ऑस्कर अवार्ड्स के थिएटर में प्रस्तुति देने वाली पहली भारतीय कलाकार बनीं श्रेया घोषाल

श्रेया को मैं पहली बार शायद 2004-2005 में मिली थी। उन दिनों मैं डैलस के एक रेडियो स्टेशन में रेडियो जॉकी थी। श्रेया की “देवदास” फिल्म के गाने सबकी जुबां पर थे और श्रेया उन दिनों देवदास की सफलता पर ही अपने रास्ते बना रहीं थीं। डैलास के उस कॉन्सर्ट में उनके साथ महालक्ष्मी अय्यर (बंटी और बबली की गायिका) थीं, कैलाश खेर थे और बहुत सारे दूसरे कलाकार भी थे जो अपनी-अपनी राहें बना रहे थे। अपनी माँ के साथ बिलकुल साधारण कपड़ों में रेडियो स्टेशन आयीं श्रेया मुझे उतनी ही सरल लगीं जितना उनका गायन है। वे इतनी सहज और सरल थीं कि मेरी 3 साल की बेटी को अपनी गोद में लेकर उसके साथ देवदास का अपना ही गाना गाया। सब कलाकार ऐसे नहीं होते और उनकी यही सरलता मुझे भा गयी।

तब से कई बार अमेरिका में उनके कॉन्सर्ट को कवर करने का मिला और हर बार उनकी मनमोहक और मीठी आवाज़ ने पहली वाली शर्मीली और सरल श्रेया का स्थान मेरे दिल में और पुख़्ता किया। श्रेया से पहली मुलाकात के लगभग 20 वर्षों बाद उनको एक बार फिर से सुनने का मौका मिला और वो भी तब, जब वो इतिहास बना रहीं थीं।

श्रेया, हिंदी सिनेमा की वो पहली कलाकार हैं जिन्होंने हॉलीवुड के खूबसूरत और प्रतिष्ठित डॉल्बी थिएटर में 23 जून 2024 को परफॉर्म किया। श्रेया इन दिनों अपने शो “”All Hearts Tour”r” के लिए अमेरिका की यात्रा पर हैं। 2001 में बने डॉल्बी थिएटर के लिए सिर्फ इतना ही परिचय काफी होगा कि हर वर्ष ऑस्कर अवार्ड्स यहीं दिए जाते हैं। बाकी जाने कितने ही शानदार टेलीविज़न अवार्ड्स और मशहूर हस्तियों ने यहाँ परफॉर्म किया पर अब तक किसी भी भारतीय आर्टिस्ट ने यहाँ अपना शो नहीं किया था।

श्रेया का यहाँ परफॉर्म करना न सिर्फ उनका सम्मान है बल्कि ये सम्मान है भारतीय संगीत का और उनके दर्शकों का। ये सम्मान एक दिन में हासिल नहीं होता ख़ासकर जब इतनी कम उम्र में सफलता मिल जाए। आसान नहीं होता संजोये रखना अपने सुरों को, संभालना अपने दम्भ को, परिवार को और सबसे मुश्किल होता है इस तिलस्मी दुनिया में अपना जादू क़ायम रख पाना! श्रेया ने ये सब बख़ूबी किया और क्या खूब किया। उन्होंने अपने सुरों को उतनी जगह दी जितनी उसकी ज़रूरत थी पर साथ में उन्होंने अपना घर बसाया, एक माँ बनीं पर वो बेटी भी बनी रहीं, एक बेहतर इंसान भी बनी रहीं और माँ बनने के बाद जब वो फिर से इस सुरीली दुनिया में लौटीं, उन्होंने साबित किया कि वे पहले से भी बेहतर हो रही हैं।

उनकी आवाज़ थोड़ी सी और पक गयी है जिसे हम कहते हैं और परिपक्व हो गयी है, उम्र का वज़न उनके शरीर और सुरों दोनों पर पड़ा है किसे देखकर मुझे गुलज़ार साहेब का लिख याद आता है कि “अब ज़रा सी भर गई हो जो तुम, ये वजन तुम पर अच्छा लगता है”

एक सिंगर होना और एक परफ़ॉर्मर होना, दो अलग-अलग बातें हैं। हम कितना भी अच्छा खाना क्यों न बनाते हों, उसे ख़ूबसूरती से परोसना भी उतना ही ज़रूरी है। पहले की श्रेया बहुत हद तक सिर्फ एक सिंगर थीं पर अब वो परफ़ॉर्मर हो गयीं हैं। अपने पहले सेशन में उन्होंने कुछ हिंदी के, कुछ तमिल के और कुछ बंगाली गाने गाए। संगीत के सात सुरों को उन्होंने हर भाषा में इतनी सुन्दरता से गढ़ा कि वे सब गाने भाषा से परे हो गए और सब के सब दिल में उतर गए। अपनी ऑडियंस के दिल में उतरना किसी कलाकार की सबसे पहली ज़रूरत होती है जो उन्हें बख़ूबी आता है। इसके बाद उन्होंने छोटा सा ब्रेक लिया और उनकी जगह भरने के लिए स्टेज पर आये किंजल चटर्जी।

किंजल पिछले कुछ समय से श्रेया के साथ स्टेज पर गाते रहें हैं पर ये कुछ अलग मौका था जब उनको भी अकाडेमी अवार्ड्स वाले डॉल्बी थिएटर में गाने का सौभाग्य मिला। थिएटर के शानदार साउंड सिस्टम ने और वहां के माहौल ने उनके मन में और उत्साह भर दिया और उन्होंने भी स्वर्गीय केके, सुखविंदर और उस्ताद नुसरत साहेब के कई कठिन गाने बड़ी मधुरता और सरलता से गाए और फिल्म इंडस्ट्री में अपने आने की सिर्फ आहट ही नहीं दी बल्कि उन्होंने ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाया है और मुझे उम्मीद हैं की जल्दी ही वे हिंदी फिल्म जगत के नए सितारे बनेंगे। यकीनन किंजल सिर्फ एक खाली जगह को भरने के लिए आये थे पर जब उन्होंने स्टेज छोड़ा उनका मन खचाखच भरे ऑडिटोरियम की तालियों और प्रशंसा से भर गया होगा।

किंजल के बाद श्रेया फिर से स्टेज पर आयीं और किंजल के अनुरोध पर उनका स्वागत इस बार हाल के हर व्यक्ति ने खड़े होकर और अपने सेल फ़ोन की बत्तियाँ जला कर किया। झिलमिलाते सेल फ़ोन के जुगनुओं के बाग़ीचे में एक सुरीले सितारे सी “श्रेया” फिर उभरीं और इस बार उन्होंने सबके अंधेरों में अपने संगीत का उजाला भर दिया! जैसा श्रेया ने स्टेज पर आते ही कहा कि ये सेगमेंट उनके दिल के सबसे करीब है क्योंकि ये सेगमेंट था हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के सबसे बेहतरीन म्यूजिक डायरेक्टर्स , गीतकारों और सिंगर्स को याद करने का और वो तो इसमें डूबीं ही, सारे दर्शक भी इसमें डूब गए। लता, मुकेश और रफ़ी साहेब के सदाबहार नगमों से थिएटर पिघलता रहा।

उसके बाद उन्होंने कुछ ख़ूबसूरत ग़ज़लें भी गायीं और जब उन्होंने “हीरामंडी” का नाम लिया तो लोग खुश होकर तालियॉँ बजाने लगे! मैंने श्रेया को कितनी ही बार परफॉर्म करते देखा है पर ये शायद उनके जीवन का सबसे बेहद सुरीला पल था जिसे न सिर्फ उन्होंने जिया पर हम सबने भी जिया और भरपूर जिया। ये ख़ुशी और संतोष उनके चेहरे पर भी साफ़ झलक रहा था। मुझे नहीं पता की वो पहले भी पियानो बजातीं थीं या नहीं पर इस सेगमेंट के कुछ गानों पर उन्होंने ख़ुद पियानों संभाला और अपने गीत और संगीत दोनों से सबका दिल जीतती रहीं।

जैसे खाने में होता है, पहले स्टार्टर, फिर मेनकोर्स और फिर स्वीट डिश, ठीक उसी तरह अपने संगीत को भी ऐसे ही परोसा श्रेया ने अपने चाहने वालों के लिए! अपने हल्के-फुल्के गानों से शुरुआत कर पहले उन्होंने सबका ध्यान खींचा, फिर अपनी मेलोडी से सबके दिल और दिमाग को तृप्त किया और अब स्वीट डिश की बारी थी। इस बार “चिकनी चमेली”, “डोला रे डोला” और “मेरे डोलना सुन” जैसे सदाबहार गीतों की बारी थी और एक के बाद एक वो गाने गातीं रहीं और लोग झूमते और नाचते रहे।

रचना श्रीवास्तव की अन्य रिपोर्ट 

मैंने श्रेया को इससे पहले कभी नाचते नहीं देखा, हालांकि वो नाच रहीं थी पर अपने इस प्रयास में वो बहुत सफल नहीं थीं और नाचते-नाचते वो खुद भी हँसने लगतीं थीं कि ये मैं क्या कर रही हूँ। सही भी है कि हम लता मंगेशकर से तो ये उम्मीद कभी नहीं कर सकते थे वो “बाँहों में चले आओ” पर झूमते हुए गाएं और श्रेया उन्हीं की परम्परा को आगे बढ़ाने वाली गायिका हैं। हालाँकि अब समय अलग है क्योंकि अब ये सब, एक शो का हिस्सा होता है। यकीनन जब श्रेया, टेलर स्विफ्ट और दूसरी स्थापित गायिकाओं को परफॉर्म करते हुए देखती होंगीं तो उनसे भी थोड़ी प्रेरणा तो लेती ही होंगी और जैसा मैंने पहले भी कहा था की अब वे सिर्फ एक सिंगर नहीं हैं, वे एक परफ़ॉर्मर बन चुकी हैं, जिसकी सरलता और मधुरता के लोग कायल हैं और उनसे थोड़ी चपलता की भी उम्मीद रखते हैं।

और बस इसी हँसी-ख़ुशी के बीच 23 जून 2024 की एक सुरमयी रविवार को डॉल्बी थिएटर में एक इतिहास बना और “राग-श्रेया” संम्पन हुआ!

इससे पहले की मैं अपने रिपोर्टिंग को विराम दूँ, श्रेया का ये कॉन्सर्ट भले ही मनोंरजन के लिए हो पर इससे होने वाली आमदनी का एक बड़ा हिस्सा “Shankara Eye Foundation” को जाएगा जो पिछले कई वर्षों से भारत में शानदार काम कर रहे हैं और Vision 2023 के तहत उनका लक्ष्य है कि वे करोड़ों लोगों की आँखों की रौशनी लौटा सकें। Krishnamurthy Muralidharan (Executive Chairman, Shankara Team) और Anju Desai (Board Member) के साथ पूरी Shankara team को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ और साथ ही इस कार्यक्रम के प्रमुख कर्ता-धर्ता Intense DMV Entertainment के मनीष सूद और दीपा शाहनी को इस शानदार आयोजन और उपलब्धि के लिए बधाई।

रचना श्रीवास्तव अमेरिका में रहतीं हैं और वहां होने वाली गतिविधियों पर हिंदी मीडिया के लिए लिखती रहती हैं।




संसद हंगामे के लिए नहीं, ये सार्थक विमर्श का मंच है

18वीं लोकसभा की कार्यवाही चल रही है। नई संसद से बड़ी आशाएं हैं। संसदीय कार्यवाही पर पूरे देश की निगाहें लगी हुई हैं। संसद लगभग डेढ़ अरब लोगों के हर्ष, विषाद और प्रसाद की भाग्य विधाता है। देश की इच्छा है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष राष्ट्रीय समृद्धि के लिए लोकसभा में प्रेमपूर्ण संवाद करें। लेकिन सत्र के पहले दिन ही राष्ट्रपति के अभिभाषण पर तीन बार हंगामा किया गया।

दूसरे दिन से अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा प्रस्तावित थी। भारी शोरगुल हुआ। व्यवधान के कारण सदन स्थगित हो गया। सिर मुड़ाते ही ओले पड़े। संसदीय प्रणाली भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का मूल आधार है। चुनाव में देश की जनता ने एक समूह को बहुमत देकर सरकार चलाने का जनादेश दिया है, साथ ही राष्ट्रहित में सुझाव देने व आलोचना करने की जिम्मेदारी दूसरे क्रम पर आए अल्पमत जनसमूह को सौंपी है।

विपक्ष देश के अल्पमत का प्रतिनिधित्व करता है। विपक्ष और विपक्ष के नेता की विशिष्ट भूमिका होती है। ब्रिटेन के एक प्रधानमंत्री हेरल्ड मैकमिलन ने कहा था, ‘‘विपक्ष के नेता की स्थिति कठिन होती है। दोष निकालना व आलोचना करना उसका काम है। संसद और राष्ट्र के प्रति विपक्ष की विशेष जिम्मेदारी है।‘‘ बीते वर्षों में विपक्ष की भूमिका ने निराश किया है। सदनों में व्यवधान हैं। बीते कुछ वर्ष से धारणा बनी है कि सदन चलाने की जिम्मेदारी केवल सरकार की है जबकि सदन चलाने की जिम्मेदारी दोनों की है।

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने ठीक लिखा था कि, ‘‘संसदीय प्रणाली में न केवल सशक्त विरोधी पक्ष की आवश्यकता होती है बल्कि सरकार और विरोधी पक्ष के बीच सहयोग भी आवश्यक होता है। हम जहां तक ऐसा करने में सफल होंगे, वहां तक हम संसदीय जनतंत्र की ठोस नींव रखने में सफल होंगे।‘‘ हंगामा, नारेबाजी, बहस के दौरान सदन से बहिर्गमन और सदन के भीतर प्लेकार्ड प्रदर्शित करना विपक्ष का अधिकार मान लिया गया है। लेकिन देश की जनता अपने प्रतिनिधियों से ऐसी उम्मीद नहीं रखती। व्यवधान के कारण विपक्ष भी जनहित के मुद्दे नहीं उठा पाता। महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर सरकार का ध्यानाकर्षण भी नहीं हो पाता। ऐसे तरीकों से जनोपयोगी मुद्दों का भी विषयांतर हो जाता है।

संविधान निर्माताओं ने संसदीय पद्धति अपनाई। संविधान सभा ने 29 अगस्त 1947 को डॉ. आम्बेडकर की अध्यक्षता में मसौदा समिति बनाई थी। सभा ने डॉक्टर आम्बेडकर को संविधान निर्माण से जुड़ी संघ शासन समिति, संघ व प्रांतीय विधान समिति, मौलिक अधिकार समिति सहित सभी समितियों के विचार मसौदे में सम्मिलित करने का काम सौंपा था। डॉ0 आम्बेडकर ने सभा में 4 नवंबर 1948 के दिन संविधान का मसौदा प्रस्तुत किया और कहा कि, ‘‘भारत जैसे देश में दायित्व की छानबीन जरूरी है। संविधान में शासन की स्थिरता के बजाय जवाबदेही को ज्यादा महत्व दिया गया है। इसलिए इसमें संसदीय पद्धति की सिफारिश की गई है। संसद में प्रश्न, ध्यानाकर्षण और इसी तरह के अन्य प्रस्ताव संसदीय कार्यवाही के माध्यम से सरकार को उत्तरदायी बनाते हैं।‘‘

संसद सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने का श्रेष्ठ मंच है। इसकी जिम्मेदारी विपक्ष को सौंपी गई है। संसदीय कार्यवाही को विपक्ष ही आदर्श स्थिति में पहुंचा सकता है। वस्तुतः सत्ता पक्ष और विपक्ष परस्पर शत्रु नहीं होते। दोनों सगे भाई हैं। विधान बनाना जटिल काम है। सरकार जरूरी विधायन के लिए यथाविधि प्रस्ताव लाती है। विपक्ष यथाविधि विरोध करता है। संशोधन प्रस्ताव रखता है। इसी तरह बजट के पारण में सत्ता पक्ष व विपक्ष की साझा भूमिका होती है।

विपक्ष संसदीय कार्यवाही का प्रतिष्ठित हिस्सा है। संसदीय कार्यवाही को उत्कृष्ट बनाना सत्ता पक्ष व विपक्ष का कर्तव्य है। दोनों की आत्मीयता से सदन में विचार विमर्श का वातावरण बनता है। हंगामा करने का कोई औचित्य नहीं है। दुनिया के अनेक देशों में संसदीय जनतंत्र सफल हो रहा है। ब्रिटिश संसद में हंगामा और हुल्लड़ नहीं होते। बी.बी.सी. के अनुसार बीते सैकड़ों वर्षों से ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस को 1 मिनट के लिए भी स्थगित नहीं किया गया।

कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिकी कांग्रेस, स्विट्जरलैंड की संघीय सभा, चीन की नेशनल पीपुल्स कांग्रेस, जापान की डायट और फ्रांस की संसद प्रायः सुचारू रूप से चलती है। भारत जैसा हंगामा इन जनप्रतिनिधि संस्थाओं में नहीं होता। शोर और हंगामों से राष्ट्रीय क्षति होती है। दुर्भाग्य से 18वीं लोकसभा की शुरुआत ही स्थगन व्यवधान से हुई है। यहां शपथ ग्रहण के दौरान ही अप्रिय प्रसंग देखने को मिले हैं। कुछ मान्यवरों ने शपथ में अपनी तरफ से अनावश्यक शब्द जोड़े। इससे संवैधानिक शपथ की गरिमा का उल्लंघन हुआ है।

संसद भाग्य विधाता है। तमाम अवरोधों के बावजूद 17वीं लोकसभा की उत्पादकता संतोषजनक रही है, लेकिन शोर शराबा और अप्रिय शब्द प्रयोग के चलते कार्यवाही निराश करती है। मूलभूत प्रश्न है कि शोर और बाधा डालकर क्या हम कार्यपालिका को ज्यादा जवाबदेह बना सकते हैं या तथ्य और साक्ष्य रखते हुए प्रभावी भूमिका का निर्वहन कर सकते हैं। स्वाभाविक ही सदन में शालीन और मर्यादित आचरण व वक्तव्य का कोई विकल्प नहीं है। भारत में संसदीय प्रणाली का इतिहास काफी प्राचीन है। वैदिक काल में भी यहां सभा और समितियां थीं। संविधान सभा की कार्यवाही के दौरान धारदार बहसें हुई थीं।

संविधान सभा की कार्यवाही 165 दिन चली थी। 17 सत्र हुए थे। पहली लोकसभा में पंडित नेहरू, डॉक्टर श्यामा प्रसाद मुखर्जी, पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंददास और हरि विष्णु कामथ जैसे लोग थे। बाद की लोकसभाओं में भी 1968 तक सदस्य धैर्य से सुनते थे। मर्यादा में बोलते थे। फिर हंगामा आदि कारणों से संसद की कार्यवाही का समय घटता रहा है। सदस्यों की शिकायत रहती है कि सदन की बैठकें कम होती हैं। उन्हें बोलने का पर्याप्त समय नहीं मिलता। संविधान सभा (18-5-1949) में प्रोफेसर के. टी. शाह ने संसद को कम से कम 6 माह तक चलाने का प्रस्ताव किया था। अध्यक्ष मावलंकर का विचार भी वर्ष में सात-आठ माह सदन संचालन का था।

आदर्श सदन संचालन व संसद की गरिमा के लिए विशेषाधिकारों की उपस्थिति है। ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमंस की विशेषाधिकार समिति ने 1939-40 में सदस्यों को प्राप्त विशेषाधिकारों का कारण बताया था कि, ‘‘सदस्य संसद में बिना किसी बाधा के अपना कर्तव्य पालन कर सकें। शोर, हल्ला-गुल्ला सदन के वेल में जाना विशेषाधिकार नहीं है। विशेषाधिकार जिम्मेदारी बढ़ाते हैं। हाउस ऑफ कॉमंस की एक समिति ने 1951 में मजेदार टिप्पणी की थी, ‘‘विशेषाधिकारों के कारण सदस्य समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो जाते बल्कि संसद सदस्य होने से अन्य नागरिकों की तुलना में उनके दायित्व और भी बढ़ जाते हैं।‘‘

संसद अपनी प्रक्रिया की स्वामी है। विशेषाधिकार असामान्य उन्मुक्ति हैं। वे कार्यवाही में मर्यादा पालन में साधक हैं। इन सबके बावजूद कार्यवाही में व्यवधान होते हैं। विशेषाधिकार सहित सांसदों को मिलने वाली सुविधाएं व अधिकार सदन में मर्यादापूर्वक और परिपूर्ण वाक् स्वातंत्र्य के प्रयोग को शक्ति देने के लिए हैं। सदन में अमर्यादित आचरण उचित नहीं होते। विश्वास है कि 18वीं लोकसभा में जनोपयोगी राष्ट्रीय विमर्श होगा। सदस्यगण, पक्ष-प्रतिपक्ष मिलजुल कर भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के लिए संकल्पबद्ध होंगे। सत्ता पक्ष और प्रतिपक्ष परस्पर आत्मीयता के वातावरण में अपने कर्तव्य का पालन करेंगे।

(लेखक उप्र विधानसभा के अध्यक्ष रह चुके हैं)




नौसिखिया महावत जब हाथी पर बैठ जाए

कहते हैं कि विपक्ष सत्ता पर अंकुश का काम करता है। अपने सकारात्मक व्यवहार से। किसी महावत की तरह। लेकिन अठारहवीं लोकसभा को सब से ज़्यादा विध्वंसक विपक्ष मिला है। विपक्ष को बहुत गुरुर है कि राम मंदिर बनवाने का श्रेय लेने वालों को राम के प्रतीक अयोध्या , प्रयाग , चित्रकूट समेत तमाम संसदीय क्षेत्रों में बड़ी पटकनी दे दी है। संविधान बदल कर , आरक्षण ख़त्म करने का डर दिखा कर , हर महीने 8500 रुपए की लालच दिखा कर झंडा ऊंचा करने वाला विपक्ष नहीं जानता कि कोई अराजक महावत किसी हाथी को जब मिल जाता है तब हाथी बिना चूके महावत का काम तमाम कर देता है , क्षण भर में। आह भी भरने का समय नहीं देता , महावत को।
ऐसा अनेक बार देखा और सुना गया है।

यक़ीन न हो तो लोकसभा अध्यक्ष के हालिया चुनाव में यह घटना अभी-अभी गुज़री है। याद कर लें। पूर्व में नज़ीर और भी कई हैं। 2014 में भी , 2019 में भी। 2024 के इस सत्र में ऐसी घटनाएं और भी गुज़रने ही वाली हैं। कि आह भी लेने का अवकाश नहीं मिलने वाला। फिर जब सत्ता की जगह जब प्रतिपक्ष ही मदांध हो जाए तो लोकतंत्र का भगवान ही मालिक है। तब और जब समूचा विपक्ष किसी चुने हुए प्रधानमंत्री को निरंतर तानाशाह घोषित करते हुए , अघोषित आपातकाल की घोषणा करने का अभ्यस्त हो चला हो। जीतने पर भी नैतिक हार बताने की बीमारी हो गई हो जिस विपक्ष को , उस से रचनात्मक विपक्ष की उम्मीद करना बैल से दूध दूहने की कल्पना जैसा है। क्यों कि ऐसा नकारात्मक नेता प्रतिपक्ष किसी लोकसभा को कभी नहीं मिला। हिंसक और अराजक बयान ही जिस की आत्मा हो , आत्ममुग्धता ही जिस का सरोकार हो छल-कपट ही जिस की खेती हो , उस नेता प्रतिपक्ष की उपस्थिति में लोकसभा कभी किसी भी सत्र में निरापद ढंग से चल भी पाएगी , मुझे शक़ है।

इस लिए भी कि नेता प्रतिपक्ष को संसदीय अनुभव चाहे जितना हो , संसदीय परंपरा और मूल्यों का ज्ञान शून्य है। हिंसक बयान और अराजकता ही नेता प्रतिपक्ष की बड़ी पूंजी है। अराजकता ही उन की ताक़त है। तब जब कि नेता प्रतिपक्ष को शैडो प्राइम मिनिस्टर माना जाता है। लेकिन वर्तमान नेता प्रतिपक्ष प्राइम मिनिस्टर के पीछे-पीछे चलते हुए शैडो तो बन सकते हैं पर शैडो प्राइम मिनिस्टर कैसे बनेंगे , यह यक्ष प्रश्न है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर नेता प्रतिपक्ष ने जो रुख़ अपना कर अपने संसदीय ज्ञान का जो परिचय दिया है , वह विलक्षण है। भूतो न भविष्यति !

नेता प्रतिपक्ष का एकमात्र मक़सद है कि येन-केन-प्रकारेण लोकसभा को सुचारु रूप से चलने नहीं देना है। कोई बिल पास नहीं होने देना है। जिस भी क़ीमत पर हो अराजकता की चादर ओढ़ कर तानाशाह , तानाशाह का उच्चारण करते रहना है। नैतिक हार का उदघोष करते रहना है। मछली की आंख की तरह लक्ष्य साफ़ है कि जैसे भी हो सरकार गिर जाए। और कि बिना चुनाव दूसरी सरकार बने और नेता प्रतिपक्ष प्रधान मंत्री बन जाएं। नीतीश और नायडू किसी उम्मीद , किसी छींके की तरह हैं। छींका टूटे और बिल्ली का भाग्य खुल जाए , मुहावरा ही नहीं , पुरानी आसानी भी है।

छींका टूटता भी है और नहीं भी। क़िस्मत-क़िस्मत की बात है। राजनीति की नहीं।

साभार- https://sarokarnama.blogspot.com/2024/06/blog-post_30.html से




लेखनी से बच्चों के कोमल मन को छूने वाली डॉ. विमला भंडारी

बात पुरानी 70 – 80 के दशक की करें जब प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य की पुस्तकें छपती थी और बच्चें बड़े चाव से उनको पढ़ते थे और उनका मानसिक विकास और स्वस्थ मनोरंजन होता था। बच्चों को कहानियां सुनने के शोक को पूरा करती थी दादी और नानी। दोनों ही स्थितियों में जबरदस्त बदलाव आया है, परंतु आज भी बच्चें बाल साहित्य से दूर नहीं हैं अंतर इतना है कि वे मोबाइल या कंप्यूटर के गैजेट पर अपनी मर्जी की कहानी या कविता सुनते हैं ।

कार्टून क्या है ? इसमें भी चित्र हैं,कहानी हैं संवाद हैं, बच्चें खूब देखते हैं। एक मां और घर की अन्य महिलाएं बाल मनोविज्ञान को बहुत अच्छी तरह से समझती हैं। एक मां मोबाइल पर कोई भी कार्टून लगा कर बच्चे को दे देती है और बच्चा जब उस पर उंगली घूमता है तो रोटी का कोर मुंह में डाल देती है। मां से अच्छा बाल मनोविज्ञान को भला कौन समझ सकता है ?

कई साहित्यकार कहते हैं वे बाल पुस्तकें पढ़ कर लिखना सीखना सीखे हैं। आज साहित्यकार कहते हैं बाल साहित्य लिखना बहुत कठिन हैं। मैं कहती हूं जो साहित्यकार बच्चों के बीच रहते है और उनके मनोविज्ञान को समझते हैं उनके लिए बाल साहित्य लिखना बहुत सरल हैं। वे अच्छा बाल साहित्य लिख सकते हैं और ऐसे बाल साहित्य में प्रभावशीलता होगी, सरलता होगी, तरलता होगी और मनोरंजन होगा जो बच्चों के मन पर सीधा असर डालने वाला होगा। देखना यह भी होगा कि वे किस स्तर के बच्चों के लिए लिख रहे हैं।

एकल परिवार होने से और माता – पिता से बच्चों के लिए समय नहीं दे पाते जिससे बच्चें अपनी समस्याओं और प्रश्नों में उलझे रहते हैं, इनके उत्तर उन्हें नहीं मिलते हैं। माता – पिता का ध्येय बच्चे को 90 – 95 अंक ला कर अच्छी पढ़ाई करा कर केवल कमाने वाली तकनीकी मशीन बनाना होता है। कमाने वाली तकनीकी मशीन को रेखांकित कर कहती हैं जिसमें न कोई संवेदना होती है, न कोई संस्कार और न ज्ञान – विज्ञान का विस्तार, बस केवल कितनी ज्ञान से वे कमाई करने की मशीन बन कर रह जाते हैं। ऐसे में अगर माता-पिता बच्चों की जरूरतों और शोक पर जहां खूब खर्च करते हैं, वे बहुत कम कीमत की बाल साहित्य पुस्तक भी उन्हें खरीदकर दें और उनमें बाल साहित्य पढ़ने की आदत विकसित करें।

प्रयास होना चाहिए कि डिजिटल दुनिया के बाहर बच्चें बाल साहित्य से जुड़े। बाल साहित्य पढ़ने से उनमें संवेदना और संस्कार जाग्रत होंगे और समस्याओं और उलझनों से बाहर निकलने का रास्ता भी मिलेगा और वे पढ़ लिख कर मजबूत राष्ट्र के कर्णधार बनेंगे। हमें भी गर्व होगा की हम एक संस्कारित और संवेदनशील नागरिक देश को दे कर जायेंगे। बाल साहित्य से बच्चों की जोड़ कर हम एक सुदृढ़ राष्ट्र के निर्माण में बड़ा योगदान कर सकते हैं।

बच्चों की साहित्यिक वृति, कौशल, समझ,विकसित करने के साथ – साथ स्वस्थ मनोरंजन के लिए समय – समय पर बाल वर्क शॉप जैसे आयोजन किया जाना कारगर कदम रहेगा। बच्चों को विभिन्न प्रतियोगिताओं में विजेता रहने पर पुरस्कार के साथ – साथ बाल साहित्य की पुस्तक भी दी जानी चाहिए।

खुशी है की राजस्थान के जयपुर में देश की प्रथम जवाहरलाल नेहरू बाल साहित्य अकादमी की स्थापना की गई है। अकादमी ने अपनी शैशव अवस्था में ही बाल साहित्य के क्षेत्र में लीक से हट कर कार्य करने के संकेत दिए हैं। ऐसी बाल साहित्य अकादमियां पूरे देश में स्थापित हों तो बाल साहित्य के क्षेत्र में सकारात्मक काम होगा और एक वातावरण निर्मित होगा।

दक्षिणी राजस्थान के दूरस्थ आदिवासी अंचल सलूंबर जिला मुख्यालय से देश में ही नहीं दुनिया में बाल साहित्य का प्रतिनिधित्व करने वाली बाल साहित्यकार विमला भंडारी के इन विचारों के साथ एक नजर डालते हैं उनके साहित्य संसार पर। वे बाल साहित्य की दृष्टि से अपने आपने स्वयं में एक संस्था कही जा सकती हैं। सलूंबर का लेखन लालित्य आशय लिए ” सलिला ” नामक उनकी संस्था की अनेक बाल साहित्यिक गतिविधियों और राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रमों से इस बात का उन्हें परम संतोष है की देश के कई बड़े साहित्यकार संस्था के कार्यक्रमों में आए और वे बाल साहित्य पर लिखने लगे हैं।

सलूंबर का इतिहास लेखन के दौरान एक संस्कृत के विद्वान साहित्यकार द्वारा सुझाए गए नाम पर संस्था का यह नाम ‘ सलिला ‘ रखा गया। इनके व्यापक सोच, दृष्टिकोण, पूर्ण समर्पण एवं कर्मनिष्ठा की वजह से स्थानीय साहित्य प्रेमियों के लिए बनी इस संस्था का स्वरूप आप राष्ट्रीय हो गया है और देश में अपनी पहचान बनाने में सफल रही है।

बच्चों और किशोरों के लिए इनकी कहानियों में मनोविज्ञान है, कविताओं में चेतना है, उपन्यासों में दृष्टि और दिशा है, चिल्ड्रन पिक्चर बुक में मनोरंजन है और नाटकों में रोचकता है। साहित्यिक प्रदेश और अंतर राज्य यात्राएं करके साहित्य मशाल को जलाए रखने वाली साहित्यकार की प्रकाशित 39 कृतियों में सर्वाधिक 11 बाल कहानी, 3 बाल उपन्यास, 3 कहानी संग्रह,एक कविता संग्रह, 2 चिल्ड्रन पिक्चर बुक, 3 किशोर उपन्यास, 2 नाटक आधारित कृतियां हैं।

इन्होंने 11 बाल पुस्तकों का संपादन भी किया और इतिहास, यात्रा संस्मरण आदि पर अन्य पुस्तकें और कई शोध पत्र भी इन्होंने लिखे हैं। इनके लेखन, व्यक्तिव और कृतित्व पर 5 शोध कार्य भी किए गए हैं। इनके लेखन की विशिष्टता से 3 पुस्तकें पाठ्यक्रम में शामिल की गई और साहित्य अकादमी, नई दिल्ली, राजस्थान साहित्य अकादमी और राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति अकादमी द्वारा बाल साहित्य की 10 पुस्तकों पर इन्हें राष्ट्रीय सम्मान से नवाजा जाना बाल साहित्य जगत में गर्व का विषय है। एक और उल्लेखनीय तथ्य है की ये विश्व 111 हिंदी साहित्यकारों में अपना स्थान रखती हैं।

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इनके बाल साहित्य से सृजित और राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत बाल कहानी “पृथ्वी ने मांगी चप्पल” का कथानक देखते हैं…

” एक दिन अचानक से पृथ्वी चलती चलती रुक गई। कहने लगी – “इतने सालों से चक्कर लगा रही हूं मेरे पांव में छाले पड़ गए हैं। मुझे भी पांव में पहनने को चप्पल चाहिए।“ जब पृथ्वी चलती चलती रुक गई तो दिन और रात दोनों ही वही ठहर गए। जहां दिन था पृथ्वी के उस भाग में दिन स्थिर हो गया। जिस भाग में रात थी वहां रात स्थिर हो गई। पृथ्वी पर रहने वाले जीव जगत इस स्थिति से घबरा गए। लगातार दिन रहने से तापमान बढ़ने लगा तो दूसरी ओर लगातार रात रहने से ठंडक बढ़ गई। रोशनी के अभाव में जहां के काम वहीं रुक गए। चांद को भी परेशानी होने लगी। वह पृथ्वी के चक्कर लगाता हुआ उसे मनाने की कोशिश करने लगा। पर पृथ्वी मानी नहीं। उसे अपने पांव के छाले बताने लगी और चप्पल की मांग करने लगी। अब तो सूरज भी परेशान हो गया।

पृथ्वी के स्थिर खड़े हो जाने से उसका तो कैलेंडर ही गड़बड़ा गया। दिन और रात नहीं बदलेंगे तो तारीख कैसे आगे बढ़ेगी? तारीख के साथ-साथ सप्ताह के सातों वार भी तो चिंतित हो गए। सोमवार के बाद मंगलवार को आना था पर पृथ्वी के रुकते ही सब वहीं का वहीं ठहर गया। जो पृथ्वी 365 दिन में सूर्य का पूरा चक्कर लगा लेती थी और वह 365 दिन मिलकर 1 वर्ष कहे जाते हैं। जब वही गड़बड़ हो गए तो वर्ष के 12 महीने और सप्ताह के सातों दिन का चिंतित होना स्वाभाविक ही था।

पृथ्वी के साथ इन सब को स्थिर देखकर ऋतु चक्र विचलित हो गया। पृथ्वी के झुके झुके चलने के कारण ही तो ऋतुओं का आना-जाना होता है। अब? कैसे बदले की ऋतुएं? प्रश्न इतना गहरा था कि अब कैसे सर्दी गर्मी और बरसात होगी? समुद्र और जमीन सभी को चिंता थी। हवा का मूड ही बहुत खराब था। उसकी सारी अठखेलियां और हेकड़ी ठहर गई।

चांद, सूरज की चिंता से अब आकाश के तारे भी प्रभावित होने लगे। पृथ्वी के एक हिस्से में उन्हें लगातार टिमटिमाना पड़ रहा था और दूसरे भाग में तो तेज सूर्य की रोशनी के कारण उन्हें कोई देख ही नहीं सकता था। पृथ्वी की चाल रुकते ही इतना कुछ प्रभावित होगा ऐसा अभी तक किसी ने सोचा नहीं था। पृथ्वी का चलना बहुत जरूरी है। वह अपने अक्ष पर भी घूम रही थी और साथ ही झुकी-झुकी सूर्य के चक्कर भी लगा रही थी।

सब कुछ यथावत चल रहा था। बादल बन रहे थे। बारिश हो रही थी। तरह तरह के पेड़ पौधे उग रहे थे। फूलों और फलों का सारा संसार हरा भरा था। जंगल में कई तरह के जीवों वह का अपना अस्तित्व था। सारा जीव जगत आपस में विचार करने लगा- अब क्या होगा? निरंतर धूप वाली जगह से पृथ्वी का सारा पानी सूख जाएगा। जीव जगत में चाहे वह वनस्पति हो या जीव जंतु दोनों का ही अस्तित्व संकट से गिर गया। लगातार रात रहने वाले हिस्से में भी यही हालात थे। धूप नहीं होगी तो पेड़ पौधे नष्ट हो जाएंगे। यह प्रकाश संश्लेषण करके अपना भोजन नहीं बना पाएंगे। पौधे नहीं होंगे तो जीव जंतु खाएंगे क्या? भूखे ही मर जाएंगे।

“पृथ्वी को चप्पल दिलाना जरूरी हो गया है।“ चट्टान पर बैठे एक मेंढक ने कहा। “पृथ्वी की तकलीफ को भी हम जलचर को समझना चाहिए।“ तालाब की एक मछली ने पानी से मुंह बाहर निकाल कर कहा। “क्या पृथ्वी इतनी नाजुक है?” बरगद के पेड़ ने पूछा। “क्या उसके पांव में चलने से छाले हो गए?” डाल पर बैठे कौवे ने आश्चर्य से पूछा। “उसके नाप की चप्पल कहां मिलेगी? कोई अगर मुझे बताए तो मैं ला सकता हूं पृथ्वी के लिए चप्पल।“ कछुए का सवाल भी वाजिब था। सब मिलकर चर्चा कर रहे थे। चिड़िया ने कहा, “मैं उड़ती हूं और ढूंढ लेती हूं कि कहां चप्पल मिल रही है ताकि पृथ्वी की परेशानी खत्म हो।“ “पृथ्वी खुश तो हम पृथ्वीवासी भी खुश। हमें पृथ्वी की चिंता करनी होगी।“ पास ही खड़ी एक छोटी लड़की ने कहा।

पृथ्वी भी सब की चर्चा सुन रही थी। किस को कितनी चिंता है उसकी? पृथ्वी ने देखा एक नन्हें फूल की आंखों में आंसू है और वह मुरझाकर लटक गया है। उसकी यह हालत चिड़िया से देखी नहीं गई। वह पूछ बैठी- “फूल क्या तुम भी पृथ्वी के लिए चिंतित हो?” फूल ने कहा, “मेरा तो 1 दिन का ही जीवन है। मैं तो खिल कर सारे जग को खुशबू देना चाहता हूं पर अब मैं यह काम नहीं कर पाऊंगा क्योंकि मेरा तो एक ही दिन का जीवन है।“

उसने दुखी होते हुए कहा। पृथ्वी ने भी नन्हें फूल की बात सुनी। उसे अपनी गलती का एहसास होने लगा। उसके रुकते ही सब पर संकट आ गया। कहां है उसके पैर? छाले की बात तो पूरी मनगढ़ंत है। काम न करने का एक बहाना है। वह तो अपनी धुरी पर घूमती है। नहीं… नहीं… व्यर्थ की बहानेबाजी छोड़ उसे घूमना होगा। उसे इस नन्हें फूल से ही सही सबक तो लेना ही होगा। अचानक से रुकी हुई पृथ्वी चल पड़ी। पृथ्वी के अपने अक्ष पर घूर्णन करते ही सबका मन प्रसन्नता से खिल गया और सब कुछ पहले की तरह सामान्य हो गया। पर इससे सब को एक सबक जरूर मिला कि हमें पृथ्वी की तकलीफ़ों को समझना चाहिए। वह हमारे लिए महत्वपूर्ण है। ”

बाल कहानियों पर लिखी इनकी कृतियोंं में प्रेरणादायक बाल कहानियाँ (पुरस्कृत), जंगल उत्सव, बालोपयोगी कहानियाँ, बगिया के फूल, करो मदद अपनी, मजेदार बात, अणमोल भेंट (पुरस्कृत) , हवा से बातें, उड़ने वाले जूते – पुरस्कृत, मस्तानों की टोली, मधुबन की सरस कहानियाँ शामिल हैं। इन्होंने बाल उपन्यास इल्ली और नानी भाग-1 और भाग – 2 (पुरस्कृत), और सुनेहरी एवं सिमरू – (पुरस्कृत) लिखे हैं। चिल्ड्रन पिक्चर बुक में किस हाल में मिलोगे दोस्त और पृथ्वी ने मांगी चप्पल (पुरस्कृत) हैं।

बाल पुस्तक (संपादन) में हमारे समय की श्रेष्ठ बालकहानियाँ, देख लो जग सारा, पत्र तुम्हारे लिए, श्रेष्ठ बाल एकांकी संचयन,आत्मकथाओं का सागर, जीवनियों की गुल्लक, बच्चों के ज्ञानवर्धक आलेख कृतियां शामिल हैं। इनकी मोहित की बाल कहानी को भी (पुरस्कृत) किया गया है। किशोर उपन्यासों में सितारों से आगे (पुरस्कृत), कारगिल की घाटी (पुरस्कृत) और दी ऑरबिट आई, मंजूरानी और मूर्तिचोर लिखे हैं। कहानी संग्रह में औरत का सच, थोड़ी सी जगह और सिंदूरी पल हैं।

नाटकों में सत री सैनाणी (राजस्थानी भाषा) और मां तुझे सलाम की रचना की हैं। उपन्यास आभा का सिंधी से राजस्थानी में अनुवाद किया है। ऑनलाइन गाथा डाॅट काॅम. एंडलेस टेल पर कविता संग्रह घर धर्मशाला हो गये प्रकाशित हुआ है। इन्होंने अध्यात्म का वह दिन (पुरस्कृत), लंदन से रोम और सौराष्ट्र में सोमनाथ यात्रा वृतांत पुस्तकें लिखी हैं। इतिहास में सलूम्बर का इतिहास (मेवाड़ का प्रमुख ठिकाना) का लेखन भी किया है। इन्होंने दो दर्जन से अधिक शोध पत्रों का लेखन और प्रस्तुतिकरण किया है।

इन्होंने मुकुन्दलाल पंड्या द्वारा रचित डायरी और प्रो. रघुनाथसिंह मंत्री द्वारा रचित आलेख संग्रह पुस्तकों का संपादन भी किया है। पत्रिका सलिल प्रवाह के विभिन्न विशिष्ट 9 अंकों का वर्ष 2010 -14 तक, राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर की मधुमति के बाल साहित्य विशेषांक तथा समय किरण साप्ताहिक समाचार पत्र में बाल साहित्य पृष्ठ का अप्रेल 2016 से अक्टूबर 2016 तक के अंकों में संपादन भी किया है।

इनकी पुस्तक इल्ली और नानी (बाल उपन्यास), कारगिल की घाटी (किशोर उपन्यास) और मां तुझे सलाम (नाटक) का अंग्रेजी भाषा में अनुवाद किया जाना और महाराष्ट्र राज्य पाठ्यपुस्तक निर्मिती व अभ्यासक्रम संशोधन मंडल, पुुुणे द्वारा इनकी टीटू और चिंकी और स्वाद का रहस्य बाल सुलभ भारती पुस्तकों को कक्षा 6 के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। पृथ्वी ने मांगी चप्पल, पाठ्य पुस्तक – टिप टिप टॉय सीरीज में शामिल होना इनके लेखन की प्रभावशीलता और लोकप्रियता का प्रमाण है।

आपने युगयुगीन सलूम्बर पर (डाक्यूमेंटरी फिल्म) का निर्माण कराया और हाड़ी रानी अमर बलिदान की कहानी ‘‘सत री सैनाणी’’ नाटक पर फिल्म निर्माणाधीन है। आप तीन साहित्यिक ब्लाॅग और बाल साहित्य लेखन व्हाट्सअप समूह संचालित करती हैं।

लेखिका के लेखन की गहराई,कौशल और मूल्य और व्यक्तित्व की सरसता की वजह प्रभावित हो कर इनके लेखन पर विद्वान लेखकों ने शोध कार्य कर पुस्तकें लिखी हैं और संपादन कार्य किया है। दिनेश कुमारी माली ने

“डाॅ. विमला भंडारी की रचनाधर्मिता” पर पुस्तक लिखी। अंजीव ‘अंजुम’ ने ” डाॅ.विमला भंडारी की चुनिंदा बाल कहानियां”;का संपादन किया। डाॅ. जयश्री शर्मा ने अनुकृति, साहित्यिक त्रैमासिक पत्रिका, डाॅ. विमला भंडारी पर केंद्रित का संपादन किया। मोतीराम बाबूराम राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, हल्द्वानी, नैनीताल, उत्तराखंड की शोधार्थी
डाॅ.प्रभा पंत ने “श्रीमती विमला भंडारी के साहित्य का अनुशीलन” पर लघु शोध प्रबाध लिखा। रूलर इंस्टीटृयट, विद्या भवन, उदयपुर
के एक शोधार्थी जितेंद्र ने भीनी पर लघ शोध प्रबन्ध लिखा है।

विमला भंडारी के द्वारा जनमानस में साहित्य स्थापन, उन्नयन, समृद्धि और संरक्षण कार्यों के अंतर्गत 4 सितम्बर 1994 को सलूंबर में स्थापित की गई ‘सलिला संस्था’ सलूंबर के साहित्यिक रूचि रखने वालों के लिए वैचारिक मंच देने के लिए आरंभ की गई है । आज यह संस्था देशभर में बाल साहित्य की विशिष्ट अग्रणी संस्था बन गई है। संस्था के माध्यम से 2010 से प्रतिवर्ष ज्वलंत राष्ट्रीय थीम पर आधारित 2 से 7 दिन अवधि के राष्ट्रीय बाल साहित्यकार सम्मेलन राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर, नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नई दिल्ली, भारतीय बाल साहित्य संस्थान कानपुर जैसी कई संस्थाओं के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित किए जाते हैं।

जिसमें राजस्थान सहित देश के अनेक राज्यों के वरिष्ठ एवं नवोदित बाल साहित्यकार पत्र वाचन, संगोष्ठी, कार्यशाला, लेखन कार्यशाला, चित्र कौशल कार्यशाला, कार्टून, कोलाज, पत्रिका व पुस्तकों की प्रदर्शनी, डॉक्यूमेंट्री फिल्म प्रदर्शन,बालकों और शिक्षकों द्वारा पुस्तक समीक्षा, नई पुस्तकों का लोकार्पण, कवि सम्मेलन,बाल साहित्यकारों के शोध पत्र वाचन आदि कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। सलिल प्रवाह स्मारिका भी प्रकाशित की जाती है , जिसमें बाल साहित्यकारों को शामिल करने के साथ – साथ बालकों की साहित्यिक गतिविधियों को भी शामिल किया जाता है। इन कार्यक्रमों से हजारों बच्चों में बाल साहित्य के प्रति रुचि जाग्रत हो कर साहित्य के प्रति उनका रुझान बढ़ा और बड़े कवि भी बाल साहित्य लिखने की और अग्रसर हुए।

आप ‘बाल साहित्यकार पटल’ नाम से व्हाट्सअप समूह का संचालन बाल साहित्य लेखन कार्यशाला की तरह चला रही है। जिसमें प्रतिदिन विभिन्न विधाओं पर बाल साहित्य सृजन, लेखन, समीक्षा, आलोचना, सुझाव एवं सूचनाओं का समावेश रहता है। वर्तमान में इसे बाल साहित्यकार कार्यशाला का स्वरूप दे दिया गया है।

आपके पुरस्कार और सम्मान चर्चा क्या करें। आपके बाल साहित्य पर किए गए श्लांघणीय कार्यों और उपलब्धियों के सामने सब बौने हैं।

देश का कोन सा ऐसा बड़ा बाल साहित्य और अन्य बड़ा पुरस्कार है जो इनकी झोली में नही आया हो। लेखन और पत्रकारिता के रूप में देश की केंद्र और राजों की अकादमियों तथा निजी ट्रस्टों एवं साहित्यिक संस्थाओं द्वारा 6 दर्जन से अधिक पुरस्कार और सम्मान प्राप्त करने का इन्हें गौरव प्राप्त हुआ। ‘सलूंबर का इतिहास’ पुस्तक बहुत चर्चित एवं लोकप्रिय हुई एवं विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, भागलपुर, बिहार द्वारा 2011 में इनको विद्यावाचस्पति की मानद उपाधि से नवाजा गया। अंतर्राष्ट्रीय वामा संस्कृति एवं साहित्य अकादमी के केंद्रीय बोर्ड की (बाल साहित्य) की अध्यक्ष हैं। राजस्थान साहित्य अकादमी और जवाहरलाल नेहरू बाल साहित्य अकादमी की पूर्व सदस्य है और विविध साहित्यिक संस्थाओं से जुड़ी हैं।

देश और दुनिया में बाल साहित्य से पहचान बनाने वाली साहित्यकार डॉ.विमला भंडारी का जन्म 1 फरवरी 1955 को राजस्थान में राजसंद जिले के ग्राम राजनगर में हुआ। आपने विज्ञान विषय में बी.एससी, पत्रकारिता में पत्रकारिता और जन संचार में स्नातक और हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की है। कह सकते हैं कि ये संवेदना से साहित्यकार, दृष्टि से इतिहासकार, मन से बाल साहित्यकार और कर्म से सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता है। जिला परिषद सदस्य के रूप में राजनीति में आकर समाज सेवा की भावना से कार्य किया। राजनीति, समाज सेवा और साहित्य लेखन सब साथ – साथ चलता रहा। देश के अनेक पत्र – पत्रिकाओं में आपकी रचनाएं, साक्षात्कार प्रकाशित हुए और जयपुर दूरदर्शन से साक्षात्कार, व जयपुर, उदयपुर एवं चितौड़गढ़ आकाशवाणी केन्द्र से हिन्दी व राजस्थानी में नाटक, कहानी, वार्ता के प्रसारण हुए हैं।

बच्चों को बाल साहित्य की पुस्तकों से जोड़ने के लिए सदैव चिंतित और प्रयास रत रहने वाली साहित्यकार की चलते – चलते “पसंद’ कविता की पंक्तियां…..
दिल की फसल
लेने लगे हैं
अब तो लोग।
पेड़ लगा लिए हैं दिल के
चाहे जितने उगाओ,
तोड़ो और बांटो।
जज्बातों की अब किसे पड़ी
प्रतीकों पर
यह सारी दुनिया खड़ी।
भाव और रस
टिक गए हैं
न जाने किस कोने में।
मत पूछो धड़कने की बात
कान बहरे
और आंखे शातिर है।
यहां धड़कन नहीं,
नजर रंगत और टैग पर लिखी
ब्रांड और कीमत पर है।
सम्पर्क :
भंडारी सदन, पैलेस रोड,
पोस्ट: सलूम्बर- ( राजस्थान )
मोबाइल: 9414759359
—————
( लेखक पर्यटन विषय के विशेषज्ञ हैं और सामाजिक और साहित्यिक विषयों पर 45 साल से लिख रहे हैं। )

डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवम् पत्रकार, कोटा

डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
डॉ.प्रभात कुमार सिंघल




चित्रनगरी संवाद में संस्मरणों से भीगी एक शाम

हर इंसान के पास कहने के लिए बहुत-कुछ होता है। भाषा होती है और अभिव्यक्ति कौशल होता है। यह साबित हुआ रविवार 30 जून 2024 को चित्रनगरी संवाद मंच मुम्बई के आयोजन “संस्मरणों की सौग़ात में”। केशव गोरे स्मारक ट्रस्ट गोरेगांव के मृणालताई हाल में आयोजित इस कार्यक्रम में कई लोगों ने अपनी ज़िंदगी के महत्वपूर्ण प्रसंग साझा किये।

‘हिंदी मीडिया डॉट इन’ के सम्पादक वरिष्ठ पत्रकार चंद्रकांत जोशी ने पत्रकारिता से जुड़े कुछ रोमांचक संस्मरण सुनाए। कविवर उदयभानु सिंह ने कवि सम्मेलनों की प्राचीन परंपरा को याद करते हुए हास्य कवि सूंड़ फ़ैज़ाबादी और लोक कवि पद्मश्री बेकल उत्साही से जुड़े कुछ रोचक प्रसंग साझा किये।

कवयित्री सविता दत्त ने एक मज़लूम औरत की दास्तान को जिस सलीक़े से पेश किया उसकी काफ़ी तारीफ़ हुई। गायिका अनुष्का निगम ने सच बोलने के त्रासद अंजाम पर एक मार्मिक प्रसंग सुनाया। आरजे प्रीति गौड़ ने अभिनेत्री सुधा चंद्रन के हवाले से एक बेमिसाल संस्मरण पेश किया। शायर-सिने गीतकार मनजीत सिंह कोहली, मधुबाला शुक्ल और पत्रकार रेणु शर्मा की सहभागिता भी महत्वपूर्ण रही। श्रोताओं की राय में ऐसे आयोजन बार-बार होने चाहिए जिसमें लोग अपने दिल की बात कह सकें। अभिनेता शैलेंद्र गौड़ ने कुछ महत्वपूर्ण सुझाव दिये।

‘धरोहर’ में 24 जून 2024 को दिवंगत सुप्रसिद्ध शायर हस्तीमल हस्ती के रचनात्मक योगदान को शायर देवमणि पांडेय ने याद किया। शायर राजेश ऋतुपर्ण और कवयित्री दमयंती शर्मा ने हस्ती जी की ग़ज़लें ख़ूबसूरत तरन्नुम में पेश कीं। आशा दीक्षित ने दिलकश अंदाज़ में लोकगीत सुना कर कार्यक्रम को पूर्णता प्रदान की। कार्यक्रम का संयोजन राजेश ऋतुपर्ण और संचालन डॉ मधुबाला शुक्ल ने किया।

अगले रविवार 7 जुलाई 2024 को शाम 5 बजे चित्रनगरी संवाद मंच में आकाश ठाकुर के संयोजन और राजेश ऋतुपर्ण के संचालन में युवा प्रतिभाओं के लिए काव्य संध्या का आयोजन किया जा रहा है जिसमें अश्वनी मित्तल ‘ऐश’, पीयूष गजेंद्र ‘आदित्य’, मानव हिरवानी, शिवम् सोनी, तब्बसुम, रितिका ‘रीत’, उदय दिवाकर पांडेय, संदीप यादव और पीयूष पराग काव्य पाठ करेंगे।

चित्रनगरी संवाद मंच का फेसबुक पेज
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लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष से अपेक्षाएं

लोकसभा में सबसे बड़े विपक्षी दल को नेता प्रतिपक्ष के रूप में मान्यता दी जाती है। जिस राजनीतिक दल को लोकसभा के कुल निर्वाचित सदस्यों का दसवां भाग निर्वाचित होते हैं अर्थात 543 × 1/10 =54.

विपक्षी दल के सांसद सर्वसम्मत से अपने नेता के नाम का अनुमोदन करते हैं और उस नेता को लोकसभाध्यक्ष के पास भेज दिया जाता है। वर्ष 1977 में विपक्ष के नेता को कानूनी मान्यता प्रदान किया गया था और नेता प्रतिपक्ष कैबिनेट मंत्री के समान वेतन, भत्ते और अन्य सुविधाएं प्राप्त करते हैं। नेता प्रतिपक्ष का उल्लेख संविधान में नहीं है, बल्कि संसदीय संबिधि(संसदीय विधि) में है। भारतीय संवैधानिक व्यवस्था में विपक्ष का नेता निर्णय लेने की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेता है ।वह संसदीय कार्यों के संचालन में सहयोगी की भूमिका को संचालित करता है। नेता प्रतिपक्ष का पद गौरव का पद है और वह अपने कार्य शैली, अनुशासित व्यवहार और संसदीय मर्यादाओं के सम्मान के कारण उसका उपादेयता संसदीय शासन प्रणाली में होता है । लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार द्वारा लाए गए प्रस्ताव पर तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के द्वारा सरकार को जवाबदेह और उत्तरदाई बनाता है।

नेता प्रतिपक्ष के कई कार्य हैं ।अध्यक्ष की बैठकों के दौरान सदन की गरिमा को बनाए रखना, नीतियों , कार्यों और विधेयकों की प्रस्तुति पर पर चर्चा करना। इसके सहयोगी कार्य से सरकार को वैकल्पिक नीतियां प्रस्तुत करने में सहयोग मिलती है। संसद की कार्यवाही ,जवाब देही और संसदीय आचरण के प्रति निष्ठा और आस्था को अधिक मजबूत करता है। विपक्ष का नेता संसदीय कार्यवाही में सहयोग करके लोकतंत्र के मूल्य ,संसदीय परंपरा की मजबूती और संसदीय शासन प्रणाली को मजबूती प्रदान करता है।

विपक्ष का नेता सरकार से प्रश्न पूछ कर सरकार को जनता के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह बनाता है । देश की जनता के सर्वोत्तम हितों को मजबूत करने में विपक्ष की भूमिका सर्वोपरी है। विपक्ष संसद एवं संसदीय समितियों के भीतर और संसद के बाहर मीडिया में सरकार के दिन प्रतिदिन के कामकाज पर प्रतिक्रिया करता है। इससे जनमत निर्माण में सहयोग मिलता है।

सरकार के पास वैधिक शक्ति होती है लेकिन विपक्ष भी जनता के द्वारा निर्वाचित होता है। विपक्ष भी भारत के लोगों की आवाज का प्रतिनिधित्व कर रहा है। 18वी लोकसभा के निर्वाचन से विपक्ष ने अपने अभीष्ट संख्या को निर्वाचन के द्वारा प्राप्त किया है। विपक्ष संसद को गतिशील रहने में मदद करता है। मजबूत विपक्ष भारत के लोगों का सबल प्रतिनिधित्व करता है।

नेता प्रतिपक्ष शैडो प्रधानमंत्री होता है ।संपूर्ण विपक्ष का प्रतिनिधित्व करता है बल्कि आवश्यक नियुक्तियों में प्रधानमंत्री के साथ बैठता है। नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी प्रमुख होती है। सभी विपक्षी दलों का प्रतिनिधित्व करते हैं और साथ ही उनके पास अपनी शक्ति और विशेषाधिकार होते हैं। ये कई प्रमुख समितियों के महत्वपूर्ण भाग होते हैं ।लोक लेखा समिति (पीएसी),लोक उपक्रम समिति और प्राक्कलन समिति के महत्वपूर्ण भाग होता है ।उनकी महत्वपूर्ण भूमिका संयुक्त संसदीय समितियां (जेपीसी) और चयन समितियां में होता है ।चयन समितियां मुख्य रूप परिवर्तन निदेशालय (ED),केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई),केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीबीसी )केंद्रीय सूचना आयोग (सीआईसी), मुख्य निर्वाचन आयुक्त एवं अन्य निर्वाचन आयुक्तोंऔर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)




औपनिवेशक कानूनों को हटाने की सुखद पहल

15 अगस्त 1947 को भारत की स्वाधीनता के बाद भारत को किस दिशा में आगे बढ़ना चाहिए इसका निर्णय जिन हाथों में गया वे पश्चिमाभिमुख होकर आशावान थे। राष्ट्र की नीति निर्धारण उसी दिशा में चला दुर्भाग्य से न्याय प्रणाली भी उसी सड़ी गली सोच को अब तक ढोती रही। जब से भारतीयता के गौरव को मनाने वाले दल और व्यक्ति सत्तासीन हुए तब से उन्होंने भारतीय समाज, सरकार, सरकारी नीतियों, को स्व के तंत्र पर खड़ा करने के प्रयास प्रारंभ किये।

किन्तु यह कार्य खरगोश की चाल जैसा नही है कि सेकण्डों में उल्टा घूमकर दौड़ने लगे। यह कार्य हाथी के चलने जैसा है यानी हाथी धीरे धीरे ही घूम सकता है। वैसे ही राष्ट्र को सही दिशा में आगे बढ़ाने का काम करना होगा। और फिर इतने समय तक उल्टी दिशा में चलकर सही दिशा में जाने के लिए उल्टी दिशा वाली दूरी को पाटना भी पड़ेगा। इनसब बातों को ध्यान में रखकर नए अपराध कानूनों के वर्तमान बदलावों को समझने की जरूरत है।

प्राचीन भारत की न्याय व्यवस्था
प्राचीन भारत में न्याय और कानून की परंपराएं गहरी और विस्तृत थीं। राजा विक्रमादित्य, चंद्रगुप्त मौर्य, और अशोक जैसे राजाओं ने न्याय के सिद्धांतों का पालन किया और अपने शासनकाल में प्रजा को न्याय प्रदान किया। इनकी न्याय व्यवस्था की विशेषता यह थी कि वे निष्पक्ष न्याय करते थे।इन राजाओं की न्याय प्रणाली में लोक कल्याण, धर्म और नैतिकता को महत्व दिया गया।

औपनिवेशिक न्याय व्यवस्था का उद्देश्य
वहीं, औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश शासन ने भारत में अपनी कानून व्यवस्था लागू की। उन्होंने ब्रिटिश शासन के हितों की रक्षा के लिए न्याय प्रक्रिया और कानूनों का निर्माण किया। इस व्यवस्था में भारतीय जनता पर अनेक प्रकार के अत्याचार हुए। नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन किया गया। ब्रिटिश कानूनों में भारतीयों के लिए दमन, असमानता और अन्याय की भावना थी।

स्वाधीन भारत की न्याय व्यवस्था
स्वाधीनता के बाद भारतीय न्यायालय ने ध्येय वाक्य “यतो धर्मस्ततो जयः” को 26 जनवरी 1950 को अपना तो लिया किन्तु सभी कानून वही औपनिवेशिक काल के बनाये रखे। हालांकि यह वाक्य न्यायपालिका के मूल्यों को दर्शाता है। भारतीय न्यायपालिका का ध्येय वाक्य “यतो धर्मस्ततो जयः” (यतो धर्मः ततो जयः) महाभारत के भीष्म पर्व से लिया गया है। इसका अर्थ है “जहाँ धर्म है, वहाँ विजय है।”

इसका भावार्थ:
यह है कि सच्चाई, न्याय और धर्म के मार्ग पर चलने वाला हमेशा विजय प्राप्त करता है। न्यायपालिका के लिए यह ध्येय वाक्य यह संदेश देता है कि उनके निर्णय धर्म (नैतिकता और न्याय) पर आधारित होने चाहिए ताकि सच्चे न्याय की स्थापना हो सके।

महाभारत के भीष्म पर्व में, जब भीष्म पितामह कुरुक्षेत्र युद्ध में पांडवों और कौरवों के बीच हो रहे संघर्ष के दौरान युधिष्ठिर को धर्म और न्याय का पालन करने की शिक्षा दे रहे थे, तब यह वाक्य कहा गया। इस वाक्य का उद्देश्य यह बताना था कि सच्चाई और धर्म के मार्ग पर चलने वाले को ही अंततः विजय प्राप्त होती है।
किन्तु आज तक IPC, CrPC और IEA नामक तीनो कानून वही ब्रिटिश मानसिकता वाले चल रहे थे।

आज, स्वाधीनता प्राप्ति के बाद, भारत एक लोकतांत्रिक देश के रूप में निरंतर विकसित हो रहा है। भारतीय संविधान ने भारतीय न्याय प्रणाली को स्वतंत्रता, समानता और न्याय के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित किया है। हाल के वर्षों में, भारतीय न्याय प्रक्रिया का भारतीयकरण हो रहा है, जिसमें देश की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए कानूनों का निर्माण और संशोधन किया जा रहा है। यह इन कानूनों के नाम से ही परिलक्षित हो जाता है। जहां पहले इंडियन पैनल कोड अर्थत इंडियन दंड प्रक्रिया संहिता थी वहीं आज इसे भारतीय न्याय प्रक्रिया संहिता हो गई। पूर्व में जहां दण्ड देने पर बल था वहीं आज न्याय को प्रमुखता दी जा ही है। यहीं से भारतीयता परिलक्षित होने लगती है।

अन्याय निवारण अधिनियम: भारत सरकार ने अन्याय निवारण अधिनियम लागू किया, जिससे सभी नागरिकों को न्याय तक पहुंच सुनिश्चित होती है। इसमें विशेष रूप से कमजोर और पिछड़े वर्गों को न्याय प्राप्ति में सहायता मिलती है।

ऑनलाइन न्याय: डिजिटल इंडिया के तहत न्याय प्रक्रिया को ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर लाया गया है, जिससे न्यायिक प्रक्रिया तेज और सुलभ हो गई है।

फ्री लीगल ऐड: गरीब और वंचित नागरिकों के लिए मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान की जाती है, जिससे वे भी अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें।

न्याय मित्र: न्याय मित्र (अमीकस क्यूरी) की नियुक्ति करके उन मामलों में न्याय दिलाने का प्रयास किया जाता है, जहां वादी या प्रतिवादी की सही तरीके से प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा है।

डेटा सुरक्षा कानून: डिजिटल युग में नागरिकों की व्यक्तिगत जानकारी की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए डेटा सुरक्षा कानून बनाए गए हैं।

पर्यावरण संरक्षण कानून: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत स्वच्छ और स्वस्थ पर्यावरण का अधिकार सुनिश्चित करने के लिए पर्यावरण संरक्षण कानून बनाए गए हैं।

महिला सशक्तिकरण: महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और उन्हें समान अवसर प्रदान करने के लिए कई कानून बनाए गए हैं, जैसे कि घरेलू हिंसा अधिनियम और कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न अधिनियम।

भारत न्याय प्रक्रिया में भारतीयकरण की दिशा में तेजी से आगे बढ़ रहा है। यह प्रक्रिया भारतीय समाज के विकास और जनकल्याण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है।नए कानूनों और संवैधानिक सुधारों के माध्यम से न्याय प्रणाली को अधिक सशक्त और न्यायसंगत बनाया जा रहा है। नए आपराधिक कानूनों का उद्देश्य भारतीय न्याय प्रणाली को आधुनिक, प्रभावी, और पारदर्शी बनाना है। इससे अपराधियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई हो सकेगी और पीड़ितों को भी तेजी से न्याय मिल सकेगा।

इन कानूनों में डिजिटल युग के अपराधों का समावेश, महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा, और संगठित अपराधों के खिलाफ कठोर प्रावधान आम नागरिकों के हित में हैं। यह परिवर्तन न केवल न्याय प्रणाली को मजबूत बनाएगा, बल्कि समाज में कानून के प्रति सम्मान और विश्वास को भी बढ़ाएगा। आम नागरिकों के लिए ये कानून उनके अधिकारों की रक्षा और अपराधों से सुरक्षा का एक मजबूत आधार प्रदान करते हैं।

न्याय प्रक्रिया के भारतीयकरण का उद्देश्य न केवल प्राचीन भारतीय न्याय परंपराओं की पुनर्स्थापना है, बल्कि आधुनिक लोकतांत्रिक मूल्यों का भी संरक्षण करना है।

मनमोहन पुरोहित
फलौदी




डाककर्मियों की भूमिका में कई परिवर्तन – डॉ. यादव

इमेल के इस दौर में डाक सेवाओं में विविधता के साथ कई नए आयाम जुड़े हैं। डाककर्मी सरकारों और आमजन के बीच सेवाओं को प्रदान करने वाले एक अहम कड़ी के रूप में उभरे हैं। ऐसे में 1 जुलाई को पूरी दुनिया में ‘नेशनल पोस्टल वर्कर्स डे’ के दिन डाककर्मियों का आभार व्यक्त करने का प्रचलन उभरा है। वाराणसी एवं प्रयागराज परिक्षेत्र के पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने बताया कि ‘नेशनल पोस्टल वर्कर डे’ की अवधारणा अमेरिका से आई, जहाँ वाशिंगटन राज्य के सीऐटल शहर में वर्ष 1997 में कर्मचारियों के सम्मान में इस विशेष दिवस की शुरुआत की गई। धीरे-धीरे इसे भारत सहित अन्य देशों में भी मनाया जाने लगा। यह दिन दुनिया भर में डाककर्मियों द्वारा की जाने वाली सेवा के सम्मान में मनाया जाता है।

वाराणसी एवं प्रयागराज परिक्षेत्र के पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने बताया कि डाककर्मियों की भूमिका में तमाम परिवर्तन आए हैं। ‘डाकिया डाक लाया’ के साथ ‘डाकिया बैंक लाया’ भी अब उतना ही महत्वपूर्ण है। पत्रों व पार्सल के साथ-साथ आधुनिक दौर में लोगों के जीवन से जुड़ी महत्वपूर्ण चीजें पोस्टमैन ही घर-घर वितरित करता है। आधार कार्ड, पासपोर्ट, पैन कार्ड, वोटर आईडी, ड्राइविंग लाइसेंस, बैंक चेक बुक, एटीएम जैसे महत्वपूर्ण दस्तावेजों के साथ-साथ विभिन्न मंदिरों के प्रसाद, दवाईयां और रक्षाबंधन पर्व पर राखियाँ भी डाकियों द्वारा ही पहुँचायी जा रही हैं।

वाराणसी परिक्षेत्र में दो हजार से ज्यादा पोस्टमैन लोगों के दरवाजे पर हर रोज दस्तक लगाते हैं, जिनके द्वारा औसतन प्रति माह 8.5 लाख स्पीड पोस्ट व पंजीकृत पत्र और 15 लाख साधारण पत्रों का वितरण किया जा रहा है। ई-कामर्स को बढ़ावा देने हेतु कैश ऑन डिलीवरी, लेटर बाक्स से नियमित डाक निकालने हेतु नन्यथा मोबाईल एप एवं डाकियों द्वारा एण्ड्रोयड बेस्ड स्मार्ट फोन आधारित डिलीवरी और वित्तीय सेवाएं प्रदान करना जैसे तमाम कदम डाक विभाग की अभिनव पहल हैं।

पोस्टमास्टर जनरल श्री कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि डाक विभाग का सबसे मुखर चेहरा डाकिया है। डाकिया की पहचान चिट्ठी-पत्री और मनीऑर्डर बाँटने वाली रही है, पर अब डाकिए के हाथ में स्मार्ट फोन और बैग में डिजिटल डिवाइस भी है। इण्डिया पोस्ट पेमेंट्स बैंक के माध्यम से आर्थिक और सामाजिक समावेशन के तहत पोस्टमैन चलते-फिरते एटीएम के रूप में नई भूमिका निभा रहे हैं और जन सुरक्षा योजनाओं से लेकर आधार, डीबीटी, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, ई-श्रम कार्ड, वाहन बीमा, डिजिटल लाइफ सर्टिफिकेट तक की सुविधा प्रदान कर रहे हैं।

घर-घर जाकर आईपीपीबी के अंतर्गत डाकियों द्वारा घर बैठे 5 वर्ष तक के बच्चों का आधार बनाने, आधार में मोबाइल नंबर अपडेट करने के तहत प्रति माह 20,000 लोगों का आधार नामांकन/अद्यतनीकरण का कार्य किया जा रहा है, वहीं 40,000 लोगों को आधार इनेबल्ड पेमेंट सिस्टम के माध्यम से घर बैठे उनके विभिन्न बैंक खातों से नगदी उपलब्ध करायी जा रही है। आज भी डाककर्मी जाड़ा, गर्मी, बरसात की परवाह किये बिना सुदूर क्षेत्रों तक डाक सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं।

(आर. के. चौहान)
सहायक निदेशक
कार्या. पोस्टमास्टर जनरल
वाराणसी क्षेत्र, वाराणसी- 221002




शांति निकेतन का गौरवशाली इतिहास

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विश्वभारती की कल्पना एक ऐसे विश्वविद्यालय के रूप में की जो भारतीय संस्कृति का केन्द्र हो जहां तपोवन की अवधारणानुसार स्वावलम्बन हो कला और ज्ञान के विविध पक्षों का विकास होने के साथ-साथ प्रकृति से मानव का निकट संपर्क हो। विश्वभारती की संकल्पना से भी पूर्व रवीन्द्रनाथ के पिता महर्षि देवेन्द्रनाथ ने 1888 में कलकत्ते से लगभग 150 कि.मी. दूर बोलपुर में शांतिनिकेतन आश्रम की नींव रखी। यह आश्रम उन्होंने ध्यान केन्द्र के रूप में स्थापित किया। यहाँ पर एक विद्यालय और पुस्तकालय भी बनाया गया।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यहां विद्यालय का प्रारम्भ 1901 ई० में किया। 21 दिसम्बर को हुए उद्घाटन समारोह में आश्रमवासी एवं पांच विद्यार्थी थे। चार लड़के कलकत्ते के और पांचवे थे रवीन्द्रनाथ के पुत्र रथीन्द्रनाथ उद्घाटन समारोह मंदिर में हुआ और सभी छात्रों को लाल रेशमी धोतियां और चादरें दी गई। सत्येन्द्रनाथ टैगोर ने प्रार्थना सभा आयोजित की।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर की साकार कल्पना थी यह विद्यालय जहां उन्होंने प्रकृति को और अधिक नजदीक से देखा। प्रकृति के नैकट्य भाव के कारण रवीन्द्रनाथ ने शांतिनिकेतन में सहज तथा सरल जीवन शैली को बढ़ावा दिया। आडंबर और कृत्रिमता सहज जीवन से दूर करने के साधन हैं। आश्रम जीवन के बारे में रवीन्द्रनाथ ने लिखा है “आश्रम में कोई जूता-चप्पल नहीं पहनता था। केशतेल या दंतमंजन वर्जित थे” उनकी माँ मृणालिनी के लिए वह परीक्षा की घड़ी थी जब रवीन्द्रनाथ ने अपने पुत्र को छात्रावास में रहने के लिए कहा।

प्रारंभिक दिनों में शांतिनिकेतन विद्यालय की छवि कलकत्ते के भद्रलोक समाज में हास्यस्पद थी। कविगुरु की अव्यावहारिक कल्पना, भद्रजनों के मुख पर तिर्यक मुस्कान का कारण थी। वे लोग छात्रों का झोंपड़ियों में रहना, वृक्षों की छाया में अध्ययन-अध्यापन, जल- आपूर्ति की समस्या की आलोचना करते थे, क्योंकि व्यावहारिक दृष्टि से यह विद्यालय कपोल- कल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं था, जो टैगोर की कवि प्रकृति को व्यक्त करता था ।

अपने इंगलैंड प्रवास (सितम्बर 1878 से फरवरी 1880) के अनन्तर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने पाश्चात्य संस्कृति को नजदीक से देखा और समझा। भारतीय संस्कृति की शिक्षा व्यवस्था के विषय में भी वे सतत् चिन्तनरत थे। शांतिनिकेतन न केवल उनकी कल्पना बल्कि उनकी व्यावहारिक चिन्ताधारा को निरूपित करने वाला विद्यालय बना। वे भारतीय शिक्षा पद्धति से असंतुष्ट थे । वे परम्परागत स्कूली व्यवस्था के विरोध में थे। बच्चों का ज्ञान सिर्फ बाल-साहित्य तक ही सीमित रहना चाहिए, वे इससे असहमत थे क्योंकि बाल मनोविज्ञान से पूर्णतः अनभिज्ञ लेखक भी बाल साहित्य की रचना करते हैं और बच्चों को मूर्ख एवं अज्ञानी बनाते हैं। रथीन्द्रनाथ की पुस्तक ऑन द ऐजेज ऑफ टाइम के अनुसार रथीन्द्रनाथ और बेला (पुत्र एवं पुत्री) ने बंगला संस्कृति और अंग्रेजी के कई महत्वपूर्ण गद्य-पद्य को शीघ्र ही स्मरण कर लिया। उनकी पत्नी मृणालिनी दोनों बच्चों को गृहकार्य में दक्ष करती थीं। वे नौकरों को प्रति रविवार को छुट्टी दे दिया करती थीं और बच्चे पाक कला सीखा करते थे ।

शांतिनिकेतन के पांच अध्यापकों में से तीन ईसाई मतावलंबी थे। यह विद्यालय प्राचीन भारतीय तपोवन की आधुनिक अवधारणा का प्रतिरूप था जातिप्रथा जैसे मुद्दे को टैगोर निजी चुनाव का विषय मानते थे। 1915 में जब महात्मा गांधी शांतिनिकेतन आए तब तक ब्राह्मण छात्र अन्य छात्रों से पृथक भोजन करते थे। टैगोर की यह धारणा थी कि जाति और धर्म व्यक्ति के निजी चुनाव के प्रश्न हैं, किसी बाह्य दबाव के नहीं। वैसे भी उन्होंने धर्म की अपेक्षा सौंदर्य-बोध, सुरुचि और सरल जीवन शैली पर ज्यादा बल दिया ।

महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर के देहवसान के बाद शांतिनिकेतन, जिसमें विद्यार्थियों से कोई फीस नहीं ली जाती थी, के लिए धन को एकमात्र स्रोत त्रिपुरा के महाराज का कोश था। इसके अतिरिक्त रवीन्द्रनाथ की निजी सम्पत्ति, उनकी रचनाओं के प्रकाशन से हुई आय से विद्यालय को आर्थिक सहायता मिलती थी।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर को 1913 में गीतांजलि के लिए नोबेल पुरस्कार मिला। यह पुरस्कार पाने वाले वे पहले एशियाई थे।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने शांतिनिकेतन को विश्वविद्यालय के रूप में विस्तृत करने की योजना बनाई। सन् 1918 से मृत्युपर्यन्त विश्वभारती ही उनके मन-मस्तिष्क को आच्छादित किए रही। रवीन्द्रनाथ ने इसे विश्वभारती का नाम दिया। विश्वविद्यालय का सिद्धान्त वाक्य यत्र विश्वं भवत्येक नीड़म् जहां समूचे विश्व का मिलन एक नीड़ में होता है।

विश्वभारती के बारे में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने विचार पहली बार व्यवस्थित ढंग से ‘भारतीय संस्कृति का केन्द्र’ शीर्षक निबंध में रखे। रवीन्द्रनाथ ने लिखा था – ” विश्वभारती पश्चिम और पूर्व के अध्येताओं का केन्द्र बनेगी। साथ ही यह एशिया के अतीत और वर्तमान की वाहक होगी जिससे प्राचीन विचारधाराओं एवं शिक्षण को आधुनिकता से जोड़ा जा सकेगा।”

विश्वभारती के सिद्धान्तों के विषय में विश्व को बताना जरूरी था। इस प्रक्रिया में उन्होंने सभी संस्कृतियों में अपने विश्वास की धारणा को पुष्ट किया। संस्कृति की अक्षुण्णता और गतिशीलता के लिए बाह्य झटके और दबाव अनिवार्य हैं। भारतीय मेधा की जीवंतता और जीवन शक्ति के लिए यूरोपीय संस्कृति के दलान का उन्होंने स्वागत किया। यह बात दूसरी श्री कि तत्कालीन बंगला समाज ने उनके विचारों को समझे बिना ही उन्हें पाश्चात्य संस्कृति का प्रशंसक सिद्ध कर दिया। टैगोर ने कहा कि “यूरोपीय संस्कृति हमारे निकट न केवल जानकारी के साथ आई है, बल्कि उसके आगमन में गति भी है।

प्रारंभ में शांतिनिकेतन में तीन विभागों की स्थापना की गई जो आज भी विश्वविद्यालय के प्रमुख विभाग हैं-‘कलाभवन’ – जिसे अवनीन्द्रनाथ के सर्वाधिक योग्य शिष्य नंदलाल बसु ने संचालित किया, ‘संगीतभवन’ जिसके संचालन का भार दिनेन्द्रनाथ टैगोर ने संभाला। तीसरा विभाग ‘भारत विद्या’ इण्डोलोजी का था, जिसकी स्थापना बौद्ध साहित्य, वैदिक और शास्त्रीय संस्कृत, पाली, प्राकृत और आगे चलकर तिब्बती और चीनी शिक्षा के लिए हुई, जिसकी ओर बहुत से विदेशी छात्र आकर्षित हुए।

कालान्तर में विश्वभारती विविध विषयों के अध्ययन का केन्द्र बनने लगी। चीन भवन, निप्पन भवन में जहाँ चीनी, जापानी भाषाओं का शिक्षण बोध होने लगा वहीं विद्या भवन कला विषयों की स्नातक एवं स्नातकोत्तर शिक्षा एवं शोध कार्य के लिए स्थापित हुआ। शिक्षा भवन विज्ञान विषयों को उच्च शिक्षा के लिए, विनय भवन शिक्षण प्रविधि के लिए, पद्य भवन बंगला, इतिहास आदि विषयों की उच्च शिक्षा के लिए स्थापित हुए।

ये विभाग रवीन्द्रनाथ के बाद भी निरंतर स्थापित एवं विकसित हो रहे हैं, हाल ही में सूचना एवं संप्रेषण कला, पत्रकारिता के लिए नए विभाग की स्थापना हुई है। इन विभागों की स्थापना और भवन- निर्माण के पीछे गुरुदेव के प्रशंसकों, शांतिनिकेतन की नीतिगत धारणाओं में आस्था रखने वाले लोगों का योगदान रहा है। उदाहरणार्थ हिन्दी भवन, जिसकी स्थापना ऐण्ड्रयूज के प्रयासों के फलस्वरूप हुई। दीनबंधु सी. एफ. ऐण्ड्रयूज 1913 में शांतिनिकेतन आए और जीवन के शेष दिनों तक यहीं रहे।

शांतिनिकेतन के संचालन में वे गुरुदेव का हाथ बँटाते रहे। 16 जनवरी, 1938 को रवीन्द्रनाथ ने हिन्दी भवन प्रतिष्ठा उत्सव में जनमंडली को संबोधित करते हुए कहा ‘हिन्दी भाषा के प्रति मेरा आंतरिक अनुराग है। इसके माध्यम से लक्ष लक्ष मनुष्य अपना मनोभाव प्रकट करते हैं। शांतिनिकेतन में हिन्दी भवन की प्रतिष्ठा करने में जिन्होंने सहायता की है, उनके प्रति मैं धन्यवाद ज्ञापन करता हूँ।’

दीनबंधु एण्ड्रयूज ने हिन्दी भवन का शिलान्यास किया। अपने वक्तव्य में हिन्दी भवन के उद्देश्यों और हिन्दी भाषा के भविष्य की चर्चा की ‘हिन्दी भवन केवल हिन्दी भाषा की शिक्षा देने के लिए हो नहीं प्रतिष्ठित होगा, यहाँ अतीत की हिन्दी भाषा का गवेषण कार्य होगा तथा भविष्य की हिन्दी भाषा बनेगी। यहाँ अरबी और फारसी भाषाओं की भित्ति पर निर्मित उर्दू तथा संस्कृत भाषा की भित्ति पर गठित हिन्दी भाषा के बीच घनिष्ठता स्थापित करने की चेष्टा की जायेगी और इससे सरल और बोध्य राष्ट्रीय भाषा हिन्दुस्थानी के प्रचलन की व्यवस्था होगी।’ इस उद्धरण से स्पष्ट है कि गुरुदेव और उनके सहयोगियों का उद्देश्य शांतिनिकेतन को एशिया का एक प्रमुख शैक्षिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र बनाना था।

विश्वभारती के स्वप्न को यथार्थ रूप देने की दिशा में पहला कदम रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने 1919 ई. में उठाया था। अग्रणी यूरोपीय विचारकों और कलाकारों के साथ, जिनमें आइंस्टाइन भी थे। स्वतन्त्रता के घोषणापत्र ‘लॉ डिक्लेरेशन फौर इंडिपेंडेंस डी ला स्पिरिट’ पर हस्ताक्षर किए। यह घोषणापत्र 1915 ई. के नोबेल पुरस्कार विजेता रोमां रोलां के मस्तिष्क की उपज थी। रोमां रोलां पूर्व और पाश्चात्य संस्कृतियों के मेल के पक्षधर थे। रवीन्द्रनाथ और रोमां रोलां में अक्सर विचार-विनिमय हुआ करता था।

1935 के मध्य तक आते आते विश्वभारती की दशा शोचनीय हो गयी थी। सी. एफ. एण्डूल के कहने पर टैगोर ने गांधी जी को विश्वविद्यालय की आर्थिक दुरवस्था के बारे में बताया कि उनके प्रयास और निवेदन अपने ही लोगों के हृदय में अपेक्षित प्रतिक्रिया नहीं उत्पन्न कर सके हैं। गांधीजी ने अपने त्वरित उत्तर में कहा “आवश्यक धन के लिए आप मेरे परिश्रम पर निर्भर रह सकते हैं. आपको इस वय में धन उगाहने के लिए शांतिनिकेतन से बाहर नहीं जाना चाहिए।” स्पष्ट रूप से महात्मा का संकेत कविगुरू के गिरते स्वास्थ्य की ओर था। मार्च, 1936 में दिल्ली में जी. डी. बिड़ला ने गांधीजी के कहने पर विश्वभारती को 60,000 रु. की वित्तीय सहायता दी ( ध्यातव्य है कि लगभग इतनी ही राशि सन् 1905 में राष्ट्रीय कोष के लिए टैगोर ने मात्र एक सभा में एकत्रित की थी।

इस धन से विश्वभारती की वित्त संबंधी सभी समस्याओं का समाधान हो गया हो, ऐसा नहीं था। वित्त हेतु परमुखकातरता से टैगोर अपमानित अनुभव करते थे। फरवरी 1937 में टैगोर ने गांधी जी से विश्वभारती का ट्रस्टी बनने का अनुरोध किया था जिसे समयाभाव के कारण महात्मा गांधी ने अस्वीकार कर दिया था। महात्मा गांधी द्वारा प्रयुक्त शब्द ‘भिक्षाटन यात्रा’ (टैगोर की वित्तीय अनुदान प्राप्त करने के उद्देश्य से की गई यात्राएं) पर टैगोर ने आपत्ति करते हुए लिखा था “मेरी यात्राएँ भारत की वित्तीय समस्याओं के समाधान के लिए ही नहीं, बल्कि मानव मस्तिष्क को संस्कृति से समाविष्ट करने के लिए हैं।”

टैगोर अपनी कविताओं और नाटकों द्वारा भारतीय सौंदर्य बोध और संवेदना की पहचान शेष विश्व में बनाना चाहते थे। अतएव ये यात्राएँ दोहरे उद्देश्य को लेकर की गईं। टैगोर ने जीवन को अंतिम घड़ी तक कलासाधाना से नाता नहीं तोड़ा। यहाँ तक कि उनका स्वस्थ्य निरन्तर गिरता गया। रवीन्द्रनाथ और आत्मीयों का आग्रह भी उन्हें नाटकों और रिहर्सलों से दूर नहीं रख पाता था।

गांधी जी से तमाम मतभेदों के बावजूद उनका संबंध बहुत घनिष्ठ था। 1937 में गांधी जी ने आश्रम के लिए कुछ और वित्तीय अनुदान जुटाए और 1940 में वे विश्वभारती का उत्तरदायित्व संभालने के लिए सहमत हो गए।

रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अध्यापकों और विद्यार्थियों के बीच की दूरी को रेखांकित करते हुए इस संदर्भ में यूरोपीय शिक्षण पद्धति की अनुशंसा की टैगोर विश्वभारती के माध्यम से शिक्षण व्यवस्था का आदर्श भारत एवं विश्व के सम्मुख रखना चाहते थे। वे स्वयं छात्रों के निकट रहकर उनसे रोजमर्रा की समस्याओं पर बातचीत किया करते थे आश्रम में अध्यापकों और विद्यार्थियों के रहने की व्यवस्था एक साथ ही थी।

प्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजित रे ने लिखा है- “मैं अपने जीवन में शांतिनिकेतन प्रवास के तीन वर्षों को विशेष फलप्रद मानता हूँ ऐसा केवल रवीन्द्रनाथ के नैकट्य के कारण ही नहीं है-इससे पहले मैं बिल्कुल पाश्चात्य कला, संगीत और साहित्य से प्रभावित था। शांतिनिकेतन ने मुझे पूर्व और पश्चिम का सम्मिश्रण बनाया। एक फिल्मकार होने के नाते मैंने शांतिनिकेतन से जितना ग्रहण किया है उतना ही अमेरिकन और यूरोपीय सिनेमा से।”

शांतिनिकेतन में संस्कृति के जिस बीजवृक्ष का रोपण टैगोर ने किया था उसको सुगंध जवाहरलाल नेहरू की पुत्री इंदिरा को भी खींच लाई इंदिरा नेहरू ने 1934-35 का समय यहाँ व्यतीत किया। उन्हें आश्रम का भोजन कभी रुचिकर नहीं लगा। उन्होंने लिखा है- “गुरुदेव के व्यक्तित्व के सभी पक्षों में मेरी रुचि थी केवल कवि के तौर पर नहीं जब वे चित्र आँकते थे तब भी बहुत सी चीजें जो आज चलन में हैं उनके बारे में उन दिनों किसी ने सुना भी नहीं था।

उदाहरण के लिए पर्यावरण और पर्यावरण के प्रति गुरुदेव की चिन्ता गुरुदेव पर्यावरण के लिए शांतिनिकेतन और श्रीनिकेतन में कार्य कर रहे थे। वे मेरा अंश बन गई थीं ये हो सकता है कि ये विचार मुझमें पहले से ही रहे हों और शांतिनिकेतन में इन्हें अभिव्यक्ति का मार्ग मिला हो-मैं कह नहीं सकती मैं सोचती विश्वसंस्कृति की मिलन स्थलों के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।

धीरे-धीरे शांतिनिकेतन के प्रति लोगों की धारणा बदली थी। आश्रम में आकर बसने वाले लोग गुरुदेव की अवधारणा के व्यवहारिक स्तर पर परिचय पा सके सुविधाओं के साथ सादगी का समन्वय आश्रम की विशिष्टता थी। प्रमुख साहित्यिक आलोचक बुद्धदेव बसु ने लिखा, “यह ध्यातव्य है कि कोई स्थान विदेशियों को किस प्रकार अपने में समेट लेता है, उन्हें सच्चे राष्ट्र व की शिक्षा देता है कि कैसे वे एक सच्चे अंग्रेज, सच्चे चीनी, बन सकते हैं.. • शांतिनिकेतन वह स्थान है।

विश्वभारती के सभी भवनों में गुरुदेव ने लिखा है, मैं श्यामला धरणी का वरपुत्र हूँ। श्यामल मिट्टी के साथ मेरा संबंध अधिक है। वहीं मेरा आकर्षण है। पक्के घर में रहना क्या मेरे लिए शोभादायक है। अपने इस मिट्टी के घर में मिट्टी हो कर रहूँगा, एक दिन मिट्टी में मिलकर मिट्टी हो जाऊंगा यही उचित है, पहले से ही इससे संबंध घनिष्ठ कर लूँ।

इसी श्यामली गृह में गुरुदेव की कल्पना में अल्पव्ययी मिट्टी के घर बनाने की योजना ने आकार लिया। इस तरह के घर ग्रामीण समाज की आवासीय समस्याओं का व्यावहारिक समाधान थे । गुरुदेव विश्वभारती के आसपास के ग्रामों के स्वावलंबन और विकास के लिए चिंतनरत थे । वस्तुतः वे विश्वभारती को केवल बौद्धिक संस्कृति का केन्द्र नहीं, बल्कि अर्थ का केन्द्र भी बनाना चाहते थे । कृषि और पशुपालन की संस्कृति ने प्राचीन भारत को समृद्धि के शिखर पर पहुँचाया था। टैगोर ने श्रीनिकेतन में ग्राम्य विकास केन्द्र की स्थापना की – यह शांतिनिकेतन का ही विस्तार है ।

सहकारिता के आधार पर स्वावलंबन और रोजगार के अवसरों के लिए श्रीनिकेतन में हथकरघा, चमड़े की वस्तुएँ बनाने का कारखाना, कृषि विकास केन्द्र, नर्सरियाँ आदि खोली गईं। इन केंद्रों में उद्योगों का व्यावहारिक प्रशिक्षण दिया जाता है, साथ ही सहकारिता के आधार पर बैंक, दुकानें भी खोली गई जो सैंकड़ों लोगों के जीवनयापन का आधार बनीं। टैगोर ने ऐसे सांस्कृतिक संस्थान की कल्पना करते हुए लिखा था – “ऐसे संस्थान को आसपास के गांवों को भी साथ लेकर चलना होगा। उनकी आवासीय सुविधाएँ, सफाई- स्वास्थ्य, चारित्रिक और बौद्धिक विकास के कार्य संस्थान के सामाजिक प्रकार्य का एक पक्ष होना चाहिए। एक वाक्य में, इसे कभी जलने वाली उल्का के समान शेष विश्व से विलग एवं अपूर्ण न होकर अपने-आप में एक सम्पूर्ण विश्व होना चाहिए – स्वनामधन्य, स्वावलंबी, नितनूतन जीवन-धन से सम्पन्न । ”

विश्व को जोड़ने और कर्मशील जीवन का सामंजस्य आनंद से करने के लिए उत्सव और अनुष्ठान महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं । रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने शांतिनिकेतन आश्रम की आनंदमयी धारा के मुख्य स्रोत के रूप में उत्सवों की कल्पना की – ” आनन्द रूपम् अमृतम् यद्विभातिः ।” इन उत्सव – अनुष्ठानों पर रवीन्द्रनाथ की विशिष्ट छाप है । कर्मयोग के साथ आनंद का सम्मिश्रण जीवन को नीरस नहीं बनने देता। शांतिनिकेतन के ये उत्सव और अनुष्ठान कर्म और आनंद का अभूतपूर्व सम्मिश्रण करते हैं ।

इन उत्सवों के तीन आयाम हैं (1) ऋतु उत्सव; (2)महामानव स्मरण; (3) विभिन्न धर्मों का मांगलिक स्वरूपोद्घाटन । इन उत्सव अनुष्ठानों का उद्देश्य मनुष्य के मनु, प्रकृति की विभिन्न ऋतुएँ और जीवन के नित्यप्रति के क्रियाकलापों में सामंजस्य स्थापित करना है।

ये उत्सव वर्ष भर आयोजित होते हैं। जिनमें सर्वप्रथम पहला वैशाख है, यह बंगला नववर्ष का प्रारंभ दिवस है। महर्षि देवेन्द्रनाथ ने ब्रह्म समाज में इस उत्सव का प्रवर्तन सामाजिक सूत्रबद्धता के माध्यम के रूप में किया। मानव-मानव को एकात्म करने के उद्देश्य से यह उत्सव आश्रम में बनाया जाता है। रवीन्द्रनाथ के देहावसान के बाद इसे रवीन्द्रनाथ के जन्मदिन के रूप में मनाया जाने लगा। नववर्ष की प्रभात बेला में सभी आश्रमवासी रवीन्द्र-गान करते हुए छातिम तल्ला और मंदिर परिसर की परिक्रमा करते हैं और एक दूसरे से शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करते हैं।

बंगीय वर्ष 1325 से वर्षा मंगल नामक ऋतु उत्सव का प्रारंभ हुआ। काशी में प्रचलित ऋतु उत्सवों से गुरुदेव प्रभावित थे। उनकी इच्छा को ध्यान में रखते हुए आचार्य क्षितिमोहन सेन वर्षा मंगल का आयोजन कराया जो अत्यंत सफल रहा। सावन मास के अंतिम सप्ताह में इस उत्सव को आयोजित किया जाता है। वर्षा ऋतु के गीत-नृत्य आवृत्ति के भिन्न-भिन्न रूप प्रस्तुत किए जाते हैं। श्रावण में घने काले मेघ घिर-घिरकर आश्रम के कण-कण, पत्ते-पत्ते को सिक्त कर देते हैं। फूल-पत्ते पौधे, घास के विविध रंग, हरियाली एक अनूठा दृश्य उपस्थित कर देती है। कोपाई नदी जल से भरकर खिलखिलाने लगती है।

आषाढ़ के काले मेघ, शांतिनिकेतन को ढक लेते हैं, समूचे आकाश को कंपाती हुई तड़ितझंझा में बुद्ध पूर्णिमा के दिन धर्म चक्र का अनुष्ठान होता है। श्रावणमास में वृक्षारोपण एवं हलकर्षण का अनुष्ठान होता है। वृक्षारोपण रवीन्द्रनाथ के महाप्रयाण के बाद से 22 श्रावण (गुरुदेव का तिरोधान दिवस) को मनाया जाता है। इस अनुष्ठान का वर्णन करते हुए उन्होंने प्रतिमा देवी को लिखा था – “तुम्हारे गमले के बकुलपेड़ से वृक्षारोपण अनुष्ठान सम्पन्न हुआ। पृथ्वी पर किसी पेड़ का ऐसा सौभाग्य नहीं। सुंदर बालिकाएँ परिष्कृत वेश भूषा में शंख बजाती, गीत गाती पेड़ के साथ चलकर यज्ञ स्थल पर पहुँची।

वृक्षारोपण के अगले दिन हलकर्षण उत्सव मनाया जाता है, जिसमें कृषि औजार और कृषकों की भूमिका प्रमुख होती है।

भाद्र के महीने में आश्रम का एक प्रमुख उत्सव शिल्पोत्सव मनाया जाता है। विश्वकर्मा पूजा के दिन शिल्पसदन श्रीनिकेतन के छात्र वेदमंत्रों और शिल्पोपयोगी नाना औजारों के साथ मंडप में आते हैं। इस दिन शिल्पसदन में वहाँ की निर्मित शिल्प सामग्री और ग्राम्य कलाओं की प्रदर्शनी आयोजित होती है।

शरद ऋतु के आगमन पर आश्रम में शरदोत्सव की कल्पना गुरूदेव ने की थी। शरद ऋतु में प्रकृति अपने पूरे सौंदर्य के साथ उपस्थित होती है। लगभग तीन सप्ताह तक (पूजा की छुट्टी के पहले) नाट्य घर, सिंह सदन, मुक्ताकाश में नाटक, आवृत्तियाँ, काव्य पाठ आदि चलते रहते हैं। अंतिम दिन आनंद / बाजार का आयोजन होता है। जिसमें स्कूल यूनिट के छात्र अपनी हस्तकलाओं का प्रदर्शन करते हैं। लाभांश को निर्धन छात्रों के लिए निर्मित कोष में जमा कर दिया जाता है।

पौष उत्सव — शांतिनिकेतन का एक प्रमुख और प्रसिद्धतम उत्सव है। सातवीं पौष महर्षि देवेन्द्रनाथ का दीक्षा ग्रहण दिवस है। नाथ ने इस दिन समस्त जगत की अनुकूलता से विमुख होकर ईश्वरीय सत्य की खोज की थी। पौष मेले में दूरस्थ ग्रामों के लोग अपनी शिल्पकलाओं का प्रदर्शन करते हैं। मूर्तिकला, काष्ठकला-सजावट का सामान विविधोपयोगी वस्तुएँ इस मेले में प्रदर्शित एवं विक्रय की जाती हैं। नगर एवं ग्राम की संस्कृतियों का सुंदर मिलन यहाँ दिखाई देता है। साथ ही भूतपूर्व आश्रमवासियों, विद्यार्थियों के पुनर्मिलन का सुयोग भी इस मेले में जुटता है — आश्रम जैसे अखिल विश्व हो जाता है।

नंदन मेला विश्वभारती के कलाकारों का मेला है। यह आश्रम के कलाभवन के छात्रों द्वारा आयोजित किया जाता है। सितंबर की पहली तारीख को लगने वाले इस मेले का उद्देश्य कला भवन के लिए अर्थकोष निर्मित करने के साथ-साथ भारतीय चित्रकला के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर नंदलाल बसु को याद करना भी है। तीन दिसंबर 1883 को जन्मे नंदलाल बसु ने भारतीय चित्रकला को विशिष्ट पहचान दी। यह मेला, नंदलाल बसु के प्रति श्रद्धा ज्ञापन एवं आगंतुकों और आश्रमवासियों के समक्ष कलाभवन के छात्रों की वर्षभर की कला को प्रस्तुत करता है । कलाभवन के छात्र अपनी बनाई कलाकृतियाँ प्रदर्शित करते हैं।

सतोत्सव या दोल आश्रम का एक महत्वपूर्ण उत्सव है, जो होली के दिन मनाया जाता है। नाच-गान और गुलाल अबीर से दोल मनाया जाता है – बसंत की प्रकृति अपनी छटाएँ दिखाती है सेमल, कंचल शाल, पलाश – विविध रंगी पुष्पों से लद जाते हैं। गुरुदेव के अनेक गीत नवीन, अरुपरतन, चित्रांगदा, नाटक इसी वसंत को लेकर लिखे गए हैं।

इन अनुष्ठानों के अतिरिक्त प्रत्येक बुधवार को प्रातः मंदिर में वैतालिक का आयोजन होता है, जिसमें आश्रमवासी बड़े अनुशासन के साथ श्वेत वस्त्रों में सुसज्जित होकर प्रार्थना सभा भाग लेते हैं। गांधी पुण्याह का आयोजन महामानव गांधी जी को स्मरण करने के उद्देश्य से किया जाता है। 1915 में गांधीजी शांतिनिकेतन आए थे। उनके आगमन की स्मृति में इसे (10 मार्च) कर्मदिवस के रूप में मनाया जाता है।

चैत्र मास के अंतिम दिन वर्ष के अन्त का उत्सव प्रारम्भ होता है “वर्ष समाप्त हो गया दिन की समाप्ति भी हो चली, चैत का अवसान।” चैत का अंतिम दिन मंदिर में प्रकाश-सज्जा से शेष वर्ष पूरे वर्ष को भावभीनी विदाई दी जाती है ” शेष नाहि जे, शेष कथा के बोलवे ।” मंदिर में उपासना की जाती है; टैगोर के गीतों के साथ उत्सव और अनुष्ठानों का वर्ष भर चलने वाला चक्र समाप्त होता है, अगले वर्ष से पुनः प्रारंभ होने के लिए।

गुरुदेव की विश्वभारती अब केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा पा चुकी है। आनंद पाठशाला – जहाँ किंडरगार्डन स्तर पर छोटे बच्चे खेल-खेल में शिक्षित होते हैं। पाठभवन जहाँ बच्चे कक्षा दस तक की शिक्षा पाते हैं उत्तरशिक्षा सदन जहां ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षाएं पढ़ाई जाती हैं। स्नातक, स्नातकोत्तर एवं शोध स्तर की उपाधियों के लिए विविध विषयों के अलग- अलग विभाग हैं जो विभिन्न भवनों में हैं।

अत्याधुनिक सुविधा संपन्न शिक्षा भवन- जहां विज्ञान की पढ़ाई होती है- जैविकी एवं रसायन विज्ञान के क्षेत्रों में नूतन आविष्कारों का प्रमुख केंद्र है। हिन्दी भवन एकमात्र ऐसा भवन है जिसे विभाग नहीं भवन कहा जाता है, यहाँ हिन्दी की उच्च शिक्षा की व्यवस्था है- आज विश्वभारती छात्रों, शोधकर्ताओं और पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है । दूरस्थ देशों के छात्र यहां शिक्षा ग्रहण करने आते हैं। भारतीय नृत्य-संगीत, कला, भाषा को सीखने-सिखाने में विश्वभारती अपूर्व योगदान दे रही है।

https://www.indiaculture.gov.in/ की पत्रिका से




बावेश जनवलेकर मराठी फिल्म्स जी स्टुडियो के प्रमुख बने

जी एंटरटेनमेंट एंटरप्राइजेज लिमिटेड’ (ZEEL) ने बावेश जनवलेकर (Bavesh Janavlekar) को मराठी फिल्म्स, जी स्टूडियो का बिजनेस हेड नियुक्त किया है। अपनी इस भूमिका में वह पूरी मराठी मूवी डिवीजन की जिम्मेदारी संभालेंगे, जिसमें जी टॉकीज, जी युवा, जी चित्रमंदिर और अब जी स्टूडियो मराठी शामिल है।

कंपनी की ओर से जारी एक प्रेस रिलीज में कहा गया है, ‘बावेश को मीडिया, एंटरटेनमेंट और एफएमसीजी सेक्टर्स में काम करने का 26 साल से ज्यादा का अनुभव है। उन्होंने जी मराठी और जी टॉकीज के मार्केटिंग हेड के रूप में जॉइन किया था, इसके बाद उन्हें जी टॉकीज के बिजनेस हेड के तौर पर प्रमोट किया गया था। इस दौरान उन्होंने जी टॉकीज, जी युवा और जी चित्रमंदिर की सफलता को आगे बढ़ाने में अपना अहम योगदान दिया है। इनमें बाद के दो चैनल्स उनके नेतृत्व में ही लॉन्च किए गए थे।’

अपनी नई भूमिका में जी स्टूडियो मराठी के साथ-साथ वह जी टॉकीज, जी युवा और जी चित्रमंदिर में भी पहले की तरह अपनी जिम्मेदारी निभाना जारी रखेंगे। वह जी मराठी मूवी डिवीजन में कंटेंट प्रॉडक्शन, अधिग्रहण और डिस्ट्रीब्यूशन के लिए जिम्मेदार होंगे।

कंपनी के अनुसार, ‘बावेश जनवलेकर जी टॉकीज कॉमेडी अवार्ड्स और संगीत सम्राट जैसी नई पहलों के पीछे प्रेरक शक्ति रहे हैं। बवेश के नेतृत्व में जी स्टूडियो मराठी विकास और इनोवेशन के नए युग में प्रवेश के लिए तैयार है। उनके नेतृत्व में बेहतर कंटेंट के प्रॉडक्शन को बढ़ावा मिलने और मराठी एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में एक अग्रणी प्लेयर के रूप में ज़ी स्टूडियो मराठी की स्थिति को मजबूती मिलने की उम्मीद है।’

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