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कविरत्न प्रकाशजी की कविताओँ का वो जादू वो जो आज भी सिर पर चढ़कर बोलता है

कविरत्न प्रकाश जी एक विलक्षण प्रतिभा के धनी आर्य कवि थे| उन्होंने जिस विषय पर भी कलम चलाई बस कमाल ही कर दिया| इस कारण ही अपनी मृत्यु के लगभग पचास वर्ष पश्चात् भी जन-जन के हृदयों में विराजमान हैं| उन्होंने आर्य समाज तथा समाज सुधार के साथ ही साथ देश-भक्ति सम्बन्धी तथा इतिहास आदि प्राय: उन सब विषयों पर कलम चलाई, जिन का किसी भी रुप में ऋषि सिद्धान्तों, वेद प्रचार, अंधविश्वास तथा रुढियों के निर्मूलन, इतिहास पुरुषों की वीर गाथाओं के साथ ही साथ समाज सुधार के लिए भी अद्भुत रचनाओं का न केवल निर्माण ही किया अपितु इन रचनाओं को स्वयं गा-गा कर जन समुदाय को आंदोलित भी किया| इन कविरत्न जी ने अनेक कहावतों पर जो कलम चलाई, उसे तो देखते ही बनता है| देखें “जादू वो, जो सर पै चढ़ बोले” नामक कहावत पर वह क्या कमाल की काव्य रचना करते हैं :
धूर्त,ठगों के भुलावे में आ ,
धन-धर्म लुटा रहे थे जन भोले
देव दयानंद आये तभी बन
सत्य प्रचार बन ह्रदय–पट खोले
देश के कारण कष्ट सहे
पुर, ग्राम पहाड़ वनों विच डोले
गायें “प्रकाश” सभी ऋषि के गुण
जादू वो, जो सर पै चढ़ बोले

कितनी सुन्दर काव्य रचना है यह| इसका काव्य सौन्दर्य देखते ही बनता है| इस काव्य खंड में अलंकार अपनी छटा खूब बिखेर रहे हैं| पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार ने तो कमाल ही कर दिया है| तत्कालीन परिस्थितियों का वर्णन करते हुए प्रकाश जी ने काल को ऋषि दयानंद जी के साथ इस प्रकार जोड़ा है कि मानो प्रकाश जी यह सब अपनी आँखों के सामने ही देख रहे हों| प्रकाश जी अपनी इस रचना में लिख रहे हैं कि इस देश में उस समय के लोग इतने भोले थे कि वह निरंतर धूर्त और ठग प्रकार के लोगों के चक्कर में बुरी प्रकार से फंसे हुए थे| उनके चक्कर में आ कर अपने धन-संपदा को उनके कथनों या आदेशों के अनुसार लुटाते चले जा रहे थे|

हम जब आज की परिस्थिति में नजर डालते हैं तो हम आज भी पाते हैं कि आज भी अनेक लुटेरे व ठग किस्म के लोग अध्यात्मिक क्षेत्र में आकर लोगों को बहकाने का काम करते हुए अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं| कोई रामपाल बन गया है तो कोई राम रहीम या आसाराम बापू के रूप में व्यभिचार, अनाचार व दुराचार को फैला रहा है किन्तु इस देश के स्त्री पुरुष तो भी इन लोगों की कुचालों में फंसते हुए कोई तो इसे अपने आभूषण भेंट कर रहा है तो कोई अपने बच्चों के मुंह का निवाला छीन कर उन पर अपना सारा धन लुटा रहा है| इस प्रकार इस काव्य खंड की पंक्ति न केवल उस काल की परिस्थितियों का ही दर्शन करवा रही है, बल्कि आज की दशा का भी दर्शन स्वयमेव ही हो रहा है|

पंडित जी कहते हैं कि इस भीषण दुरूह अवस्था में देव दयानंद जी ने इस धरती पर जन्म लिया और जानजागरण के क्षेत्र में कूद कर जो गुमराह लोगों का मार्ग दर्शन करने लगे और आह्वान् करने लगे कि हे मेरे देश के लोगो! यदि आप सुखी रहना चाहते हो तो वेदों की और लोटो, सत्य की शरण में आओ| इस प्रकार के निस्वार्थ भाव से सत्य धर्म का उनहोंने प्रचार करते हुए जन-जन के ह्रदय रूपि भवन के बंद द्वारों को खोल दिया| जो लोग अंधविश्वास में जकड रहे थे उन्हें इस अंधकूप से बाहर निकाला|

स्वामी जी के कष्टों का वर्णन करते हुए कवि जी ने जो लिखा, उस पंक्ति का भाव यह है कि इस समय देश की जो अवस्था थी, उसे देख कर अनायास ही ऋषि को रोना आता था| देश को गुलाम देख कर और इस देश के नागरिकों को गुलाम देख कर ऋषि उनकी इस अवस्था को सहन न कर सके तथा इस के निवारण के लिए उन्होंने लम्बी-लम्बी यात्राएं कीं| आज के समान उस समय यातायात की उत्तम व्यवस्था तो थी नहीं| यात्रा के लिए प्राय: पैदल ही चलना होता था| कभी कोई बैलगाड़ी मिल जाती या कुछ भाग में घिसी पिटी रेलगाड़ी होती थी| उन्हें अपनी यात्राओं में इन तीनों उपायों को ही अपनाना पड़ा| जनकल्याण के लिए वह जंगलों में गए, पहाड़ों में गए, नदियों को पार किया, गाँवों और नगरों में गए, गरीब के झोंपड़े में गए, राजाओं के राज महल में भी गए| सिंहों, भालुओं आदि अनेक प्रकार के जंगली जानवरों का भी सामना किया| इस प्रकार देश के लोगों को जागृत कर, उन्हें वेद की बातें समझाने के लिए लाखों कष्ट उठाये |

इस प्रकार के कष्ट उठाते हुए स्वामी जी ने जो जनकल्याण का कार्य किया उसे देखते हुए प्रकाश जी कहते हैं कि इस प्रकार के कल्याणकारी ऋषि दयानंद जी के गुणों का हमें सदा गान करना चाहिए क्योंकि कहा भी है कि “जादू वो, जो सर पै चढ़ बोले”|

डॉ.अशोक आर्य
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