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गाँधीजी के वारिसों ने गाँधी को क्या दिया

गांधीजी ने अपने बच्चों को सोच-समझ कर आधुनिक, पश्चिमी शिक्षा-पद्धति में नहीं डाला था। किंतु एकाध अपवाद छोड़ दें तो आज उन के अधिकांश वंशज पश्चिमी रंग में रंगे हुए हैं। उन में से कोई भी महात्मा गाँधी की अपेक्षाओं या आदर्शों पर नहीं चला।

अभी उप-राष्ट्रपति उम्मीदवार गोपालकृष्ण गाँधी को महात्मा गाँधी के पौत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है। मगर कोई तथ्य नहीं दिया गया, जिस से पता चले कि उन्होंने गाँधीजी के किसी आदर्श या विचार का पालन किया हो। गोपाल जी का जन्म गाँधीजी के रहते, ब्रिटिश भारत में ही हुआ था। किन्तु स्वतंत्र भारत के लिए गाँधीजी की आकांक्षा का कोई तत्व गोपाल गाँधी के कैरियर में नहीं मिलता। गाँधीजी का आग्रह भारतीय ज्ञान और भाषा पर था, जबकि गोपाल जी ने अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. किया।

फिर गोपाल जी आई.ए.एस. अफसर बने और जीवन भर उच्च प्रशासनिक पदों पर रहे। उन्होंने इस में कोई विशेष उपलब्धि या गाँधीजी के ‘अंतिम आदमी’ के हित विशेष की चिन्ता की हो, इस का कोई उल्लेख नहीं आया है। फिर वे यूरोपीय राजधानियों में भारतीय दूतावास के अत्यंत आरामदेह उच्च पदों पर रहे, जहाँ काम नगण्य और सुख-सुविधा, भ्रमण भरपूर होता है। वहाँ भी उन्होंने कोई कूटनीतिक विशिष्टता दिखाई हो, ऐसा विवरण नहीं दिया गया। इस प्रकार, वे जीवन भर साहब और अंत में लाट-साहब (‘गवर्नर’) रहे। इस में गाँधीजी कहाँ है?

निस्संदेह, गोपाल जी या गाँधीजी के अन्य वंशज कोई बुरे व्यक्ति नहीं हैं। सभी भले लोग हैं, किंतु गाँधी जी के जीवन और कार्य के किसी गौरवपूर्ण पक्ष से उन का कोई लेना-देना नहीं है। गाँधीजी दुःखी-पीड़ितों की प्रत्यक्ष सेवा के हामी थे। उन्होंने कृषि और ग्रामीण जीवन को भारत का आधार बनाने के लिए कहा था। उन्होंने सभी भारतीयों से अपना निजी और सामाजिक संवाद, लेखन और सार्वजनिक कार्य हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं में करने का आग्रह किया था। गाँधीजी ने सत्ता हाथ में आने पर आदेश देकर यहाँ ईसाई मिशनरियों का सारा धर्मांतरण कारोबार बंद करने की बात कही थी। अपने को सनातन हिन्दू कहते हुए उन्होंने भगवदगीता को ‘माता’ बताया था, जिस से हरेक समस्या के समाधान का मार्ग पाने में मदद मिलती है। इन में से किस चीज की गोपाल जी ने कहीं अनुशंसा भी की है? कुछ करना तो दूर रहा।

बल्कि गाँधीजी के अधिकांश वंशजों और गाँधीवादियों के भी मुख्य काम उस प्रकार के रहे हैं जिसे गाँधीजी ने न तो किया, न ही बाद में करते। जैसे, विदेशियों का मुँह जोहना तथा सनातन धर्म व भारतीय ज्ञान-परंपरा से मुँह चुराना। अपने वंशजों से तो गाँधीजी ने जो अपेक्षा की थी, उस पर वंशज मुस्कुरा देंगे, कि कोई आज के युग में ऐसी विचित्र बातें भी कर सकता है!

जिस तरह के कार्य और विचार गाँधीजी के वंशजों के हैं वह पूर्णतः नेहरूपंथ यानी यूरोपीय अनुकरण का पंथ रहा है। अर्थात्, मँहगी, यूरोपीय जीवन शैली; भाषा और विचारों में पूर्ण अंग्रेजियत; हिन्दू धर्म से यदि दुराव नहीं तो भारी दूरी; साधारण जनों को उपेक्षित कर सदैव एलीट, उच्चपदस्थ लोगों के साथ रहना; उन के साथ ही संवाद और उन की ही चिंताओं के साथ एकाकार होना; भारत के गाँवों और किसानों, उन की इच्छाओं, आवश्यकताओं को कोई महत्व न देना; आदि। अर्थात् जिन्हें गाँधीजी ने ‘भारतीय अंग्रेज’ या ‘ब्राउन साहब’ कहा था, गाँधी के अधिकांश वंशज और अनुयायी वही हो गए।

गोपालकृष्ण गाँधी की विशिष्टता में ले-देकर कुल चर्चा यह हो रही है कि उन्होंने दो वर्ष पहले आतंकवादी याकूब मेमन के मत्युदंड के विरुद्ध अपील की थी। इस की सफाई गोपाल जी यह कहकर दे रहे हैं कि वे मृत्युदंड मात्र अनुचित मानते हैं, इसलिए अपील की थी। पर उन्हें कभी मृत्युदंड-विरोधी आंदोलन के लिए नहीं जाना गया, जो एक संगठित अभियान है। गाँधीजी के पौत्र के रूप में उन्हें इस में काफी प्रसिद्धि मिलती, यदि वे इसे गंभीरता से अपनाते सक्रिय होते। फिर, यहाँ याकूब से पहले ग्राहम स्टेंस हत्याकांड के अपराधी दारा सिंह को भी मृत्युदंड की सजा सुनाई गई थी। तब गोपाल जी या उन के उन सहयोगियों – मणि शंकर अय्यर, प्रशान्त भूषण, महेश भट्ट, सीताराम यचूरी, प्रकाश करात, डी. राजा, आदि जिन्होंने याकूब के लिए अभियान चलाया था, उन्होंने दारा सिंह को मृत्युदंड न देने की कोई अपील नहीं की थी।

फिर भी, गोपाल जी के साथ न्याय करते हुए कहना चाहिए कि यही वह बिन्दु है जहाँ पर वे गाँधीजी की परंपरा पर चल रहे हैं। अर्थात् हिन्दुओं की परवाह न करना और मुस्लिम हत्यारों के प्रति भी प्रेम दिखाना। डॉ. भीमराव अंबेदकर ने आश्चर्य व्यक्त किया था कि जिस हिन्दू जनता ने गाँधीजी को महात्मा बनाया, उस के हितों को वह एक-दो मुस्लिम नेताओं की इच्छा पर भी बलिदान करने के लिए तैयार रहते थे। गाँधीजी के ऐसे कामों की लंबी सूची देते हुए डॉ. अंबेदकर ने लिखा है, ‘केवल यही सब नहीं जो गाँधीजी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता बनाने के लिए किया। उन्होंने कभी मुसलमानों को उन वृहत अपराधों का हिसाब देने के लिए नहीं कहा जो हिन्दू जनता के विरुद्ध किए जाते थे।’

कहना चाहिए कि इसी तरह गोपाल गाँधी ने कश्मीरी पंडितों की सामूहिक हत्याओं तथा अपनी प्राचीन भूमि से मार भगाए जाने की वेदना पर भी कभी कुछ नहीं किया। न कहीं वे इस्लामी आतंकवाद के पीड़ित लोगों के साथ दिखे। लेकिन नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री बनने पर उन्होंने अल्पसंख्यकों की भविष्यत् चिन्ता करते हुए एक व्यंग्य भरा खुला पत्र (19 मई 2014) अवश्य लिखा। उस में गोपाल जी ने मोदी को 69 प्रतिशत जनता का समर्थन न होने, इसलिए शासन करने का जनादेश न होने की दलील दी थी। इस से यह भी दिखता है कि गोपाल आम जन-गण से कितने कटे और एक हिन्दू-विरोधी बुद्धिजीवी वर्ग की सनक के साथ रहे हैं। उस पत्र में उन्होंने मोदी को जो खास सलाह दी थी, वह यह कि ‘अल्पसंख्यक आयोग के सारे सदस्य विपक्ष की पसंद के’ बनाएं! इतना ही नहीं, उस पत्र के सोलह पाराग्राफ में नौ पाराग्राफ केवल मुस्लिमों की चिंता में थे। मानो देश की और कोई समस्या गोपाल जी को दिखाई भी न पड़ी हो!

इसलिए, याकूब मेमन के बचाव में अपील कोई मृत्युदंड के विरुद्ध सिद्धांत का प्रश्न नहीं, बल्कि मुस्लिम चिंता का ही एक स्वभाविक अंग था। जिस गोपाल जी को दशकों से इस्लामी आतंकवाद के शिकार हिन्दुओं के लिए कभी कुछ करते या बोलते नहीं सुना गया, उन की करुणा याकूब के लिए फूट पड़ी। यह विचित्रता जरूर गाँधीजी के नक्शे-कदम पर है। पर इसे कोई गाँधी जी की गौरवपूर्ण विरासत नहीं कहता। तब गाँधीजी का नाम क्यों भुनाया जाता है? यह सब भारत की सामान्य हिन्दू जनता के साथ छल है।

साभार- https://www.nayaindia.com/ से