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भाषा का प्रश्न जनता को उनके कानूनी अधिकार दिए जाने और उन्हें अन्याय और धोखाधड़ी से बचाने का है

हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया जाना चाहिए, यह बात तो स्वतंत्रता पूर्व से ही कही जा रही है। भारत के प्रायः सभी स्वतंत्रता सेनानियों ने लगातार यह माँग की थी कि हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया जाना चाहिए। और इस माँग में हिंदी-भाषी क्षेत्र से अधिक महत्वपूर्ण भूमिका हिंदीतर-भाषी क्षेत्र के क्रांतिकारियों, स्वतंत्रता-सेनानियों और विद्वानों की रही। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने तो यहाँ तक कहा कि ‘राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।‘ स्वतंत्रतापूर्व किसी ने राजभाषा शब्द सा भी न था। लेकिन राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अनुयाई कहे जाने वालों गांधी जी के देहांत के पश्चात उनकी तमाम बातों को भुला दिया। बहुत लंबे समय तक सत्ता में रहने के बावजूद जनता की इस माँग पर इस दिशा में कुछ नहीं किया। और भाषा की राजनीति के चलते अब तो राजनीति प्रेरित कुछ लोग और उनसे आतंकित कुछ अन्य लोग विषय की गंभीरता को समझे बिना यह कहने लगे हैं कि जब भारत की ‘राजभाषा’ है तो फिर ‘राष्ट्रभाषा’ की क्या आवश्यकता है ? क्या फर्क पड़ता है, हिंदी को राष्ट्रभाषा कहें या राजभाषा ? यह बात भी अपनी जगह सही है कि केवल नाम बदलने से तो कुछ नहीं होगा? केवल नाम बदलना किसी का उद्देश्य भी न था और न है।

मैं तो एक और बात कहूंगा जिसकी चर्चा शायद अभी तक किसी ने नहीं की। वह मामला है जनता को उनके कानूनी अधिकार देने और उन्हें अन्याय और धोखाधड़ी से बचाने का। जिस प्रकार राष्ट्र के स्तर पर राष्ट्रीय संपर्क आवश्यक है, उसी तरह राज्य के स्तर पर राज्य की संपर्क भाषा भी आवश्यक है। अभी दोनों ही स्तर पर ऐसा कोई वैधानिक या संवैधानिक प्रावधान नहीं है। इस कारण कानूनों के अंतर्गत सूचनाएँ जनभाषा में, अर्थात न तो राज्य की भाषा में मिलती और न ही देश की भाषा में।

इस विषय पर आगे बढ़ने से पहले यह जरूरी होगा कि हम ‘राजभाषा’ और ‘राष्ट्रभाषा’ व ‘राज्यभाषा’ के अंतर को समझ लें। ‘राजभाषा’ का अंग्रेजी में शब्द है ‘ऑफिशियल लैंग्वेज’ यानी अधिकारिक भाषा। हिंदी भारत संघ की राजभाषा है, इसका मतलब वह भारत संघ के कामकाज की अधिकारिक भाषा है। ठीक इसी प्रकार राज्यों की स्थिति है। उदाहरण के लिए मराठी, महाराष्ट्र सरकार की राजभाषा है, अर्थात महाराष्ट्र सरकार के कामकाज की अधिकारिक भाषा है। कन्नड़ कर्नाटक सरकार के कामकाज की अधिकारिक भाषा है। ऐसी ही स्थिति सभी राज्यों व संघ शासित प्रदेशों में है। और इनके साथ अंग्रेजी के प्रयोग के उपबंध भी किए गए हैं। इस प्रकार अघोषित रूप से अंग्रेजी भारत संघ और राज्यों की राजभाषा भी है।

राष्ट्रभाषा से अभिप्राय है राष्ट्रीय स्तर पर कानूनी रूप से संपर्क के लिए प्रयोग में लाए जाने वाली भाषा। ठीक इसी प्रकार राज्य के स्तर पर उनकी राजभाषा कानूनी रूप से शासकीय प्रयोग में लाए जाने वाली अधिकारिक भाषा है। अक्सर लोग यह कहते दिखते हैं कि सरकारी तौर पर तो भाषा निर्धारित है और जनता चाहे जिस भाषा में बात करे वह उसकी मर्जी है, दोनों ही बातें अपनी जगह सही हैं ।

लेकिन इसमें एक बात छूट जाती है, जो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। संघ और राज्यों के स्तर पर ऐसे अनेक कानून हैं जिनके अंतर्गत सूचना दिए जाने के प्रावधान हैं ताकि नागरिकों को उनके अधिकार मिल सकें, उनके साथ अन्याय न हो। यह कार्य किस भाषा में किया जाना है, वह निर्धारित नहीं किया गया है।

विद्वानों की भाषा के बजाए इसे सामान्य नागरिक की भाषा में समझना बेहतर होगा। आपने अक्सर देखा होगा कि कोई सरकारी या निजी जमीन अथवा भवन खाली पड़ा हो तो अक्सर भ्रष्ट नेता, अधिकारी, और गुंडे किस्म के लोग उस पर कब्जा कर लेते हैं। जहाँ कोई उसका मालिक न हो तो किसीको आपत्ति भी नहीं होती। क्योंकि कानूनन भारत की कोई राष्ट्रभाषा अर्थात राष्ट्रीय संपर्क भाषा नहीं और राज्यों के स्तर पर राज्यों में कोई राज्य भाषा अर्थात राज्य स्तर पर संपर्क भाषा भी नहीं। पिछले 75 वर्षों में इस खाली जगह पर भी कब्जा हो गया है। इन सब स्थानों पर अंग्रेजी ने चुपचाप धीरे-धीरे अपना कब्जा जमा लिया है। समय के साथ-साथ वह अवैध कब्जा वैध सा लगने लगा है। अब जाने-अनजाने अंग्रेजी भारत की राष्ट्र भाषा बनती जा रही है।

राष्ट्रभाषा और राज्य भाषा की आवश्यकता को समझने के लिए कुछ कानूनों का उदाहरण ले सकते हैं। ग्राहक कानून के अंतर्गत यह प्रावधान है कि उपभोक्ता को उसके संबंध में समग्र जानकारी आवश्यक रूप से दी जाए और पैकिंग पर उसके बारे में बताया जाए। उसकी वैधता कब तक खत्म हो जाएगी? उसकी कीमत कितनी है? उसमें क्या-क्या मिला हुआ है? शाकाहारी है या मांसाहारी है? उसमें किन-किन बातों का ध्यान रखना है? उसके प्रयोग के समय क्या क्या खतरे हो सकते हैं आदि। यह जानकारी कानून के अंतर्गत ग्राहक को देना आवश्यक है। लेकिन यह सूचना किस भाषा में देनी है यह नियत नहीं है। भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं और राज्य की कोई राज्य भाषा नहीं। इसलिए सारी कंपनियाँ ये सूचनाएँ व जानकारी जाने – अनजाने प्राय: अंग्रेजी में ही देती हैं। कई वर्ष पूर्व किसीने गुजरात उच्च न्यायलय में याचिका दायर की थी कि उऩ्हें पैकिंग पर जानकारी हिंदी में मिलनी चाहिए, हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा नहीं है इस आधार पर न्यायालय द्वार उसकी याचिका खारिज कर दी गई।

इस प्रकार देश की 95% से अधिक आबादी जो अंग्रेजी नहीं जानती, या उसमें पारंगत नहीं है, उन तक विभिन्न कानूनों के अंतर्गत यह जानकारी पहुंचती ही नहीं। इस प्रकार न केवल उनके कानूनी अधिकारों का हनन होता है बल्कि इस कारण उनका शोषण भी होता है। उनके साथ धोखाधड़ी भी होती है और उन्हें किसी प्रकार का नुकसान न हो, वह जानकारी न मिलने के कारण अक्सर उन्हें नुकसान भी उठाना पड़ता है।

मुझे अच्छी तरह याद है कि करीब 22 वर्ष पहले एक बहुत बड़े बैंक के म्यूच्यूअल फंड का विज्ञापन आया। सरकारी बैंक होने के नाते उसका विज्ञापन हिंदी अखबार में हिंदी में भी आया। लेकिन एक बात जो सबसे जरूरी थी और कानून और ग्राहकों को बताना जरूरी था, वह था रिस्क फैक्टर, यानी जोखिम की संभावना। उसमें यह बताया गया कि इसमें केवल फंड का पुराना रिकॉर्ड बहुत ही खराब है। अगर यह बात लोगों को पता चल जाती तो बड़ी संख्या में लोग उस फंड में निवेश नहीं करते, इसलिए उस बैंक ने हिंदी अखबार में छपे हिंदी विज्ञापन में यह जानकारी अंग्रेजी में दी। हालांकि वहाँ तो राजभाषा अधिनियम भी लागू हो रहा था। लेकिन निजी कंपनियों पर न तो राजभाषा का कानून लागू होता है ना कोई अन्य कानून है इसलिए अनेक कंपनियां ग्राहकों को धोखा देने के लिए अंग्रेजी का सहारा लेती हैं। अंग्रेजी में सूचना देने से कानूनी दायित्व भी पूरा हो जाता है और सूचना किसी को मिलती भी नहीं।

आपने देखा होगा कि आप में से अनेक लोगों ने बीमा पॉलिसी ली होगी, बैंकों से ऋण लिया होगा, मोबाइल नेवर्क के लिए किसी कंपनी के साथ करार पर हस्ताक्षर किए होंगे, अनेक कंपनियों से अनुबंध किए होंगे। ज्यादातर लोग उसमें आंखें बंद करके बिना समझे हस्ताक्षर करते हैं क्योंकि अंग्रेजी में होने के कारण उन्हें समझ ही नहीं आता कि उसमें क्या लिखा है ? जब उनके साथ धोखा होता है तो वकील बताता है कि अनुबंध में अमुक बात लिखी है, जिस पर आपके हस्ताक्षर हैं।

कंपनी अधिनियम के अंतर्गत किसी कंपनी द्वारा शेयरधारकों को कंपनी के हिसाब-किताब गतिविधियों आदि की जानकारी दी जानी होती है। अधिनियम में ऐसा कोई उपबंध नहीं है कि जानकारी केवल अंग्रेजी जानने वालों को दी जाए। यदि कोई धनी व्यक्ति जो किसी कंपनी में लाखों – करोड़ों रुपए का निवेश कर रहा है और उसे अंग्रेजी नहीं आती है तो उसे भी कंपनी अधिनियम के अंतर्गत कोई सूचना नहीं मिल पाती। इस प्रकार कंपनी अधिनियम के अंतर्गत उसके प्राप्त अधिकारों का हनन होता है।

और ऐसे 2-4 नहीं अनेक कानून हैं। हर कोई इनसे परेशान है, हर किसीके साथ अन्याय होता है, शोषण होता है, नुकसान उठाना पड़ता है। पर हर कोई चुप रहता है, सबने इसे अपनी नियति मान लिया है। बात भाषा नीति की नहीं, जनतंत्र की है, न्याय की है, जनता को शोषण से बचाने की है, जनता के कानूनी अधिकारों की है। इसलिए यह भी आवश्यक है कि विभिन्न कानूनों के अंतर्गत जो सूचनाएँ दी जानी अनिवार्य हैं वे जनता की भाषा में होनी चाहिए। इसलिए यह आवश्यक है कि हमारे देश की राष्ट्रभाषा अर्थात राष्ट्रीय संपर्क भाषा हो और राज्यों के स्तर पर राज्य की संपर्क भाषा होनी चाहिए।

भारत के संविधान के अनुसार किसी भी नागरिक को किसी भी राज्य में व्यापार करने बसने, आने-जाने, नौकरी करने आदि के प्रावधान है। केंद्रीय कार्यालयों, कंपनियों तथा विभिन्न कंपनियों आदि के अधिकारियों-कर्मचारियों के स्थानांतरण एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में होते रहते हैं। उनके लिए यह संभव नहीं है कि वे अनेक राज्यों की भाषाएँ सीख सकें। इसका स्वभाविक व सरल उपाय यही है कि संघ और राज्यों के विभिन्न कानूनों के अंतर्गत अनिवार्यत: दी जाने वाली सूचनाओं की भाषा संघ और राज्य की भाषाएं होनी चाहिए। जिन्हें क्रमश: राष्ट्र व राज्यभाषा कहा जाए। इसके अतिरिक्त यदि कोई कंपनी किसी अन्य भाषा का प्रयोग करना चाहे तो वह कर सकती है।

यहाँ इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि राष्ट्रीय भाषा और राज्यभाषा का मामला भाषा का न होकर जनता के अधिकारों का और उन्हें शोषण अन्याय और धोखाधड़ी से बचाने का है। यह भी आवश्यक है कि राष्ट्रभाषा और राज्यभाषा की जगह पर किए गए अंग्रेजी के अवैध कब्जे को हटाते हुए जन संपर्क भाषा के रूप में, राष्ट्रीय स्तर पर संघ की राजभाषा को भारत की राष्ट्रभाषा भी बनाया जाए और राज्य के स्तर पर राज्य की भाषा के रूप में राज्य की राजभाषा को राज्यभाषा भी बनाया जाए और इन्हें इनका उचित स्थान दिया जाए। यदि ऐसा न भी किया जाए तो इतना तो किया ही जा सकता है कि विभिन्न कानूनों के अंतर्गत दी जानेवाली सूचनाओं की भाषा निर्धारित की जाए, और यो सूचनाएँ अनिवार्यत: देश और राज्यों की भाषाओं में दी जाएँ।

मेरा सभी विद्वानों से न्यायधीशों से, अधिवक्ताओं से, सरकारों में बैठे उच्चाधिकारियों व मंत्रियों आदि से अनुरोध है कि वे इस विषय पर गंभीरता से विचार करें और जनहित को ध्यान में रखते हुए हिंदी को भारत की राजभाषा को राष्ट्रभाषा और राज्य के स्तर पर राज्य की राजभाषा को राज्य की राज्यभाषा भी बनाने के लिए संविधान में आवश्यक प्रावधान किए जाएँ।

*भारत नाम और भारतीय भाषाओं के लिए जंतर-मंतर पर हूँ

(लेखक वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई के अध्यक्ष हैं )
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