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कठमुल्लाओँ के लिए चुनौती बने इस्लाम के युवा अवतार

हारिस सुल्तान का नाम आपने सुना है? क्या आप अब्दुल्ला गोंडल को जानते हैं? गालिब कमाल कौन हैं? कभी महलीज सरकारी को देखा है? ऐसे अनगिनत नाम हैं, जिनके बारे में हम सबको जानना चाहिए। अगर आप पांच वक्त के नमाजी हैं और इस्लाम में आपका अकीदा पूरा-पक्का है तो इन नौजवानों से आपका परिचय बेहद जरूरी है और अगर आप किसी गैर मुस्लिम बिरादरी से भी हैं तो भी इनके ख्यालात आपको जानना चाहिए। तीस-पैंतीस साल की उम्र के ये नौजवान पाकिस्तान मूल के हैं, जो कनाडा, आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में रहते हैं। कोई लाहौर से है, कोई कराची से, कोई रावलपिंडी से।

मजहब के नाम पर भारत के बंटवारे के बाद इनमें से किसी के परिवार पंजाब के उस हिस्से में रह गए, जो पाकिस्तान में चला गया। जैसे-लाहौर। किसी के वालिद-वालिदैन उत्तरप्रदेश और बिहार से पाकिस्तान गए, जिन्होंने मजहब को राष्ट्र से ऊपर मानकर पाकिस्तान को बनवाने में अहम किरदार निभाया था। पाकिस्तानियों की ये पढ़ी-लिखी पीढ़ी पढ़ने या नौकरी करने के लिए पश्चिम के देशों में गई। इनमें से ज्यादातर ऐसे परिवारों के हैं, जिनका इस्लाम में यकीन बहुत गहरा रहा है। एक समय इस्लाम के सिवा इन्हें कुछ आता ही नहीं था, जिसके बारे में दीनी तालीम के दौरान उन्हें बताया गया था कि यही सबसे शानदार मजहब है, जिसने दुनिया को बदलकर रख दिया। अल्लाह एक है और उसकी इबादत में किसी और को शरीक करने से बुरा गुनाह कोई दूसरा नहीं है। मोहम्मद अल्लाह के रसूल हैं और वो आखिरी हैं। यानी अब और कोई पैगंबर आने वाला नहीं है। किस्सा खत्म।

ऐसे कड़क और एकतरफा इस्लामी परिवेश से आठ-दस साल पहले अपने शहरों से निकले ये नौजवान आज इस्लाम की एक बिल्कुल नई आवाज बनकर उभरे हैं। ये ऐसी आवाजें हैं, जो इस लिहाज से चौंकाने वाली हैं कि ये मजहब के आधार पर बने पाकिस्तान पर तो सवाल खड़े कर ही रहे हैं, लेकिन इनके सवालों की लपट मौलवियों को भी चपेट में ले रही है। वे इस्लाम की मान्यताओं पर भी सवालों की बौछार कर रहे हैं। इसलिए जो लोग यह मानते हैं कि इस्लाम मजबूती से संगठित एक ऐसा मजहब है, जिसमें सबको एक सुर में बोलना और एक ही चाल में चलना हर हाल में जरूरी है, उन्हें अपनी राय बदलनी होगी। इन नौजवानों की सोच ने जाहिर किया है कि सूचना तकनीक ने वाकई क्रांति ला दी है। अब मजबूत तर्क की बुनियाद पर ही कोई यकीन टिक पाएगा। वे विचार अपनी जमीन खो देंगे, जो अंधविश्वास की तरह माने जाते रहे हैं। सिर्फ ताकत के बूते पर किसी अकीदे को ज्यादा देर बचाकर नहीं रखा जा सकता।

तो कौन हैं ये नौजवान, जिन्हें दुनिया के करोड़ों लोग सुन रहे हैं। हारिस सुलतान के 60 हजार से ज्यादा फॉलोअर्स हैं। गालिब कमाल के 78 हजार, अब्दुल्ला समीर के 55 हजार। महलीज सरकारी के दस हजार फालोअर हैं। ये सब अपने यूट्यूब चैनलों के जरिए दुनिया भर के मुसलमानों से रूबरू हैं और इन्हें सुनने वाले ज्यादातर इन्हीं की उम्र के नौजवान मुसलमान हैं। इनके वीकली लाइव शो मंे जुड़ने वाले अधिकतर पाकिस्तान के शहरों और कस्बों के युवा हैं। दस मिनट से लेकर दो घंटे तक के इनके वीडियो हर दिन हजारों लोग देख और सुन रहे हैं। शास्त्रार्थ के जरिए सत्य को स्थापित करने की भारत की पुरानी ज्ञान परंपरा है, जिसे आचार्य शंकर ने एक नई ऊंचाई दी थी। इस्लाम के ये नए व्याख्याकार इसी शैली में खुलकर सामने आए हैं। उनके पास सवाल हैं, तर्क हैं और कोई उन्हें यह कहकर चुप नहीं कर सकता कि किताब में ऐसा ही लिखा है इसलिए मानना ही मजबूरी है। अगर किताब में ऐसा लिखा है तो यह किसने लिखा है? अल्लाह ने किसी को अपना अाखिरी दूत घोषित किया तो उसका सबूत क्या है और गवाह कौन है?

नौजवानों की यह पीढ़ी इस्लामी देशों की बदहाली को बड़े गौर से देख रही है। पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून के नाम पर आए दिन हो रही बेकसूर लोगों की हत्याओं पर वे बेबाकी से बोल रहे हैं। वे पाकिस्तान के सरगनाओं को समझा रहे हैं कि काफिरों को ठिकाने लगाने के बाद अब रसूल के आशिक ही रसूल के आशिकों के गले काटेंगे और इसकी शुरुआत हो चुकी है। सलमान तासीर को कत्ल करने वाला मुमताज कादरी था और दोनों ही मुसलमान थे। हाल ही में एक बैंक मैनेजर को बैंक के ही सुरक्षा गार्ड ने यह कहकर कत्ल कर दिया कि उसने इस्लाम की तौहीन कर दी। उस सुरक्षा गार्ड को हीरो की तरह पेश किया गया। सिंध में बचे-खुचे अल्पसंख्यक हिंदुओं और ईसाइयों की लड़कियों को उठाने की हर वारदात पर वे पाकिस्तान के हुक्मरानों और मजहबी रहनुमाओं को आइना दिखा रहे हैं।

अपने शो में गालिब कमाल खुलासा कर रहे हैं कि अल्लामा इकबाल की महान रचनाएं 1873 की मातिदा बारबरा बाथम एडवर्ड की मूल रचनाओं की चोरी के तजुर्मे थे। इकबाल ने अरबों की फतह का महिमामंडन किया और हिंदुस्तान की जिंदगी को जहर कर दिया। उनके एक शो में महपारा शरीफ ने बताया कि इकबाल इंतहाई किस्म के फिजूल इंसान थे, जो बालिग होने के पहले लाहौर के एक कोठे पर जाया करते थे और एक तवायफ का कत्ल सिर्फ इसलिए कर बैठे थे कि कोई और आशिक उसके कोठे पर जाने लगा था। वे नाबालिग होने की वजह से सजा से बच गए। मुसलमानों की यह पीढ़ी अल्लामा इकबाल को उम्मत का फलसफां फैंककर कौम को गर्त में धकेलने का कुसूरवार मान रही है।

हिंदी सिनेमा के एक्टर रणवीर कपूर की शक्ल से मिलते-जुलते अब्दुल्ला गोंडल सात साल पहले एक जोशीले मुस्लिम युवा की तरह बिना मूंछों की दाढ़ी और सलवार-कमीज में कनाडा आए थे। पश्चिम के लोकतांत्रिक मूल्यों, वैज्ञानिक सोच, भौतिक विकास और खुलेपन में आकर उन्होंने पलटकर अपने मुल्क पाकिस्तान और अपने मजहब इस्लाम को जरा गौर से देखा। दो साल में ही उन्हें इस्लाम की सर्वश्रेष्ठता का दावा हास्यास्पद लगने लगा और वे तर्क की कसौटी पर कुरान को ही लेकर बैठ गए। मेहलीज आपा तो और कमाल की निकलीं। वे नेटफ्लिक्स की वेबसीरीज के मुखर किरदारों की तरह पाकिस्तानी कठमुल्लों पर ठेठ गालियों की बौछार करती हैं।

बीते सालों में जो लोग पाकिस्तान मूल के कनाडाई बाशिंदे तारेक फतह को देखते-सुनते रहे हैं, वे आरिफ अजाकिया, ताहिर असलम गोरा और जावेद अहमद घामीदी जैसे सुधारवादी मुस्लिमों को भी उनके वीडियोज के जरिए अच्छी तरह जानते होंगे। ये सब सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर छाई हुई हस्तियां हैं। ताहिर असलम के ‘टैगटीवी’ के करीब एक लाख लोग मुरीद हैं। आरिफ अजाकिया के मशहूर चैनल ‘आरिफ की भाषा’ को पढ़ने वाले करीब दो लाख लोग हैं। जावेद अहमद घमीदी को भी 70 हजार लोग फॉलो करते हैं। ये तीनों साहेबान साठ साल पार की पीढ़ी के हैं और पाकिस्तान की विसंगतियों, इस्लाम में मौलवियों की जानलेवा जकड़न और इस्लामी देशों की बदहाली पर बेबाक राय के लिए ही जाने जाते हैं। इस लिहाज से वे एक सुर में बंटवारे के बाद भारत की विकास यात्रा, सामाजिक व्यवहार और अल्पसंख्यकों के प्रति उसके उदार और सहिष्णु नजरिए को दाद देते रहे हैं। तारेक फतेह, आरिफ अजाकिया और असलम ताहिर गोरा पाकिस्तान की पैदाइश से भी पहले भारत के वैदिक अतीत तक अपनी जड़ों को देखकर आहें भरते हैं।

जिन नौजवानों का जिक्र मैंने ऊपर किया है, उन्हें सुनकर लगता है कि बात अब बहुत आगे चली गई है। तारेक फतह और ताहिर असलम गोरा इन आगबबूला युवाओं की तुलना में होम्योपैथी के डॉक्टर मालूम पड़ेंगे। हारिस सुलतान और गालिब कमाल सीधे ऑपरेशन थिएटर में इस्लाम की सर्जरी कर रहे हैं। महलीज सरकारी तो पोस्टमार्टम के तेवर में इस्लामी तौर-तरीकों की चीरफाड़ करती नजर आएंगी। यह बंद कुएं से बाहर आने की भयावह बेचैनी है। वे तारेक फतह की तरह यह नहीं मानते कि अल्ला का इस्लाम अलग है और मुल्ला का इस्लाम अलग। वे मानते हैं कि यह पूरी तरह बकवास है। इस्लाम एक ही है।

किसी शो में पाकिस्तान मूल के उनके दर्शक जब जिहाद की यह दार्शनिक व्याख्या पेश करते हैं कि असल जिहाद इंसानी बुराइयों को जीतने के लिए है तो हारिस सुल्तान या गालिब कमाल जोर का ठहाका लगाकर जवाब देते हैं कि आप किस दुनिया में गाफिल हो, जिहाद का यह मतलब हमें मत समझाओ, ओसामा बिन लादेन, अल-जवाहिरी और हाफिज सईद जैसों को जाकर समझाओ, जो उसी हिदायत पर अमल में लगे हैं, जो उन्हें दी गई है। वही असल इस्लाम है। उनकी पुकार है कि इतिहास में खूनखराबे से भरी इस वैचारिक दलदल से जितना जल्दी मुमकिन हो, बाहर आओ। नौजवान मुसलमानों की यह आक्रामक सुधारवादी जमात खुद को मुलहिद यानी नास्तिक कहती है। अब वे ‘एक्स मुस्लिम’ हैं। इस्लामी पहचान सिर्फ इनके नाम में ही शेष है!

(लेखक मध्य प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त हैं)
साभार- दैनिक प्रजातंत्र से