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शब्दों की राजनीति की बलि चढ़ रहे हैं जम्मू-कश्मीर के मुद्दे

यह सब को समझ लेना चाहिए की जम्मू कश्मीर राज्य सम्वन्धी विषयों के समाधान के लिए कुछ कड़े कदम भी उठाने की अवश्यकता है और जमीनी स्तर पर आम जन के हित में कुछ कर के दीखने का भी समय आ गया है ! अब सिर्फ इंसानियत,जम्हूरियत और कश्मीरियत की दुहाई दे कर जम्मू कश्मीर राज्य को अलगाववादी विचारधारों और ‘भारत विरोधी’ अभियानों के प्रभाव से बचाया नहीं जा सकता है !

इंसानियत,जम्हूरियत और कश्मीरियत का मंत्र दिए आज 13 साल हुए जा रहे हैं पर अब भी महबूबा जी तो क्या प्रधानमंत्री नरिंद्र मोदी जी को भी इस मन्त्र को वार वार दोहराना पढ रहा है ! मोदी जी इस मंत्र को ‘कश्मीर’ घाटी के प्रति अपने लगाव को दिखने के लिए कहते हैं और महबूबा जी इस मंत्र को भारत को यह एहसास करबाने के लिए कहती हैं कि कश्मीरियो के साथ केन्द्र सरकार और भारत के नेतृत्व ने अपनेपन का व्यवहार नहीं किया और विश्वास की कमी भी रही है !

माँ वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड के क्रीडा केंद्र के उद्घाटन और विश्वविध्यालय के दीक्षांत समारोह के अवसर पर आए हुए मोदी जी को भी एक बार फिर से इस १९ अप्रैल को अपनी ‘कश्मीर’ के प्रति आस्था दिखाने के लिए इंसानियत ,कश्मीरियत और जम्हूरियत के मन्त्र का उद्घोष करना पड़ा. हाँ कटरा में महबूबा जी जरूर कुछ हट के बोली हैं . इस से अभी कोई निष्कर्ष निकलना जल्दबाजी हो सकती है पर यह राह कुछ ‘ठंडक’ दे सकती है.

आज तक भारत के जम्मू कश्मीर राज्य में जो भी होता रहा है उस का अच्छा या बुरा प्रभाव जम्मू कश्मीर की स्थानीय स्थिति पर ही अधिक पड़ता रहा है पर अब जो कुछ जम्मू कश्मीर में हो रहा है एवम आगे होगा उस का असर सामाजिक एवं राजनीतिक स्तर पर रावि दरिया के पार भी होता दिख रहा है ! यहाँ तक जम्मू कश्मीर संवंधित अन्तराष्ट्रीय वाद-विवाद का संवंध है उस की बात तो एक अलग समस्या है जिस का बड़ी ही साफ़गोई से महबूबा मुफ़्तीजी ने १६ जून २०१४ को अपने लोक सभा में दिए गए भाषण में यह कह कर कर दिया था — “ … जम्मू कश्मीर का इशू , हम ने अमेंडमेंट दिया , मुझे नहीं मालूम , गलती से, हम ने लिखा था इशू ऑफ़ जम्मू कश्मीर उस को वताएया गया इश्यूज ऑफ़ जम्मू कश्मीर , हम क्यूं, why do we shy away ,पूरी दुनियां में बो कोंन सा फोरम है जहां जम्मू कश्मीर को discuss नहीं किया जाता ……. विश्वास कीजिये जम्मू कश्मीर के लोगों पर … उन को याद है अटल जी का वो कहना, मैं इंसानियत के दाएरे में आपकी समस्या का समाधान करूगा .. ” !.

लेकिन लगता है की उन की साफ़ और सीधी बात का भारत सरकार और राष्ट्रिय नेताओं ने जम्मू कश्मीर के वारे में आगे की निति वनाने के लिए करोब २ साल वीत जाने के वाद भी संज्ञान नहीं लिया है.

ऐसे ही ९ फरबरी २०१६ के दिन अफज़ल गुरु को न्यायालय के आदेश पर साल २०१३ में फांसी दिए जाने के संधर्व में दिल्ली की जवाहर लाल नेहरु यूनिवर्सिटी में जो कुछ हुआ और उस के वाद जिस तरह से राष्ट्रिय राजनीतिक दलों ने भी एक नई सोच का वोध करवाने के प्रयास किए हैं उस से आने वाले समय में भारत के अन्य राज्यों में भी प्रथिक्तावाद के बीज वोए जा सकते हैं ! जिस प्रकार से एक खास डंग और नजरिए से कन्हेया कुमार पर लिखने के लिए कुछ लेखक उत्सुक दिख रहे हैं वे भारत की अखंडता की बात करने वालों के लिए एक चिंता का कारण होना चाहिए ! पर सिवा डेवलपमेंट के नारे लगाने के कुछ ख़ास होता नज़र नहीं आत्ता है! यही नहीं जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय की एक प्राध्यपक नवेदिता मेनन ने जिस तरह से जम्मू कश्मीर पर भारत द्वारा १९४७ में नाजायज डंग से कब्ज़ा करने और मानवाधिकारों का हनन करने की वात की है और उस के वाद भी वह सेवा में वनी है कई प्रश्न खड़े करने वाली वात है ! अब भी अगर भारत का केन्द्रीय नेत्रित्व अपनी सोच नहीं वदलेगा तो फिर जम्मू कश्मीर की जनता तो दुविदाओं में फंसती जाएगी ही, यह भारत के हित में भी नहीं होगा !

यह सच हैं आज के दिन महबूबा जी ही क्या सईद अली शाह गिलानी , उमर फारूक, यासीन मालिक भी वाजपेयी जी की ‘कश्मीर समस्या’ के प्रति नीति का प्रशसा से वर्णन करते हुए इस “इंसानियत ,कश्मीरियत और जम्हूरियत’ के मन्त्र का हवाला देते हैं. १६ फरबरी २०१४ को जब नरेंद्र मोदी जी श्रीनगर आए थे तव भी उन्हों ने इस मंत्र का वाजपई जी का नाम ले कर जिक्र किया था कि अटल जी ने कहा था कश्मीर को हम 3 मूल आधार से देखते है, एक इंसानियत दूसरा जम्हूरियत और तीसरा कश्मीरियत !

मोदी जी के प्रधानमंत्री बनने के वाद १६ जून २०१४ के दिन लोक सभा में राष्ट्रपति के बीजेपी सरकार के ‘विज़न’ पर दिए भाषण पर चर्चा के दोरान महबूबा मुफ़्ती जी ने अपने दल के संधर्व में एक सुलझी हुई राजनीतिक और वैचारिक परिपक्वता एवम प्रोड्ता का परिचय देते हुए अपना दृष्टिकोण देश के सामने रखा था और उस समय भी उन्हों ने भारत की संसद और भारत सरकार को अपने डंग से वाजपेयी जी के “ इंसानियत जम्हूरियत और कश्मीरियत” के मन्त्र की याद दिलाते हुए “५२ इंच के सीने” में कश्मीरों के लिए कुछ जगह देने की वात कही थी ! साल २००३ में वाजपेयी जी ने कुछ कहा था और आज १३ साल वाद भी इस वात को भारत के प्रधान मंत्री कहते हैं, आखिर क्यों ?

यह कहना भी गलत नहीं होगा कि बीजेपी नेत्रित्व ने महबूबा जी के १६ जून २०१४ के लोक सभा में दिए गए वक्तव्य को सम्बेधंशीलता से नहीं लिया था नहीं तो पीडीपी के साथ गठ्वंधन और एजेंडा ऑफ़ अलायन्स की रूपरेखा वनाते हुए पीडीपी की सोच एवम नियति को ध्यान में जरूर रखा जाता ! लोक सभा में १६ जून २०१४ को वोलते हुए महबूबा जी ने बड़े साफ़ शव्दों में भारत और पाकिस्तान की मुद्रा ‘कश्मीर’ में चलने, जम्मू कश्मीर को सार्क का संपर्क सूत्र बनाए जाने बाले सुझाबों और ‘कश्मीर समस्या’ वाली उन के दल की सोच की ओर स्पष्ट इशारा किया था ! अगर एजेंडा फॉर एल्लांस सोच समझ कर वना था , मोदी जी को भी केन्द्र में आए २ साल हो गए हैं और मोदी जी के पास वाजपई जी का मन्त्र भी है तो फिर भी आज कश्मीर के लोग ‘विश्वास’ न होने की वात क्यों कर रहे हैं ? इसका उत्तर बीजेपी नेत्तृव को डूंडना होगा !

आज मोदी जी और बीजेपी नेता मुफ़्ती सईद जी के विज़न को पूरा करने की वात कर रहे हैं, यह अच्छी वात है पर इस के साथ – साथ इन को साफ़ शव्दों में जम्मू कश्मीर के आम जन को यह भी वता देना चाहिए कि उन के अनुसार सेल्फ रूल फ्रेमवर्क की कुछ वातों जिन का जिक्र महबूबा जी ने १६ जून २०१४ को लोक सभा में भी किया था से जम्मू कश्मीर संबधित भारत की प्रभुसत्ता का किसी प्रकार से कोई हनन नहीं होता है !

यह इस लिए भी जरूरी है कि इस से जम्मू कश्मीर वारे कांग्रेस, सीपीम, बसपा,दमक,एड्म्क ,जद(यू ) जैसे दलों के साथ साथ बीजेपी की राजनीतिक सोच भी जम्मू कश्मीर के तीनों खितों के लोगों को पता चल सकती हैं और हो सकता है इस से लोगों के बीच राष्ट्रीयता के प्रति सोच पर विवादों से वनी दूरियां कुछ कम हों और कम से कम राज्य में सामाजिक सद्भाव ही सुधरे. मेरे यह शव्द शायद कुछ नेताओं को पीड़ा दें पर आम जन को इस से कुछ राहत मिल सकता है.

‘कश्मीर’ (जम्मू कश्मीर) के भारत होने पर हुर्रियत , उमर फारूक, जासीन मालिक और अली शाह गिलानी अकसर आपति उठाते है पर वाजपेयी जी के कश्मीर के प्रति “इंसानियत, जम्हूरियत और कश्मीरियत” के मन्त्र का जाप करते हुए वे भी बाजपेयी जी की सराहना करते हैं! इस लिए प्रश्न यह उठता है कि अलगाववादियों के लिए कहीं इस मंत्र का अर्थ यह तो नहीं है कि साल २००३ तक जम्मू कश्मीर के लोगों के साथ हैवानियत का वर्ताव किया जाता रहा था, जम्मू कश्मीर में चुनाव में सरकारें केंद्र द्वारा थोपी जाति रही है और ‘कश्मीर’ के लोगों की भावनाओं एवम परम्पराओं के साथ खिलवाड़ होता रहा है ? अगर ऐसा नहीं है तो फिर ‘बाजपेयीजी के मन्त्र’ का ऐसा क्या अर्थ हो सकता है कि अलगाववादी भी इस का ‘जाप’ करते हैं.

भारत के ‘कश्मीर’ राज्य के संबंध में ही ऐसा क्यों कहा जाता है ? कम से कम अब तो साफ़ शव्दों में बीजेपी नेतृत्व को आम लोगों के सामने इसका अर्थ रखना होगा. अन्यथा शब्दों की राजनीति जम्मू कश्मीर के लोगों का २००३ के वाद पिछले १३ की तरह आगे भी रक्त लेती रहेगी. मुफ़्ती जी ने जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे को बनाए रखने की बात तो एजेंडा ऑफ़ एलायन्स में लिखवा ली थी पर सेल्फ रूल फ्रेमवर्क के जो विन्दु जम्मू कश्मीर के भारत होने पर प्रश्न लगाते थे उन को नकारने की कोई बात नहीं होने दी !

(दया सागर एक वरिष्ठ पत्रकार और जम्मू कश्मीर मामलों के जनकार हैं)