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मेवाड़ की कला – संस्कृति को समेटे है उदयपुर का संग्रहालय

उदयपुर का संभागीय राजकीय संग्रहालय सिटी पैलेस के कर्ण विलास में स्थापित है, जिसे 1968 ई.में सज्जन निवास बाग से यहां प्रताप संग्रहालय के नाम से स्थानान्तरित किया गया था और देश की आजादी के बाद राजकीय संग्रहालय बना दिया गया। पंडित अक्षय कीर्ति व्यास और रत्नचन्द्र अग्रवाल ने पूरे क्षेत्र से शिलालेख, सिक्के, प्रतिमाएँ, कलात्मक सामग्री एवं वस्त्रों के नमूने प्राप्त करने में काफी परिश्रम किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पांडुलिपियों का अधिग्रहण किया गया। इस सामग्री सहित अन्य महत्वपूर्ण वस्तुओं को संग्रहालय की पांच दीर्घाओं के माध्यम से आकर्षक रूप से प्रदर्शित किया गया हैं।

प्रतिमा दीर्घा क्षेत्र से प्राप्त छठी शताब्दी से 18वीं शताब्दी ई. की पाषाण प्रतिमाएँ यहां प्रदर्शित की गई हैं। प्रतिमाओं को शैव , वैष्णव , जैन तथा अन्य विषयों से सम्बन्धित प्रतिमाओं में विभक्त किया गया है। जगत से प्राप्त इन्द्राणी तथा तनेसर से प्राप्त शिशु क्रीड़ा मूर्तियां छठी शताब्दी ई. की मूर्ति कला का प्रतिनिधित्व करती हैं। बान्सी क्षेत्र के रानीमल्या का जैन कुबेर और कल्याणपुर से प्राप्त घुंघराले बालों से युक्त शिव मस्तक आठवीं शताब्दी ई. की प्रमुख प्रतिमाएं हैं। कल्याणपुर से प्राप्त एक पुरूष प्रतिमा का भारी मस्तक भी इस संग्रहालय में रखा गया है। कल्याणपुर से ही त्रिनेत्र शिव प्रतिमा का एक बहुविध अलंकरण मस्तक भी प्रदर्शित है। विभिन्न स्थानों से प्राप्त नृत्यलीन वाराही , शेषशायी विष्णु, भगवान विष्णु के मत्स्यावतार एवं कच्छप अवतार प्रतिमाएँ , कमल पुष्प पर आसीन विभिन्न प्रकार के आभूषणों से अलंकृत देवी लक्ष्मी की प्रतिमा उल्लेखनीय हैं।

परेवा पत्थर की बहुत सी प्रतिमाएँ प्रदर्शित की गई हैं। इनमें चामुण्डा की एक प्रतिमा आठवीं शताब्दी की है। इसमें देवी के चार हाथ हैं, माथे पर सुंदर केश-सज्जा एवं मुकुट है। एक शिव प्रतिमा में भगवान शिव के मुखमण्डल पर प्रसन्नता विराज रही है। लाल पत्थर का एक कुबेर देखते ही बनता है, वह एक छोटे हाथी पर पालथी लगाकर बैठा है तथा उसके भारी शरीर के कारण हाथी दबा हुआ प्रतीत होता है। भगवान विष्णु की खड़ी प्रतिमा एवं शेषषायी प्रतिमा भी देखते ही बनती हैं। शेषषायी प्रतिमा में देवी लक्ष्मी भगवान के चरण चाप रही हैं। शिव-पार्वती की एक युगल प्रतिमा 10वीं-12 शताब्दी की है। साधारण लाल पत्थर से 15वीं शताब्दी में बनी कई प्रतिमाएँ इस संग्रहालय में हैं जिनमें ब्रह्माणी माता का एक पैनल, भगवान विष्णु का खड़ा विगह, दामोदर स्वरूप का विग्रह, वासुदेव स्वरूप का विगह, अनिरूद्ध स्वरूप का विग्रह, केशव स्वरूप, प्रद्युम्न स्वरूप तथा भगवान के पुरूषोतम स्वरूप के विग्रह सहित कई प्रतिमाएं प्रर्शित की गई हैं।

शिलालेख दीर्घा इस दीर्घा में मेवाड़ क्षेत्र से प्राप्त द्वितीय शताब्दी ई.पू. से 19वीं शताब्दी ईस्वी तक के शिलालेख संग्रहित हैं जो मेवाड़ क्षेत्र के इतिहास को जानने का प्रमुख साधन हैं। सबसे प्राचीन घोसुण्डी शिलालेख है जो द्वितीय शताब्दी ई.पू. का है। संस्कृत भाषा और ब्राह्मी लिपि के इस शिलालेख में संकर्षण और वासुदेव के पूजा गृह नारायण वाटिका के चारों ओर पत्थर की चारदीवारी बनाने और गजवंश के पराशरी के पुत्र सर्वतात द्वारा अष्वमेध यज्ञ करने का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त भीलवाड़ा जिले का वि.सं. 282 का नान्दसा यूप शिलालेख, छोटी सादड़ी का वि.सं. 547 का भामरमाता शिलालेख, कल्याणपुर शिलालेख एवं कुम्भलगढ़ से प्राप्त कुम्भा कालीन चार विशाल शिलालेख उल्लेखनीय हैं। इन प्रमुख शिलालेख सहित अनेक और महत्वपूर्ण शिलालेख प्रदर्शित किए गए हैं। कुछ प्राचीन ताम्रपत्र भी इस संग्रहालय में संग्रहित किए गए हैं जिन पर धार्मिक प्रयोजन हेतु ब्राह्मणों को भूमिदान दिए जाने का उल्लेख है। इसी दीर्घा में कुम्भलगढ़ से प्राप्त 16 लेखयुक्त प्रतिमाएँ प्रदर्शित हैं जिनमें ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वाराही, दामोदर, वासुदेव, केषव, माधव, मधूसूदन एवं पुरूषोतम प्रमुख हैं। एक फारसी शिलालेख भी उल्लेखनीय है जो गयासुद्दीन तुगलक के शासन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सूचना प्रदान करता है।

चित्रकला दीर्घा में लगभग आठ हजार लघु चित्र प्रदर्शित किए गए हैं जो संसार में मेवाड़ शैली का सबसे विशाल संग्रह है। इस संग्रह का अध्ययन करने के लिए देश विदेश के शोधकर्ता उदयपुर संग्रहालय आते हैं। बनेड़ा निवासी अक्षय देराश्री ने 143 लघुचित्र उदयपुर संग्रहालय को भेंट जिनमें जयपुर और मालपुरा शैली के चित्र भी प्रमुख है। संग्रहालय में सबसे प्राचीन लघुचित्र रसिकप्रिया पर आधारित हैं। महाराणा अमरसिंह ,द्वितीय (1698-1710) के काल के रसिकप्रिया के 47 चित्र संग्रहालय की अमूल्य निधि हैं। कुछ चित्र एकलिंग महात्म्य से सम्बन्धित है। कृष्ण द्वैपायन द्वारा लिखित हरिवंश के श्लोकों में आए प्रसंगों को आधार बनाकर, मध्यकाल में चित्र बनाने की परम्परा रही है। इस परम्परा के कुछ चित्र इस संग्रहालय में रखे हैं। महाभारत, कृष्णावतार चरित (भागवत), कादम्बरी, रघुवंश, रसिकप्रिया, वेलि कृष्ण रूक्मणि, मालती माथव, गीत गोविन्द, पृथ्वीराज रासो, सूरसागर, बिहारी सतसई एवं पंच-तंत्र पर आधारित लघुचित्र भी उल्लेखनीय हैं। फारसी एवं अरबी ग्रन्थों पर आधारित ’कलीला-दमना’ और ’मुल्ला दो प्याजा’ के लतीफों पर आधारित लघुचित्र भी संग्रहालय में संगृहीत है। एक चित्रित एलबम ’ दर्शनों की किताब’ के नाम से उपलब्ध है। एक एलबम में मेवाड़ के राणा उदयसिंह से महाराणा भीमसिंह .1778-1828) तक के चित्र हैं। इस एलबम में मीराबाई का चित्र भी महत्वपूर्ण है।

सांस्कृतिक दीर्घा में मेवाड़ की छपाई के वस्त्र, हाथी दाँत के कलात्मक नमूने, मेवाड़ी पगड़ियाँ, साफे, चोगा, भीलों के आभूषण, महाराणाओं के पोर्ट्रेटस,भीलों के जीवन पर आधारित आधुनिक चित्र आदि प्रदर्शित किए गए हैं। दीर्घा की सबसे मूल्यवान निधि शहजादा खुर्रम की पगड़ी है। शहजादा खुर्रम अपने पिता जहांगीर से बगावत करके दक्षिण की ओर जाते हुए कुछ दिनों के लिए उदयपुर ठहरा था। वह मेवाड़ के राणा कर्णसिंह का पगड़ी बदल भाई बना था। वहीं यादगार पगड़ी राजकीय संग्रहालय उदयपुर में संग्रहित है। हाथीदांत से बने मुग्दर, खड़ाऊं, पालकी ले जाते कहार, पानी का जहाज, चंदन से बनी खड़ाऊं, भेड़ पर आक्रमण करता शेर आदि दर्शनीय हैं। पीतल से बनी भील ज्वैलरी भी प्रदर्शित है। पीतल से बनी 13वीं सदी की महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा इतिहास की दृष्टि से बहुमूल्य है। इस प्रतिमा में देवी के चार हाथ दिखाए गए हैं। संग्रहालय में प्रदर्शित नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर की लकड़ी के माॅडल की कला देखते ही बनती है।

अस्त्र-शस्त्र दीर्घा संग्रहालय में मध्यकालीन एंव रियासती इतिहास को जानने की दृष्टि से महत्वपूर्ण अस्त्र-शस्त्र बड़ी संख्या में प्रदर्शित किये गए हैं। हथियार बनाने वालों ने कुछ हथियारों पर उनसे सम्बन्धित सूचनाएं भी अंकित की हैं। कुछ तलवारों की मूठ पर सोने का काम किया गया है। संग्रहालय में कलाई पर पहनने वाला पहुंचा, बरछी, पेशकब्ज, छुरी तथा नारजा भी दर्शनीय हैं। एक तलवार पर बांसवाड़ा के महारावल पृथ्वीसिंह का नाम अंकित है। स्टील से बने धनुष एवं बाण, बांस से बने बाण, 17वीं शताब्दी में जैसलमेर में बनी मैचलाॅक बंदूक जिस पर सोने की कोफ्तकारी का काम है, अठारहवीं शताब्दी का भीलों के काम आने वाला चमड़े का तरकश, दो सौ साल पुरानी लोेहे की गुप्ती, थ्री नाॅट थ्री राइफल, तुर्किश तोप, विभन्न रियासतों के चांदी के सिक्के, बीकानेर में बनी 18वीं सदी की लोहे की ढाल जिस पर चंद्रस का काम हुआ है तथा ताम्बे के फूलों से सजी हुई है, विभिन्न प्रकार की खुखरी, कैंची कटार, टाइगर कटार, 17वीं शताब्दी में बूंदी में निर्मित लोहे की दस्तेद्रस (दाओ) संग्रहालय में दर्शनीय हैं। संग्रहालय में 17वीं से 19 शताब्दी तक भारत में प्रयुक्त होने वाली विभिन्न प्रकार की अद्भुत कलात्मक तलवारें भी प्रदर्शित हैं। संग्रहालय में एक बाल दीर्घा भी बनाई गई है जिसमें बच्चों की रुचि की विभिन्न वस्तुओं के साथ साथ स्टफ किया गया कंगारू, बन्दर, सफेद सांभर, कस्तूरी हिरन और घड़ियाल आदि भी सजाए गए हैं। संग्रहालय सोमवार और अन्य सरकारी अधिसूचित् अवकाशों को छोड़ कर प्रातः 10.00 बजे से सांय 5.00 बजे तक दर्शकों के लिए खुला रहता है।
सिटी पैलेस संग्रहालय

सिटी पैलेस संग्रहालय में जाने के लिए महल के गणेश द्वार से प्रवेश करते हैं। यह रास्ता आगे राज्य आँगन की ओर जाता है, यहीं पर वह स्थान है जहाँ महाराणा उदयसिंह उस संत से मिले थे, जिसने उन्हें यहाँ पर शहर बनाने के लिए कहा था। महल के शस्त्र संग्रहालय में सुरक्षात्मक औजारों और हथियारों के साथ जानलेवा दो धारी तलवार के साथ अनेक अस्त्र शस्त्र, कवच,मॉडल आदि प्रदर्शित किए गए हैं। महल के कमरे शीशों, टाइलों और तस्वीरों से सजे हुए हैं। संग्रहालय में प्रवेश करते ही आप की नजर श्रीनाथजी, एकलिंगजी तथा चतुर्भुज जी के कुछ बेहतरीन चित्रों पर पड़ती है। यहाँ के सभी चित्र मेवाड़ शैली में बने हुए हैं। आंगन के एक और प्रताप कक्ष में महाराणा प्रताप के जीवन,घटनाओं, युद्धों की बड़ी बड़ी पेंटिंग्स देखते ही बनती हैं जो यह दुर्लभ संग्रह है। महलों में अनेक राजसी संग्रह देखते ही बनते हैं। महल के कृष्णा निवास में मेवाड़ शैली के चित्रों का भंडार है जो दीवारों और छतों पर बने हुए हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं व राजस्थान जनसंपर्क विभाग के सेवा निृत्त अधिकारी हैेंं)