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विष- वैमनस्य-विश्वासघात यानि वामपंथ

केरल स्थित मल्लपुरम में माकपा ने एक ईसाई कार्यकर्ता पीटी गिल्बर्ट को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। दरअसल गिल्बर्ट ने अपनी पत्नी और बेटे के जबरन इस्लाम में कन्वर्जन का विरोध किया था और पार्टी से मदद मांगी थी। पर पार्टी को यह विरोध नागवार गुजरा और उन पर यह कार्रवाई की गई।

केरल के अलपुझा जिले में 11 वर्ष के बच्चे के 30 कबूतरों की हत्या कर दी गई। बच्चा सदमे में है। पंख नोच-नोच कर, गर्दन मरोड़ कर कबूतरों को मार डाला गया।

आप कल्पना कर सकते हैं कि 11 वर्ष के बच्चे के मस्तिष्क पर इसका क्या प्रभाव हुआ होगा! बच्चे का दोष बस इतना था कि उसके परिवार ने कोविड काल में लोगों की मदद कर रहे सेवा भारती की मदद की थी। समाज की सेवा का भाव रखने वाले, समाज के लिए सहयोग करने वाले आपस में जुड़ें और वास्तव में समाज में सकारात्मक शक्ति का संचार हो, एकजुटता की बात हो, लोग सुख-दुख में एक-दूसरे के साथ खड़े रहें, यह बात कामरेडों को कितनी नागवार गुजरती है, इसका नमूना है यह घटना। किन्तु, वामपंथ इस घटना में जितना कुरूप दिखता है, क्या वास्तव में वह इतना कुरूप है?

चलिए एक और घटना की बात करते हैं। केरल के ही पथनमथिट्टा जिले के तिरुवला तालुक में पंपा नदी के पास परुमाला नामक एक छोटा सा गांव और द्वीप है। वहां 17 सितंबर, 1996 को अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का अधिवेशन चल रहा था। अभाविप के तीन कार्यकतार्ओं अनु, सुजीत और किम को एसएफआई, सीटू और डीवाईएफआई के कार्यकतार्ओं ने घेर लिया। भीड़ ने उन तीनों को अभाविप में सक्रियता के आरोप में मार डालने की धमकी दी। यह वह भीड़ थी जो लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करती है। विरोधी विचार पर यह कितने सहिष्णु हैं, यह इस घटना से स्पष्ट होता है। मौत नजदीक देख अभाविप के वे तीनों कार्यकर्ता पंपा नदी की ओर भागे और नदी में छलांग लगा दिया। उन्होंने सोचा कि वे तैर कर सुरक्षित बच जाएंगे। परंतु एसएफआई के हृदयहीन कार्यकतार्ओं ने उन पर पथराव प्रारंभ कर दिया और तब तक किया जब तक कि वे तीनों डूब कर मर नहीं गए।

नहीं भूलना चाहिए कि जो वामपंथी लोकतंत्र और आजादी की जो बात करते हैं, उनका ही ऐलान था कि लोकतंत्र बंदूक की नली से निकलता है!
सवाल आता है कि वामपंथ का ऊपरी तौर पर उदार और भीतर घृणा-हिंसा से बजबजाता यह मॉडल कितना सफल है? ऐसा नहीं है कि दुनिया में इसके प्रयोग कम हुए हैं। चिली में, निकरागुआ में, रूस में, चीन में, वियतनाम, कंबोडिया, कई देशों में इनका प्रयोग हुआ। परंतु हैरानी कि सामाजिक संतोष के साथ विकास का कोई एक भी वामपंथी प्रयोग सफल नहीं दिखाई देता।

अपने मुंह मियां मिठ्ठू बनना, मानवता की बात करना, स्वयं अपने-आप पर उदारवादी होने का ठप्पा लगाना और यह सब करते हुए मूर्खतापूर्ण निष्ठुर निर्णय कर सब मटियामेट कर देना यह वामपंथी तानाशाही विचारधारा और व्यवस्था की पहचान है।

मुसोलिनी, स्टालिन का जब अनाज की जरूरत थी, तब अनाज निर्यात कर देना, लाखों-करोड़ों लोगों को मार देना, और क्या था! इस विचार पर टिके हर मॉडल को विफल होना ही था। सोवियत संघ के प्रधानमंत्री रहे निकिता ख्रुश्वेच के पुत्र सर्गेई ख्रुश्वेच ने एक बार कहा था कि मेरे पिता बताते तो थे कि वामपंथ क्या है, परंतु उनके बताने से लगता था कि शायद उन्हें खुद इसके विषय में पता नहीं था।

वास्तव में वामपंथ का कुल जमा सिद्धांत यही अस्पष्टता और भ्रम निर्माण की कला है। एक रक्तपिपासु नाकारा मॉडल जो आजमाया तो बहुत गया परंतु कहीं सफल नहीं हुआ, जिसने कई लोकतंत्र विनष्ट कर डाले, विविधताओं को नष्ट कर डाला, और अधिकारों के नाम पर समाजों को लड़ाना, परिवारों को लड़ाना, एक-दूसरे के विरुद्ध खड़ा करना और अंत में अपना उल्लू सीधा करना ही उसका मुख्य उद्देश्य रहा।

क्या इस बात को कोई नकार सकता है कि विश्व में आज चीन सबसे बड़ा साहूकार है। यह वामपंथ के पीछे छिपा हुआ दामपंथ ही तो है! असल में पूंजीवाद की दलाली के मुखौटे का नाम वामपंथ है। कहना होगा कि ये मार्क्सवाद नहीं, मास्कवाद है, एक उदार और विचारशील दिखने के लिए एक नकाब चढ़ा हुआ है।

कहना गलत नहीं कि वामपंथ में पूंजी का विरोध सिर्फ दिखावे के लिए है और मन में सिर्फ पूंजी की चाह है। इसीलिए वामपंथ जमीन पर उतरता है तो दामपंथ हो जाता है। आप चीन को देखें, यहां उत्पादन के साधनों पर कामरेडों का अधिकार है और जनता की हैसियत सस्ते मजदूर से ज्यादा की नहीं है। सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं और कोई बराबरी नहीं होती। आजादी, अभिव्यक्ति और लोकतंत्र की बात करने वाले कामरेड बता सकते हैं कि चीन की कुल जनसंख्या में से कितनों को मताधिकार प्राप्त है?

भारत में वामपंथ का दोमुंहापन देखना हो तो पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री रहे बुद्धदेव भट्टाचार्य का बयान महत्वपूर्ण है। उन्होंने विधानसभा में बताया था कि पश्चिम बंगाल में 22 हजार राजनीतिक हत्याएं हुईं। इसके अलावा केरल मॉडल है। सन 1948 से वहां पर एक संघ और भाजपा के कार्यकतार्ओं की हत्या का सिलसिला शुरू हुआ। पहली बार हमला 1948 में गुरुजी की सभा में हुआ। केरल में कामरेड हिंसा का शिकार बना वडिक्कल राधाकृष्णन पूंजीपति नहीं था। कोई बुर्जआ वर्ग से नहीं था। टॉफी बेचने वाला एक गरीब था। ऐसी एक नहीं, अनेक हत्याएं हुईं। हाल में केरल कांग्रेस के मुखिया के. सुधाकरन ने कोच्चि में प्रेस वार्ता में कहा कि 1969 में संघ कार्यकर्ता वडिक्कल रामकृष्णन की हत्या कथित तौर पर पिनरई विजयन ने की थी। अपनी बात को साबित करने के लिए सुधाकरन ने पुलिस रिपोर्ट की प्रति भी दिखाई। उनका कहना था कि इस मामले में तब दर्ज हुई एफआईआर में पिनरई विजयन का नाम है। केरल कांग्रेस के अध्यक्ष ने साफ कहा कि कन्नूर में वह पहली राजनीतिक हत्या थी।

अभी कुछ वर्ष पहले केरल में एक युवती जीशा की हत्या हुई। दिल्ली के निर्भया हत्याकांड से भी बर्बर, वीभत्स घटनाक्रम। किन्तु ‘लिबरल गैंग’ देवस्या के कबूतरों की गर्दनें मरोड़ने से लेकर जीशा की अंतड़ियां निकाल लेने की हर करतूत पर उदार-मासूम चुप्पी ही तो ओढ़े रहा!

ध्यान दीजिए, जो दलित की बात करते हैं, वंचित की बात करते हैं, वे केरल में जाकर चुप हो जाते हैं, यह वामपंथ का केरल मॉडल है। देवस्या के दो दर्जन कबूतरों की बात छोड़िये, पांच सौ से ज्यादा मनुष्यों को इस राज्य में मारा गया। एक स्कूल में बच्चों को पढ़ाते हुए शिक्षक को मारा गया। और यह सफाई भी दी गयी कि फासीवाद के नाश के लिए किसी भी तरह की हत्या जायज है।

‘सत्ता बंदूक की नली से निकलती है।’ ‘अपने विरोधियों को मारो और दफनाते वक्त नमक डाल दो ताकि लाशें जल्दी से जल्दी गलें।’ इस तरह की बातें करने वाले लोकतंत्र की छाती तक चढ़ आए हैं!
स्थिति यह है कि उन्माद को पोसने में वामपंथी अपने साथियों तक के लिए पत्थर हो जाते हैं, विश्वासघात करते हैं।

केरल स्थित मल्लपुरम में माकपा ने एक ईसाई कार्यकर्ता पीटी गिल्बर्ट को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। दरअसल गिल्बर्ट ने अपनी पत्नी और बेटे के जबरन इस्लाम में कन्वर्जन का विरोध किया था और पार्टी से मदद मांगी थी। पर पार्टी को यह विरोध नागवार गुजरा और उन पर यह कार्रवाई की गई।

भारत ही नहीं विश्व में हिटलर की तर्ज पर वामपंथ सबसे ज्यादा राजनीतिक हत्याएं करने वाला शासन मॉडल है। वामपंथियों की आजादी की गुहार पर झूमते युवाओं के लिए देवस्या के कबूतर या गिल्बर्ट की कहानी आंखें खोलने वाली होनी चाहियें, क्योंकि वामपंथी चाल में आंखें मूंदने वाले अपने जीवन में कितनों को अपमान और मौत की नींद सुलाएँगे, यह खुद कामरेड भी नहीं जानते!

साभार- https://www.panchjanya.com/ से