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तीन साल, राजनीति के दल-दल में गंगा बदहाल

कहते हैं कि प्रधानमंत्री श्री मोदी जी जब बोलते हैं, तो उनकी बोली में संकल्प दिखाई देता है। गंगा को लेकर कहे उनके शब्दों को सामने रखें। स्वयं से सवाल पूछें कि गंगा को लेकर यह बात कितनी सत्य है ? गौर कीजिए कि मोदी जी ने इस संकल्प की पूर्ति के लिए जल मंत्रालय के साथ ‘गंगा पुनर्जीवन’ शब्द जोड़ा। गंगा भक्त कही जाने वाली साध्वी सुश्री उमा जी को उसका मंत्री बनाया। पांच साल के लिए 20 हज़ार करोड़ रूपये की वित्त व्यवस्था की। अनिवासी भारतीयों से आहृान किया। नमामि गंगे कोष बनाया। राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन बनाया। अस्सी घाट पर श्रमदान किया। उन्होने यह सब किया, लेकिन अपने ही लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में गंगा से मिलने वाले अस्सी नाले को निर्मल करने की कोई ठोस कोशिश आज तक नहीं कर सके। वरुणा पर कब्जे होते रहे; प्रधानमंत्री कार्यालय सोता रहा। गंगा, वाराणसी के घाटों से दूर हो रही है। उन्होने क्या किया ? प्राधिकरण का अध्यक्ष होने का बावजूद, गंगा के हुई बैठकों के लिए वक्त देना तक उन्होने ज़रूरी नहीं समझा। संभवतः उन्हे अपने से ज्यादा, अपने मंत्रियों पर भरोसा रहा हो।

मंत्रियों ने क्या किया ?

पर्यावरण मंत्री, वर्ष 2006 की पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना में बदलाव का प्रारूप ले आये। मकसद था कि अधिसूचना का उल्लंघन करने के बावजूद परियोजनायें चलती रहें। उन्हे पर्यावरण अनुपूरक योजना के साथ काम करने की छूट देने की बात की। भला नदी का भी कोई विकास कर सकता है ? चूंकि जल मंत्रालय में ’गंगा पुनर्जीवन’ के साथ-साथ ‘नदी विकास’ शब्द भी जोड़ा गया था; लिहाजा, परिवहन मंत्री नितिन गडकरी जी ने गंगा पुनर्जीवन से ज्यादा ‘नदी विकास’ के नाम पर नदी से व्यापार में रुचि दिखाई। वह भारत की सभी प्रमुख नदियों पर ड्रेजिंग, टर्मिनल निर्माण और बैराज निर्माण वाली जलमार्ग परियोजना ले आये। हल्दिया से इलाहाबाद तक गंगा पर बनने वाले राष्ट्रीय जलमार्ग संख्या – एक के लिए 37 करोड, 50 लाख डाॅलर कर्ज भी मंजूर करा लाये। बिहार शासन ने भी आगे बढ़कर अपनी छह नदियों पर जलमार्ग की सहमति दे दी: गंडक पर 37 मेगावाट, कर्मनासा पर 54, कोसी पर 58, पुनपुन पर 81 और सोन पर 94 मेगावाट। संस्कृति एवम् पर्यटन मंत्री ई नौका सजाने वाराणसी पहुंच गये। डाक मंत्री, गंगाजल बेचने की सुविधा ले आये। ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल की रुचि जल विद्युत परियोजनाओं को चलाने और बढ़ाने में हो सकती थी। उन्होने यही किया। जलविद्युत परियोजनायें पर्यावरण मानकों का पालन करें। श्री गोयल ने इसमें कोई रूचि नहीं दिखाई। पर्यावरण मानकों की अनदेखी के लिए राष्ट्रीय हरित पंचाट द्वारा टिहरी हाइड्रो डेवल्पमेंट कारपोरेशन पर ठोका 50 लाख रुपये का जुर्माना इसका प्रमाण है।

पूछने लायक प्रश्न है कि क्या इन कदमों से गंगा को कोई लाभ हुआ ? नहीं, उलटे जलमार्ग परियोजनाओं के कारण गंगा बेसिन की नदियों के मार्ग में अवरोध, गाद से कृत्रिम छेड़छाड़, परिणामस्वरूप कटान तथा कचरे का अंदेशा और बढ़ हो गया है। गौर कीजिए कि बिहार शासन को पिछले पांच साल में कटान राहत के काम में 1058 करोड़ रुपये खर्च करने पडे़ हैं। कृत्रिम ड्रेजिंग का ताजा दुष्प्रभाव यह है कि भागलपुर के बरारी घाट पर गंगा के मध्य गहराई घटी है और किनारे पर बढ़ गई है।

ज्ञान बहुत, संकल्प शून्य

सब जानते हैं कि गाद में मिलकर सीमेंट की भांति जम जाने वाला मल भी गाद के बहने में एक रूकावट ज़रूर है, लेकिन नदी मध्य थमी गाद का मूल कारण, नदी की त्रिआयामी अविरलता में पेश की गई रुकावटें ही होती हैं। क्या उन्हे हटाने की कोई कोशिश केन्द्र अथवा किसी गंगा मार्ग की किसी राज्य सरकार द्वारा हुई ? शासन यह भी जानता है कि त्रिआयामी अविरलता, प्रवाह की मात्रा तथा वेग में बढ़ोत्तरी सुनिश्चित किए बगैर निर्मलता संभव नहीं हैं। अविरलता सुनिश्चित करने के लिए तय करना ज़रूरी है कि कम से कम गंगा के मुख्य प्रवाह पर और बांध-बैराज न बनें। बन चुके बांध-बैराज सतत् इतना प्रवाह अवश्य छोड़ें, ताकि गाद की प्राकृतिक तौर पर उड़ाही प्रक्रिया और नदी की स्वयं को निर्मल करने लायक वेग बचा रहे। इसके लिए डिजायन बदलना हो, तो बदले; ढांचों को ढहाना हो, तो ढहायें। सुनिश्चित किया जाये कि बाढ़ मुक्ति अथवा परिवहन सुविधा के नाम पर गंगा के निचले तट की तरफ एक्सप्रेस-वे अथवा दिल्ली कोलकोता काॅरीडोर जैसी किसी परियोजना को मंजूर नहीं किया जायेगा; कारण कि बेहतर विकल्प कुछ और है।

प्रश्न कीजिए कि क्या तीन साल में यह हुआ ?

गंगा मंत्री बनने से पहले सुश्री उमा जी, श्रीनगर बांध परियोजना की चपेट में आये धारी देवी मंदिर को बचाने को ज़मीन-आसमान एक कर देने का ऐलान करते दिखीं। मंत्री बनते ही गंगा प्रवाह में बांध परियोजनाओं पर लगाम लगाना तो दूर, उनसे सतत् आवश्यक न्यूनतम प्रवाह भी सुनिश्चित करा सकी। उत्तराखण्ड में रेत माफिया को बढ़ावा देने की शासकीय कोशिशों के खिलाफ स्वामी शिवानंद सरस्वती अनशन पर बैठने को विवश हैं। लेकिन उमाजी, इस गंगापुत्र की गंगा हितैषी मांग के पक्ष में कहीं खड़ी नहीं दिखाई दे रही। वह नैनीताल हाईकोर्ट की सीमा में गंगा को जीवित मानव दर्जे का भी सम्मान नहीं कर रही। न्यायमूर्ति गिरधर मालवीय की अध्यक्षता में गंगा पर कानून बनाने वाली समिति को बने कितना वक्त गुजर गया। गंगा संरक्षण कानून कब बनेगा ? इसका अभी भी कुछ पता नहीं है। उमाजी ने कहा था कि अवजल शोधित हो अथवा अशोधित..उसे गंगा में नहीं जाने देंगे। गंगा, 250 से अधिक सहायक छोटी-बड़ी नदियों से मिलकर बनी नदी है।

तीन साल में गंगा तो दूर, गंगा की किसी एक छोटी सी सहायक नदी पर भी वह यह वादा पूरा करने का दावा आपने नहीं सुना होगा।


बेबस मंत्री, हावी कर्जदाता

मेरा मानना है कि उमाजी, ठीक से जानती हैं कि सिर्फ शहरों में सीवेज पाइप बिछाने, मल शोधन संयंत्र लगाने, गांव – गांव शौचालय बनाने, गंगा रक्षक बल बनाने अथवा संस्थाओं को पांच-पांच गांव की परियोजनायें बांटने से गंगा निर्मल नहीं होने वाली। उमाजी यह भी जानती हैं कि प्रवाह बढ़ाने के लिए गंगा बेसिन की हर नदी और प्राकृतिक नाले में पानी की आवक भी बढ़ानी होगी। इसके लिए गंगा खादर में बसावटों पर रोक लगानी होगी। छोटी नदियों को पुनर्जीवित करना होगा। शोधित जल – नहर में और ताज़ा पानी नदी में बहाना होगा। नदियों को सतह अथवा पाइप से नहीं, बल्कि भूगर्भ तंत्रिकाओं के माध्यम से जोड़ना होगा। जहां कोई विकल्प न हो, वहां छोडकर अन्यत्ऱ लिफ्ट कैनाल परियोजनााओं को न बोलना होगा। जलदोहन नियंत्रित करना होगा। वर्षा जल संचयन ढांचों से कब्जे हटाने होंगे। जिस फैक्टरी, व्यावसायिक उपक्रम अथवा कृषक समुदाय ने जितना और जैसा जल जिस स्त्रोत से लिया, उसे उतना और वैसा जल वापस लौटाने के कायदा बनाना होगा। कायदे की पालना सुनिश्चित करनी होगी। गंगा और इसकी सहायक नदियों में रेत खनन नियंत्रित करने से नदी की जल संग्रहण क्षमता बढ़ेगी। इससे गंगा का प्रवाह बढ़ेगा; बावजूद इस जानकारी के उमा जी का गंगा मंत्रालय ने इनमें से एक भी कदम को ज़मीन पर उतार सका है ? क्यों ? क्योंकि गंगा, अब कर्जदाता एजेसिंयों के सदस्य देशों की कमाई का एजेण्डा है। समस्या भी बनी रहे और समाधान भी चलता रहे; कर्जदाता एजेंसियों का यही एजेण्डा है। भारत में गंगा और पानी के कार्यक्रम जनता अथवा जनप्रतिनिधि के हिसाब से नहीं, कर्जदाता एजेंसियों द्वारा सौंपे प्रारूप के हिसाब से बनाये जाते हैं।

जानते हुए कि केन-बेतवा नदी जोड़ नदी गुण के विपरीत काम नहीं है; उमा जी इस जोड़ के लाभ गिना रही हैं और परियोजना को हरी झंडी देने के लिए दबाव बनाती रही हैं। इसे कर्जदाता एजेंसी का दबाव न कहें, तो क्या कहें ?? हम समझ सकते हैं कि उन पर परियोजना लागत के रूप मे आंकी गई 18,000 करोड़ रूपये की धनराशि का कितना दबाव होगा।

तीन साल में गंगा समृद्धि में कुछ भी ठोस योगदान न कर पाने की अपनी बेबसी को छिपाने के लिए उमा जी कभी राज्य सरकारों पर असहयोग का ठीकरा फोड़ती हैं और कभी आकलन का बहाना लेकर गंगा यात्रा पर निकल जाने और कभी गंगा में कूद जाने की बात कहती हैं। वह भूल जाती हैं कि गंगा को राष्ट्रीय नदी इसीलिए घोषित किया गया था, ताकि गंगा अविरलता और निर्मलता सुनिश्चित करने की मुहिम राज्य और केन्द्र के झगडे़ से फंसने से बच जाये। कहना न होगा कि जितनी उम्मीदें होती हैं, उतनी निराशा भी होती है। बीते तीन सालों में गंगा को लेकर केन्द्र सरकार को कोर्ट ने जितनी डांट पिलाई, उतना कभी नहीं हुआ। राष्ट्रीय हरित पंचाट को तो गढ़मुक्तेश्वर की गंगा परियोजना को लेकर सीबीआई जांच तक के आदेश करने पडे़। गोमती रिवर फ्रंट में घोटाले की बात लेकर योगी सरकार सामने आई है। गंगा की ज़मीनी हक़ीकत से दफ्तरी फाइलों से मिलान करेंगे, तो घोटाले कई और निकलेंगे और लपटें, गंगा मंत्रालय तक पहुंचेंगी।

राजनीति ज्यादा, आस्था कम

पहले दावा था कि अक्टूबर, 2016 तक गंगा सफाई का आंशिक असर दिखने लगेगा ; फिर वर्ष 2017 हुआ। अब 2018 तक गंगा साफ न होने पर उमाजी द्वारा गंगा में कूद पड़ने का बयान सामने आया है। आगे वर्ष 2019 होगा। 2019 का लोकसभा चुनाव आते – आते गंगा पूरी तरह निर्मल करने का दावा वर्ष खिसककर वर्ष 2022 तक पहुँच जाये, तो कोई ताज्जुब नहीं। तब तक उमा जी शायद अपना भविष्य गंगा से ज़्यादा, राम मंदिर में देखने लगें । फ़िलहाल, नीतीश जी कह रहे हैं; फरक्का बैराज तोड़ो। माननीय शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद जी कह रहे हैं; टिहरी हटाओ। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी के शिष्य प्रतिनिधि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी कह रहे हैं कि आगामी अक्तूबर में गंगा संसद करेंगे; गंगा स्वतंत्रता संग्राम छेडे़ंगे। सांसद रहते हुए योगी श्री आदित्यनाथ जी ने कभी गोरखपुर की अति प्रदूषित नदी आमी की परवाह नहीं की। मुख्यमंत्री जी बनते ही श्री योगी कह रहे हैं कि गंगा का अपमान करना राष्ट्रद्रोह है।

मैं यहां यह लिखने के लिए विवश हूं कि सब के सब राजनीति कर रहे हैं। यदि नीतीश जी राजनीति नहीं कर रहे, तो फरक्का बैराज से पहले गंगा और इसकी स्थानीय सहायक नदियों की त्रिआयामी अविरलता में बाधक स्थानीय कारणों का खत्म करें। यदि शंकराचार्य निश्चलानंद जी राजनीति नहीं कर रहे, तो जिन स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद जी का 121 दिन लंबा अनशन उन्होने यह आश्वासन देकर तुड़वाया था कि जब भाजपा की सरकार आयेगी, तो तीन माह के भीतर उनकी मांग पर विचार करेगी; उनकी मांग को लेकर अब तीन साल बाद ही सही, स्वयं शंकराचार्य निश्चलानंद जी स्वयं अनशन पर बैठें। यदि स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद जी राजनीति नहीं कर रहे, तो उन्हेे चाहिए कि वह बतायें कि तीन साल चुप क्यों रहे ? गंगा जैसी मां और राष्ट्रीय नदी में मलीन नाले अथवा अवजल डालना, गंगा का अपमान है। यदि मुख्यमंत्री योगी जी राजनीति नहीं कर रहे, तो गंगा में मलीन नाले डालने वाले स्थानीय निकायों, सबंधित समितियों, जहरीला अवजल डालने वाली फैक्टरियों तथा राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के जवाबदेह प्रमुखों पर शासन की ओर राष्ट्रद्रोह के व्यक्तिगत / संस्थागत मुक़दमे दर्ज करायें।