देश में न्यायालयों की कैद में है न्याय व्यवस्था !

न्याय लैटिन भाषा के शब्द “Decoisune” से बना है, जिसका आशय उचित(Rightiousness )है। भारत की न्यायिक व्यवस्था में न्याय समय से प्राप्त होना समसामयिक परिप्रेक्ष्य में विशद चर्चा का विषय है । हाल में भारत का सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक व्यवस्था में लंबित मामलों को उच्चतम प्राथमिकता से समाधान हो सके ।सभ्य समाज और लोकतांत्रिक शासकीय व्यवस्था में न्याय का अव्यय भयमुक्त समाज के लिए अति आवश्यक है। समय से न्याय व्यक्तित्व के विकास में प्रमुख अवयव है।भारतीय न्यायिक प्रणाली में 5 करोड़ के करीब मुकदमे लंबित हैं ,इनमें ऐसे भी मामले हैं जो दशकों से लंबित है। सर्वोच्च न्यायालय के आधिकारिक आंकड़ों से पता चला है कि देश में लगभग 7% आबादी लंबित मुकदमों से व्यथित हैं।

किसी भी व्यक्ति को न्याय समय से मिलना उसके शारीरिक और मानसिक सेहत के लिए राहत होता है, लेकिन न्याय मिलने में अनावश्यक विलंब व्यक्ति को न्यायिक प्रक्रिया से मोहभंग कर देता है। न्यायिक व्यवस्था में पाया गया है कि छोटे से छोटे मामलों के निपटारे में दशकों बीत जाते हैं ।न्याय में विलंब लोगों को परेशानी प्रदान करता है। न्यायिक व्यवस्था में आस्था को कमजोर करता है, इसके अतिरिक्त लंबित मुकदमे राष्ट्र की प्रगति में बाधक बनते हैं। सरकार, समाज और कानूनी पेशेवरों को समय पर न्याय प्रदान करने के लिए सामूहिक प्रयास की आवश्यकता है। न्यायपालिका का सरकार पर आरोप न्यायाधीशों की संख्या को, जबकि सरकार विचारधारा को लेकर कोसती है ,जबकि एक प्रगतिशील संवैधानिक व्यवस्था में संख्या ,संसाधन और प्रौद्योगिकी की अपेक्षा सामंजस्य का महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

भारत की शासकीय व्यवस्था में सामंजस्य की कमी अधिक है ।लंबित मुकदमों के त्वरित निवारण के लिए एकीकृत न्यायपालिका को समस्या समाधान वार्ता को बढ़ाकर लोक कल्याण की दिशा में उर्जित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए, जिससे समाज, राज्य ,व्यवस्था और राष्ट्र की प्रगति की दिशा में ऊर्जावान कदम उठाकर लंबित मामलों के त्वरित निस्तारण किया जा सके ।सर्वोच्च न्यायालय में79566 मामले लंबित है ,जबकि 2023 में 41723 मामलों का निस्तारण किया गया है ।इन मामलों के निस्तारण में विधिक पेशेवरों को 2019 में 32.81 करोड़ खर्च किया गया था। वर्ष 2020 में 37.96 करोड रुपए खर्च किए गए ,जबकि 37.76 करोड़ रुपये 2023 में खर्च हुआ।

कार्टून साभार -बीबीसी से

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक व सहायक प्राध्यापक हैं)