विधवा हूं विष नहीं

(अंतर्राष्ट्रीय विधवा दिवस 23 जून पर )

नारी के रूप अनेक,
सौंदर्य की प्रतिमूर्ति वो कहलाती,
सोलह श्रृंगार से वो खुद को सजाती,
सुहागन का दर्जा वो पाती।

खनकती चूड़ियां जब चटक जाती हैं,
हंसती आंखें पल-पल नीर बहाती हैं,
सिंदूर की लालिमा जब मिट जाती है,
समाज की निष्ठुरता सामने आ जाती है।

प्रहर-दर-प्रहर उपहास का सामना करती,
दुख ,शोक ,विषाद का गहना पहन,
स्वयं के अस्तित्व को तलाशती है।

धार धवल चीर,उजरा श्रृंगार,
विधवा का दंश सीने में घोंपती है,
जिस्मानी नहीं रूहानी प्रेम की हकदार बनती है।

देख दारुण दशा उसकी,
दया किसी को ना आती है,
सांत्वना के लिबास में,
मनहूसियत की बू नजर आती है।

ऐ!नारी,
तुम हर रूप में,
महान् थी,
महान् हो,
महान् रहोगी।
इस रूप को नियति का खेल ना समझना,
जीवन का ईक पड़ाव मानना।
बुलंद हौंसले, बुलंद हंसी से,
नए पड़ाव की मालकिन बनना।

जब समाज तुम्हारे हक़ के लिए नहीं लड़ सकता,
स्वयं तुम हक छीनने की हकदार बनना,
जीवन बगिया में महकता प्रसून बनना।

“अंतरराष्ट्रीय विधवा दिवस” मनाने से क्या होगा??
तुम खुद अपनी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचां बनाना।

सूनी राहों पर जब-
साया भी साथ छोड़ जाए-
ना डरना,ना टूटना, ना बिखरना,
मां दुर्गा कि नवरूप तुम,
रणचंडी का रूप भी दिखा देना।

ताना मारने वालों के मुंह की तुरपाई कर,
अपने जीवन की उधड़न भी सी लेना,
विश्वास,सम्बल,आत्मसम्मान को ढाल बना,
इस संकुचित मानव समाज में,
विधवा-जीवन की नई इबारत लिख देना।।

शिखा अग्रवाल
1 f 6, ओल्ड हाउसिंग बोर्ड,
शास्त्री नगर, भीलवाड़ा – राजस्थान