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तीर्थयात्रा की वाल्लभसंप्रदायानुसारी ऐतिहासिक-शास्त्रीय एवं साम्प्रदायिक समीक्षा

नम: श्रीवल्लभाचार्य चरणाब्जनखेन्दवे।
कलिकल्मषघातिन्यै तद्वाण्यै च नमो नम:॥

र्तीर्थी कुर्वन्ति इति तीर्थानि, अर्थात् तीर्थ शब्द से तात्पर्य है पावन–पवित्र करनेवाला स्थान. तीर्थ दो प्रकारके होते हैं– (1) स्थावर तीर्थ, (2) जंगम तीर्थ. स्थावर तीर्थोंसे तात्पर्य है नदी, पर्वत, आदि स्थिर भौतिक स्वरूपोंका तीर्थरूप होना तथा जंगम तीर्थसे तात्पर्य है महापुरुषोंसे जो स्थिर नहीं, अपितु चलायमान व्यक्ति अथवा संपत्तिका तीर्थरूप होना. यद्यपि इस आलेखपत्रमें यात्राके हेतुसे तीर्थोंका विचार अपेक्षित होनेसे जंगमतीर्थोंका विचार प्रसक्त नहीं होनेसे स्थावर तीर्थोंके विषयमें भक्तिसंप्रदायके प्रर्वतक महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यके मतका विचार किया जाएगा. श्रीवल्लभाचार्यने तीर्थोंके अनेक पक्षोंका विचार किया है, यथा तीर्थोंका भौतिक–आध्यात्मिक एवं आधिदैविक पक्ष, तीर्थोंका मोक्षदातृत्व, सकामोपासकको प्राप्त होते फल, तीर्थोंकी पापमोचकता, भक्तिवृद्ध्यर्थ तीर्थयात्रा, भगवदीयव्यासंगप्राप्त्यर्थ यात्रा, नवधाभक्तिके अंगतया तीर्थयात्राका स्वरूप, एकांतवासार्थ तीर्थयात्रा, गृहत्यागपूर्वक आजीवन तीर्थपर्यटन आदि. इन सभी पक्षोंका विचार प्रस्तुत आलेखपत्रमें तीन बिंदुओंके अंतर्गत किया जाएगा– (1) सम्प्रदायाके पूर्वाचार्यों एवं वैष्णवोंके वृत्तांतमें प्राप्त होता तीर्थयात्राओंका ऐतिहासिक विमर्श, (2) महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य द्वारा किया गया तीर्थयात्राके शास्त्रीयपक्ष पर विचार एवं (3) सम्प्रदायके दीक्षार्थी हेतु आचार्यचरण द्वारा किये गए तीर्थयात्रा संबंधी निर्देश.

♦संप्रदायके पूर्वाचार्य एवं वैष्णवोंके चरित्रोंमें दृष्टिगोचर होता तीर्थयात्राका स्वरूप

महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य अपने प्राकट्यके हेतुका निर्देश करते हुए आज्ञा करते हैं,

श्रीमद्भागवतागम: सुरतरुर्लोके फलत्वं गतो। भाषाभेदविभेदतस्त्रयमपि स्यान्नो विरुद्धं महत्।
भक्त्यंशे फलता प्रमाणसुबले वेदत्वमर्थे पुन:। स्कन्धैर्द्वादशभिर्युत: सुरतरु: शाखाद्विवह्निद्वयम्।
अर्थं तस्य विवेचितुं न हि विभुर्वैश्‍वानराद्वाक्पते:। अन्य: तत्र विधाय मानुषतनुं मां व्यासवत् श्रीपति:।
दत्वाऽऽज्ञां च कृपावलोकनपटुर्यस्मादतोऽहं मुदा। गूढार्थं प्रकटीकरोमि बहुधा व्यासस्य विष्णो: प्रियम्॥ (भाग.सु.1।1।4-5)

अर्थात् वेदके अर्थ–तात्पर्यको प्रकट करनेके हेतुसे भगवानके ज्ञानावतार श्रीव्यासजी प्रकट हुए, उसी प्रकार जब वेदादि शास्त्रोंके निर्गलित फलस्वरूप श्रीमद्भागवतशास्त्र निरूपित दशविधलीलाओंके अर्थको प्रकट करने योग्य कोई नहीं था, तब भगवद् आज्ञासे भागवतके अर्थको प्रकट करते हुए, परब्रह्म भगवान पूर्णपुरुषोत्तम श्रीकृष्णके मुखावताररूप वाक्पति श्रीवल्लभाचार्य निर्गुण भागवतमार्गके प्रकटनार्थ वि.सं.1535की चैत्र वद एकादशीको कांकरवाड(आंध्रप्रदेश) के सोमयाजी विष्णुस्वामी संप्रदाय मतानुवर्ती तैलंग ब्राह्मणकुलके श्रीलक्ष्मणभट्टजीके पुत्रके रूपमें अवतरित हुए. प्राकट्योपरांत 11 वर्षकी आयुमें भक्तिमार्गके प्रचारार्थ एवं अपने अवतारकार्यको चरितार्थ करनेके हेतुसे आपने भगवान द्वारा वृणीत कृपापात्र दैवीजीवोंके उद्धारार्थ भारतके सभी विष्णुतीर्थोंका परिभ्रमण आरंभ किया. सर्वप्रथम आप श्रीजगन्नाथपुरी पधारे, जहां विद्वानोंकी चर्चासभामें चर्चित चार प्रश्‍न – सर्वश्रेष्ठ देव कौन? सर्वश्रेष्ठ मन्त्र कौनसा? सर्वश्रेष्ठ शास्त्र कौनसा? एवं सर्वश्रेष्ठ कर्म क्या? – का उत्तर दिया तथा संदेह निवृत्त करवानेके लिए भगवान श्रीजगन्नाथरायजीने श्रीहस्तसे लिखित श्‍लोक – एकं शास्त्रं देवकीपुत्रगीतं। एको देवो देवकीपुत्र एव। मन्त्रोप्येक: तस्य नामानि यानि। कर्माप्येकं तस्य देवस्य सेवा। प्रस्तुत करते हुए अपना विशुद्ध मत स्थापित किया. इस प्रसंगका उल्लेख आपने अपने ग्रंथ तत्त्वार्थदीपनिबंधके उपक्रममें किया है.

तदुपरांत जगन्नाथपुरीसे भगवान श्रीकृष्णकी लीलास्थली व्रजमंडल, काशी, हरिद्वार, बद्रिकाश्रम, यमनोत्री, द्वारिकापुरी, नारायणसरोवर, पंढरपुर, नाशिक, वरकला, श्रीरंगजी, आदि संपूर्ण भारतवर्षके सभी स्थानोंपर पधारते हुए 3 बार भारतभ्रमण करते हुए दैवीजीवोंको अंगीकार किया, अपने संप्रदायके मूल सिद्धांतोंका स्थापन किया, श्रीमद्भागवतके सप्तविध अर्थको प्रकट करते हुए श्रीसुबोधिनी टीका लिखी तथा विद्वत्सभाओंमें शास्त्रार्थ करते हुए मायावादका खंडन एवं साकारब्रह्मवादका स्थापन किया. काशीमें विद्वानोंके निरंतर शास्त्रार्थ हेतु आते रहनेके कारण पत्रावलंबन नामक लघुग्रंथकी रचना करते हुए काशीविश्‍वनाथ महादेवके मंदिरके मुख्य द्वारके उपर लगवाकर घोषणा की, कि जो कोई भी विद्वान शास्त्र संबंधी जिज्ञासा अथवा चर्चा करना चाहता हो, वह सर्वप्रथम पत्रावलंबन ग्रंथका अवलोकन करे तथा तदुपरांत ही शास्त्रार्थ हेतु आये. इस प्रकार श्रीवल्लभाचार्यजीके प्राप्त होते वृत्तांतोंसे ज्ञात होता है कि तीर्थोंका पर्यटन आपने प्रचलित प्रकारों तथा हेतुओंसे विपरीत मार्गस्थापन द्वारा दैवीजीवोंके उद्धारार्थ तथा पाखंड मतोंके खंडन द्वारा शुद्ध वैदिकमार्गके मंडनार्थ किया.

महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यके ज्येष्ठ पुत्र श्रीगोपीनाथजी अनेक बार श्रीजगन्नाथपुरी, व्रजमंडल आदि भगवद्स्थानोंमें पधारे एवं आपका तिरोधान भी स्वयं श्रीजगदीशमें ही हुआ. उसी प्रकार आपके द्वितीय पुत्र श्रीविठ्ठलनाथजीने प्रभुकी लीलास्थलीरूप व्रजमंडलमें ही नित्य निवास किया एवं 6 बार द्वारिकापुरी भी दैवीजीवोंके उद्धारार्थ ही पधारे. इस प्रकार मार्गस्थापनार्थ प्रकट आचार्योंके लिए तीर्थस्थान दैवीजीवोंको प्राप्त करनेका एवं शास्त्रचर्चा, विद्वानोंका संग, सिद्धांत स्थान आदि प्राप्त करनेका स्थान होनेसे तीर्थयात्राका प्रयोजन सामान्य प्रजासे भिन्न तथा विलक्षण ही प्रतीत होता है.

आचार्यचरणोंके अलावा आपश्रीके सेवकवर्गोंमें नरहरि संन्यासीने अपने बाल्यकालमें ही गृहत्याग भगवद्प्राप्तिके हेतुसे किया था तथा व्रजमंडलमें स्थित साक्षात् भगवद्रूप श्रीगोवर्धनकी तरहटीमें महाप्रभुसे मिलाप होनेपर आपके शिष्य हुए तथा आजीवन पर्यटन परायण ही रहे. उसी प्रकार अच्युतदास सनोढिया भी आपके सन्यासी शिष्य हुए. सूरदासजी, कुंभनदासजी, परमानंददासजी आदि महाप्रभुके शिष्य गृहसेवाकी अनुकूलता न होनेके कारण जतिपुरामें श्रीगिरिराजजीके निकटवर्ती स्थानोंमें ही आपकी आज्ञासे आजीवन रहे. इस प्रकार सम्प्रदायके ऐतिहासिक वृत्तांतोंसे प्राप्त होते उदाहरणोंमें पापमोचन, मोक्षप्राप्ति आदि सकाम हेतुओंसे नहीं, अपितु मार्गस्थापन, शास्त्रप्रचार, भगवदीयसंग, भगवद्व्यासंग आदि हेतुओंसे तीर्थमें किये गए निवास एवं पर्यटनका प्रकार प्राप्त होता है, जिसका अधिक विचार संप्रदायमें विहित यात्राके प्रकारोंका विचार करनेपर स्पष्ट होगा.

♦वल्लभसम्प्रदायानुसारी तीर्थयात्रा के शास्त्रीय पक्ष की समीक्षा

वैदिक, स्मार्त, पौराणिक एवं तान्त्रिक विधानोंकी परंपरामें श्रीवल्लभाचार्यानुसार पूर्व–पूर्व बलवान एवं उत्तरोत्तर गौण हैं. वैदिक नित्य–नैमित्तिक कर्माधिकारी ब्रह्मचर्य–गृहस्थ एवं वानप्रस्थ आश्रम पर्यन्त अग्निहोत्रादि कर्मोंमें प्रवृत्त होनेसे नित्य अग्निहोत्रीके लिए तीर्थाटन वर्जित एवं अनपेक्षित है. आजीवन अग्निधारण करनेका नीयम होनेसे यह साधन उसके लिए गौण भी है तथा असंभव भी. स्मार्त धर्मोंका अवलोकन करनेपर प्रायश्‍चित्तार्थ तीर्थाटनके विधान प्राप्त होते हैं. महाप्रभु व्रत–तीर्थादि आचारोंके पुराणमूलक होनेका निरूपण करते हुए आज्ञा करते हैं–

व्रततीर्थादिकं काम्यं नित्ववद् बोध्यते क्वचित्। पूर्वाचारेण सम्प्राप्तं पुराणं मूलमस्य हि॥ श्रुतिमूलत्वे ब्राह्मणानाम् अपि नित्यं कर्तव्यानि स्यु: इति काम्यम् इति उक्तम्। किन्तु वेदान् अधिकृतानां तं नित्यं भवति इति नित्यवद् बोध्यते। तस्य च मूलं पुराणम्। तथा सति स्मृतित्वं कथम्? इति चेत् तत्र आह पूर्वाचारेण सम्प्राप्तम् इति। न हि पुराणं दृष्ट्वा तस्य निर्माणं किन्तु आचारात् एव।
(तत्त्वार्थ.दी.नि.2।38)

अर्थात् व्रत तथा तीर्थादिकोंमें गमन संबंधी धर्म जो स्मृतियोंमें कहे गए हैं उन धर्मोंका मूल पुराण है. ये धर्म अग्निहोत्रीके लिए नित्य नहीं है, क्योंकि अग्निहोत्रीको अग्नि छोडकर विदेशगमन निषिद्ध है. तथा नैषां सिद्धिरनश्‍नताम् (वसिष्ट.स्मृति.6।18) इत्यादि वाक्योंमें उपवासादिका भी निषेध है. अत: ये धर्म काम्य कहे जाते हैं. परंतु वैदिक अग्निहोत्रादि कर्म जो नहीं करते हैं, उनके लिए तो ये धर्म नित्य ही हैं. अत: नित्यकर्मके समान व्रत–तीर्थादिकोंकी नित्यकर्तव्यरूपताका निरूपण किया गया है. व्रत–तीर्थादिक यदि पुराणमूलक हैं तो इनकी स्मृतिरूपता कैसे संभव है? यह शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि पुराणोंको देखक स्मृतिशास्त्र नहीं बनाए गए हैं, अपितु पूर्वकल्पके सदाचारका स्मरण करते हुए इन्हें लिखा गया है. अत: व्रत–तीर्थादि प्रतिपादक स्मृति आचारमूलिका स्मृतिविभाग है, वेदमूलिका नहीं.

पुराण एवं तन्त्रग्रंथ उपासनापरक होनेसे उपासक द्वारा वृणीत देवके स्थानोंमें जाना, वहां स्नान, पूजन, अर्चन आदि संबंधी विधान प्राप्त होते हैं. पंचदेवोपासक एवं एकदेवनिष्ठ उपासकके भेदसे तीर्थाटनके विधान प्राप्त होते हैं. तंत्रानुसारी प्रणालीमें वैष्णव, शैव, शाक्त तथा सौर्य, इन चार संप्रदायोंमेंसे दीक्षार्थी जिस किसी देवकी उपासनार्थ सम्प्रदायमें दीक्षित होता है उसके लिए अपने इष्टदेव संबंधी अर्चना, स्तोत्र–पाठ, तीर्थयात्रा, व्रतोपवास आदिका विधान किया जाता है तथा इन्हीं विधानोंके अन्तर्गत अपने इष्टदेव संबंधी तीर्थोंका पर्यटन उसके लिए उपासनाका एक अंग है तथा सकामोपासकके लिए इच्छित फलको प्राप्त करनेका एक माध्यम भी है. उपासनाके प्रकारोंके अलावा श्राद्ध, तर्पणादि क्रियाओंके लिए तीर्थस्थानोंमें जाना, चौलकर्मादि संस्कारोंके लिए तीर्थोंमें जाना एवं अन्तिमकालमें तीर्थवास, ग्रहण आदिके स्नानके लिए निकटवर्ती तीर्थोंमें स्नान हेतु जाना अथवा समुद्रको ही तीर्थरूप मानकर समुद्रस्नान करना, पर्व, संक्रान्ति आदि शुभतिथियोंमें स्नान, प्रायश्‍चित्त हेतु तीर्थयात्रा आदि नैमित्तिक कर्मोंके प्रकारोंमें भी तीर्थोंका विधान प्राप्त होता है.

सामान्य नगर, पर्वत, नदी आदिसे विशिष्ट उनके तीर्थरूप होनेका कारण उनके माहात्म्य एवं उनके आध्यात्मिक तथा आधिदैविक पक्षोंका विचार करनेपर दृष्टिगत होती है. किसी भी देशविशेषकी तीर्थरूपता किन्हीं अधिदेवके नित्य आवास अथवा पूर्वकालमें किसी प्रसंगविशेषमें देवसंबंधी किसी वृत्तांतके कारण होती है. यथा व्रजमंडलका माहात्म्य भगवान श्रीकृष्णकी लीलास्थली होनेके कारण है, बद्रीकाश्रमकी तीर्थरूपता नर–नारायणकी तपोस्थली होनेके कारण है, द्वारिकापुरी, जगन्नाथपुरी, तिरूपती बालाजी आदि स्थानोंका भी माहात्म्य पौराणिक वृत्तांत अथवा भगवानके किसी विशेष कार्यके साथ उस स्थानका संबंध होनेके कारण होती है. गंगा, यमुना, गोदावरी आदि जलरूप तीर्थ भी ऐसे ही किसी आधिदैविक संबंधके कारण पवित्र माने जाते हैं. यद्यपि पुष्टिभक्तिसंप्रदायके आद्योपासक पूर्णपुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ही हैं, तथा अन्य सभी देव, द्रव्य, देश, काल आदि भगवानके विभूतिस्वरूप ही होनेसे स्वतंत्र उपासना, तीर्थाश्रय, तीर्थसे प्राप्त होते फल आदि संप्रदायमें सिद्धान्तत: निषिद्ध हैं. महाप्रभु आज्ञा करते हैं,

सूर्यादिरूपधृक् ब्रह्मकाण्डे ज्ञानाङ्गमीर्यते। पुराणेष्वपि सर्वेषु तत्तद्रूपो हरिस्तथा॥
भजनं सर्वरूपेषु फलसिद्ध्यै तथापि तु। आदिमूर्ति: कृष्ण एव सेव्य: सायुज्यकाम्यया॥
निर्गुणा मुक्ति: अस्माद्धि सगुणा साऽन्यसेवया।

पुराणोक्तानां दुर्गा-गणपतिप्रभृतीनां विशिष्टशेषत्वम् आवरणदेवतात्वेन। तथापि भिन्नार्थत्वम् आशंक्य तत्तद्ररूपो हरिस्तथा इति उक्तम्। साधनरूप: फलरूपश्‍च स्वयमेव इति एकवाक्यता।…विभूतिरूपेषु साधनानि फलानि च व्यवस्थया कृतानि, पूर्णफलदानं च स्वस्मिन्। अत: भजनं मूलरूप एव कर्तव्यम्। भगवद्व्यतिरिक्ता: सर्व एव कालपर्यन्तं सगुणा:। कालोऽपि गुणानुरोधि इति सगुणप्राय:।
(तत्त्वार्थ.दी.नि.12-13)

अर्थात् वेदके पूर्वकाण्ड निरूपित यज्ञरूप, उत्तरकाण्ड निरूपित ब्रह्मरूप, एवं पुराण निरूपित दुर्गा, गणपति, सूर्य आदि सभी रूप भगवानकी ही विभूति हैं. इन देवोंसे प्राप्त होते फल एवं उनके साधनोंका निर्देश शास्त्रोंमें किया गया है, किंतु इन सभीसे प्राप्त होते फल एवं मुक्ति भी सगुण ही होती है क्योंकि कालपर्यन्त सभी पर्दाथ सगुण हैं, एकमात्र भगवान ही निर्गुण होनेसे उनके सायुज्यकी प्राप्ति चाहनेवाले जीवको आदिमूर्ति श्रीकृष्णका ही भजन करना चाहिए. तत्तद् देवताओंकी भक्ति एवं उपासनाके अधिकारी जीवोंको अवश्य ही शास्त्रनिरूपित साधनोंका निर्वाह करते हुए अपनी लौकिक–पारलौकिक इच्छाओंकी पूर्ति करनी चाहिए, किन्तु भगवद्भक्तिके अधिकारी जीवके लिए इनमेंसे कोइ भी प्रकार उपयुक्त नहीं है.

अत: वस्तुत: कृष्णभक्तके लिए अन्य सभी देवताओंका भजन आदि अनुपयोगी होनेसे भगवद् भक्ति व्यतिरिक्त कोई भी धर्म भगवद्भक्तको प्राप्त होते ही नहीं हैं. किन्तु शास्त्र स्वयं भगवद्वाणी होनेसे वर्णाश्रमाचारका निर्वाह भगवद्आज्ञा मानकर करनेका विधान होनेसे शास्त्र निरूपित सभी नित्य तथा नैमित्तिककर्मोंका निष्कामभावसे निर्वाह पूर्वाचार्योंने भी किया है तथा अविरुद्ध होनेपर करनेकी आज्ञा भी है, यथा महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यके छोटे पुत्र श्रीविठ्ठलनाथजी ग्रहणका स्नान करनेके लिए गंगाजीके घाट पर पधारे होनेका वृत्तांत प्राप्त होता है तथा महाप्रभुके ज्येष्ठ पुत्र श्रीगोपीनाथजी आज्ञा करते हैं, –

नान्यदेवं व्रजेद् नैव प्रसक्तौ ह्यपमानयेत्। तीर्थेषु तीर्थदेवानां भूदेवानां समर्चनम्।
(सा. दी.68)

अर्थात् यद्यपि श्रीकृष्णके अलावा किसी भी अन्य देवकी उपासना, व्रतोपवास, तीर्थयात्रा, आदि सम्प्रदायमें अन्याश्रयरूप होनेसे निषिद्ध हैं, किन्तु यदि अन्य देव संबंधी तीर्थ अथवा देवालयमें प्रसंगवश गमन हो जाए तो शिष्ट व्यवहार करते हुए तीर्थके देव तथा तीर्थपुरोहितोंका आदर अवश्य करना चाहिए. इस प्रकार विवेकपूर्वक अन्य देव संबंधी तीर्थोंके आदरका विधान किया गया है, किन्तु संकल्प पूर्वक अन्य देवोंकी उपासना एवं वैष्णवस्थानोंके अतिरिक्त अन्य स्थानोंमें किया जाता तीर्थाटन निषिद्ध है.

अगली कड़ी में पढ़िये तीर्थ यात्रा के अन्य पक्षों के बारे में…

साभार https://www.indictoday.com/ से