पाकिस्तान की जेलों में गूँजती भारतीय सैनिकों की चीखें देश की नकारा सरकारों का सबूत है

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1971 की जंग के दौरान ‘उस पार’ रह गए मेजर कंवलजीत सिंह कि पत्नी जसप्रीत बताती हैं कि जंग के दौरान मेजर कंवलजीत के पैर में गोली लग गई। घायल मेजर को भारतीय जवान लेने गए लेकिन मेजर कंवलजीत की जगह किसी और की बॉडी उठा लाए।

जसप्रीत ने बताया कि जंग के दौरान पाकिस्तानी सेना को रोकने के लिए पुल का हिस्सा गिरा दिया गया। इसी दौरान मेजर कंवलजीत के पैर में गोली लग गई। घायल मेजर को भारतीय जवान लेने गए लेकिन मेजर कंवलजीत की जगह किसी और की बॉडी उठा लाए। जब गौर से हाथ देखा तो पहचान हुई कि यह बॉडी मेजर कंवलजीत की नहीं है क्योंकि वह तो 2 फरवरी 1971 के दिन बटालियन की जान बचाने के चक्कर में ग्रेनेड फटने से बायां हाथ गवां चुके थे।

उसके बाद मेजर कंवलजीत का कुछ पता नहीं चला। उस वक्त उनकी बेटी तीन साल की थी। उन्हें हर तरफ खोजा गया, न उनके जिंदा होने का सबूत, न मौत की खबर। पता चला एयरफोर्स व आर्मी के 54 सैनिक लापता हैं। पाकिस्तान ने अपने यहां किसी भी युद्धबंदी के होने से ही साफ इनकार कर दिया। फिर भी खुफिया सूचनाओं से पता चला कि सभी पाकिस्तान की कैद में हैं। जसप्रीत बताती हैं, पहली बार जब सुना, मेरा कलेजा कांप उठा था। उम्मीद नहीं खोई, यह सोचकर कि कभी न कभी हमारी सरकार सबको सुरक्षित ले आएगी।

जसप्रीत कहती हैं, वक्त कैसे बीता! शायद उस दर्द को शब्दों में बयां न कर सकूं। फिर 12 साल बाद सन 1983 में एक दिन लेटर बॉक्स में एक तीन पेज का गुरुमुखी में लिखा पत्र मिला। हैंडराइटिंग देखते ही मैंने पहचान लिया कि यह कंवलजीत की है। पत्र को पढ़ते वक्त मेरे हाथ कांप रहे थे। लिखा था ‘मैं पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में कैद हूं। हम 54 लोग हैं। कई पागल हो चुके हैं। हमें यहां से जल्दी निकालिए’। बाकी जो जुल्मो सितम का जिक्र था, याद करके कांप जाती हूं। तसल्ली यह कि इतने साल बाद पहली बार उनकी खबर मिली। जिंदगी में फिर शुरू हुई एक नई जंग। सरकार, मंत्रियों की चौखट पर पहुंची। गुहार लगाई। पाकिस्तान सरकार को बहुत लेटर लिख्रे। सरकार ने कुछ हद तक पहल भी की लेकिन पाकिस्तान इनकार करता रहा।

भारत सरकार के बार-बार दखल पर 2007 में परवेज मुशर्रफ ने पैंतरा चला कि ‘मिसिंग 54’ की फैमिली चाहें तो पाकिस्तान आकर जेलों में पहचान कर लें। मिसिंग 54 के अलग-अलग परिवार से 14 लोग पाकिस्तान भेजे गए जिसमें मैं भी थी। हमारे साथ आईएसआई के बंदे घेरा बनाकर चलते थे। पाकिस्तान के रावलपिंडी, मुल्तान, कोट लखतप समेत 13 जेलों में घुमाया। हर जेल के बाहर उर्दू के रजिस्टर सामने रख देते कि पहचान लो। अंदर नहीं जाने देते थे। हमारे दर्द, तकलीफ का अहसास पाकिस्तानी आम नागरिकों को होता था। मुझे याद है कोट लखपत जेल के बाहर वहीं का एक कर्मचारी मिला। हमें हताश देखकर उसकी आंखें नम हो गईं, नाम व पहचान न बताने की शर्त पर वह बोला कि मैं आपकी मदद करना चाहता हूं लेकिन बेबस हूं। उसने बताया कि जेल के बेसमेंट में तहखाने हैं। वहां हवा, रोशनी भी नहीं है। वहीं पर कई भारतीय फौजी कैद हैं। वहां से रात को चीखें सुनाई देती हैं।

फिर लाहौर एयरपोर्ट पर एक सफाई कर्मचारी मिला। उसके कुछ रिश्तेदार पुरानी दिल्ली में रहते हैं। उसने भी बताया कि जेलों में युद्धबंदी कैद हैं। इसी से अंदाजा लग सकता है कि पाकिस्तानी आर्मी के लेफ्टिनेंट कर्नल (रिटा.) हबीब अहमद ने अपनी बुक The Battle of Hussainiwala and Qaiser-i-Hind (The 1971 war) में कई जगह मेजर कंवलजीत सिंह की बहादुरी व शौर्य के बारे में लिखा। चर्चित किताब में पाकिस्तान की कैद में होने का भी खुलासा था। इतने साल बीत गए। जब वॉर हुई तब मेरी बेटी 3 साल की थी। अब उसकी शादी हो चुकी और उसके भी बच्चे हैं। मैं अपने पति के लिए और मेरी के बेटी पिता के लिए आज भी इंतजार में हूं, शायद सरकार उन्हें लेकर आए।

ये कहानी है मेजर कँवलजीत सिंह की

विंग कमांडर अभिनंदन की 72 घंटे के भीतर पाकिस्तान से वापसी लेकिन पाकिस्तान में 48 साल से कैद हैं 71 वॉर के 54 ‘अभिनंदन’। यह खुलासा बीते दिनों रक्षा मंत्रालय के जवाब से हुआ जो दिल्ली के आरटीआई ऐक्टिविस्ट हरपाल राणा को भेजा गया। कौन हैं वे वीर योद्धा! किस हाल में हैं उनके परिवार! क्या सोचते हैं अभिनंदन के लौटने पर। ऐसे परिवारों को खोजकर समझी उनकी कहानी जो आज तक घर नहीं लौटे…।

‘ना..! मेजर कंवलजीत सिंह ‘थे’ मत बोलिए। वो हैं। जिंदा हैं। पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में कैद हैं। अफसोस कि उन्हें आज तक अभिनंदन की तरह लाया न जा सका। आज 48 साल हो गए। इतने सालों में एक पीढ़ी बदल गई। मगर मेरा इंतजार नहीं बदला’। कहते हुए आंखें छलक आईं मेजर कंवलजीत सिंह की पत्नी जसबीर कौर की।

क्या आप जानते हैं, कौन हैं मेजर कंवलजीत सिंह? वह इकलौते ऐसे जाबांज हैं, जिन्होंने एक हाथ से 71 की जंग लड़ी। उस जंग में 54 भारतीय सैनिक पाकिस्तान ने बंदी बना लिए। इन सैनिकों को ‘मिसिंग 54’ कहा जाता है। उन्हीं में से एक मेजर कंवलजीत सिंह हैं। बहुत कम लोगों को पता है कि उनकी पत्नी जसबीर कौर और इकलौती बेटी राजधानी दिल्ली के साउथ एक्सटेंशन पार्ट 2 के उदय पार्क में रहते हैं। आज भी उनके आने का इंतजार है इन्हें। एनबीटी से बातचीत में जसबीर कौर ने जिंदगी के उन पन्नों को पलटा। फिर उन्होंने क्या-क्या बताया। उन्हीं की जुबानी पढ़िए। उस अहसास को महसूस कीजिए।

‘मैं पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में कैद हूं। हम 54 लोग हैं। कई पागल हो चुके हैं। हमें यहां से कैसे भी निकाल ले जाओ’ – (तीन पेज का गुरुमुखी में लिखा पहला और आखिरी लेटर था मेरे पति मेजर कंवलजीत सिंह का। सन् 71 के बारह साल बाद आया था यह पत्र। हर एक शब्द में जेल के अंदर ढाए जा रहे जुल्मोसितम की दास्तां थीं)। उसके बाद…। आंखों पर पट्टी, पैरों में बेड़ियां। तड़पा-तड़पाकर जुल्म। अब जरा एक पल के लिए आंखें बंद कीजिए। सोचिए, आपका कोई अपना पाकिस्तान की जेल में कैद है। आपकी रूह कांप जाएगी। इस अहसास को जी कर देखिए! मैंने एक-दो साल नहीं, पूरे 48 साल तिल-तिलकर जिंदगी गुजारी है। वह जंग खत्म हो गई, मेरी जंग अभी जारी है।

मेजर कंवलजीत सिंह का पुश्तैनी ताल्लुक अमृतसर से है। छह पीढ़ियों से मेजर कंवलजीत का परिवार सेना में वतन की हिफाजत के लिए सीना तान कर खड़ा है। कंवलजीत इकलौते ऐसे अफसर हैं जिन्होंने भारत-पाकिस्तान की जंग एक हाथ से लड़ी। बायां हाथ ग्रेनेड में फट गया। यह वाकया है 2 फरवरी 1971 का। बटालियन के जवानों को बचाने के लिए बांया हाथ खो बैठे। कहा जाता है कि अगर कंवलजीत न होते तो आज पंजाब का फिरोजपुर पाकिस्तान में होता। यह इतिहास के दस्तावेजों में है। तत्कालीन डीसी ने भी अपने लेटर में जिक्र किया था। उस युद्ध में भारतीय फौज ने पाकिस्तान के 93 हजार सैनिकों को बंदी बनाया। बाद में छोड़ दिया लेकिन अफसोस कि 54 सैनिकों को नहीं ला सके। साल 1972 में मेजर कंवलजीत के नाम के शौर्य चक्र को हासिल किया जसबीर कौर ने। दरअसल, मेजर कंवलजीत के पिता भी आर्मी में अफसर थे और जसबीर के भी। पोस्टिंग पठानकोट में। दोनों परिवारों के बीच बेहतर मेलजोल। बात 1965 की है। तब कंवलजीत आर्मी में कैप्टन थे। जसबीर दसवीं में पढ़ती थीं। स्कूल से घर पहुंचीं। घरवालों ने बस इतना कहा कि तुम्हारी कैप्टन से अभी शादी है। अगले ही दिन शादी के फेरे हो चुके थे। तीन साल बाद सन 68 में बेटी का जन्म हुआ। तब मेजर रैंक मिल चुका था।

सितंबर 1971 में इमर्जेंसी घोषित हुई। नतीजतन पाकिस्तान ने अपने सभी बॉर्डर सील कर लिए। उसी समय मेजर कंवलजीत को हुसैनीवाला बॉर्डर पर बुला लिया गया। शादी के बाद कभी भी 6 महीने भी एक साथ नहीं रह सके। वॉर शुरू हो चुकी थी। पंजाब में फिरोजपुर के हुसैनीवाला बॉर्डर पर पाकिस्तान की तरफ से सबसे पहले मोर्टार शेलिंग होने लगी थी। तीन दिसंबर, 1971 को भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान हुसैनीवाला पुल ने ही फिरोजपुर को बचाया था। उस समय पाक सेना ने भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव के शहीदी स्थल तक कब्जा कर लिया था। पाकिस्तानी सेना ने उस शाम हुसैनीवाला बार्डर पर अचानक हमला कर दिया। फिर अगला मकसद था हुसैनीवाला पुल से फिरोजपुर छावनी पर कब्जा। मेजर कंवलजीत सिंह व मेजर एसपीएस बड़ैच ने इसे बचाने के लिए पटियाला रेजिमेंट के 53 जवानों सहित जान की बाजी लगा दी। आखिर में सेना ने पुल उड़ाकर पाकिस्तानी सेना को रोक दिया। उस पुल में पाकिस्तानी सेना का एक टैंक फंस गया।

साभार- https://navbharattimes.indiatimes.com/ से