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ये जो माँ दुर्गा को अपमानित कर रहे हैं ये वो लोग हैं जो…..

दुर्गा पर बहुत घटिया बातें पढी। कई मित्रों के वाल पर देखा। लोगो के रिएक्शन देखे। कई बार बहुत ग़ुस्सा आया कि ये जो भी मनुष्येतर मंडल-पंडल है, उसका माथा फोड़ दूं। ज़ुबान खींच लूं।

दरअसल उसकी ज़ुबान तो मर्दवादी ज़ुबान है… सदियों का अभ्यास है, ज़हर ही उगलेगा। जुबान की जड़ इतनी गहरे धंसी है कि खींचे तो न खींच पाएगें। वह तभी बाहर आ सकती है जब दुर्गा ही काली रुप लेकर निकले। फ़िलहाल उसको गाली वाली देने से कोई फ़ायदा नहीं। गंदी जुबान से ज़हर ही टपकेगा, शहद की उम्मीद क्या करना?

हां, दुर्गा पर जरुर कुछ कहना चाहती हूं। बचपन से दुर्गा की छाया में पली बढ़ी हूं, सो साहस और गर्जन मुझमें कूट-कूट कर भरा है। दशहरा शुरू होते ही मां नाभि में काजल लगा देती थीं और बाज़ू में काला कपड़ा। कहते हैं- असुरी शक्तियां इस दस दिनों में जाग्रत रहती हैं और इनसे बच्चों को ज़्यादा ख़तरा रहता है। दशहरे के दिन यह भय खत्म होता है। हम दसों दिन रोज दुर्गा पूजा के पंडाल में जाते थे और जिस शाम दुर्गा की आंख खुलती थी, पहले से खड़े होते थे कि आंख खुलते ही हम पर पड़े। बडी बडी काली आंखों से जब परदा हटता था तो हम रोमांचित हो उठते थे। जैसे दुर्गा सिर्फ मुझे ही देख रही हो.. उन आंखों का ताव सालों मैंने अपने भीतर लिया है। रोज पंडाल में जाती थी और दुर्गा से सिर्फ आंखें मिलाती थी। रोज भाव बदले हुए मिलते। आखिरी दिन जिस दिन विदाई होती, सबकी तरह मुझे भी उनकी आंखें उदास लगतीं। पंडाल में मौजूद औरतों की बतकहियों में मैं दुर्गा की आंखें, चेहरे, सौंदर्य और साहस के बारे में सुनती।

दुर्गा का स्त्री रूप बड़ा मोहक था मेरे लिए। अभिभूत थी।। उनकी दस बांहों से। उन बांहों में अलग अलग वस्तुएं। एक विराट स्त्री की छवि बन रही थी जो दस दिन तक राक्षस के सीने में हथियार गड़ाए हमें देखती रहती थी। मैं मुग्ध थी! भक्तिभाव से परे जाकर एक स्त्री की सॉलिड छवि बन रही थी। मैं दुर्गा की कथा जानना चाहती थी।

मैं अक्सर मां से कुछ सवाल किया करती। मेरी मां बहुत धार्मिक थीं और हमें भी पूजा पाठी बना दिया था। जैसे जैसे मां कहती- हम करते जाते। सावन पूजा हो या कार्तिक स्नान। कार्तिक की भोर में हमने ठंडे पानी का स्नान किया है जिसके बारे में आज सोच कर कंपकंपी छूट जाती है। जब मैं बड़ी होने लगी और पूजा के तौर तरीक़ों पर सवाल उठाने लगी। तब मां अपने ढंग से कोई लॉजिक देतीं या कोई कथा सुनातीं। मां ही मेरे लिए शब्दकोश थी और धार्मिक ग्रंथ भी। ईश्वर बचा या नहीं, पता नहीं, लेकिन कहीं मेरे भीतर ईश्वरत्व बचा है तो वह मां की उन कथाओं और आस्थाओं के कारण।

मां ने ही बताया कि कई देवताओं ने अपनी ताक़त दुर्गा को दे दी ताकि वह महिषासुर का वध कर सके और ब्रम्हाण्ड को बचा सके। जब दुर्गा ने यह काम बख़ूबी कर लिया। राक्षस का वध कर दिया तो फिर देवताओं ने उनसे अपनी ताक़त वापस नहीं ली। फिर देव लोक को चिंता हुई कि दुर्गा का क्या किया जाए? स्त्री रूप है, शादी ब्याह के बारे में सोचा जाने लगा। देवता गण चिंतित! एक शक्तिशाली स्त्री का पति बने कौन? समूचे ब्रम्हाण्ड में दुर्गा से ताक़तवर देव-पुरुष नहीं मिला। अब स्त्री कुंवारी कैसे रहे? दुर्गा, देवताओं की चिंता देख कर ख़ुद चिंतित हो गई। क्या करें? एक स्त्री का पति उससे ज़्यादा प्रभाव वाला होना चाहिए, बराबर या कम नहीं चलेगा।

दुर्गा ने मन ही मन कुछ सोचा- फिर उद्घोष किया। दुर्गा ने भाला उठाया, नुकीली धार से थाली में रखे सिंदूर को उठाया और अपनी मांग उससे भर ली और कहा- आज से आप लोगो को मेरे लिए वर ढूंढने की कोई जरूरत नहीं। आज से मैं स्व विवाहित हूं और देवलोक मेरा मायका हुआ। पृथ्वीलोक पर दस दिन पूजे जाने के बाद दसवें दिन मुझे जल में भंसा देना। अब जल ही मेरा ससुराल!! इस कथा के प्रमाण मुझे कहीं नहीं मिले। मां के सुनाए क़िस्सों में से एक है। मैंने तलाशा भी नहीं। सालों तक मैं दुर्गा मूर्ति के भंसावन पर रो पड़ती थी। लेकिन बड़े होने पर समझी कि यह दुर्गा का अपना चयन था।

मुझे आज भी दुर्गा भंसावन पसंद नहीं। मैं देख नहीं सकती उन्हें जल के भीतर समाते हुए। एक सुपर वीमेन का ऐसा अंजाम नहीं देख सकती। मैं उन्हें देवी रुप में नहीं, स्त्री शक्ति के रुप में देखती हूं। वे हमेशा प्रतीक थीं और रहेंगी। मैं पूजा भले न करूं मगर उनको अपने भीतर गहरे पाती हूं। वह स्त्री -भाव हैं मेरे लिए। वही गरजती हैं और वही साहस देती है।

जिस पृथ्वी पर दुर्गा जैसी शक्तिशाली स्त्री के टक्कर का पुरुष साथी न मिला, उस पृथ्वी के चंद गंधाते, लिजलिजे लोगो से आदर की उम्मीद क्या करें? बोलने दो न उनको। दुर्गा तो स्त्री-भाव है। पता नहीं, उनके जीवन में स्त्रियां हैं या नहीं। कोई बेहतर मनुष्य इतनी गंदी जुबान में बात नहीं कर सकता। हो सकता है, जो दुर्गा के खिलाफ बोल रहे, वह स्त्री की कोख नहीं जन्मा होगा। उसका क्या दोष! जन्म और संस्कार से बहुत फर्क पड़ता है। मेरे लिए दुर्गा का मामला अति-संवेदनशील है, क्योंकि यह स्त्री – अस्मिता से जुड़ा है। सिर्फ धार्मिक नज़रिए से नहीं देखती हूं। और… अस्मिता पर हमला बर्दाश्त से बाहर !!
(साभार: गीताश्री के फेसबुक वॉल से)