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शून्य की खोज से पहले रावण के 10 सिर और 100 कौरवों की गिनती कैसे हुई?

कुछ दिनों से सोशल मीडिया के अलग-अलग समूहों में एक मेसेज काफी चल रहा है।

मेसेज: ‘अगर शून्य का अविष्कार 5वीं सदी में आर्यभट्ट जी ने किया फिर हजारों वर्ष पूर्व रावण के 10 सिर बिना शून्य के कैसे गिने गए। बिना शून्य के कैसे पता लगा कि कौरव 100 थे। कृपा कर यदि किसी को उत्तर पता हो तो बताएं।’

काफी तर्कसंगत प्रश्न है कि आखिर बिना शून्य के 10, 100 या अन्य संख्याओं की गणना कैसे संभव है? इस प्रश्न का उत्तर जानने के लिए हमें इतिहास का अध्ययन करना होगा लेकिन इतिहास के सागर में डुबकी लगाने से पहले हमें अविष्कार (Invention) और खोज (discovery) के अंतर को समझना होगा। किसी नई विधि, रचना या प्रक्रिया के माध्यम से कुछ नया बनाना अविष्कार कहलाता है तथा खोज का अर्थ होता है किसी ऐसी चीज को समाज के सामने लाना जिसके विषय में समाज को जानकारी ना हो परन्तु वह हो। एक उदाहरण के माध्यम से समझिए कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त की खोज की अर्थात गुरुत्वाकर्षण न्यूटन के पहले भी था लेकिन समाज उसके विषय में जानता नहीं था। गुरुत्वाकर्षण के सिद्धान्त को न्यूटन की खोज कहा जाएगा न कि अविष्कार।

कथित तौर पर शून्य की खोज करने वाले आर्यभट्ट का जन्म 476 ईस्वी में तथा देहांत 550 ईस्वी में हुआ और रामायण तथा महाभारत का काल इससे बहुत पुराना है। वर्तमान में हिंदी भाषा का लेखन कार्य देवनागरी लिपि में होता है। इससे पहले की लिपि ब्राह्मी लिपि मानी जाती है। लगभग ई. 350 के बाद ब्राह्मी की दो शाखाएं हो गईं एक उत्तरी शैली तथा दूसरी दक्षिणी शैली। देवनागरी को नागरी लिपि के नाम से भी जाना जाता था। यह लिपि ब्राह्मी की उत्तरी शैली का विकसित रूप है।

इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि शून्य की खोज देवनागरी लिपि के प्रचलन के बाद हुई। इससे पहले शून्य की संकल्पना नहीं थी। ब्राह्मी लिपि में गणना की व्यवस्था थी लेकिन उस गणना में शून्य नहीं था। आप चित्र के माध्यम से समझ सकते हैं कि शून्य के बिना भी 10,20 या 100 जैसी संख्याओं की गणना हो सकती थी। संभवतः अब आपको पता लग गया होगा कि रावण के 10 सिर और कौरवों की संख्या गिनना उस काल में कैसे संभव हुआ। आर्यभट्ट ने इस विश्व को एक नई अक्षरांक पद्धति से परिचित कराया। शून्य की संकल्पना की कहानी भी काफी रोचक है।

शून्य, एक ऐसी संख्या जो स्वयं में कुछ नहीं है अर्थात खाली है लेकिन फिर भी पूर्ण है। एक बार संकल्पना का आधार समझिए। कल एक पुस्तक पढ़ रहा था जिसमें अध्यात्म और शून्य का संबन्ध बताया गया था। उसके अनुसार शून्य को ईश्वर बताया गया था। उस पुस्तक के अनुसार भारतीय संस्कृति में आत्मा को परमात्मा(ब्रह्म) का अंश माना गया है, साथ ही भारतीय संस्कृति में ‘अहं ब्रह्मास्मि’ भी कहा गया है और उस ब्रह्म को पूर्ण माना गया है।

शून्य की संकल्पना का आधार कुछ ऐसा ही बताया गया है। शून्य की तरह ईश्वर को भी पूर्ण माना गया है। 0 (परमात्मा)-0 (आत्मा)= 0 (परमात्मा) इसको हम इस रूप में भी कह सकते हैं कि आत्मा=परमात्मा। इतनी सुंदर व्याख्या आध्यात्मिक दृष्टि से शायद की किसी संस्कृति में होना संभव हो। शून्य अर्थात जो कुछ भी नहीं है, निराकार है वह सर्वव्यापक है। सर्वव्यापकता निराकार ब्रह्म की सबसे बड़ी विशेषता है। शून्य या निराकार इतना छोटा है कि छोटे से छोटे स्थान पर भी व्यापक है, और इतना विशाल है कि आकाश की असीमित दुनिया में भी सीमित नहीं होता। जहां तक भी दृष्टि जाती है, यही दिखाई देता है।

खैर, अब आपको यह तो पता लग ही गया होगा कि महाभारत और रामायण काल में रावण के 10 सिरों और कौरवों के 100 होने की गणना कैसे की गई होगी।

(सोशल मीडिया के एक समूह द्वारा प्रेषित जानकारी के आधार पर )