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हम बुध्द को नहीं समझ पाए

बुद्ध की तुलना में सभी महान धार्मिक गुरु बहुत छोटे पड़ जाते हैं। वे तुम्हें अपना अनुयायी बनाना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि तुम एक निश्चित अनुशासन का पालन करो, वे चाहते हैं कि तुम्हारे तौर-तरीके, तुम्हारी नैतिकता, तुम्हारी जीवन शैली एक व्यवस्थित तरीके से हो। वे तुम्हें ढालकर कर एक सुन्दर जेल की कोठरी दे देते हैं।

बुद्ध पूरी तरह से स्वतंत्रता के लिए अकेले खड़े हैं। बिना स्वतंत्रता के व्यक्ति अपने परम रहस्य को नहीं जान सकता; जंजीरों में बंधा हुआ वह आकाश में अपने पंख फैला कर उस पार की यात्रा पर नहीं जा सकता। सभी धर्म व्यक्ति को जंजीरों से बांध कर, किसी तरह लगाम लगाए हुए उन्हें अपने वास्तविक स्वरुप में रहने की इजाजत नहीं देते अपितु वे उसे एक व्यक्तित्व और मुखोटे दे देते हैं- और इसे वे धार्मिक शिक्षा का नाम दे देते हैं।

बुद्ध कोई धार्मिक शिक्षा नहीं देते। वे केवल चाहते हैं कि जो भी हो, तुम सहज रहो। यही है तुम्हारा धर्म–अपनी सहजता में जीना। किसी मनुष्य ने आज तक स्वतंत्रता से इतना प्रेम नहीं किया। किसी मनुष्य ने आज तक मानवता से इतना प्रेम नहीं किया। वो केवल इसी कारण से अनुयायियों को स्वीकार नहीं करते क्योंकि किसी को अपना अनुयायी स्वीकार करने का अर्थ है उसकी गरिमा को नष्ट करना। उन्होंने केवल सह यात्रियों को स्वीकार किया। शरीर त्यागने से पहले उनका जो अंतिम वक्तव्य था, “मैं यदि कभी दोबारा लौटा तो तुम्हारा मैत्रेय बन कर लौटूंगा।” मैत्रेय का मतलब होता है मित्र।

भारत इस सरल से कारण के लिए गौतम बुद्ध को समझ नहीं पाया : वह समझता है कि मौन बैठना, बस होना मात्र कोई मूल्य नहीं रखता। तुम्हें कुछ करना होगा, तुम्हें प्रार्थना करनी होगी, तुम्हें मन्त्रजाप करने होंगे। तुम्हें किसी मंदिर में जा कर इंसान के ही बनाये हुए भगवान की पूजा करनी होगी। “तुम शांत बैठे-बैठे क्या कर रहे हो?”

और गौतम बुद्ध का सबसे बड़ा योगदान यह है कि : तुम अपनी शाश्वतता, अपनी लौकिक सत्ता को प्राप्त कर सकते हो अगर तुम बिना किसी उद्देश्य के, बिना किसी इच्छा के, और बिना किसी लालसा के शांत बैठ सको, बस अपने होने का आनंद लेते हुए–उस खाली अंतराल में जहां सहस्त्र कमल खिल उठते हैं।

गौतम बुद्ध अपने आप में एक श्रेणी है। सिर्फ कुछ ही लोगों ने उनको समझा है। यहां तक कि उन देशों में जहां बौद्ध धर्म एक राष्ट्रीय धर्म है–थाईलैंड, जापान, ताइवान–में यह एक बौद्धिक दर्शन बन गया है। झाजेन, मनुष्य का मौलिक योगदान–मिट गया है।

शायद तुम लोग ही केवल हो जो गौतम बुद्ध के निकटतम समकालीन हो। इस मौन में, इस शून्य में, इस मन से अ-मन की छलांग में, तुम एक अलग ही शून्य में प्रवेश कर जाते हो जो कि ना बाहर का है ना ही भीतर का। बल्कि दोनों के पार है।

मेरा सन्देश है: गौतम बुद्ध को समझने की कोशिश करो। वे सबसे सुन्दर लोगों में से हैं जिन्होंने इस धरती पर कदम रखा।

ऐच.जी वेल्स, ने अपने विश्व इतिहास में एक वाक्य लिखा है जो कि स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाने योग्य है। गौतम बुद्ध के बारे में लिखते हुए वह कहता है, “शायद गौतम बुद्ध ही सिर्फ ऐसे नास्तिक व्यक्ति है जो फिर भी बहुत ईश्वर स्वरूप है।”

उस प्रकाश में, उस संबोधि, और निर्वाण के क्षण में, उन्हें किसी भगवान के दर्शन नहीं हुए। सम्पूर्ण आस्तित्व दिव्य है; वहां अलग से कोई निर्माता नहीं है। पूरा आस्तित्व ही प्रकाश से ओत-प्रोत है, चेतना से ओत-प्रोत; इसलिए कोई भगवान नहीं है वरन वहां भगवत्ता है।

यह धार्मिक जगत में एक क्रान्ति है। बुद्ध ने भगवान-रहित धर्म का निर्माण किया। पहली बार भगवान धर्म का केंद्र नहीं है। मनुष्य, धर्म का केंद्र बन गया है, और मनुष्य का अंतरतम भगवत्ता हो गया है, जिसके लिए तुम्हे कहीं नहीं जाना है–तुमने केवल बाहर जाना बंद कर दिया। कुछ क्षणों के लिए अपने भीतर रहो। धीरे-धीरे अपने केंद्र में स्थिर होते हुए। जिस दिन तुम अपने केंद्र पर स्थिर हुए कि विस्फोट हो जाता है।

तो मेरा सन्देश है: गौतम बुद्ध को समझो, ना कि बौद्ध बन जाओ। उनका अनुसरण मत करो। उस समझ को अपनी प्रज्ञा द्वारा आत्मसात करो, बल्कि उसे अपना बन जाने दो। जिस क्षण भी वो तुम्हारी अपनी हो जाती है, वह तुम्हे रूपांतरित करने लगती है। तब तक वह गौतम बुद्ध की रही है, और उसमे पच्चीस सदियों का अंतर है। तुम बुद्ध के शब्दों को दोहराये चले जा सकते हो–वे सूंदर हैं परंतु वे तुम्हें उसको पाने में मदद ना कर सकेंगे जिसकी खोज में तुम हो।

जहां तक पुराने संतों का सवाल है करुणा पर गौतम बुद्ध का जोर एक बहुत ही नई घटना थी। गौतम बुद्ध ने ध्यान को अतीत से एक ऐतिहासिक विभाजन दिया है; उनसे पहले ध्यान अपने आप में पर्याप्त था, किसी ने भी ध्यान के साथ करुणा पर जोर नहीं दिया। और उसका कारण था की ध्यान संबुद्ध बनाता है, तुम्हें खिलावट देता है, ध्यान तुम्हारे होने की चरम अभिव्यक्ति है। इससे ज़्यादा तुम्हे और क्या चाहिए? जहां तक व्यक्ति का सम्बन्ध है, ध्यान पर्याप्त है। गौतम बुद्ध की महानता इस बात में समाहित है कि तुम ध्यान करने से पहले करुणा से परिचित हो जाओ। तुम अधिक प्रेमपूर्ण, अधिक दयावान, अधिक करुणावान हो जाओ।

इसके पीछे एक छिपा हुआ विज्ञान है। इससे पहले कि व्यक्ति संबुद्ध हो यदि उसके पास एक करुणा से भरा ह्रदय हो तो संभावना बनती है कि ध्यान के उपरान्त वह दूसरों को वही सौंदर्य, वही ऊंचाई, वही उत्सव जो उसने खुद हासिल किया है, पाने में मदद कर सके। गौतम बुद्ध ने संबोद्धि को संक्रामक बना दिया है। पर यदि कोई व्यक्ति महसूस करे कि वह घर लौट आया है, तो फिर किसी और की क्या चिंता लेनी?

बुद्ध ने पहली बार आत्मज्ञान को निस्वार्थ बनाया है; उन्होंने इसे सामाजिक जिम्मेदारी बनाया है। यह एक महान परिवर्तन है। लेकिन आत्मज्ञान से पहले करुणा सीख लेनी चाहिए। यदि इसे पहले सीखा ना गया तो आत्मज्ञान के उपरान्त कुछ भी सीखने को नहीं बचता। जब कोई अपने आप में उन्माद से भर जाता है तो करुणा तक उसकी खुद की प्रसन्नता में बाधा बन जाती है -उसके उन्माद में एक प्रकार का विघ्न पड़ जाता है… इसलिए सैकड़ों आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए हैं परंतु सद्गुरु बहुत कम।

संबुद्ध हो जाने का मतलब जरूरी नहीं कि तुम सद्गुरु भी हो जाओ। सद्गुरु हो जाने का अर्थ यह के तुम मे अनंत करुणा है, और तुम अपने भीतर की उस परमशांति के सौंदर्य में अकेले जाने से शर्मिंदगी महसूस करते हो जो तुमने आत्मज्ञान द्वारा प्राप्त की है। तुम उन लोगो की मदद करना चाहते हो जो अंधे हैं, अन्धकार में हैं और अपने लिए मार्ग टटोल रहें हैं। उनकी मदद करना आनंददायी है, ना कि कोई बाधा।

असलियत में तो, जब तुम अपने आस-पास बहुत सारे लोगों को खिलते देखोगे; तो यह एक और ज्यादा समृद्ध आनंद बन जाता है; तुम एक बंजर जंगल में अकेले वृक्ष नहीं हो जो उग गया है, जहां कोई और वृक्ष नहीं उग रहा। जब तुम्हारे साथ सारा जंगल खिलता है तो आनंद हजारों गुना बढ़ जाता है; तुमने अपने आत्मज्ञान को दुनिया में क्रान्ति लाने के लिए उपयोग किया। गौतम बुद्ध केवल आत्मज्ञानी नहीं हैं, लेकिन एक आत्मज्ञानी क्रांतिकारी।

उनकी चिंता इस दुनिया के, लोगो के प्रति गहरी है। वे अपने शिष्यों को सिखाते थे की जब तुम ध्यान करो और उससे तुम्हे मौन और शान्ति मिले, तुम्हारे भीतर गहरे आनंद के बुलबुले उठने लगे तो; उसे रोको मत, उसे पुरे संसार में बांटो। और कोई चिंता ना लो, क्योंकि जितना तुम दोगे उतना ही तुम और देने के लिए सक्षम हो जाओगे। देने का भाव बहुत महत्व रखता है क्योंकि एक बार तुम्हे इस बात का पता चल जाए कि देने से तुम कुछ खोते नहीं बल्कि इसके विपरीत, यह तुम्हारे अनुभवों को कई गुना बढ़ा देता है। परंतु जिस व्यक्ति ने कभी करुणा नहीं जानी उसे देने के रहस्य का पता नहीं, उसे बांटने के रहस्य का पता नहीं।