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जोर शोर से लिखिए, किसने रोका है भाई!

देश में बढ़ती तथाकथित सांप्रदायिकता से संतप्त बुद्धिजीवियों और लेखकों द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का सिलसिला वास्तव में प्रभावित करने वाला है। यह कितना सुंदर है कि एक लेखक अपने समाज के प्रति कितना संवेदनशील है, कि वह यहां घट रही घटनाओं से उद्वेलित होकर अपने सम्मान लौटा रहा है। कुछ ने तो चेक भी वापस किए हैं। सामान्य घटनाओं पर यह संवेदनशीलता और उद्वेलन सच में भावविह्वल करने वाला है।

सही मायने में देश के इतिहास में यह पहली घटना है, जब पुरस्कारों को लौटाने का सिलसिला इतना लंबा चला है। बावजूद इसके लेखकों की यह संवेदनशीलता सवालों के दायरे में है। यह संवेदना सराही जाती अगर इसके इरादे राजनीतिक न होते। कर्नाटक और उत्तर प्रदेश जहां भाजपा की सरकार नहीं है के ‘पाप’ भी नरेंद्र मोदी के सिर थोपने की हड़बड़ी न होती,तो यह संवेदना सच में सराही जाती। सांप्रदायिकता को लेकर ‘चयनित दृष्टिकोण’ रखने और प्रकट करने का पाप लेखक कर रहे हैं। उन्हें यह स्वीकार्य नहीं कि जिस नरेंद्र मोदी को कोस-कोसकर, लिख-लिखकर, बोल-बोलकर वे थक गए, उन्हें देश की जनता ने अपना प्रधानमंत्री स्वीकार कर लिया। यह कैसा लोकतांत्रिक स्वभाव है कि जनता भले मोदी को पूर्ण बहुमत से ‘दिल्लीपति’ बना दे, किंतु आप उन्हें अपना प्रधानमंत्री मानने में संकोच से भरे हुए हैं।
देश में सांप्रदायिक दंगों और सांप्रदायिक हिंसा का इतिहास बहुत लंबा है किंतु इस पूरे लेखक समूह को गोधरा और उसके बाद के गुजरात दंगों के अलावा कुछ भी याद नहीं आता। विस्मृति का संसार इतना व्यापक है कि इंदिरा जी हत्या के बाद हुए सिखों के खिलाफ सुनियोजित दंगें भी इन्हें याद नहीं हैं। मलियाना और भागलपुर तो भूल ही जाइए। जहां मोदी है, वहीं इन्हें सारी अराजकता और हिंसा दिखती है। कुछ अखबारों के कार्टून कई दिनों तक मोदी को ही समर्पित दिखते हैं। ये अखबारी कार्टून समस्या केंद्रित न होकर व्यक्तिकेंद्रित ही दिखते हैं। उप्र में दादरी के बेहद दुखद प्रसंग पर समाजवादी पार्टी और उसके मुख्यमंत्री को कोसने के बजाए नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार की आलोचना कहां से उचित है? क्या नरेंद्र मोदी को घेरने के लिए हमारे बुद्धिजीवियों के पास मुद्दों का अकाल है? इस नियम से तो गोधरा दंगों के समय इन साहित्यकारों को नरेंद्र मोदी के बजाए प्रधानमंत्री से इस्तीफा मांगना चाहिए था, लेकिन उस समय मोदी उनके निशाने पर थे। किंतु अखिलेश यादव और कर्नाटक के मुख्यमंत्री हिंसा को न रोक पाने के बावजूद लेखकों के निशाने पर नहीं हैं। उन्हें इतनी राहत इसलिए कि वे सौभाग्य से ‘भाजपाई मुख्यमंत्री’ नहीं हैं और सेकुलर सूरमाओं के साथ उनके रक्त संबंध हैं। ऐसे आचरण, बयानों और कृत्यों से लेखकों की स्वयं की प्रतिष्ठा कम हो रही है।
हमारे संघीय ढांचे को समझे बिना किसी भी ऐरे-गैरे के बयान को लेकर नरेंद्र मोदी की आलोचना कहां तक उचित है? औवेसी से लेकर साध्वी प्राची के विवादित बोल का जिम्मेदार नरेंद्र मोदी को ठहराया जाता है जबकि इनका मोदी से क्या लेना देना? लेकिन तथाकथित सेकुलर दलों के मंत्री और पार्टी पदाधिकारी भी कोई बकवास करें तो उस पर किसी लेखक को दर्द नहीं होता। क्या ही अच्छा होता कि ये लेखक उस समय भी आगे आए होते जब कश्मीर में कश्मीरी पंडितों पर बर्बर अत्याचार और उनकी हत्याएं हुयीं। उस समय इन महान लेखकों की संवेदना कहां खो गयी थी, जब लाखों कश्मीरी पंडितों को अपने ही वतन में विस्थापित होना पड़ा। नक्सलियों पर पुलिस दमन पर टेसुए बहाने वाली यह संवेदना तब सुप्त क्यों पड़ जाती है, जब हमारा कोई जवान माओवादी आतंक का शिकार होता है। जनजातियों पर बर्बर अत्याचार और उनकी हत्याएं करने वाले माओवादी इन बुद्धिजीवियों की निगाह में ‘बंदूकधारी गांधीवादी’ हैं। कम्युनिस्ट देशों में दमन, अत्याचार और मानवाधिकारों को जूते तले रौंदनेवाले समाजवादियों का भारतीय लोकतंत्र में दम घुट रहा है, क्योंकि यहां हर छोटी- बड़ी घटना के लिए आप बिना तथ्य के सीधे प्रधानमंत्री को लांछित कर सकते हैं और उनके खिलाफ अभियान चला सकते हैं।
दरअसल, ये वे लोग हैं जिनसे नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनना हजम नहीं हो रहा है। ये भारतीय जनता के विवेक पर सवाल उठाने वाले अलोकतांत्रिक लोग हैं। ये उसी मानसिकता के लोग हैं, जो नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर देश छोड़ देने की धमकियां दे रहे थे। सही मायने में ये ऐसे लेखक हैं जिन्हें जनता के मनोविज्ञान, उसके सपनों और आकांक्षाओं की समझ ही नहीं है। वैसे भी ये लेखक भारत में रहना ही कहां चाहते हैं? भारतद्वेष इनकी जीवनशैली, वाणी और व्यवहार में दिखता है। भारत की जमीन और उसकी खूशबू का अहसास उन्हें कहां है? ये तो अपने ही बनाए और रचे स्वर्ग में रहते हैं। जनता के दुख-दर्द से उनका वास्ता क्या है? शायद इसीलिए हमारे दौर में ऐसे लेखकों का घोर अभाव है, जो जनता के बीच पढ़े और सराहे जा रहे हों। क्योंकि जनता से उनका रिश्ता कट चुका है। वे संवाद के तल पर हार चुके हैं। एक खास भाषा और खास वर्ग को समर्पित उनका लेखन दरअसल इस देश की माटी से कट चुका है।
साहित्य अकादमी दरअसल लेखकों की स्वायत्त संस्था है। एक बेहद लोकतांत्रिक तरीके से उसके पदाधिकारियों का चयन होता है। पुरस्कार भी लेखक मिल कर तय करते हैं। पं. जवाहरलाल नेहरू जैसे लोग इस संस्था के अध्यक्ष रहे। आज डा. विश्वनाथ प्रसाद तिवारी इसके अध्यक्ष हैं। वे पहले हिंदी लेखक हैं, जिन्हें अध्यक्ष बनने का सौभाग्य मिला। ऐसे में इस संस्था के द्वारा दिए गए पुरस्कारों पर सवाल उठाना कहां का न्याय है? लेखकों की,लेखकों के द्वारा, चुनी गयी संस्था का विरोध बेमतलब ही कहा जाएगा। अगर यह न भी हो तो सरकार द्वारा सीधे दिए गए अलंकरणों, सम्मानों, पुरस्कारों और सुविधाओं को लौटाने का क्या औचित्य है? यह सरकार हमारी है और हमारे द्वारा दिए गए टैक्स से ही चलती है। कोई सरकार किसी लेखक को कोई सुविधा या सम्मान अपनी जेब से नहीं देती। यह सब जनता के द्वारा दिए गए धन से संचालित होता है। ऐसे में साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार लेकर लौटाना जनता का ही अपमान है। जनता के द्वारा दिए गए जनादेश से चुने गए प्रधानमंत्री की उपस्थिति अगर आपसे बर्दाश्त नहीं हो रही है तो सड़कों पर आईए। अपना विरोध जताइए, किंतु वितंडावाद खड़ा करने से लेखकों की स्थिति हास्यापद ही बनी रहेगी। आज यह भी आवाज उठ रही है कि क्या ये लेखक सरकारों द्वारा दी गयी अन्य सुविधा जैसे मकान या जमीन जैसी सुविधाएं वापस करेंगें। जाहिर है ये सवाल बेमतलब हैं,लंबे समय तक सरकारी सुविधाओं और सुखों को भोगना वाला समाज अचानक ‘क्रांतिकारी’ नहीं हो सकता।

सुविधा और अवसर के आधार पर चलने वाले लोग हमेशा हंसी का पात्र ही बनते हैं। अपनी संस्थाओं, अपने प्रधानमंत्री, अपने देश और अपनी जमीन को लांछित कर आप खुद सवालों के घेरे में हैं। जब आप एक बड़ी राजनीतिक लड़ाई हार चुके हैं, तो लेखकों को आगे कर यह जंग नहीं जीती जा सकती। राजनीतिक दलों की हताशा समझी जा सकती है, किंतु लेखकों का यह व्यवहार समझ से परे है। राजनीतिक निष्ठा एक अलग चीज है किंतु एक लेखक और बुद्धिजीवी होने के नाते आपसे असाधारण व्यवहार की उम्मीद की जाती है। आशा की जाती है कि आप हो रहे परिवर्तनों को समझकर आचरण करेंगें। देश की जनता के दुख-दर्द का ‘चयनित आधार पर’ विश्लेषण नहीं हो सकता। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के कामों पर सवाल खड़े करिए। संघर्ष के लिए आगे आइए किंतु लोगों को गुमराह मत कीजिए। यह नकली और झूठी बात है कि इस देश में तानाशाही या आपातकाल के हालात हैं। जिन्होंने आपातकाल देखा है उनसे पूछिए कि आपातकाल क्या होता है?
जिस समय में हर छोटा-बड़ा मुंह खोलते ही प्रधानमंत्री को बुरा-भला कह रहा है, क्या वहां तानाशाही है? ऐसे झूठ और भ्रम फैलाकर देश में तनाव मत पैदा कीजिए। आपातकाल में आप सब कहां थे, जब देश के तमाम लेखक-पत्रकार कालकोठरी में डाल दिए गए थे? जो देश इंदिरा गांधी की तानाशाही से नहीं डरा, उसे मत डराइए। हिम्मत से लिखिए और लिखने दीजिए। पुरस्कारों, पदों, सम्मानों और लोभ-लाभ के चक्कर में मत पड़िए। अफसरों और नेताओं के तलवे मत चाटिए। लिखिए जोर से लिखिए, बोलिए जोर से बोलिए, किसने रोका है भाई।

(लेखक ‘मीडिया विमर्श’ पत्रिका के कार्यकारी संपादक और राजनीतिक विश्लेषक हैं)

– संजय द्विवेदी,
अध्यक्षः जनसंचार विभाग,
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,
प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल-462011 (मप्र)
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