यह था हमारा इतिहास…

मेहरानगढ़ दुर्ग में स्थित जोधपुर महाराजा मानसिंह जी राठौड़ के वीरगति के बाद सती हुई रानियों के हाथों की छाप के ऊपर बनें चिन्हों को नमन करती एक मां..

रक्त की मेंहदी से भीगें ऐसे हजारों हाथों को, जिन्हें लेकर जलती हुई अग्नि कुंड में कूदकर क्यों जीवित युवा माताओं बहनों की चितायें जली?
क्यों??

यह विषय क्यों नहीं पढ़ाया गया इतिहास में??

वह कौन सी पैशाचिक विचारधारा थी?
कौन थे वें संस्कृति के विनाशक?

कौन थे वें जिन्हें इतिहास में सल्तनत के संस्थापक पढ़ाया जाता है?

कौन थे?

किस हरम्मद व किस पु(कु)रान के मानने वाले थे?
जो लाशों से भी बलात्कार करते थे?

क्यों हमारी अपनी ही माताओं को अपने ही देश में अपने शरीर को जलती चिंताओं में भस्म करना पड़ा?

क्यों???

मरने के ओर भी तरीके हो सकते थे!
क्योंकि सब जानते हैं अग्नि में जीवित जलना सबसे दर्दनाक होता है, जानते हुए..

फिर भी..
यही मृत्यु क्यों चुनी?

सोचो! जिन हैवानों से बचने के लिए वह अग्निकुंड में समा गई उन्हीं से आज क्या वह भय समाप्त हो गया?

क्या जिस दिन उनकी संख्या बढ़कर वह भीड़ तुम्हारे घरों की ओर बढ़ेगी उसके लिए कोई तैयारी है..

कोटि कोटि प्रणाम है..

बारम्बार नमस्कार है उन देवियों को..
जो सुकीर्ति सरस्वती सुनीति अनसूया गार्गी मदालसा कौशल्या सीता सावित्री के देश भारत का सिर गर्व से ऊंचा कर गई।

जिन्होंने नराधम पिशाचों के सामने मस्तक झुकाना बिल्कुल स्वीकार नहीं किया..

कुस्लाम की पैशाचिक सेना उनके शरीर तो क्या उनकी छाया तक को कभी नहीं छू सकी..

नमन है उन देवियों के बलिदान को
सनातन संस्कृति की मानमर्यादा आत्मसम्मान व स्वाभिमान की रक्षा के लिए, जो अपने हाथों के स्मृति चिन्ह छोड़ सदा के लिए अग्नि को समर्पित हो गई।