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महिला लेखक पुरुषों के संघर्षो को भी अपनी लेखनी में शामिल कर रही हैं : ममता कालिया

नई दिल्ली : अपनी भाषा को समृद्ध और मजबूत करने के दैनिक जागरण की मुहीम हिंदी हैं हम के अंतर्गत एक नए मासिक कार्यक्रम सान्निध्य की शुरुआत की गयी है. जिसके तहत साहित्य अकादेमी सभागार, मंडी हाउस में कवियों, रचनाकारों ,स्तंभकारों और रंगकर्मियों का जुटना हुआ .इस कार्यक्रम के तहत दो सत्रों का आयोजन किया गया है . पहले सत्र ‘समकालीन कविता के स्वर’ में हेमंत कुकरेती , प्रो जिंतेंद्र श्रीवास्तव ,लीना मल्होत्रा और उमाशंकर चौधरी ने अपने अपने काव्य संग्रहों में से काव्य पाठ किया. इस सत्र में समकालीन कविता के परिद्रश्य पर आधारित था जिसमे कविता पाठ ने विभिन्न समाजिक पहलुओं और विचारों का चित्रण किया गया .वहीं दुसरे सत्र ‘स्त्री लेखन स्वप्न और संघर्ष’ में वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया, वंदना राग ,ज्योति चावला और प्रज्ञा ने हिस्सा लिया जिसमे स्त्री लेखन विषय पर सार्थक विमर्श हुआ,जिसमें से निकले विचार निश्चित ही समाज व साहित्य के सोच में विचार लायेगे .सानिध्य मुहीम एक साथ देश के 16 शहरों में हर महीने के दुसरे शनिवार को आयोजित किया जाएगा .

पहले सत्र समकालीन कविता के स्वर में प्रो.जितेन्द्र श्रीवास्तव के संचालन में सबसे पहले लीना मल्होत्रा ने कविता पाठ किया .महिलाओं के शरीर को बेधती दुनियां की आँखों से बचने के लिए तल्ख़ लहजे में कहा ‘क्यों नही रख कर गयी तुम घर पर देह. क्या दफ्तर के लिए दिमाग काफी नही था’ .उमाशंकर चौधरी की कविताओं में दर्द,वेदना और पलायन का पुट था . ‘एक दिन घर से निकलूंगा और लौट कर नही आऊंगा .पत्नी राह देखती रहेगी .बच्चे नींद भरी आखों के बावजूद .पिता से किस्से सुनने का इंतजार करेंगे’ . इसके बाद हेमंत कुकरेती बेरोजगार के दर्द को उभारते हुए ‘दो घंटे पचास मिनट बाद जब उस कम बोलने वाले बेकाम लड़के को . अन्दर बुलाता है वह असरदार आदमी.उस लड़के का रोम रोम खुश दिखता है ,करें क्या . उसे सौ मुख और हज़ार जीभों से कहना तो चाहिए था ,अरे कमीने ,लेकिन ऐसा होता कहां सर ?’प्रो जितेन्द्र श्रीवास्तव की कविता में गावं ,खेत पेड़ पौधें सब. ‘आज उन खेतों ने मुझे पहचानने से इंकार कर दिया ,जिनके मालिक थे मेरे दादा उनके बाद मेरे पिता.’

सानिध्य के दुसरे सत्र स्त्री लेखन स्वप्न और संघर्ष की अध्यक्षकता वरिष्ठ साहित्यकार ममता कालिया ने किया वहीँ संचालन लेखक बलराम द्वारा किया गया.

प्रज्ञा ने स्वप्न ,स्त्री और लेखन के यथार्थ को सामने रखते हुए कहा कि एक स्त्री का सबसे बड़ा स्वप्न उसकी मुक्ति है क्योकि देश का संविधान और समाज का संविधान मेल नही खाता है .संविधान सबको एक नजरिया से देखता है ,लेकिन समाज का व्यवहार पितृसत्तामक है . यही हाल धर्मों का है , जो महिलाओं की आजादी को अमरबेल सरीखे जकडन से जकड़ती जाती है .

ज्योति चावला ने कहास्वप्न स्त्री पुरुष दोनों को देखने चाहिये तभी एक पुरुष स्त्री की स्वप्नों की अहमियत जान पायेगा,क्योंकि हमारे देश में स्त्री के स्वप्न पुरुष समाज द्वारा ही बुने जाते हैं , साथ ही हमें भाषा के स्तर पर भी महिलाओं के लिए एक नये भाषा गढ़ने की जरूरत है. वंदना राग ने निराशा जताते हुए कहा कि 40 साल बाद भी विषय में बदलाव नही आया है . अब भी स्त्री संघर्ष और आजादी की बात हो रही है .पहचान महिला साहित्यकार के तौर पर कराई जाती है ,मात्र एक साहित्यकार के तौर पर नही . अंत में वरिष्ठ साहित्यकार ममता कालिया ने कहा कि एक पक्ष यह भी है कि महिला लेखकों के विषय महिला मात्र नही हैं .वह दैनिक जीवन में मनुष्य के संघर्षों को भी अपने लेखन में शामिल कर रही हैं .

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संतोष कुमार
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