वो कौन हैं जो नहीं चाहते दुनिया से हथियार खत्म हो जाएं

अमेरिका में बंदूकों का समर्थन करने वाली एक तगड़ी लॉबी है जिसका नाम है नेशनल रायफ़ल एसोसिएशन। ये बड़े-बड़े गिरोह हैं जिनके पास इनता पैसा है कि इसके ज़रिये ये अमेरिकी संसद के सदस्यों तक को प्रभावित कर लेते हैं और मनचाहा क़ानून भी बना लेते हैं।

साल 1950 में हॉलीवुड में एक फ़िल्म आई थी जिसका नाम था गन क्रेज़ी। इसमें दिखाया गया है कि किस तरह से कुछ बच्चे अपने निशानेबाज़ी के शौक़ से अपराधी बन जाते हैं। उन्हें लगता है कि उनके भीतर अगर कोई एक टैलेंट है तो वो निशाना लगाना है। एक दृश्य में एक बच्चा पहले सामने रखे किसी निर्जीव सी वस्तु पर निशाना लगा रहा होता है लेकिन जब उसी वक्त उसे वहाँ पर चल रही मुर्गी का बच्चा दिखता है तो उसके मन में उसे ही निशाना बनाने का ख़याल आने लगता है और वो उसे मार भी देता है। इसके बाद वही दोस्त आपस में जंगल में बाघ का शिकार करने के लिए एक दूसरे को चैलेंज भी करते हैं। बड़े होकर वो अपने इस टैलेंट के दम पर बैंक रॉबरी भी करना शुरू कर देते हैं।

एक ऐसी दुनिया की कल्पना कर के देखिए जहाँ बंदूक़ें ही ना हों, जहां बम, बारूद, जैसी चीजें ही ना हों। टेक्सस, बर्मिंघम, मिसौरी, शिकागो, अमेरिका के तमाम शहर लगभग हर रोज़ गन वायलेंस के कारण चर्चा में रहते हैं। जब तक ये खबरें अख़बारों में होती हैं तब तक लोग गन कल्चर यानी बंदूक़ की संस्कृति पर बहस भी करते हैं लेकिन जैसे ही ये अख़बार पुराना हो जाता है, वैसे ही गन कल्चर पर लगाम लगाने की बहस भी ख़त्म हो जाती है। आप बिना बंदूक़ वाली दुनिया बसाने की बात कर रहे हैं जबकि अमेरिका में तो लोग भी बंदूक़ रखने के क़ानून को लेकर बँटे हुए हैं, कुछ लोग इन क़ानूनों को कठोर बनाने की वकालत करते हैं जबकि कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें हर हाल अपने पास बंदूक़ चाहिये।

आपने बचपन में चोर-पुलिस वाला खेल खेला होगा। इसमें चोर को पकड़ने पर पुलिस उसे ‘हैंड्सअप’ कहती है और ठाँय-ठाँय की आवाज़ कर आपने भी चोर को जरुर पकड़ा होगा। इसके बाद कई बच्चे इस बंदूक़ को हासिल करने के ख़्वाब देखने लगते हैं। यहीं से मनोवैज्ञानिक रूप से वो बच्चा चाहने लगता है कि उसके अंदर शायद बंदूक़ से शिकार करने वाला या सही निशाना लगाने वाला टैलेंट छिपा हुआ है। ये कुछ उसी तरह से है जैसे कुछ बच्चे WWE फ़ाइटिंग या रेसलिंग देखने के बाद अपने आसपास खड़े अपने दोस्तों को वैसी ही पटखनी देने की कोशिश करते रहते हैं।

अब ये बंदूक़ से हिंसा करने का चलन क्या भारत से शुरू हुआ? बिलकुल भी नहीं।

अमेरिका में लगभग 50 साल पहले वहाँ के राष्ट्रपति लिन्डन बेन्स जॉनसन ने कहा था, “अमेरिका में अपराधों में जितने लोगों की जान जाती है उनमें मुख्य वजह फ़ायरआर्म्स होते हैं, ये हथियारों को लेकर हमारी संस्कृति के लापरवाही भरे रवैये और उस विरासत का परिणाम है, जिसमें हमारे नागरिक हथियारबंद और आत्मनिर्भर रहते रहे हैं।”

आँकड़े तो कहते हैं कि जिस समाज में बन्दूकों को रखने की आजादी है वहाँ बंदूक़ से होने वाली हिंसा भी उसी स्तर पर होती हैं। यानी One is less safe if one is a gun owner। तो सारे देश मिलकर ये समझौता क्यों नहीं कर लेते कि बंदूक़ें बनानी ही बंद कर दी जाएँ? अब सवाल ये आता है कि ऐसे कौन लोग हैं जिन्हें अपने पास हथियार चाहिये होते हैं? क्या ये किसी क़िस्म का कोई मनोरोग तो नहीं है?

ऑस्ट्रेलिया की एक कहानी सुनिए। 1996 में ऑस्ट्रेलिया के तस्मानिया में मार्टिन ब्रायंट नाम के व्यक्ति ने ताबड़तोड़ गोलियां चलाकर 35 लोगों की जान ले ली थी। इस हमले में 23 लोग घायल भी हुए थे। इसके बाद वहाँ के सभी राजनैतिक दलों ने मिलकर फ़ैसला लिया कि बंदूकों पर रोक लगाई जाए। ऑस्ट्रेलिया में हथियार रखने को लेकर कठोर क़ानून भी बना दिया गया। इसका नतीजा ये हुआ कि ऑस्ट्रेलिया में आम लोगों के पास मौजूद हथियारों में तीस फ़ीसदी की कमी आ गई और ऑस्ट्रेलिया में बंदूक से मरने वालों की संख्या में 50 फ़ीसदी की कमी आ गई।

अमेरिका में बंदूकों का समर्थन करने वाली एक तगड़ी लॉबी है जिसका नाम है नेशनल रायफ़ल एसोसिएशन। ये बड़े-बड़े गिरोह हैं जिनके पास इनता पैसा है कि इसके ज़रिये ये अमेरिकी संसद के सदस्यों तक को प्रभावित कर लेते हैं और मनचाहा क़ानून भी बना लेते हैं। पिछले कई चुनावों में इस संगठन ने और उसके जैसे अन्य संगठनों ने बंदूकों पर रोक लगाने वाले गुटों की तुलना में बंदूकों के समर्थन को लेकर कहीं अधिक पैसा ख़र्च किया है। तो क्या ये लोग ऐसा अपने व्यापार को बनाए रखने के लिए करते हैं?

क्या आपको नहीं लगता है कि गन कल्चर ये इस क़िस्म की हिंसा हमारे मस्तिष्क में बिठाने में टीवी और फ़िल्मों का भी बड़ा रोल रहा है? इसके पीछे हॉलीवुड की फ़िल्मों की भी बड़ी और बेहद शातिर भूमिका है। हॉलीवुड के नामी डायरेक्टर क्विंटीन टोरेंटीनो का नाम तो पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है।

इनकी कुछ फ़िल्मों के नाम भी सुनिए – किल बिल, पल्प फिक्शन, जेंगो अनचेन्ड, रिजर्वॉयर डोग्स, इनग्लोरियस बास्टर्ड्स। इन फ़िल्मों को आप सिनेमाई तौर से अगर देखेंगे तो एकदम उत्कृष्ट नज़र आएँगी लेकिन इन सबकी थीम अगर आप देखेंगे तो सिर्फ़ और सिर्फ़ वायलेंस। बुरी तरह से दिखाए जाने वाले हिंसक दृश्य और बन्दूकों से होने वाला गैंगवार।

क्विंटीन टोरेंटीनो की कुछ फ़िल्में
हॉलीवुड की फ़िल्मों में एक और चीज आप देखिए जिसके रुझान भी अब कभी कभी अमेरिका में होने वाले अपराधों में भी दिखने लगे हैं। फ़िल्मों में ज्यादातर किसी ब्लैक यानी अश्वेत को ही गैंगस्टर दिखाया गया होगा। यानी कोई ब्लैक ही होगा जो अपराधी होगा, जो बैंक लूटता है, मर्डर करता है या जो अपराधी है।

ये कुछ कुछ उसी थ्योरी से मेल खाता है जिसे अमेरिका ने एक बार सुपर प्रीडेटर थ्योरी का नाम दिया गया था यानी ब्लैक्स को पैदाइशी अपराधी बता देना। अब जब फ़िल्मों में इन चरित्रों को इस तरह से हिंसक दिखाया जाएगा तो रोज़ाना की ज़िंदगी में लोग ख़ुद ही उन्हें नफ़रत या संदेह की नज़र से देखना शुरू कर देंगे।

अब बॉलीवुड ने हॉलीवुड से क्या सीखा? यहाँ आप लोगों ने सिनेमा के बदलते ट्रेंड में देखा होगा कि हिंसक दृश्य और भड़काऊ संवाद वाली फ़िल्मों या वेब सीरीज के चलन ने ज़ोर पकड़ा है। इसमें अनुराग कश्यप की कोई फ़िल्म उठा लीजिए या मिर्ज़ापुर जैसे वेबसीरीज। इन्हें हॉलीवुड की इन हिंसक फ़िल्मों की सस्ती नक़ल भी कहा जा सकता है।

जैसे हॉलीवुड में काऊबॉयज़ पर आधारित फ़िल्में, जो एक दूसरे से लड़ते हैं, हिंसा करते हैं और बेहद फूहड़ संवाद उनके हुआ करते हैं। वैसी ही नक़ल अब बॉलीवुड में भी करने की कोशिश की जा रही है। और आपको नहीं लगता कि इन चीजों से आजकल हमसब भी प्रभावित हो रहे हैं? हमारे संवाद में इन सीरियल्स के भद्दे संवादों के मीम्स घुस चुके हैं। हिंसा के नये नये तरीक़े लोग अब प्रयोग में ला रहे हैं। श्रद्धा वॉकर मर्डर केस में तो आरोपित ने स्वीकार भी किया था कि उसने हॉलीवुड फ़िल्म डेक्स्टर देखकर ये हत्या प्लान की थी।

इस हिंसक आइडियोलॉजी को आप वामपंथियों के उन नारों से भी तुलना कर के देखिए जो कहते हैं कि Power grows out of the barrel of a gun ‘यानी ताक़त हमेशा बंदूक़ की नली से आती है। बोलने और सुनने में ये कितने क्रांतिकारी विचार लगते हैं।

वो विचारधारा ‘वायलेंस ऑफ़ पोवर्टी’ का नाम ले कर सरकारी लोगों को मौत के घाट उतारती हैं। इन्हीं नारों से प्रभावित होकर कुछ यूजफुल इडिअट्स देशभर में दंगों को भी अंजाम देते हैं। जबकि वास्तविकता ये है कि ताकतवर लोगों और ताकतवर राष्ट्रों के पास कहानी कहने की कला होती है। वो होशियारी से अपने नैरेटिव को समाज पार थोप देते हैं। ऐसा ही हिंसा को ले कर उनका तरीक़ा है। समाज में हिंसा को किस तरह से प्लांट करना है, वो बखूबी जानते हैं। इनका शिकार वो लोग बनते हैं जो ख़ुद गरीब, वंचित और सर्वाहारा से बहुत दूर नहीं होते।

अगर यह सर्वहारा पर थोपा ना जा रहा होता तो गन वायलेंस पर स्टडी कर रहे एक्सपर्ट डेक्सटर वॉइसिन यह न कहते कि अमेरिका में पूरे शहर में हिंसा नहीं होती, बल्कि जो ग़रीबी वाले इलाक़े हैं, ज़्यादातर हत्याएं वहीं पर होती हैं। डेक्सटर यूनिवर्सिटी ऑफ़ टॉरन्टो में फ़ैकल्टी ऑफ़ सोशल वर्क में डीन हैं और वो कहते हैं कि शिकागो के पश्चिमी और दक्षिणी इलाक़ों में आप ग़रीबी और अपराध ज़्यादा पाएंगे। या जिन इलाक़ों में ब्लैक और कम आय वाले हिस्पैनिक रहते हैं, वहां हिंसा ज़्यादा होती हैं।

‘गन वायलेंस आर्काइव्स’ वेबसाइट के सबसे ताज़ा आँकड़ों के अनुसार अमेरिका में साल 2013 से दस जून 2023 तक बंदूक़ से हुई हिंसा से 18,772 मौत हुई हैं। इसमें आत्महत्या, मास शूटिंग, मास मर्डर आदि शामिल हैं।

अब इस पूरे तामझाम को अगर आप देखेंगे तो आपको आयरन मैन फ़िल्म जैसी कुछ झलक मिल रही होगी, यानी बम-बन्दूकों का निर्माण और इसकी सप्लाई समाज में किसलिए की जाती है और इसके पीछे कौन लोग होते हैं। विश्व शांति और विश्व कल्याण की बात करने वाले भारत जैसे देश में ये प्रचलन बढ़ रहा है तो उसके पीछे क्या वजह है?

हमारा मूल मंत्र तो सर्वे भवन्तु सुखिनः है। समाज को पॉल्यूट करने के लिये पहले फ़िल्मों से इनका प्रचार किया जा रहा है, फ़िल्मों से समाज में और फिर समाज से स्कूलों में और फिर किसी दिन पता चलता है कि किसी बच्चे ने स्कूल में बंदूक़ से कई लोगों को भून दिया।

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आशीष नौटियाल

साभार- https://www.thepamphlet.in/ से