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संघ के बढ़े कदम पर क्या मुस्लिम समाज भी कदम आगे बढ़ाएगा?

डॉ अंबेडकर एवं वीर सावरकर जी की हिन्दू मुस्लिम एकता की समझ और माननीय मोहन भागवत जी के हाल के बयानों में बहुत बड़ा अंतर दिखता है।

संघ प्रमुख का मुस्लिम बुद्धिजीवों के साथ बैठक को संघ की नई नीति के रूप देखा जाए या हिन्दू मुस्लिम एकता को लेकर पूर्व में हुए असफल प्रयासों के बाद की एक और नई पहल?

संघ प्रमुख द्वारा दोनों ध्रुवों को एक बताते हुए यह कहना कि ये कभी अलग थे ही नहीं, सदैव एक ही रहे हैं.. को संघ की ओर से मुस्लिम समाज की ओर बढाया गया एक और कदम के रूप में देखा जा रहा है। संघ की इस पहल के उपरांत मुस्लिम समाज की प्रतिक्रिया का इंतजार है।

संघ प्रमुख की बैठक जिन बुद्धिजीवियों से हुई है अब तक उनकी ओर से कभी कोई प्रयास नहीं हुए हैं। यहां तक कि इस्लाम के अंदर की जड़ताओं पर भी इन बुद्धिजीवियों ने कभी कोई राय नहीं दी है ऐसे में प्रश्न यह भी है कि उदयपुर, अजमेर में लग रहे … सर तन से जुदा के नारों के बीच मुस्लिम जमात जो मदरसों के सर्वे को स्वीकार करने को तैयार नहीं है, क्या इन मुस्लिम बुद्धिजीवियों को अपना नेतृत्व देने को तैयार होगा? प्रश्न यह भी है कि इन मुस्लिम बुद्धिजीवियों के द्वारा पहले प्रयास के बाद ही इनकी पकड़ मुस्लिम समाज में रह पाएगी?

ज्ञानवापी मंदिर में मुगल आक्रांताओं द्वारा बनाई गई वजुखाने में मिले शिवलिंग पर दुबारा थूकने की मांग लेकर सुप्रीम कोर्ट तक की लड़ाई लड़ने की तैयारी करने वाला समाज, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी रामलला को अस्वीकार करने वाली जमात अंततः संघ के साथ किन बिंदुओं पर एकसाथ आएगा?

क्या यह पहल ज्ञानवापी मामले का अंत साबित होगा या इस नए समीकरण के बाद मथुरा श्री कृष्ण जन्मभूमि स्वतन्त्र हो पाएगी? हो सकता है ये मामले इस नई पहल के एजेंडे में न हो तो क्या संघ प्रमुख जिन्हें भारत की उतपत्ति व भारतीय मुस्लिम बता रहे हैं ये भारतीय मूल का मुस्लिम नेतृत्व नागरिकता संसोधन कानून (CAA) के प्रावधानों के अंतर्गत उन बेसहारों को भारत की नागरिकता दिलवाने में सहायक होगा जिनका उतपत्ति स्थल भी भारत ही है जिन्हें उनके धर्म के आधार पर प्रताड़ित किया जा रहा है?

बांग्लादेश, पाकिस्तान व अफगानिस्तान के कट्टरपंथी मुस्लिमों के अत्याचार से भाग कर भारत में शरण मांगने वाले हिंदुओं को क्या फिर से शाहीनबाग जैसे विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा? जिन कट्टरपंथी सोच से पीड़ित होकर ये हिन्दू भारत आते हैं और उन्हें वही कट्टरपंथी सोच का भारत में सामना करना पड़ता है और बैठक में उपस्थित भारतीय मूल के यही मुस्लिम बुद्धिजीवी इस विषय पर चुप्पी साध लेते हैं, यह दुनिया को दिखने वाली सच्चाई है। ऐसे में संघ प्रमुख का पुनः हिन्दू मुस्लिम को एक मानने का प्रयास वाजपेयी सरकार की समझौता एक्सप्रेस वाली नीति साबित होगा या भविष्य में संघ और मुस्लिम बुद्धिजीवी वर्ग के बीच हुई यह बैठक एक नए ताने बाने को कसने में सफल होगा यह देखना शेष है।

राजनीतिक चश्मे से इतिहास की घटनाओं पर दृष्टि डाली जाए तो कुछ उदाहरण मिलते हैं जो मुस्लिम राजनीति को समझने में मदद करती है। मुस्लिम राजनीति या नेतृत्व सदैव अपने हितों को आगे रखता है चाहे खिलाफत आंदोलन को कॉंग्रेस व गांधी जी के समर्थन का प्रकरण हो या स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक दलों का कैडर बन कर राजनीतिक दलों को सत्ता देने की बात हो मुस्लिम नेतृत्व उन्हीं दलों के साथ खड़ा रहा है जो उनके हितों की रक्षा करता रहे और ज्यों ही मुस्लिम समाज को यह अनुभव होता है कि उनके हितों को किसी से कोई खतरा नहीं वह अपना नेतृत्व खड़ा करता है और उसके साथ खड़ा हो जाता है। इस राजनीति को समझने के लिए दो उदाहरण पर्याप्त है। पहला स्वतंत्रता पूर्व का कालखंड जब तक मुस्लिम नेतृत्व कमजोर था तब मुस्लिम जमात गांधी जी के साथ ईश्वर अल्लाह तेरो नाम…. गा रहा था और ज्यों ही उन्हें मुस्लिम लीग के नाम का नेतृत्व मिला छियानवे प्रतिशत मुस्लिमों का मत मुस्लिम लीग के साथ जुड़ गया।

स्वतंत्रता उपरांत कॉंग्रेस को इनका साथ तब तक मिला जब तक मुलायम सिंह लालू यादव ममता बनर्जी अरविंद केजरीवाल जैसे तुष्टिकरण की राजनीति करने वाले नेता प्रभावशाली नहीं हुए थे। ज्यों ज्यों ये नेता मजबूत होते गए और कॉंग्रेस से ज्यादा तुष्टिकरण करने लगे पूरा मुस्लिम समाज कॉंग्रेस का हाथ झटक इन नेताओं के साथ जुड़ गया। बिहार विधानसभा चुनाव 2020 को उदाहरण के रूप में लें तो बिहार में जब इन्हें अनुभव हो गया कि बिहार की राजनीति के दोनों ही ध्रुव राजद व जदयू-भाजपा गठबंधन से उन्हें कोई खतरा नहीं है इन्होंने अपना नेतृत्व ओवैसी की पार्टी को मानते हुए पांच विधायकों को विजय बनाया। कालांतर में उन्हें अपने हित (तुष्टिकरण) पर ज्यों ही खतरा महसूस हुआ ये विधायक लालू यादव की पार्टी राजद में शामिल हो गए जिसका कड़ा विरोध खुद ओवैसी ने भी नहीं किया। क्योंकि ओवैसी खुद इस रणनीति के एक वाहक ही हैं।

जो मुस्लिम समाज अपने तुष्टिकरण को लेकर इतना सचेत व चिंतित रहता है वह संघ के साथ कितनी देर बैठेगा और बैठेगा भी या नहीं बड़ा प्रश्न है। जो कॉंग्रेस और लालू यादव का नहीं हुआ वह संघ की बात स्वीकार कर लेगा यह सोचना ही हास्यास्पद है।

एक तरफ वह जमात है जो अपने हितों से कोई समझौता नहीं करता वरन दूसरों के अधिकारों को कुचल कर भी अपने हित साधने को लेकर उग्र रहता है और दूसरी ओर वह संगठन है जो विशिष्टता के बोध मात्र को समाप्त कर समान नागरिक संहिता की बात करती है। एक ओर अरब के पद्धतियों, शरिया, संस्कृति की जिद है और दूसरी ओर भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की गरिमा। इस द्वंद के बीच भाईचारे व एकता की कहानी बुन पाएगा संघ प्रमुख व मुस्लिम बुद्धिजीवियों के बीच हुई बैठक इस पर सबकी नजर है।