मुजफ्फर हुसैनः जीवन भर इस्लाम की कुरितियों के खिलाफ लिखते रहे 

(जन्म 20 मार्च 1940 , नीमच मध्य प्रदेश- निधन: 13 फरवरी, 2018, मुंबई।)

*अपने लेखन से सत्य को उजागर करना बहुत कठिन काम है। वो भी एक कट्टर समुदाय के बीच; पर मुजफ्फर हुसेन ने जब कलम उठाई, तो फिर बिना डरे लगातार 50 वर्ष तक इस कर्तव्य का निष्ठा से पालन किया।*

उनका जन्म 20 मार्च, 1940 को म.प्र. के नीमच नगर में हुआ था।  उनके पिताजी वैद्य थे।  बचपन से ही उनकी रुचि पढ़ने और लिखने में थी। *जब वे 15 वर्ष के थे, तो उनके शहर में सरसंघचालक श्री गुरुजी का एक कार्यक्रम था। संघ विरोधी एक अध्यापक ने कुछ छात्रों से वहां परचे बंटवाएं। मुजफ्फर हुसेन भी उनमें से एक थे। कुछ कार्यकर्ताओं ने उन्हें पकड़ लिया। *कार्यक्रम के बाद उन्हें गुरुजी के पास ले जाया गया। *मुजफ्फर हुसेन सोचते थे कि उनकी पिटाई होगी; पर गुरुजी ने उन्हें प्यार से बैठाया, खीर खिलाई और कोई कविता सुनाने को कहा। मुजफ्फर हुसेन ने रसखान के दोहे सुनाए। इस पर श्री गुरुजी ने उन्हें आशीर्वाद देकर विदा किया। इस घटना से उनका मन बदल गया।

नीमच से स्नातक होकर वे कानून पढ़ने मुंबई आये और फिर यहीं के होकर रह गये। नीमच के एक अखबार में उनका लेख ‘कितने मुसलमान’ पढ़कर म.प्र. में कार्यरत वरिष्ठ प्रचारक श्री सुदर्शनजी उनसे मिले। सुदर्शन जी के गहन अध्ययन से मुजफ्फर हुसैन बहुत प्रभावित हुए और उनके लेखन को सही दिशा मिली और वे  हिन्दुत्व और राष्ट्रीयता के पुजारी हो गये, वहां इस्लाम की कुरीतियों और कट्टरता के विरुद्ध उनकी कलम चलने लगी।*यद्यपि इससे नाराज मुसलमानों ने उन्हें धमकियां दीं; पर उन्होंने सत्य का पथ नहीं छोड़ा।

आपातकाल में वे बुलढाणा और मुंबई जेल में रहे।  लेखन ही उनकी आजीविका थी। हिन्दी, गुजराती, मराठी, उर्दू, अरबी, पश्तो आदि जानने के कारण उनके लेख इन भाषाओं के 24 पत्रों में नियमित रूप से छपते थे।  मुस्लिम जगत की हलचलों की चर्चा वे अपने लेखों में विस्तार से करते थे। प्रखर वक्ता होने के कारण विभिन्न सभा, गोष्ठी तथा विश्वविद्यालयों में उनके व्याख्यान होते रहते थे। *उनके भाषण तथ्य तथा तर्कों से भरपूर रहते थे।

वे इस्लाम के साथ ही गीता और सावरकर साहित्य के भी अध्येता थे। शाकाहार एवं गोरक्षा के पक्ष में वे कुरान एवं हदीस के उद्धरण देते थे। वे मुसलमानों से कहते थे कि कुरान को राजनीतिक ग्रंथ की तरह न पढ़ें तथा भारत में हिन्दुओं से मिलकर चलें। वे ‘देवगिरि समाचार (औरंगाबाद)’, ‘तरुण भारत’, ‘पांचजन्य (दिल्ली)’ और ‘विश्व संवाद केन्द्र’, मुंबई से लगातार जुड़े रहे।

वे मजहब के नाम पर लोगों को बांटने वालों की अच्छी खबर लेते थे। कई लोगों को लगता था कि कोई हिन्दू ही छद्म नाम से ये लेख लिखता है।

आगे चलकर सुदर्शनजी एवं इन्द्रेशजी के प्रयास से ‘मुस्लिम राष्ट्रीय मंच’ का गठन हुआ। मुजफ्फर  हुसैन की इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। वे विद्याधर गोखले की संस्था ‘राष्ट्रीय एकजुट’ में भी सक्रिय थे। समाज और देशहित के किसी काम से उन्हें परहेज नहीं था। वर्ष 2002 में उन्हें *‘पद्मश्री’* तथा 2014 में महाराष्ट्र शासन द्वारा *‘लोकमान्य तिलक सम्मान’* से अलंकृत किया गया।

उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं। इनमें _’इस्लाम एवं शाकाहार’, ‘मुस्लिम मानसिकता’, ‘मुंबई के दंगे’, ‘अल्पसंख्यकवाद के खतरे’, ‘लादेन और अफगानिस्तान’, ‘समान नागरिक संहिता’.._ आदि प्रमुख हैं। इनका कई भाषाओं में अनुवाद भी हुआ है। ‘राष्ट्रीय उर्दू काउंसिल’ के अध्यक्ष के नाते उन्होंने राष्ट्रवादी सोच के कई लेखक तैयार किये। वे मुसलमानों के बोहरा समुदाय से सम्बद्ध थे। वहां भी उन्होंने सुधार के अभियान चलाए। मुस्लिम मानस एवं समस्याओं की उन्हें गहरी समझ थी। वे स्वयं नमाज पढ़ते थे; पर जेहादी सोच के विरुद्ध थे।

13 फरवरी, 2018*को मुंबई में ही कलम के इस योद्धा का निधन हुआ।