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गौरक्षा एवं भक्ति हिंसक क्यों?

राजस्थान में गौरक्षा एवं संरक्षण के नाम पर जिस तरह की अमानवीय एवं हिंसक वारदात हुई है, राष्ट्रीय राजमार्ग पर खुलेआम हरियाणा के एक दुग्ध व्यापारी को स्वघोषित गोरक्षकों के एक दल ने जिस तरह से पीट-पीट कर मार डाला और उसके बेटे समेत कुछ को अधमरा कर दिया, वह न केवल स्तब्ध कर देने वाली घटना है बल्कि क्रूरता और पाखंड का एक घिनौना कृत्य है। मन को खिन्नता से भरने वाली यह एक पागलपन की घटना है, जिसे हम किसी भी सूरत में गौ-रक्षा एवं धार्मिक कृत्य नहीं मान सकते। गाय को हमारे यहां माता माना गया है और इस माता पर लम्बे समय से अत्याचार भी हो रहे हैं, लेकिन गाय पर होने वाली हिंसा को रोकने के लिए मनुष्य यदि हिंसा पर उतारू हो जाये तो उसे मानवतावादी कृत्य तो नहीं ठहराया जा सकता। गौ-रक्षा के नाम पर एक नागरिक की हत्या से समाज में उल्टा ही सन्देश गया है कि गौभक्ति के नाम पर कहीं अराजकता को जायज तो नहीं ठहराया जा रहा है? किसी भी गैरकानूनी कृत्य को राजनीतिक संरक्षण का सन्देश जब आम जनता में जाता है तो उसके दुष्परिणाम भी राजनीतिक फलक पर पड़ते ही हैं।

गौ-संरक्षण एवं गौ-भक्ति के नाम पर हिंसा एवं अत्याचार को जायज नहीं ठहराया जा सकता। इस तरह की धर्म एवं आस्था से जुड़ी भावनाओं में अहिंसा एवं मानवीयता जरूरी है। गाय का संरक्षण पूरी तरह मानवतावादी कृत्य है जिसे अमानवीय तरीके अपनाकर कदापि लागू नहीं किया जा सकता। स्वयं को गौरक्षक मानने वाले महात्मा गांधी का कहना था, ‘गौरक्षा का तरीका है उसकी रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देना। गाय की रक्षा के लिए मनुष्य की हत्या करना हिंदू धर्म और अहिंसा धर्म से विमुख होना है।’ जिस धर्म ने गाय की पूजा का प्रवर्तन किया, वह मनुष्य के निर्दय और अमानवीय बहिष्कार या हिंसा का समर्थन कैसे कर सकता है, उसको औचित्यपूर्ण कैसे ठहरा सकता है? ये ऐसे महत्वपूर्ण एवं बुनियादी प्रश्न है जो गौभक्ति एवं गौ-रक्षण की भावी दिशाएं तय करेंगे।

घटनाक्रम इस प्रकार है कि 31 मार्च को हरियाणा का दुग्ध व्यापारी पहलू खां अपने बेटे और कुछ अन्य लोगों के साथ जयपुर से दो गाय खरीद कर लौट रहा था। अलवर के पास राष्ट्रीय राजमार्ग पर कुछ युवकों ने उसके ट्रक को रोका और नाम पूछा। ट्रक ड्राइवर ने अपना नाम अर्जुन बताया जिसे कथित गोरक्षकों ने भगा दिया। पहलू खां ने गायों की खरीद के संबंध में नगर निगम के द्वारा जारी जरूरी कागजात भी दिखाए, जिन्हें हमलावरों ने फाड़ कर फेंक दिये। इसके बाद पहलू खां समेत उन लोगों की लाठी-डंडों से पिटाई की।

थोड़ी देर में पुलिस के आने पर हमलावर भाग गए, लेकिन अस्पताल पहुंच कर घायल पहलू खां की मौत हो गई। उसके बेटे समेत तीन- चार लोग अब भी बुरी तरह जख्मी हैं। मीडिया में जारी एक वीडियो में पहलू खां को सड़क पर घसीट-घसीट कर मार रहे जींस और शर्ट पहने कई युवक दिखाई दे रहे हैं। राजस्थान सरकार ने फिलहाल तीन हमलावरों को गिरफ्तार करने का दावा किया है। लेकिन असल सवाल यह है कि इस तरह की घटनाएं क्यों बढ़ रही हैं? बार-बार होने वाली ये घटनाएं शर्मसार भी कर रही है। गुजरात के ऊना में अगस्त 2016 में ऐसा ही कांड हुआ था, जब कुछ लोगों ने चार दलित भाइयों पर गोहत्या का झूठा आरोप लगा कर रस्सी से बांध कर उन्हें सरेआम पीटा था। देशभर में इस पर तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि कुछ असामाजिक तत्त्व गोरक्षा के नाम पर अपनी दुकानदारी चला रहे हैं, ऐसे लोगों के विरुद्ध कानून अपना काम करेगा। इसके एक साल पहले, सितंबर 2015 में उत्तर प्रदेश के दादरी में मोहम्मद अखलाक को घर में गोमांस रखने का आरोप लगा कर पीट-पीट कर मार डाला गया था। प्रश्न है कब तक गौरक्षा के नाम पर हिंसा का यह तांडव होता रहेगा?

अलवर की घटना से यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या प्रधानमंत्री के वक्तव्य को उनके समर्थकों ने ही गंभीरता से नहीं लिया? राजस्थान में खुद उनकी पार्टी की सरकार है। फिर भी, गोरक्षा के नाम पर अपनी दुकानदारी चलाने वाले ही नहीं, कानून का मखौल बनाने वाले भी खुलेआम सक्रिय हैं। विडम्बना तो यह है कि सरकार की दिलचस्पी इस हत्याकांड की कार्रवाई को तार्किक परिणति तक पहुंचाने के बजाय सच्चाई पर परदा डालने में दिखती है। इस स्थिति को देखते हुए राजनीति भी गर्माने लगी है। लोकसभा में कांग्रेसी सांसद मल्लिकार्जुन खरगे ने इस मुद्दे को उठाया, जिस पर गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि राजस्थान सरकार ने मामले का संज्ञान लिया है और केंद्र भी न्यायसंगत कार्रवाई करेगा। इस बीच शुक्रवार को एक याचिका के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने भी कथित गोरक्षकों के बारे में रिपोर्ट तलब की है। इस तरह एक नागरिक पहलू खां की गौ-तस्करी के शक में हत्या किया जाना निश्चित रूप से गौभक्ति की श्रेणी में नहीं आती है बल्कि सड़क पर खुली अराजकता एवं गुंडागर्दी का नमूना है। पुलिस अपनी जिम्मेदारी से इसलिए नहीं बच सकती कि एक नागरिक की हत्या केवल गौभक्ति के नाम पर कर दी गई।

देश में समय-समय पर गौहत्या के विरोध में आन्दोलन हुए हैं। 1967 में गौ-हत्या को लेकर उग्र आन्दोलन हुआ, संसद भवन को साधु-सन्तों ने घेरा था तो पुलिस ने उन पर बल प्रयोग किया था और लाठी-गोलियां भी चलाई थीं। तत्कालीन गृहमन्त्री स्व. गुलजारी लाल नन्दा को इस्तीफा देना पड़ा था। तत्कालीन इन्दिरा सरकार ने भारत की सांस्कृतिक एवं धार्मिक आस्था से जुड़े इस मसले को गंभीरता से नहीं लिया और उन्हें करारी हार का सामना करना पड़ा। क्योंकि गाय भारत की आत्मा है, जन-जन की आस्था का केन्द्र है। अनेक धर्मगुरु एवं शंकराचार्यजी गौवंश के संवर्धन के लिए जीवनपर्यन्त समर्पित रहे और उन्होंने देश के विभिन्न स्थानों पर गौशालाएं व गोचर भूमि सृजन के लिए प्रयास किये। लेकिन वर्तमान में गाय भी राजनीति की शिकार हो गयी है। यही कारण है कि गौ के संरक्षण एवं गौ-उत्पाद को प्रोत्साहन देने की बजाय ऐसी सेनाएं तैयार हो रही है, जो अलवर जैसी घटनाओं को अंजाम देती है। यह अपेक्षित है कि गौमांस का किसी भी रूप में वैध बूचडखानों तक में नामोनिशान न हो। गौवंश का कारोबार केवल दूध व डेयरी उत्पादन के लिए ही हो। हमें नहीं भूलना चाहिए कि दुग्ध उत्पादन से लेकर डेयरी उद्योग के विभिन्न कार्यों में मुसलमान नागरिक बहुतायत में लगे हुए हैं और उनकी रोजी-रोटी इसी से चलती है।

कानून का पालन करना इनका भी पहला धर्म है और गौवंश की रक्षा करने में इन्हें भी अपना योगदान देना होगा और भारत के सुदूर गांवों में कुछ अपवादों को छोड़ कर मुस्लिम नागरिक अपना यह कत्र्तव्य निभाते भी हैं। आज राजनीतिक सोच बदल रही है, मतदाता भी बदल रहा है, सब कोई विकास चाहते हैं। पुरानी मान्यताएं बदल रही हंै, यही कारण है कि मुस्लिम औरतें उत्तर प्रदेश में भाजपा को वोट डाल कर एक नयी परम्परा का सूत्रपात कर रही है। हमें भारत को जोड़ना है, हिन्दू-मुसलमान का भेद समाप्त करना है, और इसके लिये जरूरी है कि कोई पहलू खां अब हिंसा का शिकार न हो। क्योंकि इस तरह की हिंसा का प्रयोग आत्म विनाशकारी ही साबित हो सकता है और नया भारत बनने की सबसे बड़ी बाधा बन सकता है।

गाय को लेकर राष्ट्रीय मुख्यधारा को बनाने व सतत प्रवाहित की जरूरत है। ऐसा करने में और करोड़ांे को उसमें जोड़ने में अनेक महापुरुषों-संतों ने खून-पसीना बहाकर इतिहास लिखा है। क्योंकि इस तरह की मुख्यधारा न तो आयात होती है, न निर्यात। और न ही इसकी परिभाषा किसी शास्त्र में लिखी हुई है। हम देश, काल, स्थिति एवं राष्ट्रहित को देखकर बनती हैं, जिसमें हमारी संस्कृति, विरासत सांस ले सके। इसे हमें कलंकित नहीं होने देना है।
प्रेषकः

(ललित गर्ग)
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