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साल 2020, जब पूरी तरह से आमने-सामने आ गए भारत और चीन

कई दशकों के मनमुटाव के बाद चीन अब इस बात को नकार नहीं सकता कि भारत उसके लिए असली ख़तरा है.

भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता 17 जून को भारत के सिलिगुड़ी में चीन विरोधी प्रदर्शन के दौरान चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के चेहरे पर ख़तरे का निशान दिखाते हुए. DIPTENDU DUTTA/AFP/GETTY

साल 2020 जिसने दुनिया भर में नीति निर्माताओं को चुनौती दी उसे हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सबसे महत्वपूर्ण दीर्घकालिक प्रभावों और भारत व चीन के बीच, हिमालयी क्षेत्र में चल रहे अभूतपूर्व गतिरोध के लिए जाना जाएगा. अप्रैल से लेकर अब तक लद्दाख क्षेत्र में भारत और चीन के नियंत्रित क्षेत्र को विभाजित करने वाली वास्तविक नियंत्रण रेखा-एलएसी (Line of Actual Control) पर चीनी सेनाओं ने उनके कब्ज़े वाले क्षेत्रों से पीछे हटने को लेकर कोई झुकाव नहीं दिखाया है. इस बीच, भारतीय सेना विवादित सीमा पर आमद बढ़ा रही है और नई दिल्ली ने इस बाबत चीन से यथास्थिति को व्यापक रूप से बहाल करने की लगातार मांग की है. दोनों पक्षों के बीच उच्च स्तर पर अपने अपने दावों को रेखांकित करते हुए, कई दौर की सैन्य और कूटनीतिक वार्ताएं हो चुकी हैं, लेकिन उनसे किसी भी तरह का परिणाम या निर्णय सामने नहीं आया है.

साल 2020 को पूरी तरह से उस वर्ष के रूप में याद किया जा सकता है जब चीन और भारत के बीच संबंधों का रोमांसवाद आखिरकार ख़त्म हो गया.

साल 2020 को पूरी तरह से उस वर्ष के रूप में याद किया जा सकता है जब चीन और भारत के बीच संबंधों का रोमांसवाद आखिरकार ख़त्म हो गया. लगातार मिल रहे विपरीत सबूतों के बावजूद नई दिल्ली में कई लोग लंबे समय तक इस भुलावे में रहे कि भारत, चीन के साथ अपने ख़राब हो रहे संबंधों को राजनयिक व कूटनीतिक रूप से साध लेगा और दोनों देशों के बीच जारी सीमा विवाद की छाया, उनके बीच मौजूद व्यापक संबंधों पर नहीं पड़ेगी. भारत-भूटान-चीन सीमा पर डोकलाम में दोनों देशों की सेनाओं के बीच 2017 में शुरु हुए गतिरोध के बावजूद, जिसमें पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (People’s Liberation Army) ने रॉयल भूटान सेना (Royal Bhutan Army) द्वारा बनाए गए पत्थर के बंकरों को तोड़ दिया, भारतीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ व्यक्तिगत संबंध बनाने की कोशिश की. प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की यह पहल जितनी इस समझ पर टिकी थी कि पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंध एक व्यावहारिक आवश्यकता है, उतनी ही इस बात पर कि दोनों देशों के बीच दशकों से जारी विवादों से इतर अब द्विपक्षीय जुड़ाव को आकार देने की ज़रूरत है. इस पहल ने कुछ समय के लिए काम किया, लेकिन बाद की गतिविधियों ने यह स्पष्ट कर दिया कि बीजिंग के पास स्पष्ट रूप से अन्य योजनाएं थीं.

प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की यह पहल जितनी इस समझ पर टिकी थी कि पड़ोसी देशों के साथ बेहतर संबंध एक व्यावहारिक आवश्यकता है, उतनी ही इस बात पर कि दोनों देशों के बीच दशकों से जारी विवादों से इतर अब द्विपक्षीय जुड़ाव को आकार देने की ज़रूरत है. इस पहल ने कुछ समय के लिए काम किया, लेकिन बाद की गतिविधियों ने यह स्पष्ट कर दिया कि बीजिंग के पास स्पष्ट रूप से अन्य योजनाएं थीं.

इस साल वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी एलएसी को एक तरफ़ा अपने पक्ष में एक नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिशों के दौरान, बीजिंग ने सीमा को शांतिपूर्ण बनाए रखने के लिए 1993 से भारत के साथ हस्ताक्षरित किए गए सभी समझौतों और आपसी सहमति के केंद्रीय सिद्धांतों की अवहेलना की. चीन का यह व्यवहार अनिवार्य रूप से चीन और भारत के बीच संबंधों की धारा को बदल देगा, जो अब तक इस समझ पर आधारित रहे हैं कि सीमा-विवाद और इससे जुड़े सवालों के अनसुलझे रहने के बावजूद, दोनों देश अन्य क्षेत्रों को लेकर आगे बढ़ सकते हैं जैसे वैश्विक मामले, क्षेत्रीय मसले और द्विपक्षीय समझौते. दोनों देशों की परस्पर सहमति से चला आ रहा यह मौलिक सिद्धांत आज गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त है, और इसकी महत्ता को लगातार कम आंका गया है.

कुछ मायनों में, चीन द्वारा अपना प्रभुत्व स्थापित करने की कोशिशें समझ में आती हैं. जब तक चीन सीमा पर प्रभावी पक्ष था, तब तक वह शांति की कोशिशों और सद्भाव बनाए रखने के छलावे को जी सकता था. यह इसलिए क्योंकि इन परिस्थितियों में सब कुछ उसकी अपनी शर्तों पर हो रहा था. वास्तव में, यह पिछले कुछ वर्षों में इस क्षेत्र में भारत द्वारा अपने हितों के लिए किए गए दावों का ही नतीजा है, कि चीन और भारत के बीच मन-मुटाव इस क़दर बढ़ गया है. वास्तविक नियंत्रण रेखा का सैन्यीकरण बहुत हद तक अब अभूतपूर्व गति से हो रहा है, क्योंकि इस क्षेत्र में मौजूद भारतीय बुनियादी ढांचा अब बहुत बेहतर स्थिति में है, और भारतीय गश्त कहीं अधिक प्रभावी है- सीधे शब्दों में कहें तो भारतीय सेना अब उन क्षेत्रों में भी उपस्थिति है, जहां चीनी सेना को उसे देखने की आदत नहीं थी. भारत अब चीनी आक्रमण का सीधे तौर पर मज़बूती से मुक़ाबला करने के लिए तैयार है, और वह सीमा पर पैदा होने वाली अधिक अस्थिर स्थितियों के लिए खुद को तैयार कर रहा है. यदि दोनों देशों के बीच मौजूद इस ताज़ा सीमा विवाद का कोई स्थायी समाधान नहीं मिलता है, तो वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अशांति का एक नया दौर शुरु हो सकता है, और यह स्थिति एक नए तरह की सामान्यता को जन्म दे सकती है.

दोनों देशों के बीच मौजूद इस ताज़ा सीमा विवाद का कोई स्थायी समाधान नहीं मिलता है, तो वास्तविक नियंत्रण रेखा पर अशांति का एक नया दौर शुरु हो सकता है, और यह स्थिति एक नए तरह की सामान्यता को जन्म दे सकती है.

इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि चीन अब भी एक शक्तिशाली इकाई है, और इसका बुनियादी ढांचा पहले से भी बेहतर स्थिति में है. लेकिन भारतीय बुनियादी ढांचा भी अब विकास के एक महत्वपूर्ण बिंदु पर पहुंच गया है, और यह बिना किसी कारण के नहीं है कि इसे लेकर चीन का विरोध इस हद तक भीषण है. लगभग 160 मील लंबी और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण ‘डारबुक-श्योक-दौलत बेग ओल्डी’ (डीएसडीबीओ) रोड जो भारतीय शहर लेह को काराकोरम दर्रे से जोड़ेगी और पहाड़ी इलाक़ों से गुज़रती हुई समुद्र तल से 5000 मीटर की ऊंचाई पर लद्दाख़ क्षेत्र में स्थित दुनिया के सबसे ऊंचे रनवे तक जाती है. यह काराकोरम पर्वत श्रृंखला के माध्यम से एक ऐतिहासिक व्यापार मार्ग को स्थापित करती है, जो लद्दाख़ को चीन के पश्चिमी क्षेत्रों से जोड़ती है. यह परियोजना चीन की विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं को भारत की सीधी और कड़ी चुनौती है. चीन की आपत्तियों के बावजूद, भारत ने इस परियोजना को जारी रखा है और ऐसे में सीमा पर मनमुटाव को बढ़ाने को लेकर चीन की गतिविधियां, भारत को इस दिशा में आगे बढ़ने से रोकने का एक और प्रयास हैं.

भारतीय विदेश नीति, चीन के वैश्विक परिप्रेक्ष्यों और उसकी वैश्विक नीतियों को चुनौती देने के मोर्चे को केंद्र में रखती रही है. उस वक्त जब दुनिया का लगभग हर दूसरा देश बीजिंग के इस कथन से पूरी तरह सहमत था कि चीन का बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव यानी बीआरआई परियोजना, वैश्विक बुनियादी ढांचे के विकास के लिए शुरु की जा रही थी, भारत पहला ऐसा देश था जिसने चीन की इस परियोजना से पैदा होने वाले ख़तरों को लेकर दुनिया को चेतावनी दी थी कि बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव का मकसद विश्व स्तर पर बुनियादी ढांचे का विकास नहीं बल्कि, चीनी व्यवसायों को और समृद्ध बनाना है. आज, बीआरआई को लेकर भारत की समझ से दुनिया की अधिकांश प्रमुख शक्तियां व्यापक रूप से सहमत हैं. वैश्विक शक्तियों ने इस बात को स्वीकार कर लिया है इस के ज़रिए चीन अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है. यह देखते हुए कि बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के लिए एक गौरवशाली परियोजना भी है, इसके ख़िलाफ़ वैश्विक विरोध को आकार देने में भारत की भूमिका विशेष रूप से महत्वपूर्ण और साहसिक है. इसके अलावा भारत ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर वैश्विक परिप्रेक्ष्य को आकार देने में भी कामयाबी हासिल की है, और अब वह समान विचारधारा वाले क्षेत्रीय खिलाड़ियों के साथ मिलकर इस काम को कर रहा है ताकि इसे ज़मीनी स्तर पर साकार किया जा सके. ऐसे समय में जब ट्रंप प्रशासन व्यापार और प्रौद्योगिकी संबंधी प्रक्रियायों और मसलों पर चीन को दरकिनार करने की रणनीति अपना रहा है तो वाशिंगटन और नई दिल्ली के संबंध और नज़दीकी होने की संभावनाएं बढ़ गई हैं. वैश्विक मंच पर भारत को हाशिए पर लाने के चीनी प्रयासों ने काम नहीं किया है, और हर तरह से नई दिल्ली का दबदबा केवल बढ़ा ही है.

ऐसे समय में जब ट्रंप प्रशासन व्यापार और प्रौद्योगिकी संबंधी प्रक्रियायों और मसलों पर चीन को दरकिनार करने की रणनीति अपना रहा है तो वाशिंगटन और नई दिल्ली के संबंध और नज़दीकी होने की संभावनाएं बढ़ गई हैं.

और इसलिए चीन ने परोक्ष रूप से बल प्रयोग का साधन चुना है, इस उम्मीद के साथ कि इसके ज़रिए वह भारत को सबक सिखा पाएगा. वास्तविकता यह है कि चीन के इस क़दम ने पूरी तरह से विपरीत प्रभाव पैदा किया है. भारतीय जनमत, जो पहले से ही चीन को लेकर नकारात्मक था, अब और भी अधिक चीनी विरोधी हो गया है. भारत में जो लोग चीन और अमेरिका से एक समानता दूरी बनाए रखने की बात करते रहे हैं, अब उस स्थिति में हैं जहां वह मानते हैं चीन और अमेरिका को एक तराज़ू में तोला जाना मुश्किल है. इसके चलते नई दिल्ली अब रणनीतिक और आर्थिक रूप से चीन विरोधी नीतियां बनाने के लिए स्वतंत्र हो गई है. प्रमुख रणनीतिक क्षेत्रों में चीन पर व्यापार निर्भरता को कम करने से लेकर हिंद-प्रशांत क्षेत्र के लिए वैश्विक समर्थन को मज़बूत करने तक, भारत की प्रतिक्रिया अलग-अलग स्तरों पर और लगभग हर क्षेत्र से जुड़ी रही है.

अब यह चीन पर निर्भर करता है कि वह पड़ोसी देश के रूप में भारत में अपने लिए एक स्थायी दुश्मन चाहता है, या एक ऐसा पड़ोसी देश जिसके साथ वह व्यापार कर सकता है, व परस्पर सहयोग का संबंध स्थापित कर सकता है.

इनमें से कोई भी विकल्प भारत के लिए लागत-रहित नहीं है. लेकिन चीन की हरकतों ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि आज भारत उस कीमत को चुकाने और उन लागतों को वहन करने के लिए तैयार है. चीन की आक्रामकता के जवाब में भारत की सैन्य और कूटनीतिक प्रतिक्रियाओं ने यह स्पष्ट कर दिया है कि नई दिल्ली के पास न तो विकल्पों की कमी है और न ही वह इन विकल्पों को चुनने में कोई संकोच दिखाएगा. अब यह चीन पर निर्भर करता है कि वह पड़ोसी देश के रूप में भारत में अपने लिए एक स्थायी दुश्मन चाहता है, या एक ऐसा पड़ोसी देश जिसके साथ वह व्यापार कर सकता है, व परस्पर सहयोग का संबंध स्थापित कर सकता है. बीजिंग जो भी चुनाव करता है, वह आने वाले समय में केवल भारत और चीन ही नहीं बल्कि हिंद-प्रशांत यानी इंडो-पैसिफिक क्षेत्र के रणनीतिक परिदृश्य को निर्धारित व परिभाषित करेगा.

साभार- https://www.orfonline.org/ से