विस्थापन की त्रासदी

ऋषियों, मुनियों, मठों-मन्दिरों, विद्यापीठों और आध्यात्मिक केन्द्रों की भूमि कश्मीर ने एक-से-बढ़कर एक विद्वान उत्पन्न किए हैं। ये सब विद्वान पंडित कहलाए। ज्ञान रखने वाला और बाँटने वाला ‘पंडित’ कहलाता है। अतः ज्ञान की भूमि कश्मीर की जातीय पहचान ही ‘पंडित’ नाम से प्रसिद्ध हो गई। ‘कश्मीरी’ और ‘पंडित’ दोनों एकाकार होकर समानार्थी बन गए।कहना न होगा कि प्राचीन काल में कश्मीर में जिस भी धर्म,जाति,प्रजाति या संप्रदाय के लोग रहे होंगे, कालांतर में कश्मीरी हिन्दू अथवा पंडित ही धरती का स्वर्ग कहलाने वाले इस भूभाग के मूल निवासी कहलाये।

इस बीच गंगाजी और जेहलम में खूब पानी बहा। कश्मीर घाटी राजनीतिक संक्रमण और सामाजिक विघटन के भयावह दौर से कई बार गुज़री।अलग-अलग कालखंडों में इस्लामिक आतंकवाद अथवा जिहाद ने घाटी में रह रहे अल्पसंख्यक पंडितों/हिन्दुओं को बड़ी बेदर्दी से घाटी से खदेड़ा और उनके साथ तरह-तरह की ज्यादतियां कीं।बर्बरता का यह दौर हालांकि बहुत पहले से चला आ रहा था मगर परवान वह १९९० में चढ़ा।लगभग चार लाख पंडित जलावतन अथवा बेघर हुए और सैंकड़ों की संख्या में हत-आहत हुए।बलात्कार हुए,अग्निकांड हुए,लूट-मार हुयी,चल-अचल संपत्तियां हथियायी गयीं आदि-आदि।

दरअसल, १९४७ में जब देश आजाद हुआ तो जम्मू-कश्मीर के अधिकार को लेकर भारत और पकिस्तान में विवाद छिड़ गया। पाकिस्तान ने जम्मू कश्मीर को अपने अधिकार में करने की बहुत कोशिश की। लेकिन जब वह असफल रहा तो उसने घाटी पर कबाइली आक्रमण कराया और कई आतंकवादी संगठन भारत में तैयार करने लगा, जिसका बुरा प्रभाव जम्मू-कश्मीर के लोगों पर पड़ने लगा।इतिहास गवाह है कि कश्मीर में मुसलमानों का शासन आरम्भ होने के बाद वहाँ मुसलमानों की आबादी तेजी से बढ़ने लगी। परिणामस्वरूप कश्मीर को भारतीय सभ्यता, संस्कृति एवं इतिहास की अन्तर्धारा से विमुख कर उसे इस्लामी संस्कृति से जोड़ने की कोशिशें विगत पाँच सदियों से होती रही हैं।

अलगाववादी विद्रोह और इस्लामिक जिहाद के कारण 1989 में कश्मीर घाटी से पंडितों के व्यापक विस्थापन की जो पृष्ठभूमि बनी, उसके लिये कश्मीरी पंडित बिरादरी के टीका लाल तपलू, नींलकंठ गंजू, सर्वानन्द कौल ‘प्रेमी’, बालकृष्ण गंजू,गिरिजा टिक्कू आदि की जिहादियों द्वारा की गयी निर्मम हत्याएं विशेष रूप से ज़िम्मेदार रही हैं। हालांकि 1990 के आसपास और बाद के वर्षों में और भी अनेक पंडित जिहादियों की बंदूक का निशाना बने, मगर उपर्युक्त पंडितों के बलिदान ने कश्मीरी पंडितों के विस्थापन की त्रासदी को इतिहास बना दिया।

मोटे तौर पर कश्मीर घाटी से पंडितों के विस्थापन की त्रासदी की शुरुआत यहीं से होती है।इस त्रासदी का एक पक्ष और भी है। शांतिप्रिय पंडितों के विस्थापन की त्रासदी को हर स्तर पर भुनाया तो गया मगर समाधान कोई सामने नहीं आया।जिनको इस त्रासदी से फायदा उठाना था वे फायदा उठा गए,अब फट्टे में पैर कोई क्योंकर देने लगा?पंडित उग्रवादी या अतिवादी भी हो नहीं सकता क्योंकि धर्मपरायणता,सुशिक्षा और अच्छे संस्कार ही उसकी पूंजी है जो उसे अनुशासनप्रिय और शांतिप्रिय बनाती है।मगर सच्चाई यह भी है कि आज के दौर में ‘दुर्जन’की वंदना पहले और ‘सज्जन’की बाद में होती है।और फिर कश्मीरी पंडित कोई वोट-बैंक भी तो नहीं है।

प्रस्तुत पुस्तक में कश्मीरी पंडितों की घाटी से विस्थापन की व्यथा-कथा को कतिपय निबंधों के माध्यम से लिपिबद्ध करने का प्रयास किया गया है।ये सारगर्भित निबंध देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित हुए हैं और खूब सराहे गये हैं।

आशा है सुधी पाठकों को पुस्तक में संकलित निबन्धों से कश्मीर में हुयी ‘विस्थापन की त्रासदी’ को निकट से समझने का अवसर मिल जाएगा।पुस्तक शीघ्र अमेजन और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध होगी।

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DR.S.K.RAINA
(डॉ० शिबन कृष्ण रैणा)
MA(HINDI&ENGLISH)PhD
Former Fellow,IIAS,Rashtrapati Nivas,Shimla
Ex-Member,Hindi Salahkar Samiti,Ministry of Law & Justice
(Govt. of India)
SENIOR FELLOW,MINISTRY OF CULTURE
(GOVT.OF INDIA)
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