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इतिहास के वे सुनहरे पन्ने जो हमें पढ़ाये ही नहीं गए

(प्रशांत पोळ ने हमारी ऐतिहासिक धरोहरों व ऐतिहासिक घटनाओं के स्वर्णिम अध्यायों पर पूरी गंभीरता से शोध कर ऐसे ऐसे तथ्यों और सच्चाई को हमारे सामने रखा हैे कि ये सब पढ़कर हमारी आँखें फटी की फटी रह जाती है। हमारे स्कूलों से लेकर कॉलेजों और विश्वविद्यालयों तक हमें ऐसा विकृत, झूठा और हमें अपने आपसे निंदा करने वाला इतिहास पढ़ाया गया कि हम अपने गौरवशाली अतीत को भुला बैठे। उनके ये लेख पढ़कर हम अपने अतीत के उन स्वर्णिम अध्यायों को जान पाते है जो हमें गौरवान्वित ही नहीं करते है बल्कि रोमांच और कल्पना की ऐसी दुनिया की सैर कराते है जिसे हजारों साल पहले हमारे पूर्वजों ने साकार किया था। उनकी गहरी अध्यात्मिक सोच व इतिहास बोध से हम वो सब-कुछ जान व समझ पाते हैं जो संभवतः हम इन स्थानों को प्रत्यक्ष देखने पर भी ना समझ सकें। )

तंजावुर के मंदिरों का अकल्पनीय सौंदर्य और वास्तुशिल्प

मंदिरों का शहर। एक समूची समृध्द संस्कृति का शहर। कलाओं के वैभव का शहर। इसका आकर्षण अनेक वर्षों से था। छत्रपति शिवाजी महाराज के भोसला वंश ने इस शहर पर अनेकों वर्षों राज किया, इसलिए तो था ही, किन्तु उससे भी ज्यादा, चोल राजाओं की राजधानी और मंदिरों के शहर के रूप में था। अनेक वर्षों के बाद, इस हफ्ते तंजावुर दर्शन का योग आया।

चोल वंश के बिना भारत का इतिहास अपूर्ण है। सैकड़ों वर्षों तक इन महापराक्रमी चोल राजाओं ने भारत के बड़े भूभाग पर राज किया। इस दौरान उन्होने भारतीय संस्कृति को केंद्र में रखकर अपना शासन – प्रशासन चलाया। हिन्दू धर्म के उन्नयन के लिए जो हो सकता था, वह सब किया। इन सब के साथ अपार संपत्ति, समृध्दि और सुशासन की प्रक्रिया शुरु की गई।। सामान्य नागरिक का स्तर ऊँचा किया। चोल राजाओं के शासन काल में हम वैभव के शिखर पर थे। त्रिची के पास चोल वंश के प्रारंभिक काल के राजा करिकलन ने कावेरी नदी पर बांध बांधा। पहली शताब्दी का यह बांध आज भी काम कर रहा है। और यह मात्र बांध (dam) नहीं है, तो पानी का विभाजन करने की यह रचना है। दो हजार वर्ष पहले ऐसा जल व्यवस्थापन कोई कर सकता है, यह कल्पना के भी बाहर है।

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प्रारंभिक चोल राजाओं के प्रभावी जल व्यवस्थापन के कारण यह पूरा क्षेत्र सुजलाम – सुफलाम रहा। (आज भी है!)। प्राचीन भारतीय संस्कृति का केंद्र ‘मंदिर’ हुआ करते थे। वहाँ केवल धार्मिक कार्य ही नहीं होते थे, तो शिक्षा, नृत्य गायन, कला, न्याय आदि का भी वह मंदिर, केंद्र होता था। इस संपन्न क्षेत्र में चोल राजाओं ने, अपने पूर्ववर्ती और समकालीन पल्लव, पांडयन, होयसाला, वाकाटक, कदंब आदि राजवंशों के साथ, अनेक मंदिरों का निर्माण किया। प्रसिध्द चोल राजा, राजराजा (प्रथम) ने, अपनी राजधानी तंजावुर में कुछ प्रमुख मंदिरों का निर्माण किया, उनमें ‘बृहदेश्वर मंदिर’ प्रमुख है। १३ मंजिलों के विमान (प्राचीन मंदिरों के ऊपरी भाग को ‘विमान’ कहा जाता है) की ऊँचाई ६६ मीटर है (लगभग बीस मंज़िला इमारत के बराबर)। विमान के ऊपर जो स्तूपिका रखी गई है, उसका वजन ८० टन है और वह एक ही पाषाण से बनी है। इस अष्टकोणीय स्तूपिका पर स्वर्णकलश रखा गया है। यह भव्य मंदिर, शायद विश्व का पूर्णतः ग्रेनाइट से बना पहला मंदिर है। इस मंदिर को बनाने में, अनुमान है की १ लाख ३० हजार टन ग्रेनाइट के पत्थर लगे। ये पत्थर, मंदिर के निकट के क्षेत्र में नहीं पाये जाते है। दूर से इन पत्थरों को ढो कर लाना, उन्हे परिपूर्णता के साथ तराशना, बिना किसी मटेरियल के उसे ‘सेल्फ लॉकिंग’ पध्दति से जोड़ना। यह जोड़ भी इतना मजबूत, की हजार वर्षों से मौसम की मार खा – खा कर भी मंदिर वैसा ही है। अभेद्य। और यह सारा निर्माण मात्र सात वर्षों में पूर्ण करना (वर्ष १००३ से १०१०)। यह अतर्क्य है। केवल अद्भुत।।!

इस मंदिर के बारे में एक बात, जो सामने नहीं आती, वह इसके निर्माण में निसर्ग से स्थापित किया गया तादात्म्य। आज से हजार वर्ष पहले, राजराजा चोल ने, इस मंदिर को बांधते हुए, ‘वॉटर हार्वेस्टिंग’ को प्रत्यक्ष में उतारा है। इस के स्तूपिका में वर्षा का पानी जमने की व्यवस्था है। यह पानी नीचे पहुंचाया जाता है। नीचे भूमिगत सुरंगों के माध्यम से यह तंजावुर के चार दिशाओं में निर्माण किए गए चार तालाबों में जमा होता है। इसके पीछे की कल्पना है, की भगवान बृहदेश्वर, अर्थात शंकर जी की जटाओं से निकला पानी, गंगा के रूप में लोगों के काम आए। और वास्तु की रचना तो ऐसी, की इसके गुंबद की परछाई जमीन पर पड़ती ही नहीं। एक मजेदार बात और भी है – इसके गोपुरम में जो खंबे है, वो दो पत्थरों से बनाए गए है। किन्तु उन्हे किसी आधार की आवश्यकता नहीं है। इतना बड़ा भार भी वे सहजता से सहन कर लेते है (self-sustained)। बाद में अनेक वर्षों के बाद, अंग्रेजों के शासन काल मे, बाहर के द्वार के रखरखाव की योजना बनी। अंदर के जैसा ही बाहर का द्वार बनाने का अंग्रेजों ने प्रयास किया। लेकिन उन्हे, उन खंबों को आधार (support) देना पड़ा (साथ में चित्र दिया है)। और हम अभी भी कहेंगे, ‘अंग्रेजों की वास्तुकला हमसे बेहतर है’।।!

मंदिर को राजराजा ने विशेष रुचि ले कर बनाया है, तो स्वाभाविकतः नक्काशी से इसे सुंदर बनाने के पूरे प्रयास किए गए है। अनेकों मूर्तिया, नाजुक कलाकारी, गज़ब की समरुपता (symmetry)।।। मंदिर के सामने की नंदी की प्रतिमा भी एक ही पाषाण में बनी है, जो ६ मीटर लंबी, २।६ मीटर चौड़ी तथा ३।७ मीटर ऊंची है। स्वतः बृहदेश्वर, अर्थात शंकर भगवान की पिंडी भी विशालतम आकार में है।

यह मंदिर देखना अपने आप में एक अनुभव था। हजार वर्ष पहले, कितनी समृध्द और परिपक्व संस्कृति यहाँ बसती थी, यह सोचकर आश्चर्य होता है।

तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर के बारे में एक और विशेषता है, दुर्भाग्य से जिसकी ज्यादा चर्चा नही होती। यह है – बृहदेश्वर मंदिर के दीवारों पर बने शतकों पुराने चित्र (paintings / frescoes)। इन में से अधिकतम चित्र मंदिर निर्माण के समय से है, और आज भी एकदम ताजे और नए लगते है। इन चित्रों को बनाने में प्राकृतिक रंगों का प्रयोग किया गया है। और ये सारे रंग ऐसे है, की आज भी उतने ही उठावदार तथा चमकदार लगते है।

यह चित्र लोगों के सामने आए, वह भी दुर्घटना से। दिनांक ८ अप्रैल १९३१ को, मद्रास के अन्नामलाई विश्वविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक एस के गोविन्दस्वामी जब मंदिर के चारों ओर बने अंधेरे से बरामदे में से गुजर रहे थे, तब उन्हे दीवार के निकलते प्लास्टर के पीछे एक सुंदरसा चित्र दिखा। उनका कौतूहल जागृत हुआ। और फिर जब मंदिर प्रशासन के सहयोग से पैसेज (बरामदे) की सारी दीवारों को साफ किया गया, तो उनमें भारतीय पुराणों में वर्णित अनेक कथाएं चित्रमय स्वरूप में प्रकट हुई।

जब उनका रासायनिक विश्लेषण किया गया, तो पता चला की सारे चित्र, चोला समय के है। अर्थात एक हजार वर्ष पुराने।।!

स्वाभाविक है, इन सभी चित्रों में प्राकृतिक (नैसर्गिक) रंगों का ही प्रयोग हुआ है। आज के प्रगत जमाने में, जब अत्याधुनिक तकनीकी से बने रंग, दस / बीस वर्षों में ही फीके पड़ने लगते है, तब इस मंदिर में बने भित्तिचित्र, एक हजार वर्ष बाद भी तरोताजा लगते है। एक हजार वर्ष तक सारे ऋतु, उनकी न्यूनता – प्रखरता झेलना, कृमि – किटकों के आक्रमण से दो हाथ होना और फिर भी नए जैसे दिखना, यह अद्भुत है। उन दिनों किस प्रकार के रंगों का प्रयोग होता था, वे रंग कैसे बनते थे, वे पत्थर को / दीवार को कैसे पकड़ लेते थे, उन पर मौसम का असर क्यूं नहीं होता था।।। आदि प्रश्नों पर अनुसंधान होना आवश्यक है।

अजंता के चित्र लगभग डेढ़ हजार वर्ष पुराने है, तो बृहदेश्वर मंदिर के एक हजार वर्ष। किन्तु अजंता को जैसा देश – विदेश में जबरदस्त प्रचार मिला, उसका छोटा सा अंश मात्र भी इस मंदिर को नसीब नहीं हुआ। आज यह मंदिर, युनेस्को ने ‘वर्ल्ड हेरिटेज साइट’ में शामिल किया है। किन्तु इसके चित्रों के रखरखाव की या सुरक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है।

इसमें अधिकतम चित्र पौराणिक है। स्वाभाविकतः भगवान शिव से संबंधित ज्यादा है। साथ में समकालीन चित्र भी है – जैसे राजा राजराजा चोल तथा उनके गुरु कुरुवुरार जी का एक ऊँचा, आदमक़द पेंटिंग है। नृत्य आविष्कार के, नृत्य करने वाली महिलाओं के तथा संगीतकारों के भी चित्र है। मंदिर के चारों ओर, जिस बरामदे में यह चित्र बनाए है, वहाँ पर चित्र कैसे बनाए होगे, इसका उत्तर नहीं मिलता। बड़े चित्रों को दूर से देखकर / अंदाज लेकर, वैसा प्रमाण लेकर बनाया जाता है। यहाँ तो दस – दस फीट से भी ज्यादा लंबे चित्र है। किन्तु उन्हे दूर से देखने का प्रावधान ही नहीं है।

कुछ स्थानों पर छत के हिस्से में भी पेंटिंग की गई है। विशेषतः भव्य नंदी जहाँ है, उस छत की पेंटिंग तो हजार वर्ष पुरानी कतई नहीं लगती। ऐसा लगता है, मानो अभी दो – पांच वर्ष पहले ये सारे चित्र बनाए होगे।

इस मंदिर में दो प्रकार के चित्र बने है। एक तो जिन्हे हम सब देख सकते है। विशेषतः चारों ओर के बरामदे की दीवारों पर (मंदिर के चारों ओर बना बरामदा कितना बड़ा होगा, इसका अंदाज इसी से होता है, की मंदिर की कुल लंबाई २४० मीटर और चौड़ाई १२० मीटर है), छतों पर आदि। लेकिन इसी के साथ, मंदिर के अंदर एक गोपनीय रास्ता या सुरंग भी है, जो राजा राजराजा चोला के महल को जोड़ती थी। इस सुरंग में भी अनेक सुंदर चित्र बनाए गए है, जिनके फोटो लेने की अनुमति नहीं है।

ये सारे दीवारों पर बनाए गए चित्र (frescoes) इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण है की हमारे यहाँ हजार वर्ष पहले कला कितनी प्रगत थी। चित्रकला के साथ ही उसको बनाने में लगे रंग भी हमारी प्रगत तकनीकी दिखाते है। अर्थात डेढ़ हजार वर्ष पहले की हमारी अजंता की चित्रकला परंपरा, चोल शासन तक अक्षुण्ण रही।।।!

संक्षेप मे, हमारे यहाँ तंजावुर के बृहदेश्वर मंदिर जैसा तकनीकी (इंजीनीयरिंग) का, वास्तुकला का, चित्रकला का, मूर्तिकला का इतना जबरदस्त उदाहरण प्रत्यक्ष सामने है, और फिर भी हमारे नसीरुद्दीन शाह कह रहे है, ‘भारत को तो मुगलों ने बनाया।।।!’

शायद ललाट पर भाग्य की रेखा खींचकर मैं इस प्रवास पर निकला था। दक्षिण तमिलनाडु के मान। प्रांत प्रचारक जी ने तंजावुर के मंदिर देखने / दिखाने की व्यवस्था की थी। तंजावुर के ही आई टी व्यवसायी दिनेश कुमार जी मेरे साथ थे। वे बृहदेश्वर मंदिर के प्रबंधन का एक हिस्सा है। इसलिए मंदिर दर्शन तो बहुत अच्छे से हुआ। तब तक भोजन का समय हो रहा था। दिनेश जी ने कहा, “आपके भोजन की व्यवस्था स्वामी जी के साथ की गई है”।

मेरी प्रश्नार्थक मुद्रा देखकर उसने कहाँ, स्वामीजी अर्थात ‘स्वामी ब्रह्मयोगानन्द जी’। स्वामीजी संघ के प्रचारक रह चुके है। अभी सन्यासी है। नर्मदा परिक्रमा कर चुके है। ओंकारेश्वर में दो वर्ष मौनावस्था में थे। उनका आभामंडल और शिष्यवर्ग बहुत बड़ा है। स्वामीजी कुंभकोणम में संघ के प्राथमिक शिक्षा वर्ग को संबोधित करने जा रहे थे। रास्ते में मेलकोट में उनका भोजन का कार्यक्रम था। इसी भोजन में मैं भी आमंत्रित था।

मेलकोट में स्वामीजी की व्यवस्था अग्रहारा में थी। ये ‘अग्रहारा’ या ‘अग्रहारम’, दक्षिण भारत में विशेष प्रकार की व्यवस्था होती है। प्राचीन समय में, राजा या राजवंश, वेदाध्ययन करने के लिए तथा मंदिरों की चिंता करने के लिए ब्राह्मणों को जमीन देते थे और कुछ सहायता भी करते थे। इन ब्राह्मणों का कर्तव्य होता था की वैदिक परंपराओं को जीवित रखना। इसीलिए बहुत पहले इन अग्रहारम को ‘चतुर्वेदमंगलम’ कहा जाता था। इन अग्रहारम घरों में ब्राह्मण / सन्यासी / संत रुक सकते है। पूरी शुचिता और पावित्र्य के साथ उनकी व्यवस्था रखी जाती है। मूलतः ये अग्रहारम, गृहस्थ परिवार चलाते है।

मेलकोट में जिस अग्रहारम में मैं गया, वह अत्यंत साधारण सा घर था। लगभग साठ – सत्तर वर्ष पुराना तमिल घर। अंदर प्रवेश करते ही एक पवित्रता का भाव जागृत होता था। हम कुछ विलंब से पहुंचे थे, तब तक स्वामीजी का भोजन प्रारंभ हो गया था। उनके शिष्यों के साथ हम जमीन पर बैठे। आलथी – पालथी मार कर। सामने केले के पत्तों पर तमिल भोजन परोसा जा रहा था। परोसने वाली बहनों ने परंपरागत शैली से साड़ी पहनी थी। यजमान तमिल शैली से पीतांबर पहने थे। भोजन अत्यंत स्वादिष्ट था, परंपरागत तमिल पध्दति का। अनेक व्यंजन थे। पीछे बड़े सुरीले आवाज में संस्कृत के श्लोक बज रहे थे। वातावरण में पावित्र्य भरा था। बाद में स्वामीजी से आनंदमयी वार्तालाप हो रहा था।

मेरे भाग्ययोग ने मुझे यह अनुभव कराया।।!

दिनेश जी के साथ मैं फिर तंजावुर वापस आया। तंजावुर के राजा भोसलें जी का सरस्वती महल देखना था। यह महल साधारण सा है। तामझाम नहीं है। बिलकुल नाम के अनुसार ही सरस्वती का निवासस्थान है। इसे बनाया, विजयनगर के नायक काल में। तब इसे ‘सरस्वती भंडार’ कहते थे। बाद में मराठों जब तंजावुर को जीत लिया, तब स्थानिक परंपराओं को अबाधित रखते हुए, इसका स्वरूप कायम रखते हुए, विकास किया गया।

तंजावुर के भोसले यह छत्रपति शिवाजी महाराज के सौतेले भाई। यह वंश तंजावुर में ही फलता – फूलता गया। पीढ़ी – दर पीढ़ी इस वंश के राजाओं ने सरस्वती की आराधना जारी रखी। ये सभी राजा ज्ञान के उपासक और कला के प्रति समर्पित थे। विशेषतः सर्फरोजी भोसले (१७९८ – १८३२) के समय इस महल में अनेक अमूल्य वस्तुएं जमा की गई। दुनिया भर की अनेक वस्तुओं का संग्रह यहाँ है। एक-से-एक बढ़िया पेंटिंग्स है। अनेक दुर्लभ पांडुलिपियाँ है, जिनकी संख्या लाखों में है। भुर्जपत्र पर लिखी पांडुलिपियाँ। अति प्राचीन कागजों पर लिखे ग्रंथ, ताम्रपत्र, इतिहास खंगालना हो, तो यह सब देखना अनिवार्य हो जाता है। हजारों प्रकार के ग्रन्थों का संग्रह है। अनेक प्राचीन चित्र है। एक दिन में पूरा महल देखना संभव ही नहीं है।