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1857 में दहकी चिंगारी, शोला बन कर देश को आज़ाद कराया

देश को अंगेजों की गुलामी से आज़ाद कराने के लिए आज से 158 साल पहले 10 मई 1857 को मेरठ से दहकी चिंगारी निरंतर सुलगती रही और आज़ादी के व्यापक आंदोलन का शोला बन कर 90 साल बाद 15 अगस्त 1947 को आज़ाद कराने का बड़ा माध्यम बनी। इस दिन को भारतीय इतिहास में प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन कहा गया। इस महत्वपूर्ण दिवस को विद्वानों, इतिहासकारों और चिंतकों ने अपने – अपने नज़रिए से देखा और व्याख्या की।

भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और चिन्तक पंडित जवाहरलाल नेहरू के मत में ” यह केवल एक विद्रोह नहीं था, यद्यपि इसका विस्फोट सैनिक विद्रोह के रूप में हुआ था, क्योंकि यह विद्रोह शीघ्र ही जन विद्रोह के रूप में परिणित हो गया था ” । प्रखर चिंतक वीर सावरकर व पट्टाभि सीतारमैया ने इसे ”भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम” कहा। अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक विचारक मैजिनी इस भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखते थे और उनके अनुसार इसका असर तत्कालीन इटली, हंगरी व पोलैंड की सत्ताओं पर भी पड़ेगा और वहाँ की नीतियाँ भी बदलेंगी। जाॅन विलियम ने ”सिपाहियों का वेतन सुविधा वाला मामूली संघर्ष“ और जाॅन ब्रूस नाॅर्टन ने ‘‘जन-विद्रोह’’ कहा।

बेंजमिन डिजरायली ने ब्रिटिश संसद में इसे ‘‘राष्ट्रीय विद्रोह’’ बताया। मार्क्सवादी विचारक डॉ. राम विलास शर्मा ने इसे संसार की प्रथम साम्राज्य विरोधी व सामन्त विरोधी क्रान्ति बताते हुए 20वीं सदी की जनवादी क्रान्तियों की लम्बी श्रृंखला की प्रथम महत्वपूर्ण कड़ी बताया। इतिहास विद के.के. शर्मा का मानना है कि अंग्रेजों के विरोध में आमजन के मन में आक्रोश पनप रहा था और आगे चलकर इसी आक्रोश ने क्रांति को जन्म दिया। तब क्रांति ने एक तरह से समाज को एकता को सूत्र में बांधने का प्रयास किया। क्रांति शुरू होने के कारतूस के प्रयोग के साथ कई अन्य कारण भी थे। यहीं कारण रहा कि क्रांति शुरू होते ही आमजन का पूरा समर्थन मिला था।

1857 की एतिहासिक घटना के बारे में विचार और मत अलग – अलग हो सकते हैं पर इतिहास अध्येता होने के नाते मेरे विचार में विविध कारणों से उत्पन्न यह संग्राम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का बीजारोपण सिद्ध हुई निरंतर धधकती हुई इसकी चिंगारी को हवा मिलती रही और विशाल जन आंदोलन का रूप ले कर अनंत: देश को स्वाधीनता दिलाने का बड़ा माध्यम बनी।

क्रांति का सबसे सशक्त पक्ष यह रहा कि राजा-प्रजा, हिन्दू-मुसलमान, जमींदार-किसान, पुरुष-महिला सभी एकजुट होकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़े। क्या हिंदू ,क्या मुसलमान क्या पुरुष और क्या महिला सभी ने मिलकर यह लड़ाई लड़ी और क्रांतिकारियों ने अपने शौर्य और पराक्रम से संघर्ष कर अपना रक्त बहाकर बलिदान दे कर ब्रिटिश साम्राज्य को कड़ी चुनौती देकर उसकी जड़ों को हिला कर रख दिया।

भारत की परम्परा, रीति रिवाज और संस्कृति के विपरीत अंग्रेजी सत्ता एवं संस्कृति सुदृढ होन, भारतीय राजाओं के साथ अन्यायपूर्ण कार्रवाई, अंग्रेजों की हड़पने की नीति, भारतीय जनमानस की भावनाओं का दमन एवं और विगत में अनेक घटनाओं और उपेक्षापूर्ण व्यवहार से राजाओं, सैनिकों व जनमानस में विद्रोह के स्वर मुखरित होने जैसे अनेक कारणों के साथ – साथ इस क्रांति का तात्कालिक कारण राजनैतिक रहा।

क्रांति दिवस से पूर्व 8 अप्रैल को मंगलपांडे को फांसी देना और 9 मई को रायफल चलाने के लिए चर्बी लगे कारतूसों का विरोध करने वाले 85 सैनिकों का कोर्ट मार्शल कर जेल भेजे जाने और कई प्रकार अफवाओं के फैलने की घटनाओं ने आग में घी का काम किया। इन्हीं घटनाओं से उद्वेलित क्रांतिकारियों ने 10 मई, 1857 को क्रांति का बिगुल फूंक दिया। अमर शहीद कोतवाल धन सिंह गुर्जर की इसमें अहम भूमिका रही। इस दिन धन सिंह कोतवाल के आदेश पर हजारों की संख्या में भारतीय क्रांतिकारी रातों- रात मेरठ पहुंचे थे। अंग्रेजों के खिलाफ बगावत की खबर मिलते ही आस- पास के गांव के हजारों ग्रामीण भी मेरठ की सदर कोतवाली क्षेत्र में जमा हो गए थे। इसी कोतवाली में धन सिंह पुलिस चीफ के पद पर तैनात थे।

इस दिन धन सिंह ने योजनानुसार बड़ी चतुराई से ब्रिटिश सरकार के वफादार पुलिस कर्मियों को कोतवाली के भीतर चले जाने और वहीं रहने का आदेश दिया। देर रात 2 बजे धन सिंह के नेतृत्व में केसरगंज मंडी स्थित जेल तोड़कर 836 कैदियों को आजाद कराकर जेल को आग लगा दी गई। सभी कैदी क्रांति में शुमार हो गए। इसके बाद क्रांतिकारियों के बड़े सूमह ने पूरे सदर बाजार और कैंट क्षेत्र अंग्रेजी हुकुमत से जुड़ी हर चीज को नेस्तोनाबूत कर दिया। जेल को आग के हवाले कर दिया गया। मेरठ तहसील व कोर्ट परिसर भी फूंक दिए गए। रात में चारों तरफ हाहाकार मच चुका था।

सुबह होने पर हजारों क्रांतिकारी दिल्ली के लिए कूच कर गये। मेरठ से 76 किमी दूर मेरठ दिल्ली रोड व मेरठ बागपत होते हुए क्रांतिकारी 11 मई को दिल्ली में लालकिले पर जा पहुंचे। जिसके बाद क्रांतिकारियों ने दिल्ली में भी कब्जा कर लिया। उसके बाद अन्य शहरों में भी क्रांति फैल गई। मेरठ शहर से क्रांति शुरू होते ही बहसूमा व परीक्षितगढ़ पर राजा कदम सिंह व गुर्जर क्रांति कारियों ने कब्जा कर लिया था। ऐसे ही हापुड़ से बुलंदशहर तक क्षेत्र पर मालागढ़ के नवाब वलीदाद खन के साथ राजपूत, गुर्जर व पठानों ने विद्धोह कर दिया था। बुलंदशहर के काला आम चौराहे स्थित बाग में कई क्रांतिकारियों को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया था। ऐसे ही गाजियाबाद में पिलखुआ के राजपूतों ने धौलाना ने भी क्रांति में पूरा साथ दिया था। मुरादनगर व मोदीनगर में भी लोगों ने स्वतंत्रता संग्राम में साथ दिया।

मुजफ्फरनगर व शामली के संपूर्ण क्षेत्र क्रांति की गतिविधियों से जुड़ा हुआ था। विशेष रूप से थाना भवन आगे रहा। सहारनपुर भी क्रांति से अछूता नहीं रहा। यहां भी किसानों ने क्रांति में खूब बढ़कर भागीदारी की और अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बागपत में भीक्रांतिककारियों ने अंग्रेजों को आगे बढ़ने से रोकने के लिए यमुना नदी पर बनाए गए पुल को नष्ट कर दिया था। 4 जुलाई 1857 को कोतवाल धन सिंह गुर्जर को क्रांति का जिम्मेदार मानते हुए फांसी दी गई व गांव पांचली खुर्द में ब्रिटिश हुकूमत ने गांव में हमला कर गांव में किसानों को तोपों से उड़ा दिया गया। कोतवाल धन सिंह गुर्जर की महत्वपूर्ण भूमिका और उनके बलदान को देखते हुए उन्हें क्रांति का जनक के रूप में जाना जाता है।

मंगल पांडे, लक्ष्मीबाई , नाना साहब, बेगम हजरतमहल, बाबू कुँवर , मौलवी अहमदुल्ला और अजीमुल्ला खाँ जैसे अनेक क्रांतिकारियों ने संघर्ष करते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिए और भारतीय इतिहास में अमर हो गए। बहादुर शाह ज़फ़र के नेतृत्व में आज़ादी के लिए लड़ा गया यह संग्राम असफल हो गया परंतु स्वतंत्रता की चिंगारी भड़का गया। कह सकते हैं कि भारत में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध पहली प्रत्यक्ष चुनौती के रूप में यह आन्दोलन भले ही भारत को अंग्रेजों की ग़ुलामी से मुक्ति न दिला पाया हो, लेकिन लोगों में आज़ादी का जज्बा ज़रूर पैदा कर गया और भारतीयों की आंखों में स्वतंत्रता पाने का सपना बलवती हो गया।


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लेखक एवम पत्रकार
कोटा, राजस्थान ।
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