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‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ वाली कहावत दोहरा दी गई !

यह तो समझ आता है कि कांग्रेस का गांधी परिवार के बगैर गुजारा नहीं हो सकता, लेकिन आखिर इसका क्या मतलब कि परिवार ही यह तय न कर पाए कि पार्टी की कमान किस सदस्य को सौंपी जाए? क्या इस असमंजस का कारण यह है कि पार्टी नेताओं का एक गुट राहुल गांधी के नेतृत्व को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं? जो भी हो, यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि सोनिया गांधी उस वक्त का इंतजार कर रही हैं जब पार्टी के सभी प्रमुख नेता एक स्वर से यह मांग करने लगें कि राहुल गांधी के फिर पार्टी अध्यक्ष बने बगैर कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं। मुश्किल यह है कि ऐसा होना आसान नहीं, क्योंकि पार्टी की गुटबाजी सबके सामने आ गई है।

कांग्रेस का एक खेमा जिस तरह यह साबित करने में लगा हुआ है कि पार्टी के बड़े नेता राहुल गांधी की हां में हां मिलाने से इन्कार करके भाजपा के मन मुताबिक काम कर रहे हैं उससे यही पता चलता है कि सोनिया और राहुल समर्थक नेताओं के बीच अविश्वास की खाई और गहरी हो गई है। चूंकि दोनों ओर से तलवारें खिंच गई हैं इसलिए आने वाले दिनों में यह खाई और अधिक गहरी ही होनी है। आखिर इस हालत में कांग्रेस रसातल की ओर नहीं जाएगी तो किस ओर जाएगी?

हैरानी नहीं कि उनकी ओर से अपना पद छोड़ने की पेशकश महज इसलिए की गई हो ताकि कांग्रेसी नेताओं का जो खेमा राहुल गांधी को फिर से अध्यक्ष बनाने के विरोध में है वह पुरानी व्यवस्था कायम रखने यानी उनके अंतरिम अध्यक्ष बने रहने पर सहमत हो जाए। आखिरकार ऐसा ही हुआ, लेकिन इससे तो कांग्रेस की जगहंसाई ही हुई। आखिर इससे हास्यास्पद और क्या हो सकता है कि नेतृत्व के मसले को हल करने के लिए बैठक बुलाई जाए और उसमें उसी नतीजे पर पहुंचा जाए जिस पर एक साल पहले पहुंचा गया था? यदि नेतृत्व के मसले को हल ही नहीं करना था तो फिर कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक बुलाई ही क्यों गई?

अनंतोगत्वा कांग्रेस कार्यसमिति ने एक बार फिर यह तय किया कि सोनिया गांधी को ही पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बने रहना चाहिए। इस समिति ने एक साल पहले भी यही तय किया था। यह केवल ‘नौ दिन चले अढ़ाई कोस’ वाली कहावत को चरितार्थ करना ही नहीं, यथास्थिति कायम रखने के पक्ष में सहमति जताना भी है। इसका यह भी अर्थ है कि राहुल गांधी बिना कोई जिम्मेदारी संभाले पार्टी को पहले की तरह पिछले दरवाजे से संचालित करते रहेंगे। शायद सोनिया गांधी भी यही चाहती हैं, अन्यथा वह अपना पद छोड़ने के फैसले पर अडिग रहतीं।

अशोक भाटिया,
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