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राष्ट्रीयकृत बैंकों का निजीकरण क्यों ज़रूरी है

इन दिनों राष्ट्रीयकृत बैंकों के निजीकरण की सुगबुगाहट है , सोशल मीडिया पर अचानक हज़ारों लाखों लोग इस निजीकरण के पक्ष में निकल पड़े हैं , जो राष्ट्रीयकृत बैंकों के बढ़े एनपीए , कार्यकुशलता में कमी , अक्षमता और कर्मचारियों के कामकाज को लेकर गम्भीर प्रश्न चिन्ह खड़े कर रहे हैं .

हो सकता है जिस समय बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया था उसके पीछे राजनीतिक निहितार्थ भी रहा हो लेकिन इसके कारण पूरा देश , ख़ास तौर पर दूर दराज के क्षेत्र बैंकिंग की मुख्यधारा से जुड़े, बैंक लोन छोटे छोटे व्यवसायियों, कारख़ानेदार, कृषकों तक भी पहुँचे जिससे देश का अर्थतंत्र मजबूत हुआ . उससे पहले लोन केवल बड़े शहरों में कार्यरत गिने चुने बड़े व्यवसायियों तक ही पहुँचते थे . बैंक के मालिकान इनके माध्यम से केवल आपस के व्यावसायिक हितों को ही साधते थे , कर्मचारी नियम क़ायदे क़ानून नहीं केवल और केवल मालिकों के हित के लिए ही काम करते थे . राष्ट्रीयकरण ने बैंकों की पारदर्शिता को बढ़ाया. यदि राष्ट्रीयकृत बैंकों के एनपीए की बात करें तो उसमें निजी क्षेत्र के शीर्ष व्यवसायियों का प्रतिशत बहुत ऊपर है .

राष्ट्रीयकृत बैंकों के कर्मचारियों को बहुत गरियाया जाता है लेकिन जब भी चुनाव से ले कर सरकारी सेवाओं के पारदर्शी और ईमानदार कार्यान्वयन की चुनौती आती है इन्ही बैंक कर्मचारियों की सेवाएँ ली जाती हैं . निजी क्षेत्र के बैंकों की कुशलता का ताज़ा प्रमाण पंजाब महाराष्ट्र बैंक और यस बैंकों के घोटाले हैं जिससे एक बैंक तो लाखों खाताधारकों का पैसा लेकर डूब ही गया, दूसरे को स्टेट बैंक के वेंटिलेटर से बचाया गया . एक अन्य बड़े निजी बैंक आइसीआइसी बैंक की पूर्व चेयरपर्सन के क़िस्से बैंकिंग स्पेस में तैर रहे हैं .

जब देश स्वतंत्र हुआ था तो मिश्रित अर्थ व्यवस्था की वकालत की गयी थी ताकि कोई भी तंत्र अर्थव्यवस्था पर हावी न हो पाए और स्वस्थ्य प्रतियोगिता का लाभ जनता को मिले , लेकिन निजी क्षेत्र के दबाव में सार्वजनिक क्षेत्र के प्रतिष्ठानों को फेल होने दिया गया है ताकि उनकी सम्पत्तियाँ कोड़ियों के नीलाम की जा सकें.

आख़िरी प्रश्न निजीकरण की नीयत के साथ ही उस पैसे के बारे में भी है जो निजीकरण के लिए चाहिए. अर्थव्यवस्था की बाट लगी है , व्यवसाय चल नहीं रहे तो उद्योगपति पैसा कहाँ से लाएँगे , याद रखिएगा आपका और मेरा पैसा ही इस निजीकरण में काम आएगा .

(लेखक स्टेट बैंक में वरिष्ठ अधिकारी रहे हैं और सामाजिक रुचि के विषयों पर निरंतर लेखन करते हैं)