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राष्ट्र की आत्मा से छल है विदेशी भाषा की गुलामी

भारत में अनेक भाषाएं एवं बोलियां है लेकिन उसके बावजूद लगभग हर शहर-क़स्बे में अंग्रेजी में लिखे बोर्ड आखिर गुलाम मानसिकता के अतिरिक्त क्या है? क्या उपरोक्त चित्र प्रमाण नहीं है कि ‘दिनदहाड़े हम निज भाषा गौरव रसातल की ओर ले जा रहे हैं।’ विचारणीय है कि आखिर क्यों अंग्रेजी माध्यम स्कूल फले-फूले? सर्वथा अनजान भाषा के कारण छोटे-छोटे बच्चों के लिए शिक्षा मानसिकता विकास की बजाय बोझ बन गई है। हम जानबूझ कर अनजान बने हुए कि मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने वाला बच्चा तेजी से आगे बढ़ता है। उसका ज्ञान वास्तविक होता है जबकि अंग्रेजी का झुनझुना बजाने वाले बच्चे ‘तोता रटन्ट’ करते हैं। ये बेबस बच्चे दोहरे बोझ से दबते हैं शिक्षा ग्रहण करना और पराई भाषा सीखना। अंग्रेजी को वैश्विक भाषा बताने वाले इसे अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाये हुए है।

हम इस बात पर क्यों मौन रहते हे कि तुर्की के कमाल अतातुर्क पाशा बिना कोई विलम्ब किये अगले दिन से तुर्की का सारा राजकाज तुर्की भाषा में करने का आदेश दे सकते हैं। इजराइल अपने गठन के तुरन्त बाद ‘हिब्रू’को अपनी राजभाषा घोषित कर सकता है जबकि नब्बे प्रतिशत से अधिक यहूदी हिब्रू जानते ही नहीं थे। राष्ट्रीयता की प्रबल भावना को जागृत करने में अपनी भाषा के महत्व को स्वीकार करने वाले नेतृत्व की दृढ़ इच्छाशक्ति ने वहां का इतिहास बदल दिया। दूसरी ओर स्वतंत्रता के 71 वर्ष बाद जब इजराइल के विपरीत हमारे देश के अधिसंख्यक लोग हिंदी बोल, लिख अथवा समझ सकते हैं हम ‘किन्तु, परंन्तुु’ से मुक्त नहीं हो सके हैं। मात्र दो-ढाई प्रतिशत लोगों की भाषा अंग्रेजी का प्रशासन से शिक्षा और न्याय तक हावी होना राष्ट्रीय शर्म का विषय है। वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक, व्यावसायिक जितनी पुस्तकें, पत्रिकाएँ अंग्रेज़ी में उपलब्ध होनेा इसी षड़यंत्र का परिणाम है। अंग्रेजी को विश्व भाषा बताने वाले समझने को तैयार नहीं है कि रूस ,जर्मनी, फ्रांस, जापान,चीन,सहित विश्व के अनेक ऐसे देश हैं जिन्होंने अंग्रेजी के बिना उन्नति की है।

स्वतंत्रता आंदोलन में सभी नेता हिन्दी के महत्व को स्वीकारते रहे हैं। बंगाल के महान समाज सुधारक राजा राम-मोहन राय के बाद 1875 में बंगाल के ही केशव चन्द्र सेन ने हिन्दी की अनिवार्यता पर बल दिया था। 1850 में एक अंग्रेज विद्वान ने लिखा था कि गुजरात से इरावती तक तथा हिमालय से कन्याकुमारी तक लोग हिन्दुस्तानी समझते हैं। फादर कामिल बुल्के के अनुसार, ‘अफगानिस्तान के हेरात’ प्रान्त मंें भी हिन्दी से काम चल सकता है।’

ऐसे में विचारणीय है कि आखिर भारतीय भाषाओं पर विदेशी भाषा क्यों हावी हो रही है। किसी भी भाषा के बढ़ने के कारकों में एक महत्वपूर्ण कारक है क्या उस भाषा का प्रत्यक्ष लाभ जीविका मिलने में है। आज भारतीय भाषाओं को दरकिनार कर जीविका को अंग्रेजी भाषा का आश्रित बनाकर हमें मानसिक तौर पर गुलाम बना रहा है। यहां हमारा यह अभिप्राय हर्गिज नहीं कि अंग्रेजी का ज्ञान कतई नहीं होना चाहिए। लेकिन अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा की कीमत पर हर्गिज नहीं। किसी भी भाषा का ज्ञान व्यक्ति के व्यक्तिगत विकास एवं योग्यता के लिए आवश्यक है, लेकिन केवल भाषायी जानकारी ज्ञान का पर्यायवाची नहीं हो सकती। कोई भी जीवान्त समाज अपनी भाषा के बिना तऱक्क़ी नहीं कर सकता। आयातित सामान और स्वयं विकसित सुविधाओं के अंतर को समझकर ही हम भाषा के महत्च को समझ सकते हैं। वैश्विक स्तर पर यह सिद्ध है कि हिंदी अपनी देवनागरी लिपि और ध्वन्यात्मकता (उच्चारण) के लिहाज से सबसे शुद्ध और विज्ञान सम्मत भाषा है। हमारे यहाँ एक अक्षर से एक ही ध्वनि निकलती है और एक बिंदु (अनुस्वार) का भी अपना महत्व है। दूसरी भाषाओं में यह वैज्ञानिकता नहीं पाई जाती।

तथाकथित वैश्विक भाषा अंग्रेज़ी को ही देखें, वहाँ एक ही ध्वनि के लिए अनेक अक्षर उपयोग में लाए जाते हैं जिन्हें एक बच्चे के लिए याद रखना काफी कठिन हैैं। इसके बावजूद हम अपने छोटे-छोटे बच्चो पर अवैज्ञानिक, अनियमित और अव्यवस्थित अंग्रेज़ी थोप रहे हैं। अंग्रेज़ी के मारे ये बच्चे न तो अंग्रेजी और न ही हिंदी सीखने पाते हैं। अंग्रेज़ी का रट्टा मारकर और वन टू टेन की गिनती दोहराने वाले हिंदी में गिनती भी नहीं आनते जबकि हिंदी भाषा सीखने वाले किसी रूसी या जापानी छात्र को ज़रूर आती होगी। विज्ञान तथा तकनीकी विषय अपनी भाषाओं में क्यों नहीं पढ़ाए जाते हैं? क्या वैज्ञानिक, प्रौद्योगिक, व्यावसायिक जितनी पुस्तकें, पत्रिकाएँ अंग्रेज़ी में ही उपलब्ध होना षड़यंत्र का परिणाम नहीं है? भारत में अंग्रेज़ी एक विदेशी भाषा के रूप में पढ़ाई जानी चाहिए न कि शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी हो। शासन से न्याय तक अंग्रेजी हो। यदि भारत को उन्नत देशों की कतार में शामिल करना हैे तो अंग्रेज़ी को अतिथि माने, गृहस्वामिनी नहीं।

जरूरत है वोट मांगते हुए हिन्दी और संसद में जाकर अंग्रेजी का लबादा ओढने वाले दोगले नेताओ को सबक सिखाने का संकल्प लेना होगा। आखिर हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं को प्रशासनिक सेवाओं के लिए महत्वहीन बनाने वाला एक भी व्यक्ति संसद में क्यों पहुंचे? यदि हम ऐसा कर सके तो ग्राम पंचायत से देश की सबसे बड़ी पंचायत तक हिन्दी और भारतीय भाषाओं के अपमान का दुस्साहस कोई न कर सकता।

14 सितम्बर को हिंदी दिवस या हिंदी पखवाड़ा मनाना पर्याप्त नहीं है। हिंदी को प्रशासन से लोक व्यवहार की भाषा बनाने के लिए सशक्त जनआदंोलन की आवश्यकता है। हमे अपने शासको से पूछना होगा कि यदि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव पर्ची हिंदी में हो सकती है तो भारत की राजधानी दिल्ली में ड्राईविंग लाइसेंस में एक भी शब्द हिंदी में क्यों नहीं? अधिसंख्यक सरकारी कामकाज अंग्रेजी में ही क्यों? अंग्रेज़ी को श्रेष्ठ समझने वाली मानसिकता का बहिष्कार कर हम भारतीयों को आपस में हिंदी या भारतीय भाषा में बात करने की ओर बढ़ना होगा वरना अगली पीढ़ी अपनी मातृभाषा भूल जाएगी। आखिर आप, मै, वे, ये, सब जानते और मानते हैं कि अभ्यास से कोई भी व्यवहार मज़बूत होता है तो कम अभ्यास से वह कमज़ोर होता है। भाषा भी इसका अपवाद नहीं है। यदि आप हिंदी और भारतीय भाषााओं का हित चाहते हैं तो आओ संकल्प लें कि आज से किसी भी ऐसे कार्यक्रम में नहीं जाएगे जिसका निमंत्रण पत्र गुलामी की भाषा में होगा और न ही स्वयं ऐसा निमंत्रण पत्र छपवायेंगे! केवल बातें नहीं, कुछ असली करने की बेला है। यदि हम ऐसे संकल्प के लिए तैयार है तो हिंदी का भविष्य उज्ज्वल है। हमारी संस्कृति और राष्ट्रीयता को कोई खतरा नहीं। !’ जय हिंद! जय हिंदी!! जय देवनागरी!!!

डा. विनोद बब्बर
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साभार
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई
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