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नाम में बहुत कुछ रखा है

बिहार के मन्त्री ने कुछ पुस्तकों को जलाने की बात की। ये ज्ञान और विचार शक्ति के शत्रु हमेशा समाज में जहर फैलाते हैं ताकि वोटबैंक की फसल काट सकें। इनकी प्राथमिकता यह है कि नालन्दा जलाने वाले बख्तियार खिलजी पर चुप और मानवता के अग्रदूत महर्षि मनु को गाली देना।

पिछले 30 साल से अधिक बिहार में लालू और नीतीश का शासन रहा है। यदि बीच के 2 साल के जीतन राम मांझी के समय को छोड़ दें तो मुख्यमंत्री लालू परिवार का रहा है या स्वयं नीतीश कुमार। आज भी इनके पास बताने के लिए विशेष उपलब्धि नहीं है। बिहार के बड़े नेता शरद यादव अपनी अंतिम सांस दिल्ली NCR के कार्पोरेट हॉस्पिटल में लेते हैं तो लालू यादव विदेश में किडनी ट्रांसप्लांट करवाते हैं। यह है 30 साल में बिहार में किया कार्य। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और विकास के नाम पर शून्य। बस जातिवाद का जहर फैला कर राजनीति करना।

कुछ साल पहले बिहार गया. अचानक इच्छा हुई कि समय है तो क्यों ना नालन्दा विश्वविद्यालय के जले हुए अवशेषों को देखा जाए.
पटना में नालन्दा का रास्ता पता किया. पटना से बख्त्यारपुर की ट्रेन पकडनी पड़ेगी.
आश्चर्य हुआ कि जिस बख्त्यार खिलजी ने 2000 बौद्ध भिक्षु अध्यापकों व 10000 विद्यार्थियों को गाजर मूली की तरह काट दिया.
विश्व प्रसिद्ध पुस्तकालय को जला कर राख कर दिया
उसके हत्यारे के नाम पर रेलवे स्टेशन ?

साउथ अफ्रीका ज्योग्राफीकल नेम काउंसिल (एस.ए.जी.एन.सी.) नामक एक सरकारी आयोग इस पर सार्वजनिक सुनवाई कर रहा है। प्रीटोरिया का नाम बदलने की घोषणा हो चुकी थी। किसी कारण उसे अभी स्थगित कर दिया गया है। प्रीटोरिया पहले त्सवाने कहलाता था जिसे गोरे अफ्रीकियों ने बदल कर प्रीटोरिया किया था। त्सवाने वहां के किसी पुराने प्रतिष्ठित राजा के नाम से बना था जिसके वंशज अभी तक वहां हैं।

इस प्रकार नामों को बदलने का अभियान और विवाद वहां लंबे समय से चल रहा है। पिछले दस वर्ष में वहां 916 स्थानों के नाम बदले जा चुके हैं। इनमें केवल शहर नहीं; नदियों, पहाड़ों, बांधों और हवाई अड्डों तक के नाम हैं। सैकड़ों सड़कों के बदले गए नाम अतिरिक्त हैं। वहां की एफपीपी पार्टी के नेता पीटर मुलडर ने संसद में कहा कि ऐतिहासिक स्थलों के नाम बदलने के सवाल पर अगले बीस वर्ष तक वहां झगड़ा चलता रहेगा। उनकी पार्टी और कुछ अन्य संगठन प्रीटोरिया नाम बनाए रखना चाहते हैं।

इसलिए नाम में बहुत कुछ है। यह केवल दक्षिण अफ्रीका की बात नहीं। पूरी दुनिया में स्थानों के नाम रखना या पूर्ववत करना सदैव गंभीर राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्त्व रखता है। जैसे किसी को जबरन महान बनाने या अपदस्थ करने की चाह। इन सबका महत्त्व है जिसे हल्के से नहीं लेना चाहिए। इसीलिए कम्युनिज्म के पतन के बाद रूस, यूक्रेन, मध्य एशिया और पूरे पूर्वी यूरोप में असंख्य शहरों, भवनों, सड़कों के नाम बदले गए। रूस में लेनिनग्राद को पुन: सेंट पीटर्सबर्ग, स्तालिनग्राद को वोल्गोग्राद आदि किया गया। कई बार यह सब भारी आवेग और भावनात्मक ज्वार के साथ हुआ। इन सबके पीछे गहरी सांस्कृतिक, राजनीतिक भावनाएं होती हैं।

हमारे देश में भी शब्द और नाम गंभीर माने रखते हैं। अंग्रेजों ने यहां अपने शासकों, जनरलों के नाम पर असंख्य स्थानों के नाम रखे, कवियों-कलाकारों के नाम पर नहीं। फिर, जब 1940 में मुसलिम लीग ने मुसलमानों के अलग देश की मांग की और आखिरकार उसे लिया तो उसका नाम पाकिस्तान रखा। जैसा जर्मनी, कोरिया आदि के विभाजनों में हुआ था- पूर्वी जर्मनी, पश्चिमी जर्मनी और उत्तरी कोरिया, दक्षिणी कोरिया- वे भी नए देश का नाम ‘पश्चिमी भारत’ या ‘पश्चिमी हिंदुस्तान’ रख सकते थे। पर उन्होंने अलग मजहबी नाम रखा। इसके पीछे एक पहचान छोड़ने और दूसरी अपनाने की चाहत थी। यहां तक कि अपने को मुगलों का उत्तराधिकारी मानते हुए भी मुसलिम नेताओं ने मुगलिया शब्द ‘हिंदुस्तान’ भी नहीं अपनाया। क्यों?

विदेशियों द्वारा जबरन दिए गए नामों को त्यागना अच्छा ही नहीं, आवश्यक भी है। इसमें अपनी पहचान के महत्त्व और उसमें गौरव की भावना है। इसीलिए अब तक जब भी भारत में औपनिवेशिक नामों को बदल स्वदेशी नाम अपनाए गए, हमारे देश के अंग्रेजी-प्रेमी और पश्चिमोन्मुखी वर्ग ने विरोध नहीं किया है। पर यह उन्हें पसंद भी नहीं आया। क्योंकि वे जानते हैं कि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी।

डॉ राममनोहर लोहिया ने आजीवन इसी आत्मप्रवंचना की सर्वाधिक आलोचना की थी जो विदेशियों से हार जाने के बाद ‘आत्मसमर्पण को सामंजस्य’ बताती रही है। अत: इस कथित हिंदी क्षेत्र से किसी पहलकदमी की आशा नहीं। इनमें अपने वास्तविक अवलंब को पहचानने और टिकने के बदले हर तरह के विदेशी विचारों, नकलों, दुराशाओं, शत्रु शक्तियों की सदाशयता पर आस लगाने की प्रवृत्ति है। इसीलिए उनमें भारतवर्ष नाम की पुनर्स्थापना की कोई ललक या चाह भी आज तक नहीं जगी है। अच्छा हो कि देश का नाम पुनर्स्थापित करने का अभियान किसी तमिल, मराठी या कन्नड़ हस्ती की ओर से आरंभ हो। यहां काम दक्षिण अफ्रीका की तुलना में आसान है, पर हमारा आत्मबल क्षीण है।

साभार- https://www.facebook.com/arya.samaj/ से