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80 किमी के दायरे में सैलानियों के लिए दर्शनीय स्थलों की बड़ी श्रृंखला है बारां में

पुरातत्व संपदा से समृद्ध राजस्थान के दक्षिण – पूर्व में स्तिथ बारां जिले में कृष्ण विलास, अटरू, छीपाबड़ौद, अतां, रामगढ, सीताबाड़ी, शाहबाद, शेरगढ़ आदि स्थलों पर पुरामहत्व की दृष्टि से तीसरी शताब्दी से लेकर 12 वीं शताब्दी के अवशेष किले, मदिंरों, मस्जिद, छतरियों के रूप मे बडे़ पैमाने पर मिलते हैं। जिला मुख्यालय कोटा से शिवपुरी मार्ग पर 70 किमी दूर स्थित है। जिला मुख्यालय से करीब 80 किमी दायरे में अल्प ज्ञात परंतु महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थलों की बड़ी श्रृंखला हर टेस्ट के सैलानियों को लुभाने के सम्मोहन से भरपूर है।

जिले को पुरातत्व का भंडार कहा जाये तो अतिश्योति नहीं होगी। प्राकृतिक दृष्टि से वन एवं नदियों की संपदा जिले का श्रृगांर करती हैं। वनों एवं पहाड़ों के मध्य खूबसूरत प्राकृतिक देह एवं खो बने हैं। शेरगढ़ का दुर्ग जल दुर्ग का बेहतरीन उदाहरण है। रियासत के समय बांरा कोटा राज्य की निजामत थी । कोटा जिले से प्रथक कर 10 अप्रैल 1991 को बांरा को नया जिला बनाया गया। परवन,पार्वती एवं कालीसिंध प्रमुख नदियां हैं। शाहबाद तहसील में जिले की सबसे ऊॅची पर्वत चोटिंया हैं। काफी बड़ा भू-भाग वन क्षेत्र है।

कला संस्कृति की दृष्टि से बारां में भाद्र माह की शुक्ल पक्ष एकादशी अर्थात जलझूलनी एकादशी को भव्य शोभा यात्रा एवं डोल मेले का आयोजन जिले का सबसे बड़ा मेला है। मंदिरों में पन्द्रह दिन पहले देव विमान सजाने की तैयारी शुरू हो जाती हैं। डोल यात्रा में करीब 52 मंदिरों की श्रृंगारित देव विमान झांकियां शामिल होती हैं। श्रीजी के विमान को दर्जन भर व्यक्ति कंधे पर उठाकर चलते हैं। चैमुखा चौंंक पर रघुनाथ जी एवं श्रीजी विमानों का ‘‘मिलन’’एव ‘‘नमन’’होता है। डोल तलाब पर विमानों को पंक्तिब़द्ध रखकर जलवा पूजन किया जाता है। बांरा का डोल मेला राजस्थान में प्रसिद्ध है।

किशनगंज में होली पर फूल डोल उत्सव की निराली शान है। इसमें विभिन्न प्रकार के स्वांग आकर्षण का केन्द्र होते हैं। सीताबाड़ी में ज्येष्ठ माह में आयोजित पन्द्रह दिवसीय मेला,‘सहरिया आदिवासियों का कुंभ’ कहा जाता है। छबड़ा के चाचोंड़ा गांव में कंजर बालाओं का ‘चकरी नृत्य’ तथा शाहबाद में सहरियों का’ शंकरा नृत्य’ ने आज अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाली है। कंजर बालाओं का चकरी नृत्य चमत्कृत करता है वहीं सहरियों के शंकरा स्वांग नृत्य में आदिवासियों के अनूठे स्वांग मोहने वाले होते हैं। सोरसन में शिवरात्रि को ब्रम्हाणी माता मेले का आयोजन किया जाता हैं। अटरू नामक स्थान पर आयोजित होने वाली ‘ढाई कड़ी की धनुष लीला’ एवं पाटुन्दा की ‘ रामलीला ‘ प्रसिद्व है। अटरू के पिप्लोद गांव में बड़े दिन पर किस्मस मेला आयोजित किया जाता है।

इसाई बाहुल्य पिप्लोद गांव में जिले का एक मात्र चर्च है। सभी पर्व जिले में उत्साह पूर्वक मनाये जाते हैं। मांड़ना एवं सांझी प्रमुख लोक कलाएं हैं।बारां के समीप मांगरोल में खादी हस्तशिल्प का कार्य प्रसिद्व है।

बांरा शहर में बूंदी की राजमाता रायकुंवर बाई द्वारा संवत 1537 ई. में बनवाया गया श्री कल्याणराय जी का मंदिर अंचल श्रद्धा का केन्द्र है। चैमुखा बाजार में स्थित सांवला जी का कलात्मक मंदिर कोटा के महाराव भीमसिंह प्रथम ने संवत 1766 में बनवाया था । डोल तालाब के समीप स्थित प्यारेलाल जी का मंदिर निज मंदिर है। मंदिर में लक्ष्मण जी,चारभुजा जी,राम -जानकी एवं भरत की प्रतिमाएं हैं। यहां रामानंदी सम्प्रदाय के गुदड़ी पंथ की पीठ रही है। भूतेश्वर ,रघुनाथजी,सत्यनारायण जी मंदिरों सहित नगर में करीब 200 मंदिर हैं। प्राचीन 17 वीं सदी का जोड़ला जैन मंदिर सहित नगर के पूर्व में स्थित दिगम्बर जैन क्षेत्र नसिया जी सिद्ध क्षेत्र माना जाता है। यह नगर 19 वीं सदी में एक प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था।

बारां जिला मुख्यालय से करीब 82 कि.मी. दूर स्थित शाहबाद का किला आज खण्डर होकर अपने वैभवशाली अतीत की कहानी सुनाता है। यह दुर्ग राज्य के ही नहीं भारत के सुदृढ दुर्गों में माना जाता है। प्राकृतिक स्थिति रणथम्भौर के दुर्ग के समान है। बताया जाता है कि चौहान राजा मुघुटमणी राज ने 1521 ई. में इसका निर्माण शुरू करवाया था। ऊँचे पर्वत पर बने दुर्ग के दो तरफ “कुण्ड खो” नामक पानी का चश्मा है जो प्राकृतिक खाई का कार्य करता है। तीसरी ओर एक तालाब है। चौथी ओर पहाड़ी मार्ग दुर्ग तक जाता है। खण्डहर होकर भी दुर्ग का परकोटा काफी सुरक्षित स्थित में है। यहां करीब 10 भग्न मंदिर, बारूदखाना, बावड़ी आदि बनेे हैं। बताते हैं कि किले की बुर्जो पर 18 तोपें रहती थी। ज्ञात होता है जब यहां किला बनाया गया करीब 60 हजार की व्यवस्थित बसावट हो गई थी। शाहबाद का का नाम शेरशाह या ओरंगजेब का दिया माना जाता है। मुगल साक्ष्य से पता चलता है कि यहां का राजा मुगलों का मनसबदार रहता था। चौहान शासक इन्द्रमन के समय राजसी भवन “ बादल महल” का निर्माण कराया गया। इसके अवषेश आज भी देखें जा सकते हैं। यह महल भवन निर्माण एवं पाषाण कारीगरी का उत्कृष्ट नमूना है। विशाल द्वार अलंकृत है। दरवाजे के साथ एक ऊँचे चबूतरे पर दोनों ओर बड़ी-बड़ी पाषाण प्रतिमाऐं स्थापित थी। यह एक पंख युक्त हाथी की उड़ती हुंई प्रतिमांए हैं जो अपनी सूंड एवं चारों पैरों में पांच छोटे-छोटे हाथी लेकर उड़ रहे हैं। यह दोनों प्रतिमाऐं आज भी कोटा कलेक्ट्रेट परिसर में जिला कलेक्टर कार्यालय भवन में नीचे लगी हुई हैं। स्थानीय लोग इस विचित्र प्रतिमाओं को “ अलल पंख” कहते हैं।

शाहबाद में औसती एवं तपसी बावड़ियां, राव उम्मेदसिंह द्वारा निर्मित थानेदार ठाकुर नाथुसिंह की छत्तरी तथा कल्याणराय मंदिर दर्शनीय हैं।

किशनगंज से कुछ ही दूरी पर स्थित कपिल धारा एक धार्मिक महत्व का प्राकृतिक स्थल है। कार्तिक पूर्णिमा को यहां मेला भरता है। भगवान कपिल के तपोबल से गंगा की धारा उत्पन्न होने के कारण इसे कपिल धारा कहा जाता है। यहां पर्वत पर स्थित गौमुख से जल धारा गिरती है। शिववकुण्ड में भगवान शिव की प्रतिमा स्थापित है। इस कुण्ड में पर्वत के झरने का पानी आता है। दर्शकों को शिव कुण्ड तक लगभग पचास फीट ऊपर चढना पड़ता है। यहां शिव मंदिर है।

बारां से करीब 65 किमी दूर अटरू तहसील में परवन नदी पर शेरगढ़ दुर्ग राजस्थान में जल दुर्ग का महत्तपूर्ण उदाहरण हैं। दुर्ग के द्वार, मेहल तोपखानें आदि के अवषेशों के साथ लक्ष्मी मंदिर एवं जैन प्रतिमाऐं देखने को मिलती हैं। बोरखेड़ी दरवाजे की बांयी ओर सीढ़ियों नीचे एक ताक में कोशवर्धन नाम से नागवं शी राजा देवदत्त का विक्रम संवत 870 का संस्कृत भाषा का एक लेख उत्कीर्ण है, जिसमें बौद्ध विहार बनाये जाने का जिक्र है। यहां पाये जाने वाले लेखों से पता चलता है कि पूर्व में किसी ने यहां सोमनाथ महादेव मंदिर बनवाया था। जिसे बाद में मंदिर की सामग्री का उपयोग कर लक्ष्मीनारायण मंदिर बना दिया गया। यहां तीन जैन मंदिर प्रतिमाओं पर 11वीं सदी के लेख उत्कीर्ण हैं। यहां शेरशाह सूरी द्वारा बनवाई गई दीवार के पत्थर पर भी 11वीं सदी के लेख हैं। यहां पाये गये 1867 वि.सं. के एक लेख से ज्ञात होता है कि पहले शेरगढ़ का नाम बरसाना था। दुर्ग की प्राचीर एवं बुर्जें अभी भी सुरक्षित स्थिति में हैं। दुर्ग को पुरातत्व विभाग के संरक्षण में संरक्षित स्मारक बनाया गया है।

शेरगढ़ में वर्ष 1983 ईं. में शेरगढ़ अभयारण घोषित किया गया जो 98.71 वर्ग कि.मी. क्षेत्र में है। अभयारण्य में बघेरा, रीछ, लोमड़ी, चीतल, सांभर, चिंकारा, नेवले, खरगोश, जंगली सूअर आदि जीव जन्तु पाये जाते हैं।

बारां जिल से करीब 35 किलोमीटर दूर किशनगंज तहसील में रामगढ़ की खूबसूरत पहाडिय़ों की तलहटी में 10 वीं शताब्दी में मलयवर्मन द्वारा निर्मित भण्डदेवरा मंदिर स्थित है। मन्दिर का 13वीं शताब्दी में मेढ़वंशीय शासकों द्वारा जीर्णोद्धार कराया गया था।। मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। किन्नर, देवी-देवता, अप्सराएं, गधर्व, युगल मूर्तियां यहां खूबसूरती से कलात्मक रूप में देखने को मिलती हैं। खजुराहो सदृश्य होने से इस मंदिर को राजस्थान का मिनी खजुराहो कहा जाता है। रामगढ़ की पहाड़ी पर किशनई माता का प्रसिद्ध मंदिर है। यहां तक पहुंचने के लिए झाला जालिम सिंह ने 715 सीढिय़ों का निर्माण कराया था। यहां का सम्पूर्ण प्राकृतिक लैंड स्केप अद्भुत और आकर्षक है।

बारां करीब 45 किलोमीटर दूर केलवाड़ा के समीप सीताबाड़ी नामक पौराणिक धार्मिक एवं रमणीक स्थल क्षेत्रीय लोगों की आस्था का महत्वपूर्ण केन्द्र है। यहां सीता माता, सूर्य, लक्ष्मण एवं बाल्मिकी के देवालय बने हैं। यहां बने सूर्य मंदिर एवं सूर्य कुण्ड तथा लक्ष्मण मंदिर एवं लक्ष्मण कुण्ड के प्रति श्रद्धालुओं की विशेष आस्था है, जो इन कुण्डों में स्नान कर दर्शन करते हैं। मान्यता है कि महर्षि बाल्मिकी का यहां आश्रम रहा होगा। माना जाता है कि यहां सीता ने अपना निवर्सन काल व्यतीत किया था। मई-जून में प्रतिवर्ष यहां मेले का आयोजन किया जाता है। इस मेले में स्थानीय जनजाति सहरिया बड़ी संख्या में भाग लेते हैं, जिस से मेले को सहरियों का कुम्भ कहा जाता है। मेले में सहरिया जनजाति की संस्कृति भी देखने को मिलती है। यहां बने जलकुण्डों में श्रद्धालु स्नान कर मृतकों की आत्मा की शांति के लिए पिण्डदान करने की रस्म भी निभाते हैं। मेले में मनोरंजन के विविध साधन होते हैं और साथ ही पशु मेला भी आयोजित किया जाता है।

किशनगंज पंचायत समिति की पंचायत विलासगढ़ को प्राचीन समय में “ कृष्ण विलास” कहा जाता था। यह स्थल भंवरगढ़ से पहले रामपुरिया गांव से करीब चार किलो मीटर दूरी पर है। यह रास्ता पैदल पार करना होता है। कन्यादेह से विलासगढ़ तक आसपास करीब तीन किलोमीटर क्षेत्र में ध्वस्त पुरातत्व महत्व के प्राचीन मंदिरों की बड़ी श्रृंखला देखी जाती है जो विलास नदी के बांई ओर स्थित है। प्रमाणों के मुताबिक 7वीं-8वीं शताब्दी में विलास नगर वैभवशाली नगर रहा होगा। यह एक प्राकृतिक एवं रमणिक स्थल है। यहां के मंदिर हिन्दू और जैन धर्म से सम्बंधित
हैं। यहां स्मारक छीपों की चांदनी, चारखंभा मंदिर, जैन मंदिर तथा प्रतिमायें हैं। चार कलात्मक खंबों की भव्यता अत्यंत लुभावनी है। यहां एक छोटा सा स्थल संग्रहालय भी बना दिया गया है। इसमें यहां से प्राप्त मूर्तियों एवं कलात्मक प्रस्तर खण्ड रखे गये हैं। कुछ प्रतिमाओं को कोटा एवं झालावाड़ के संग्रहालयों में तथा असपास के मंदिरों में सुरक्षित कर दिया गया है। यहां का स्मारक केन्द्रीय पुरातत्व विभाग के अधीन संरक्षित कर दिये गये हैं।

काले हिरणें एवं चिंकारों को झुण्ड में विचरण करते एवं कुचाले भरते भागते हुए देखना है तो चले आईये सोरसन संरिक्षत क्षेत्र । यह स्थल कोटा-बांरा मार्ग पर पलायथा से अमलसरा के रास्ते पर स्थित है। यह क्षेत्र गोडावण के लिए भी जाना जाता है। यहां भेडिया, लोमड़ी, सियार, जंगल सुअर, जंगली खरगोष एवं लंगूर भी पाये जाते हैं। समीप बहने वाली परवन नदी में मगरमच्छ तथा मैदानी भाग में सर्प, गोह आदि रेंगने वाले जीव भी देखें जा सकते हैं। यहां करीब 100 से अधिक प्रकार के स्थानीय और अप्रवासी पक्षी पाये जाते हैं। सारस, जांघिल, तीतर, बतख, बटेर तथा इंडियन कोर्सर स्थानीय पक्षियों सहित है, रियर्स, यूरोपीयन सारस, तिल्लतौर आदि प्रवासी पक्षी देखे जाते हैं। उप वन संरक्षक (वन्य जीव ) से अनुमति प्राप्त कर उसे देखा जा सकता है।

सोरसन गांव में स्थित ब्रह्माणी माता के मंदिर का महत्व इस बात से है कि संभवतः पूरे देश में माता का यह पहला ऐसा मंदिर है, जहां देवी की पीठ पूजी जाती है, जिसका श्रृंगार किया जाता है। चारों ओर ऊंचे परकोटे से घिरा यह शैलाश्रय गुफा मंदिर है। यहां प्रतिदिन देवी की पीठ की पूजा-अर्चना की जाती है। विगत 450 वर्षों के अधिक समय से अखण्ड ज्योत प्रज्जवलित है। मंदिर परिसर में प्राचीन शिव मंदिर एवं गौड़ ब्राह्मणों का सती चबूतरा भी बनाया गया है।

(लेखक राज्य स्तरीय अधिस्वीकृत स्वतंत्र पत्रकार हैं)