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चीन, पाक और ईरान की खुशियां मातम में बदलेगी ?

अफगानिस्तान के 85 % भाग पर तालिबान का कब्जा हो गया है, ऐसा दावा खुद तालिबान कर रहा है, जबकि अफगानिस्तान की सरकार ने तालिबान के इस दावे का खंडन किया है और कहा है कि हमारे सैनिक तालिबान को नियंत्रित करने और शांति प्रिय नागरिकों को सुरक्षा देने में सक्षम है , अफगानिस्तान के नागरिक किसी भी स्थिति में तालिबान की उपस्थिति को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है,व क्योंकि तालिबान की अराजकता और विध्वंस की बर्बर मजहबी हिंसा के दौर से परिचित रहे हैं । जहां तक नागरिकों के समर्थन की बात है तो अफगानिस्तान की वर्तमान सरकार का कथन गलत नहीं है , अफगानिस्तान के नागरिक काफी डरे हुए हैं, उन्हें अपने भविष्य की चिंता सता रही है, बच्चों की शिक्षा एवं रोजगार की चिंता उन्हें सता रही है । नागरिकों की बड़ी बड़ी दुकानें हिंसा के बल पर बंद कराने के खतरे उत्पन्न हो गए हैं। इसलिए नागरिकों के बीच में तालिबान की वापसी के खिलाफ चेतना भी आई है , नागरिक संगठन अफगानिस्तानी सैनिकों की मदद के लिए आगे आए हुए हैं ,रसद और अन्य जरूरी संसाधन उपलब्ध कराए जा रहे हैं, खासकर महिलाएं तालिबान के खिलाफ हथियार उठा रही हैं।

अफगानिस्तान के 85 % भूभाग पर तालिबान के कब्जे के दावे पर विवाद हो सकता है, तालिबान के दावे को बढ़ा चढ़ाकर प्रस्तुत करने वाला बयान माना जा सकता है पर यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि तालिबान पहले से अधिक ताकतवर और हिंसक रूप में उपस्थित है, तालिबान के हिंसक आतंकवादी अफगानिस्तानी सैनिकों पर भारी पड़ रहे हैं। अफगानिस्तान के सैनिक तालिबान के छापामार युद्ध में पराजित हो रहे हैं और अपनी जान गवा रहे हैं पर आमने सामने की लड़ाई में अभी भी तालिबान कमजोर है और अफगानिस्तान के सैनिक तालिबान पर भारी पड़ रहे है। दुर्भाग्य है कि अफगानिस्तान की विभिन्न सरकारें अपने सैनिकों को अंतरराष्ट्रीय मापदंड की कसौटी पर प्रशिक्षित करने में सफल नहीं रही थी, अफगानिस्तान की सरकारें अमेरिका को अपना गुलाम मान कर चली थी और यह स्वीकार कर ली थी कि सिर्फ अमेरिका की जिम्मेदारी तालिबान को रोकने और नियंत्रित करने की है।

जब सब कुछ निशुल्क और बिना परिश्रम मिलता , उपलब्ध होता रहता है तो फिर अपने पैरों पर खड़ा होने की आदत छूट जाती है, सिर्फ बातें कर समय बर्बाद कर दिए जाते हैं। अफगानिस्तान की विभिन्न सरकारें अगर चाहती तो फिर सैनिक तंत्र का मजबूत ढांचा बन सकता था जो तालिबान ही नहीं बल्कि पाकिस्तान प्रशिक्षित आतंकवादियों को काबू में रखने की वीरता दिखा सकता था । अमेरिका जापान यूरोप और भारत से मिली आर्थिक सहायता का दुरुपयोग हुआ, फिजूलखर्ची हुई , रोब को जमाने का कार्य हुए। अगर भारत ने अपने संसाधनों के बल पर अफगानिस्तान की पुलिस और सैनिक तंत्र को प्रशिक्षित एवं विकसित नहीं किया होता तो फिर अफगानिस्तान की पुलिस और सैनिक तंत्र किसी काम के भी नहीं होते।

तालिबान की शक्ति क्यों बड़ी हुई, तालिबान सत्ता लूटने के नजदीक क्यों पहुंच गए? दरअसल इसके पीछे तालिबान के साथ शांति वार्ता का सिद्धांत और अमेरिका की वापसी है । तालिबान के साथ शांति वार्ता कोई आज नहीं बल्कि 5 साल से चल रही है। डोनाल्ड ट्रंप ने शांति वार्ता को गति दी थी। ट्रंप ने अफगानिस्तान से निकलने की प्रतिबद्धता जताई थी। अफगानिस्तान सरकार, अमेरिका ,पाकिस्तान और तालिबान के बीच में शांति वार्ताएं चली। कतर में तालिबान का राजनीतिक कार्यालय खुला। कतर में तालिबान का राजनीतिक कार्यालय खुलने से तालिबान को एकाएक बहुत लाभ हुए, अंतरराष्ट्रीय मान्यताएं उसे मिल गई ।अरब के कट्टरपंथियों और यूरोप के मुस्लिम संगठनों से तालिबान के ऊपर धन की वर्षा होने लगी। धन की बहुलता से हथियारों की कमी दूर हुई, नए हथियार मिले । शांति वार्ता के कारण अमेरिकी और अफगानिस्तान सैनिकों को शिथिल कर दिया गया, उनके हाथ बांध दिए गए, इस दौरान तालिबान ने अपने आप को मजबूत करने और हथियारों से लैस करने में लगाया।

अंतरराष्ट्रीय जगत में यह खोजा जा रहा है कि अफगानिस्तान में अमेरिका क्या सफल रहा, क्या अमेरिका अफगानिस्तान में अपना ही नुकसान किया है, अमेरिका की वापसी के बाद तालिबान कितने दिनों के अंदर सत्ता पर काबिज होगी? इन सभी प्रश्नों पर राय कोई एक नहीं हो सकती, राय अलग-अलग हो सकती है। कट्टरपंथी इस्लामी मजहबी शासन के समर्थक, पाकिस्तान के आतंकवादी संगठन, अरबी दुनिया के मुस्लिम मानसिकता से ग्रसित लोगों तथा अमेरिकी विरोधी व मुस्लिम कट्टरता के समर्थक कम्युनिस्ट जमात की राय एक समान हो सकती है , उनकी राय में अमेरिका पराजित हुआ ,अमेरिका अपमानजनक स्थिति में अपना अभियान छोड़कर भाग गया, जैसी हो सकती है। ऐसे लोग पहले दिन से ही अमेरिका की विफलता को लेकर हाय तौबा मचाते रहे थे।

स्वतंत्र आकलन क्या हो सकता है? स्वतंत्र आकलन यह है कि अमेरिका का अभियान सफल रहा है, अमेरिका अफगानिस्तान में अपने लक्षित लक्ष्यों को प्राप्त करने में जरूर सफल रहा है। क्या कोई इस बात से , इस तथ्य से इंकार कर सकता है कि उसने कोई एक या दो साल नहीं बल्कि पूरे 20 सालों तक अफगानिस्तान में तालिबान को नियंत्रित किया ,तालिबान को कभी भी आमने सामने की लड़ाई करने हिम्मत तक नहीं हुई । अफगानिस्तान में बैठकर अमेरिका ने न केवल तालिबान बल्कि पाकिस्तान को भी नियंत्रित किया। पाकिस्तान के आतंकवादी संगठनों के साथ ही साथ पाकिस्तान के आतंकवादी नीति की भी गर्दन दबा कर रखी।

अमेरिका ने अलकायदा के हमले के बाद लक्ष्य क्या-क्या निर्धारित किए थे? उसके दो प्रमुख लक्ष्य थे। लक्ष्य था अलकायदा के हमलावरों को पकड़कर सजा देना , अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को मौत के घाट उतारना ,हमले के लिए सहायता करने वाली तालिबान सरकार को अस्तित्व विहीन करना और तालिबान के सरगना मुल्लाह उमर को मौत का घाट उतारना । मुल्ला उमर ओसामा बिन लादेन का ससुर था। ओसामा बिन लादेन ही अपने ससुर मुल्ला उमर को तालिबान सरकार का प्रमुख बनवाया था। तालिबान ने बहुत ही पेतरे बाजी दिखाई थी ,पूरी दुनिया के मुस्लिमों का नेता बनने का कोशिश की थी । उसकी समझ थी कि अमेरिका के खिलाफ पूरी दुनिया के मुस्लिम आबादी विद्रोह कर देगी और इस प्रकार अमेरिका खुद पराजित हो जाएगा । पर खुद तालिबान के आका पाकिस्तान अमेरिका का गुलाम बन गया। तालिबान बिना लड़े और बिना प्रतिशोध के ही काबुल छोड़कर भाग गए । तालिबान इतने डरपोक और गीदड़ निकले की उसने अमेरिकी सैनिकों का सामना करने की हिम्मत तक नहीं जुटाई थी।

अगर तालिबान अफगानिस्तान पर कब्जा करने में भी सफल हो जाता है तो भी अमेरिका को बहुत ज्यादा परेशानी नहीं होगी।अमेरिका आसानी से तालिबान को नियंत्रित कर सकता है ।। अगर तालिबान अमेरिका के खिलाफ कोई बड़ी घटना को अंजाम दिया तो फिर उसकी दुर्गति निश्चित होगी। अमेरिका अपने मिसाइल हमलों से तालिबान सरकार में बैठे लोगों को मौत का घाट उतार सकता है।

तालिबान का सरगना मुल्ला उमर खुद बीमारी का शिकार होकर मारा गया । ओसामा बिन लादेन का हस्र भी जगजाहिर है। अमेरिका ने पाकिस्तान के घर में घुसकर ओसामा बिन लादेन को मार गिराया। इस प्रकार अमेरिका के सभी लक्ष्य पूरे हो गए थे ।अमेरिका तो अनंत काल तक अफगानिस्तान में रहने या फिर अफगानिस्तान में शासन करने के लिए आया नहीं था। इसके अलावा अमेरिका सुरक्षा की कमजोरियां दुरुस्त हो चुकी हैं। अब मुस्लिम आतंकवादी हिंसा करने के पूर्व ही पकड़ लिए जाते हैं । यही कारण है कि 9/ 11 की बड़ी घटना के बाद और कोई बड़ी आतंकवादी घटना नहीं हुई।

खासकर तीन पड़ोसी देश चीन पाकिस्तान और ईरान अमेरिकी सैनिकों की वापसी तथा कथित तौर पर अमेरिका की विफलता मानकर खुशियां मना रहे हैं और अपनी अपनी पीठ थपथपा रहे हैं । चीन पाकिस्तान ,ईरान की खुशियां मातम में तब्दील हो सकती है ,उनकी खुद खुशियां आत्मघाती साबित हो सकती हैं। वह कैसे ? तालिबान कोई शांति और सद्भाव के प्रति समर्पित नहीं है , उसका समर्पण इस्लाम की रूढ़ियों, इस्लाम की घोर बुराइयों और इस्लाम के अंदर कट्टर हिंसक काफिर मानसिकता के प्रति है। अभी-अभी तालिबान ने कहा है कि वह इस्लाम के प्रति समर्पित है, इस्लाम की प्रतिबद्धता से एक भी पीछे हटने वाला नहीं है। इसलिए जब फिर से तालिबान की सरकार स्थापित होगी तो फिर अफगानिस्तान में स्थापित पहली तालिबानी सरकार की ही पुनरावृति होगी।

चीन के झिंनजियांग प्रदेश में अलग मुस्लिम देश की मांग को लेकर हिंसक आंदोलन चल रहा है । तालिबान के आतंकवादी चीन में बैठकर उरीगर मुस्लिम आबादी के साथ लड़ सकते हैं। चीन पाकिस्तान में आर्थिक गलियारा बना रहा है, जिसके खिलाफ जन विद्रोह जारी है। पाकिस्तान में तालिबानी आतंकवादी घुसपैठ कर पाकिस्तान को और भी हिंसक खतरनाक देश के रूप में तब्दील कर सकते हैं। तालिबान एक सुन्नी इस्लामिक आतंकवादी संगठन है, ईरान में शिया मुसलमानों के वर्चस्व के खिलाफ सुन्नी मुसलमानों का आतंकवाद जारी है, तालिबान के आतंकवादी ईरान में घुसकर शिया सुन्नी संघर्ष को और भी हिंसक, खतरनाक और अमानवीय बना सकते हैं।

इस्लामिक आतंकवादी मानसिकता से ही हिंसक होते हैं, हिंसा के सहचर होते हैं । इस्लाम के प्रतिबद्धताओं को लेकर हिंसा फैलाना वे अपना इस्लामिक कर्तव्य समझते हैं । तालिबान के पास 75 हजार से अधिक तालिबानी आतंकवादी हैं। अगर तालिबान अफगानिस्तान की सत्ता पर कब्जा कर लेता है तो फिर इन 75000 आतंकवादियों को संयमित रखने और गतिशील रखने में वह कैसे सफल हो सकता है? इसलिए माना जा सकता है कि अफगानिस्तान फिर से इस्लाम की अति क्रूरताऔर हिंसा में तब्दील रहेगा। पर चीन, पाकिस्तान और ईरान की मुश्किलें भी बढ़ेंगी ,उन्हें भी हिंसा और बर्बरता का सामना करना पड़ेगा, तालिबान उनके लिए भस्मासुर जैसा साबित होगा।

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विष्णुगुप्त
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