलकर उन्होंने गुरु ग्रन्थ साहिब के ७०० ऐसे श्लोक प्रस्तुत करे जो की वेदों की शिक्षा से मेल खाते थे.इस प्रकार सिख समाज और आर्य समाज में आपसी मधुर सम्बन्ध को बनाने में आप मील के पत्थर साबित हुए.

एक बार वे एक विवाह उत्सव में शामिल हुए जहाँ एक सिख पुरोहित स्वामी दयानंद रचित सत्यार्थ प्रकाश की आलोचना कर रहा था. अपने उसे चुनौती दी की वह जिस कथन के आधार पर आलोचना कर रहा हैं वह कथन ही सत्यार्थ प्रकाश में नहीं हैं. उस पुरोहित ने कहाँ की यदि सत्यार्थ प्रकाश लाओंगे तो में प्रमाण दिखा दूंगा. अर्जुन सिंह जी को उस पूरे गाँव में सत्यार्थ प्रकाश न मिला. आप तत्काल अपने गाँव वापस गए और अगले दिन सत्यार्थ प्रकाश लेकर वापिस आ गए.आलोचक उन्हें सत्यार्थ प्रकाश में कोई भी गलत प्रमाण न दिखा सका और माफ़ी मांगकर पिण्ड छुड़ाया.ध्यान दीजिये अर्जुन सिंह जी गाँव उस गाँव से करीब ६० मील की दूरी पर था. सत्य मार्ग पर चलते हुए जो कष्ट होता हैं उसे ही असली तप कहते हैं.

स्वामी दयानंद १८५७ के पश्चात पहले गुरु थे जिन्होंने स्वदेशी राज्य का समर्थन किया और विदेशी शाषण का बहिष्कार करने का आवाहन किया. उनके इस जन चेतना के आह्वान का सरदार अर्जुन सिंह पर इतना प्रभाव पड़ा की न केवल वे खुद आज़ादी की दीवानों की फौज में शामिल हुए बल्कि उनका समस्त कुटुंब भी इसी रास्ते पर चल पड़ा था.जब भगत सिंह और जगत सिंह आठ वर्ष के हुए तो अर्जुन सिंह जी ने अपने दोनों पोतों का यज्ञोपवित पंडित लोकनाथ तर्कवाचस्पति (भारत के पहले अन्तरिक्ष यात्री राकेश शर्मा के दादा) के हाथों से करवाया और एक पोतें को दायीं भुजा पर और दुसरे पोतें को बायीं भुजा में भरकर यह संकल्प लिया- मैं इन दोनों पोतों को राष्ट्र की बलिवेदी के लिए दान करता हूँ. अर्जुन सिंह जी के तीनों लड़के पहले से ही देश के लिए समर्पित थे. उनके सबसे बड़े पुत्र और भगत सिंह के पिता किशन सिंह सदा हथकड़ियों की चौसर और बेड़ियों की शतरंज से खेलते रहे, उनके मंजले पुत्र अजित सिंह को तो देश निकला देकर मांडले भेज दिया गया , बाद में वे विदेश जाकर ग़दर पार्टी के साथ जुड़कर कार्य करते रहे. उनके सबसे छोटे पुत्र स्वर्ण सिंह का जेल में तपेदिक से युवावस्था में ही देहांत हो गया था. अपने दादा द्वारा देश हित में लिए गए संकल्प को पूरा करने के लिए, अपने पिता और चाचा द्वारा अपनाये गए कंटक भरे मार्ग पर चलते हुए भगत सिंह भी वीरों की भांति देश के लिए २३ मार्च १९३१ को २३ वर्ष की अल्पायु में फाँसी पर चढ़ कर अमर हो गए.

भगत सिंह के मन में उनके दादा सरदार अर्जुन सिंह जी द्वारा बोएं गए क्रांति बीज आर्य क्रांतिकारियों भाई परमानन्द, करतार सिंह सराभा ,सूफी अम्बा प्रसाद और लाला लाजपत राय जैसे क्रांतिकारियों द्वारा दी गयी खाद से पल्लवित होकर जवान होते होते देश को आजाद करवाने की विशाल बरगद रुपी प्रतिज्ञा बन गए.यह पूरा परिवार आर्यसमाज की प्रगतिशील विचारधारा से प्रभावित था जिसका श्रेया सरदार अर्जुन सिंह को जाता हैं.
साम्यवादी लेखों द्वारा अन्याय “मैं नास्तिक क्यूँ हूँ ” भगत सिंह की ये छोटी सी पुस्तक साम्यवादी लाबी द्वारा आज के नौजवानों में खासी प्रचारित करी जाती हैं जिसका उद्देश्य भगत सिंह के जैसा महान बनाना नहीं अपितु नास्तिकता को बढावा देना हैं. कुछ लोग इसे कन्धा भगत सिंह का और निशाना कोई और भी कह सकते हैं. मेरा एक प्रश्न उनसे यह हैं की क्या भगत सिंह इसलिए महान थे की वे नास्तिक थे ? अथवा इसलिए कि वे देश भक्त थे. सभी कहेगे की इसलिए कि वे देशभगत थे.फिर क्या यह नास्तिकता का प्रोपगंडा अनजान नौजवानों को सत्य से अनभिज्ञ रखने के समान नहीं हैं तो और क्या हैं.

अगर किसी भी क्रांतिकारी की अध्यात्मिक विचारधारा हमारे लिए आदर्श हैं तो भगत सिंह के अग्रज पंडित राम प्रसाद बिस्मिल जो न केवल कट्टर आर्यसमाजी थे , ब्रहमचर्य के पालन के क्या क्या फायदे होते हैं उसके साक्षात् प्रमाण थे, जिनका जीवन सत्यार्थ प्रकाश को पढने से परिवर्तित हुआ था क्यूँ हमारे लिए आदर्श और वरण करने योग्य नहीं हो सकते. आर्यसमाज मेरी माता के समान हैं और वैदिक धर्म मेरे लिए पिता तुल्य हैं ऐसा उद्घोष करने वाले लाला लाजपतराय क्यूँ हमारे लिए वरणीय नहीं हो सकते?

मेरा इस विषय को यहाँ उठाने का मंतव्य वीर भगत सिंह के बलिदान को कम आंकने का नहीं हैं बल्कि यह स्पष्ट करना हैं कि भारत माँ के चरणों में आहुति देने वाला हर क्रांतिकारी हमारे लिए महान हैं. उनकी वीरता और देश सेवा हमारे लिए वरणीय हैं. पहले तो भगत सिंह कि क्रांतिकारी विचारधारा और देशभक्ति का श्रेय नास्तिकता को नहीं अपितु उनके पूर्वजों द्वारा माँ के दूध में पिलाई गयी देश भक्ति कि लोरियां हैं जिनका श्रेय स्वामी दयानंद को जाता हैं.दुसरे आज़ादी कि लड़ाई में अधिकांश गर्म दल और ८०% के करीब नर्म दल आर्यसमाज कि धार्मिक विचारधारा से प्रेरित था इसलिए स्वामी दयानंद को भारत देश को आजाद करवाने के उद्घोष वाहक मानना चाहिए.

शहीद की मां को प्रणाम कर गयी
पैदा तुझे उस कोख का एहसान है
सैनिकों के रक्त से आबाद हिन्दुस्तान है
तिलक किया मस्तक चूमा बोली ये ले
कफन तुम्हारा मैं मां हूं पर बाद में,
पहले बेटा वतन तुम्हारा …
धन्य है मैया तुम्हारी भेंट में बलिदान में झुक गया है
देश उसके दूध के सम्मान में दे दिया है लाल
जिसने पुत्र मोह छोड़कर चाहता हूं
आंसुओं से पांव वो पखार दूं
ए शहीद की मां आ तेरी मैं आरती उतार लूं
#BhagatSingh