इस चौपाल में बरसता है कला,संस्कृति और साहित्य का रंग और संगीत का जादू

(मुंबई की चौपाल अपने आप में अनूठी है। कला, साहित्य, संस्कृति, थिएटर, शास्त्रीय संगीत से लेकर हर विधा पर चौपाल में चर्चा होती है। सुधी श्रोताओं के साथ ही अपने अपने क्षेत्र के दिग्गज वक्ता आकर चौपाल को समृध्द करते हैं। पिछले साल चौपाल अपनी रजत जयंती मना चुकी है और महीने भर बाद ही 26 साल पूरे करने वाली है। इस चौपाल की खासियत यह है कि इससे हर क्षेत्र के कई नामी हस्ताक्षर जुड़े हैं जिनमें गुलजार साहब , लेकर जाने माने रंगकर्मी अतुल तिवारी, आधुुनिक ऋषि एवँ कबीर, तुलसी और विवेकानंद जैसे एकल कार्यक्रमों से देश और दुनिया में एक विशिष्ट पहचान बनाने वाले पद्मश्री शेखर सेन, चाणक्य के डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी, जाने माने अभिनेता राजेन्द्र गुप्ता, विष्णु शर्मा और चौपाल के रसिकों के लिए रसभरे व्यंजनों से अतिथि सत्कार करने वाले अशोक बिंदल जी, कविता जी गुप्ता दिनेश जी गुप्ता सहित कई नाम हैं। हर बार चौपाल एक नए और अनूठे विषय पर होती है। चौपाल तीन से चार घंटे तक चलती है और श्रोता भी पूरे समय मौजूद रहकर इसका रसास्वादन करते हैं। चौपाल कभी भुवंस के अंधेरी स्थित परिसर में तो कभी कविता जी और दिनेश जी के घर होती है। चौपाल कला साहित्य और संस्कृति की धारा से जुड़ा एक पारिवारिक आयोजन है ।
 
पिछली कई चौपालों में ये अनुभव हुआ कि चौपाल से नए लोग तो लगातार जुड़ रहे हैं लेकिन पुराने लोगों की कमी लगातार खलती जा रही है। जो लोग चौपाल के लिए पूरे महीने इंतजार करते थे वे अचानक ओझल से होते जा रहे हैं।
 
इस बार चौपाल में रंगमंच और शास्त्रीय गायन की विभिन्न विधाओं के कई खूबसूरत रंग देखने को मिले। विविध भारती के जाने माने उद्घोषक यूनुस खान ने अपने कुशल संचालन से अलग -अलग कार्यक्रमों को एक कड़ी में खूबसूरती से पिरोया और श्रोताओं व मंच के कलाकारों के बीच एक रोमांचक तादात्म्य स्थापित किया। मंच और प्रेक्षकों के बीच युनुस खान की दमदार आवाज़ एक जादुई एहसास जगाती रही। चौपाल पर यूनुस खान की ये रिपोर्ट आपको चौपाल की जादुई सैर करा देगी। )

चौपाल के रजत जयंती उत्सव की यू ट्यूब लिंक

 

चौपाल का फेसबुक पेज

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चौपाल की कुछ यादगार रिपोर्ट 

‘चौपाल’ अपनी अनूठी प्रस्तुतियों के लिए जानी जाती है। बीते कई सालों में कई ऐसी चौपाल हुई हैं जिन्‍हें लोगों ने बरसों-बरस याद रखा। बीते रविवार यानी 19 मई को एक ऐसी ही चौपाल हुई जिसमें नाटक और विभिन्न भाषाओं के नाट्य-संगीत का ऐसा विलक्षण जमावड़ा हुआ कि इसकी गूंज लंबे समय तक सुनाई देने वाली है।

पहले खंड का आरंभ हुआ फणीश्व‍वरनाथ रेणु की कहानी पर आधारित नाटक ‘पंचलाइट’ से। ‘पंचलाइट’ कहानी रेणु के संग्रह ‘ठुमरी’ में संग्रहीत है। इस नाटक का निर्देशन राकेश साहू ने किया। दो दर्जन से अधिक कलाकारों के अभिनय से सज़ा यह नाटक कई सवाल उठाता है। यह जातीय भेदभाव, अमीर और ग़रीबों के बीच की खाई, नई तकनीक से जुड़े कौतुहल, प्रेम और समाज में उसके विरोध, फिल्‍मी-गीतों को लेकर उस समय के समाज के फैली वितृष्‍णा, पंचायत से जुड़े रसूख़दार लोगों की चालबाजियों पर गहरी चोट करता है। राकेश ने इस नाटक का निर्देशन बड़ा सूझबूझ से भरा किया है। नाटक को बहुत संगीतमय रखा गया है। ख़ासतौर पर मेले का दृश्य तो क्‍या ख़ूब बन पड़ा है। कुछ ऐसे कलाकार थे जिन्‍होंने एक से ज़्यादा भूमिकाएं कीं और क्‍या ख़ूब कीं। ‘पंचलाइट’ ने चौपाल में जो समां बांधा कि पूछिए मत। राकेश और उनकी टोली इसके लिए बधाई की पात्र है।

इस बार चौपाल में नाटक के साथ जो सबसे बड़ा फ़ोकस था वो था नाट्य-संगीत पर। यह शायद इतिहास में ऐसा पहला और विलक्षण आयोजन था जिसमें हिंदी, गुजराती और मराठी नाट्य-संगीत की एक ही मंच पर बात की गयी। और कुछ कालजयी नाटकों के नाट्य-संगीत को पेश भी किया गया। मराठी नाट्य-संगीत के लिए मंच पर आईं जानी-मानी गायिका तेजस्विनी इंगले। हिंदी और मराठी फ़िल्‍मों और नाटकों में गीत गा चुकी तेजस्विनी एक माहिर गायिका हैं। संचालक ने बताया कि उनकी यात्रा ‘आविष्कार’ समूह के साथ शुरू हुई और वो डेढ़ सौ से ज़्यादा नाट्य-संगीत प्रस्तुतियां दे चुकी हैं। तेजस्विनी ने बताया कि मराठी संगीत-नाटकों का आरंभ नांदी से होता है जो एक तरह से आराधना का गीत है। उन्‍होंने अपनी प्रस्‍तुति की शुरूआत नाटक ‘मानापमान’ की नांदी ‘नमन नटवरा विस्मयकरा’ से की। संचालक यूनुस ख़ान ने बताया कि यह नाटक कृष्‍णाजी प्रभाकर खाडिलकर ने लिखा था। और इसकी पहली प्रस्‍तु‍ति सन 1911 में हुई थी। इस नाटक में महान कलाकार बाल गंधर्व ने काम किया था।

 

इसके बाद तेजस्विनी ने मानापमान का ही एक गीत ‘युवती मना’ प्रस्‍तुत किया। तेजस्विनी ने जो तीसरा गीत प्रस्‍तु‍त किया वो स्‍वातंत्र्यवीर सावरकर के लिखे नाटक ‘सन्‍यस्‍त खड्ग’ से था। इसके बोल थे ‘मर्मबंधातली ठेव ही’। इसके बाद जो गीत आया उसने तो जैसे समां ही बाँध दिया। मराठी के बहुत ही प्रसिद्ध नाटक ‘कट्यार काळजात घुसली’ का गीत ‘सूरत पिया की’ जिसका संगीत पंडित जीतेंद्र अभिषेकी ने दिया था। और इसे नाटक में वसंत राव देशपांडे ने गाया था। इस गीत की हर पंक्ति में अलग अलग राग और ताल में भी बदलाव होते हैं। तेजस्विनी ने बताया कि इसमें राग सोहनी, मालकौंस, चंद्रकौंस और वृंदावनी सारंग राग बारी-बारी से आते हैं। इसके बाद नाटक ‘ययाति आणि देवयानी’ से दो गीत प्रस्‍तुति किये गये और इस रसपूर्ण प्रस्‍तुति ने दर्शकों का मन मोह लिया। हॉल देर तक तालियों की गूंज से भरा रहा।

यह पहला मौक़ा था जब मुंबई में किसी मंच पर मराठी गुजराती और हिंदी नाटकों का संगीत प्रस्तुत किया जा रहा था। इसके बाद आई बारी गुजराती नाट्य संगीत की। जिसके लिए मंच पर आए गुजराती के जाने माने नाट्य कलाकार उत्कर्ष मजूमदार। उनके साथ पग पेटी पर जाने-माने संतूर वादक और पेशे से सीए—स्‍नेहल मजूमदार जो गुजराती साहित्य अकादमी के चेयरमैन भी हैं। हेमांग व्यास तबले पर थे। और गीत तथा अभिनय प्रस्तुतियों में उत्कर्ष का साथ दिया मंजरी मजूमदार ने। जो गायिका, अभिनेत्री तो हैं ही पेशे से डॉक्‍टर हैं। उत्कर्ष मजूमदार ने बताया कि किस तरह गुजराती नाटकों का आविर्भाव पारसी रंगमंच से हुआ। उन्‍होंने गुजराती संगीत नाटकों का दिलचस्प इतिहास भी बताया और ‘जूनी रंगभूमि ना गीतो’ भी प्रस्‍तुत किए। सैकड़ों साल पुराने इन गीतों को लोगों ने बड़ी दिलचस्पी से सुना। तकरीबन पैंतालीस मिनिट की इस प्रस्‍तुति में उत्कर्ष ने दर्शकों को बांधकर रखा। चौपाल में उत्कर्ष मजूमदार पहले भी गुजराती रंगमंच से जुड़ी दिलचस्प बातें बता चुके हैं। ख़ासतौर पर विश्व रंगमंच दिवस पर कोरोना समय से ठीक पहले। लेकिन इस बार उन्‍होंने बाक़ायदा सही वेशभूषा और मेकअप के साथ गुजराती नाट्य-गीतों की अद्भुत छटा बिखेरी।

तीसरी पेशकश थी हिंदी नाट्य-संगीत की। और इसके लिए चौपाल में आमंत्रित किया गया था जाने-माने संगीतकार और संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित आमोद भट्ट को। आमोद ने बरसों बरस बी वी कारंत के साथ नाटकों में काम किया है। संगीत तैयार किया है। उनके पास बड़ा वृहद अनुभव है तरह तरह के नाटकों के गीतों का। आमोद के साथ थी नाटक कलाकारों की एक बड़ी टोली—जो गीतों को लेकर हाजिर थी।

आरंभ किया गया गिरीश कार्नाड के नाटक ‘हयवदन’ की एक बहुत ही नाटकीय गणपति वंदना से—‘नमो नमो हे गजवदन’। देश की जानी-मानी रंग हस्ती श्री बी वी कारंथ ने इसे कंपोज़ किया था। बाबा कारंत आमोद भट्ट और शुभाश्री भट्ट के रंग गुरु भी रहे हैं। दिलचस्प बात ये थी कि यह प्रस्तुति रंगमंडल भारत भवन भोपाल में 1984 में तैयार की गयी थी।
इसके बाद एक और बहुत ही शानदार गीत आया ‘सावन के झूले खेत्ता’। ये गीत लोर्का के लिखे नाटक येर्मा में शामिल था जिसे “माटी” नाम से खेला गया। आमोद भट्ट ने अपनी इस पेशकश में गुलज़ार के लिखे चंद गीत भी पेश किए। जैसे ‘कायनात, बस चंद करोड़ों सालों में’। इसके अलावा ‘मॉनसून की सिम्‍फ़नी’। ये सलीम आरिफ के नाटक ‘अठन्‍नी मुंबई महानगर की’ में शामिल गीत था। और बहुत ही बेमिसाल गीत है बारिश के बारे में।

आमोद और उनकी टोली ने नाटक हयवदन का एक और गीत सुनाया—‘लोई लोई’। और नाटक ‘अंधा युग’ का गीत—‘आसन्न पराजय वाली इस नगरी में’। अंधा युग का एक और अद्भुत गीत पेश किया गया—”रूद्र देव कापालिक भैरव”।

इस टोली का पेश किया गया एक बहुत ही दिलचस्प गीत था चौपाली अतुल तिवारी के नाटक ‘ताऊस चमन की मैना’ से। ये गीत था ‘फ़लक आरा की शहज़ादी’।

इस पेशकश के आखिर में नाटक ‘महारास’ का एक कमाल का गीत पेश किया गया—‘पूर्ण चंद्र शरत रात, जमुना तट आधी रात’। डॉ पुरूषोत्‍तम चक्रवर्ती ने इसे लिखा है।
और इस तरह एक ऐतिहासिक चौपाल का अंत हुआ। एक ऐसी विलक्षण चौपाल जिसमें ना केवल नाटक शामिल था बल्कि हिंदी, मराठी और गुजराती तीनों भाषाओं के नाट्य-गीतों की प्रस्‍तुति एक ही मंच पर एक साथ की गयी। कार्यक्रम का संचालन कर रहे उद्घोषक यूनुस ख़ान ने बताया कि ऐसा बरसों-बरस में पहली बार हुआ है जब तीनों भाषाओं के नाट्य-संगीत को एक ही मंच पर ला खड़ा किया गया हो। और इतने दिग्‍गज कलाकारों ने अपनी प्रस्‍तुति दी हो। मुंबई में हिंदी, गुजराती और मराठी नाट्य-कर्म तो निरंतर जारी है। पर इन तीनों भाषाओं का नाट्य-संगीत कभी एक मंच पर पेश नहीं किया गया।

चौपाल का यह अद्भुत प्रयास था जो पूरी तरह से सफल रहा।

उन लोगों के लिए अफसोस जो जीवन की व्यस्तताओँ गर्मी के थपेड़े या आलस के झोंके में पहुंच नहीं सके। या जिन्हें लगा कि क्षेत्रीय भाषाओं की इस प्रस्तुति में पता नहीं कुछ दिलचस्प भी होगा या नहीं। पर जिन्होंने यह चौपाल मिस की उन्होंने जीवन का एक चमकीला और यादगार दिन मिस कर दिया।

 




मोची का काम करते हैं और इनके साहित्य पर हो रहा है शोध

12 वीं पास ये सज्जन करते हैं मोची का काम, देते हैं यूनिवर्सिटियों में लैक्चर और इनके साहित्य पर हो रही है रिसर्च

पंजाब के चंडीगढ़ में टांडा रोड के साथ लगते मुहल्ला सुभाष नगर के द्वारका भारती (75) 12 वें पास हैं। घर चलाने के लिए मोची का काम करते हैं। सुकून के लिए साहित्य रचते हैं। भले ही वे 12 वीं पास हैं, पर साहित्य की समझ के कारण उन्हें वर्दीवालों को लेक्चर देने में बुलाया जाता है। कई भाषाओं में साहित्यकार इनकी पुस्तकों का अनुवाद कर चुके हैं। इनकी स्वयं की लिखी कविता एकलव्य इग्नू में एमए के बच्चे पढ़ते हैं, वहीं पंजाब विश्वविद्यालय में 2 होस्टल इन उपन्यास मोची पर रिसर्च कर रहे हैं। वे कहते हैं कि जो व्यवसाय आपका भरण पोषण करे, वह इतना अधम हो ही नहीं सकता, जिसे करने में आपको शर्मिंदगी महसूस होगी।

द्वारका बोले- घर चलाने को गांठता हूँ जूते, सुकून के लिए रचता हूँ साहित्य
सुभाष नगर में प्रवेश करते ही अपनी किराए की छोटी सी दुकान पर आज भी द्वारका भारती हाथों से नए नए जूते तैयार करते हैं। अक्सर उनकी दुकान के बाहर बड़े गाड़ियों में सवार साहित्य प्रेमी अधिकारियों और साहित्यकारों की पहुंचना और साहित्य पर चर्चा करना दिन का हिस्सा हैं। चर्चा के दौरान भी वह अपने काम से जी नहीं चुराते और पूरे मनोयोग से जूते गांठते रहते हैं। फुरसत के पलों में भारती दर्शन और कार्ल मार्क्स के अलावा पश्चिमी व लैटिन अमेरिकी साहित्य का अध्ययन करते हैं।

डॉ.सुरेन्द्र की लेखनी से साहित्य की प्रेरणा मिली
द्वारका भारती ने बताया कि 12 वीं तक पढ़ाई करने के बाद 1983 में होशियारपुर लौटे, तो वह अपने पुश्तैनी पेशे जूते गांठने में जुट गए। साहित्य से लगाव बचपन से था। डॉ.सुरेन्द्र अज्ञात की क्रांतिकारी लेखनी से प्रभावित हो उपन्यास जूठन का पंजाबी भाषा में किया गया। उपन्यास को पहले ही साल बेस्ट सेलर उपन्यास का खिताब मिला। इसके बाद पंजाबी उपन्यास मशालची का अनुवाद किया गया। इस दौरान दलित दर्शन, हिंदुत्व के दुर्ग पुस्तक लेखन के साथ ही हंस, दिनमान, वागर्थ, शब्द के अलावा कविता, कहानी व निबंध भी लिखे।

द्वारका भारती ने बताया कि आज भी समाज में बर्तन धोने और जूते तैयार करने वाले मोची के काम को लोग हीनता की दृष्टि से देखते हैं, जो नकारात्मक सोच को दर्शाता है। आदमी को उसकी पेशा नहीं बल्कि उसका कर्म महान बनाता है। वह घर चलाने के लिए जूते तैयार करते हैं, वहीं मानसिक खुराक व सुकून के लिए साहित्य की रचना करते हैं। जूते गांठना हमारा पेशा है। इसी से मेरा घर व मेरा परिवार का भरण पोषण होता है।

साभार https://www.facebook.com/profile.php?id=100008508123676 से




जीवन के हर रंग में रंगी हैं डॉ.शबाना ‘ सहर ‘, की ग़ज़ले और नज्में

ग़म, तन्हाई, दर्द, ग़ुस्सा,
छोड़ ये बातें, भूल ये क़िस्सा।
डॉ.शबाना ‘ सहर ‘ की अदबी ज़िन्दगी का आगाज़ इस शैर से होता है। ये एक ऐसी ग़ज़ल कार और शायरा हैं जिनकी ग़ज़लों और नज़्मों में जहां एक तरफ वक़्त की कड़वाहटें, परेशानियाँ, हिज्र, विसाल, बेचैनियाँ, तन्हाई का ज़िक्र मिलता है वहीं दूसरी तरफ तक्लीफों से लड़ने, टकराने का हौंसला और जज़्बा भी देती हैं। भाईचारे और कौमी एकता का संदेश भी देती हैं गजलें । इनकी ग़ज़ल के चंद अशआर की बानगी देखिए…………..
ज़रा घायल हुआ तो क्या, अभी तक जान बाक़ी है
परिंदा फड़फड़ाता है, अभी उड़ान बाक़ी है
परों को खोलकर, मैंने अभी उड़ना सीखा है
अभी तो नापने को सारा आसमान बाक़ी है।

इनकी नज्मों में दोस्ती व भाईचारे का संदेश भी बखूबी दिया गया हैं। आपसी और राष्ट्रीय एकता का पैगाम देती इनकी नज़्में, धर्म के रंगों से दूर मुहब्बत के रंगों से रंगी हुई हैं जिन्हे पढ़कर आप भी उन्हीं मोहब्बत के रंगों में रंग जाएंगे। इनकी नज़्म ‘आई होली’ और ‘होली के रंग’ ऐसे ही भावों का संदेश देती है…………….
हर सूँ खुशियां आई जैसे,
या आई बहार, आई होली, साथ में लाई,
रंगों की बौछार,
सब का दिल है झूम रहा,
सब हैं खोए मस्ती में,
रंग लगा है हर एक दिल पर,
रौनक हुई है बस्ती में,
प्यार भरा है हर एक दिल में, ये है ऐसा त्यौहार,
आई होली साथ में लाई,
रंगों की बौछार।

रचनाकार उर्दू और हिंदी में ग़ज़ल, नज्म, गीत, क़तअ लिखती हैं। वर्तमान परिपेक्ष पर ग़ज़लें और नज़्में करुण रस, शान्त रस, वात्सल्य रस, श्रृंगर रस से ओतप्रोत हैं। इनकी करूण रस की ग़ज़लों और नज़्मों में प्रेम पात्र का चिरवियोग, सामाजिक दुःख-शोक, जुदाई, आदि का वर्णन है जो वियोग की भावना को दर्शाता है। शान्त रस की ग़ज़लें और नज़्में परमात्मा से आत्मिक जुड़ाव और सांसारिक लालसा से दूरी जैसी भावनाओं की तरफ इशारा करती हैं। श्रृंगार रस की ग़ज़लों और नज़्मों में नारी की समाज में स्थिति, नारी के साथ समाज द्वारा अपनाया जाने वाला दोहरा रवैया एवं नारी-सौंदर्य का बोध होता है। वात्सल्य रस की ग़ज़लों और नज़्मों में अनुराग का भाव दिखाई देता है। इसके अलावा वर्तमान परिपेक्ष की गजलों में राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, दुश्वारियाँ और कुरीतियों का चित्रण किया गया है जो समाज को जाग्रत करने और फ़िक्र करने का संदेश देता है।

इनके ग़ज़ल संसार के आईने में सामाजिक, राजनीतिक, पारिवारिक, निजी ज़िन्दगी से जुड़ी समस्याएं , इश्क़, हिज्र, विसाल, बेवफाई, तन्हाई, बेचैनी, माज़ी के पल, हौसला, ख़्वाबों का टूटना, फ़लसफ़ा ख़ुदी, जिम्मेदारियों का बोझ सभी का अक्स उभर कर सामने आता है। सियासी मसले पर ग़ज़ल के ये चन्द अशआर देखिए…………….
तुम अपने ज़ुल्म से कब तक सताओगे डराओगे
ग़लत मन्सूबे लेकर कब तक हमको लड़ाओगे।
यहाँ पर गूंजती मन्दिर और मस्ज़िद की सदाएँ है।
हवाओं में घुली आवाज़ों को कैसे मिटाओगे ?

मोहब्बत के बाद की तन्हाई, बेबसी, बेचैनी को इन्होंने शब्दों की मणिमाला में मोतियों की तरह इस प्रकार पिरोया है, ग़ज़ल के चन्द अशआर देखिये……………..
गूँज रही है मुझ में कितनी तन्हाई
मेरे अंदर पसरी कितनी तन्हाई
तन्हाई के पार है कितना शौर ओ ग़ुल
शौर ओ ग़ुल के पार है कितनी तन्हाई
जीने की रस्म बारहा निभाती रही हूँ मैं
सीने पर ग़म का बोझ उठाती रही हूँ।
ख़ुशियों के फूल चुनती रही बांटती रही
दामन में अपनी ख़ार सजाती रही हूँ मैं।
एक याद थी जो जान में कुछ ऐसी बस गई
हर लम्हा अपनी जान से जाती रही हूँ मैं।

शायरी इनकी ज़िन्दगी की आवाज़ और टूटे हुए दिल का साज़ है। ग़ज़लें और नज़्में हयात और कायनात के राज़ खोलती हैं और ज़िन्दगी की हक़ीक़त से पर्दा उठाती हुई नज़र आती हैं, जिन्हें इन्होंने लफ़्ज़ों का जामा पहना कर शैर के क़ालिब में ढाला है। उद्धारण के तौर पर इनकी नज़्म ‘रिश्ते’ की बानगी देखिए……….
बहुत क़रीब से देखा है मैंने’
रंग बदलते रिश्तों को,
तेज़ तपिश में जैसे सारे,
रंग फीके पड़ जाते हैं,
फिज़ा में जैसे शाख़ों से,
पत्ते सारे झड़ जाते हैं,
तेज़ दोपहरी में सड़कों पर,
धूल उड़ा करती है जैसे,
वैसे ही दुनिया के रिश्ते,
तेज़ तपिश में जल जाते हैं,
फिर भी ऐसे रिश्तों का,
बोझ उठाना पड़ता है,
फ़र्ज़, वफ़ा और ज़िम्मेदारी,
रोज़ निभाना पड़ता है,
एक अकेली जान को कितने,
क़र्ज़ चुकाना पड़ता है।

जब इंसान ख़ुद को पहचान लेता है तब वह दुनिया और समाज में अपना श्रेष्ठ योगदान देने योग्य बन जाता है और यह तब ही मुम्किन है कि हम ख़ुद को पहचानें । इसी ख़ुदी के फ़लसफे़ को लेकर इन्होंने नज़्म ‘तलाश’ लिखी। देखिए भाव कितने गहरे हैं,………….
तलाश कर रहा है तू सुकून को इधर-उधर,
बैठा थक के राह में आया नहीं सुकून नज़र,
कभी अपनी जीत पर और कभी उम्मीद पर,
और सुकून तलाशना प्रीत पर, मनमीत पर,
फिर कभी यह सोचना क्या यहीं सुकून है।
जिसकी तलाश है तुझे, आता नहीं फिर क्यों नज़र।
इस नगर है ढूंढता उस डगर है ढूंढता,
है सुकून आख़िर कहाँ, मिल पाएगा आख़िर किधर,
तू बैठ अपने साथ, कुछ देर ख़ुद से बात कर,
भीड़ से किनारा कर, वुजूद की तलाश कर,
मिल ख़ुद से रूबरू कभी, रूह को सरशार कर,
अपने ही अंदर डूब कर पा जा सुराग़ ए ज़िंदगी,
बेचैन होकर राह में फिरता है क्यों दर बदर।

जुदाई के जज़्बात और तड़प को ग़ज़लों और नज़्मों में जिस शिद्दत से बयां किया है, उसका एहसास ग़ज़ल के चंद अशआर में यूं झलकता है……………….
तुमसे होकर जुदा यूं लगा है
जैसा जीना मेरा एक सज़ा है।
ये ज़मीं आसमां सब हैं ग़ुमसुम
इन हवाओं पर पहरा लगा है।
राह तकती हैं बोझल निगाहें
पर न आएगा वो जो गया है।
अब तो तन्हाईयां है मुकद्दर
दूर तक फैली खामोशियां है।

इस बात से बिल्कुल इन्कार नहीं किया जा सकता है कि मर्दाना समाज ने औरत के प्रति हमेशा से दौग़ला व दोहरा रवैया अपनाया है, जबकी एक औरत किसी भी सूरत में मर्द से पीछे नहीं बल्कि, मौजुदा दौर में औरत मर्द के के साथ कंधे से कंधा मिला कर हर क्षेत्र में अपना मक़ाम दर्ज करवा रही है। इनकी नज़्म ‘औरत’ में औरत मर्दाना समाज को आइना दिखाती हुई नज़र आती है। नज़्म की खूबसूरती काबिले गौर हैं…………….
मैं जिस्म हूँ,
मैं हूँ जान भी,
कहीं चुप, कहीं हूँ बयान भी,
कभी सिसकियां तो कभी चीख़ हूँ,
तेरे ग़म की ख़ुशी में शरीक हूँ,
हूँ तितलियों सी क़बा लिए,
सब ज़ीस्त के रंग मुझसे हैं,
तू हिसा है मेरी ज़ात का,
तुझे ग़ुरूर है किस बात का,
फिर ख़ेलता है क्यों भला,
यह ख़ेल शेह और मात का।
इसी विषय को आगे बढ़ाते हुए नज़्म ‘वुजूद’ मर्दाना समाज से औरत सवाल करती नज़र आती हैं…………
मैं बेटी हूँ,
मैं बीवी हूँ,
और मैं माँ भी हूँ,
इतने रिश्तों का मैं एहसास हूँ,
इसलिए मैं ख़ास हूँ।
बेटी बनकर ख़ुशी लुटाऊँ,
बीवी बनकर घर को सजाऊँ,
माँ बनकर पूरी हो जाऊँ,
घर आंगन की मैं हूँ ज़ीनत,
मुझसे है घर कुल की इज़्जत,
बाप के आंगन की मिट्टी हूँ,
साजन की लिखी चिट्ठी हूँ,
हूँ बच्चों का मै संसार,
प्यार लुटाती हर रिश्ते पर,
मकान को बनाती हूँ मैं घर,
पहले से ही बँटी हुई हूँ,
हर रिश्ते से सटी हुई हूँ,
फिर क्यों मुझ को तोड़ा जाता।
हर ग़लती से जोड़ा जाता,
करती हूँ मैं एक सवाल,
क्यों बुनते हो इतने जाल।
क्यों चलते हो मुझसे चाल।
इनकी ग़ज़लों और नज़्मों का संग्रह शीघ्र ही प्रकाशित होने की प्रक्रिया में है।

परिचय :
जीवन के विविध रस – रंग में ग़ज़ल और शायरी लिखने वाली रचनाकार डॉ. शबाना ‘सहर’ का जन्म कोटा में 29 जून 1984 को पिता शबीर अहमद एवं माता नसीम के आंगन में हुआ। आपने गोल्ड मेडल के साथ उर्दू विषय में एम.ए. वोकल संगीत में एम.ए. ,बी.एड, उर्दू में एम.फिल., उर्दू नेट तक अध्ययन कर उर्दू विषय में पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की।राजपूताना उर्दू रिसर्च अकैडमी में शोध लेख सहित उर्दू एवं अन्य भाषाओं के अनेक प्रतिष्ठित पत्र – पत्रिकाओं , साझा संकलनों, कॉलेज की पत्रिका, ऑन लाइन मंचों पर इनकी रचनाओं और लेखों का प्रकाशन होता है। आकाशवाणी केंद्र कोटा से आपका काव्यपाठ समय – समय पर प्रसारित होता है।

प्रसार भारती दूरदर्शन केन्द्र (जयपुर) ‘मुशायरा में शायर’ सहित विविध मंचों से और काव्य संगोष्ठियों में काव्य पाठ किया है और वर्तमान में भी यह क्रम जारी है। समय-समय पर इनको राजस्थान उर्दू अकादमी, कोटा राजकीय महाविद्यालय के उर्दू विभाग तथा कोटा की कई संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत और सम्मानित किया गया है। वर्तमान में आप कोटा के सर्वोदय कॉलेज, रानपुर में उर्दू विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर सेवारत हैं और साहित्य सृजन में सक्रिय हैं।




मंजू किशोर ‘ रश्मि ‘: सामाजिक विषमता के साथ प्रेम की पक्षधर रचनाएँ

लिव इन रिलेशनशिप में
रिश्तों में ना रही शुद्धता
नर-नारी पर समलैंगिकता छाईं
ये कैसी संस्कृति है आई
मेरे भारत बता
ये कैसी भ्रामिकता छाईं
पिता अपनाअंश बेचता
माता अपनी कोख
वर्जिनिटी की कीमत
बाजारों आई…

सामाजिक विषमताओं पर करारा व्यंग्य करती रचनाकार मंजू कुमारी मेघवाल साहित्यिक उप नाम मंजू किशोर ‘ रश्मि ‘ की यह रचना उनके काव्य संग्रह “भावों का स्पंदन” की एक बानगी है जिसका प्रकाशन राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर के आर्थिक सहयोग से हुआ है। ऐसे ही परिवेश,संदर्भ और साम्यिकता पर आधारित 86 कविताओं के संग्रह में ‘औलाद वसीयत से अलग होती है’, महंगे लोग सस्ते लोगों, तीन तलाक़, कचरे के ढेर, शहीद की विधवा का दर्द, सिंहासन, चम्बल मुझसे कुछ कहती हैं और मतदान आदि कविताएं समाज की विषमताओं को ही प्रकट करती हैं परंतु मूल भाव प्रेम और समर्पण है।

प्रेम की कोई बोली भाषा नहीं होती है। प्रेम समंदर है, इसकी कोई थाह नहीं ले सकता है। प्रेम को अभिव्यक्त करना गूंगे को गुड़ देकर उससे स्वाद पूछना है। प्रेम संसार की आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक आवश्यकता है। प्रेम है तो संसार है। प्रेम हमेशा ही वासुदेव कुटुम्बकम की भावना से ओत-प्रोत रहा है। आज अराजकता, असंवेदनशीलता, हिंसा, अपराध बहुत बढ़ गये हैं। प्रेम ही वो संजीवनी बूटी है जो इन्हें जड़मूल से समाप्त कर सकता है। इसलिए इनकी कविताएँ प्रेम की पक्षधर हैं…………..
प्रेम!
चुपके से
आसमा में बैठे
शान्त
बादलों के कानों में
तुम क्या कह गए
रात भर बरस-बरस
तर-बतर कर रहे हैं
धरती का पोर-पोर…..

इनकी कविता में रसानुभूति के साथ आनन्द का आस्वादन भी है। भावात्मक अभिव्यक्ति के साथ लयात्मकता होने श्रोता को सरलता से पुलकित करती है। देखिए एक बानगी………
एक कविता …
खड़ा हैं मौन
विरह व्याल
डस गया कब कैसे
विप्रलंभ श्रृंगार ,
स्निग्धा खो तृष्णक्षय
प्रौढ़ता लिए खड़ा हैं
आज बताओं कहाॅं
छुपाये तेरी यादों को
बादल बाहर भी ,भीतर भी
बरस रहे हैं
सब कुछ भीगा-भीगा
तर है एक-एक सा
संयम खुद के विरुद्ध
खड़ा हैं मौन अनिर्वचनीय सा।

आसपास के परिवेश और उससे जुड़े संदर्भों को ही मंजु किशोर ‘ रश्मि ‘ ने अपनी कविताओं, कहानियों, लघु कथाओं, उपन्यास का विषय बनाया है। ये हिंदी, राजस्थानी और हाड़ौती भाषाओं में गद्य और पद्य दोनों विधाओं में गीत, ग़ज़ल, लेख, कविता, पुस्तक समीक्षा, कहानी, लघुकथा संस्मरण आदि लिखती हैं। किशोरावस्‍था में आते-आते ये कविता लिखने लगी थी। अपने पिता की प्रेरणा को लेखन में आने का श्रेय देती हैं। शादी होने पर एक अंतराल आया और फिर से आज तक सृजन में लगी हुई हैं।

कुछ समय पूर्व जब सारी दुनिया में तीन तलाक़ को लेकर हंगामा मचा हुआ था,उस समय “तीन तलाक़” शीर्षक से लिखी इनके काव्य सृजन का अंदाज़ देखिए…
हमारी बेटियां तीन तलाक़ से आजाद हैं
क्यों? कहते हैं इस जहाॅं के लोग
भूल जाते हैं, न जाने क्यूॅं ये
आजादी तो दिलों की ज़ंजीरों में कैद है
बाप, भाई,पति,बेटे के ज़ेहन में दबी है
आजादी के मायने वो जानते ही नहीं है….

महिला प्रधान तीन तलाक कविता इनकी कृति “दूर कहीं आस” काव्य संकलन की बानगी है जिसमें 77 कविताएँ सामाजिक परिवेश के विभिन्‍न आयामों और पारिवेशिक अनुभूतियों पर हैं। कविताएँ सांस्कृतिक मूल्यों, जीवन के विभिन्‍न पहलुओं यथार्थबोध से ओत-प्रोत हैं। प्राकृतिक सौन्‍दर्य, सत्य, जल, पलाश, वक्त की बेल, नीड़, आईना, वृक्ष से कुछ बातें, पर्यावरण जीवन, कारे बदरा, दीप से दीप आदि कविताएं नवीन सामाजिक संदर्भों के साथ नये मूल्‍य बोधों का समावेश इन कविताओं में है। इस कविता संग्रह में दस कविताएँ महिला प्रधान हैं।

स्थानीय परिवेश से ‘कोटा कचोरी’कविता गहरे भाव लिए है जो भेदभाव और भूख जैसे मुद्दों को उजागर करती है कि कैसे कचोरी ने नफ़रत,जात-पात, गरीब-अमीर के भेद भाव को पाट दिया है……………….
भूख है जो अमीर-गरीब
ऊंच-नीच सब की एक जैसी है
भूख की लाइन सिर्फ एक है
नफ़रत,जात-पात, गरीब-अमीर
देखने की दृष्टि ही नहीं आने दी
सिर्फ कचोरी के लालच ने
कितना अंतर पाट दिया
मेरे भाई कचोरी वाले ने
अनजाने ही।

राजस्‍थानी भाषा साहित्‍य तथा संस्‍कृति अकादमी, बीकानेर के आर्थिक सहयोग से प्रकाशित इनकी “थंसूं मिलतांई ” राजस्थानी कविता संग्रह कृति में हाड़ोती की 54 कविताएँ शामिल हैं। ऐसी कविताएं मातृभाषा और लोक संस्कृति जीवंत रखने और आने वाली पीढ़ियों को लोक से जोड़े रखने में सहायक सिद्ध होती है। कविता संग्रह में विविधता में एकता का संदेश देती कविताएँ बावळीयों रंग, कथा भागवत, शरमाई, गांठ, मूरत, फळ, माळा आदि हैं। वहीं प्रेम के मिलन विरह को प्रकट करती हुई थांरी सुरत की सीपड्यां मं, नींद न बैच’ र, प्रेम पाणी बिना, थांरी तस मं, ठूंठ होबा कै प्हली, हरयो मन, तू कांई जाणै तरसबो, थंसूं मिलतांई पोथी की प्रतिनिधि रचनाएँ हैं। बांट न्हाळती भूख, पीहर-सासरो, जीव को जंजाळ, दिवाळी, घूंघट आदि सामाजिक सरोकार से ओतप्रोत कविताएँ हैं। सूखीं रेत मं, रेत मं उग जावै, मन रेत को छळ, म्हूं छू, धरती की रेत पै कविताएं रेत को विभिन्न अनुभूतियों और संदर्भ को रेखांकित करती हैं। संग्रह की बाल कविता ‘सांची बेटी बण जाऊं ‘ की रचनाधर्मिता देखिए….
न चावै मां खेल-खेलकणा,
न तितलियां के पाछै भागूं।
प्हैली पढ़बा को काम करूं
फेर खेलबा मं नाव करूं।
पढ़-पढ़ आखर गिनती अर
गिटरपिटर सगळी भाषा बोलूं।
म्हूं फौजी अफसर मां अर
बड़ी डाक्टर बण जाऊं।
या सीमा पं खड़ी हो जाऊं,
धरती मां कै काम आ जाऊं ।
मनख्यां की सेवा कर पाऊं
अतनो सारो रूपयों कमाऊं।
थारी फाटी साड़ी नुई दिलाऊं
बाबूजी को हाथ बटाऊं।
थां दोनी नै राज कराऊं
थांकी सांची बेटी बण जाऊं।

गद्य विधा में इनकी कहानियों की विषय वस्तु सामाजिक विषमता और असामंजस्यता के ताने-बाने पर हैं। इनकी “वारिस” कहानी एक ऐसी महिला की कहानी है जो सौ प्रतिशत परिवार को समर्पित चारित्रिक स्त्री है‌। लेकिन समाज और परिवार का अदृश्य दवाब वो मां नहीं बन सकती तो उसका अस्तित्व खतरे में है। अपना घर में अस्तित्व बचाने के लिए उसे एनकेन प्रकारेण घर को वारिस देना ही है।

स्त्री के हृदय के दर्द का अंदाजा कोई नहीं लगा सकता। कोरोना काल के समय की कहानी “सेर वाला लड़का” कोरोना के डर ने अनजान व्यक्ति के लिए हृदय में संवेदना संसार भर जाता है चिंता से मुक्त जब मिलती है महिनों बाद वो लड़का अचानक सैर पर मिल जाता है।

इनकी लघुकथाएं ‘रिश्वत’,’ नसबंदी’, ‘छोटी गलती बड़ी सजा’ आदि को खूब पसंद किया गया। इन्होंने आतंक और साहित्यक आतंक, कोटा कोचिंग आत्महत्या पर रोक, न शातिर अपराधी न आदतन अपराधी,आदि अनेक समस्या प्रदान लेख भी खूब लिखे हैं। हिंदी और राजस्थानी भाषा के अनेक छोटे-बड़े रचनाकारों की लगभग 40 कृतियों पर समीक्षाएं लिखी है।

वर्तमान में ये हाशिए पर समाज के साठियां एवं मौग्यो पर लेखन कर रही हैं। इनका एक राजस्थानी उपन्यास “तस” लगभग पूर्णता पर है ‘जो सामाजिक अंधकारमय सोच के ताने-बाने से समाज के पाठकों के सम्मुख पर्दा उठाता है। कहानी संग्रह और कविता संग्रह पर भी काम चल रहा है। इनकी अनेक रचनाएं साझा संकलनों और प्रतिष्ठित राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं।

परिचय :
सामाजिक विषमताओं में प्रेम की पक्षधर रचनाओं का सृजन करने वाली रचनाकार मंजु किशोर ‘ रश्मि ‘ का जन्म 29 दिसंबर 1972 को कोटा में पिता किशन लाल राथलिया एवं माता जगन्नाथी बाई के आंगन में हुआ। आपने समाजशास्त्र विषय में स्नातकोत्तर तक शिक्षा प्राप्त की। दलित साहित्यक अकादमी द्वारा झलकारी बाई राष्ट्रीय शिरोमणि अवार्ड और काव्य सम्राट हरिवंशराय बच्चन स्मृति सम्मान जैसे प्रमुख सम्मानों के साथ आपको कई अन्य संस्थाओं द्वारा समय-समय पर सम्मानित किया गया है। ये राष्ट्रीय मेघवाल युवा परिषद कोटा की जिला अध्यक्ष है और सामाजिक सेवा कार्यों में सक्रिय हैं। लिखना पढ़ना, ड्रेस डिजाइन, चित्रकला, नृत्य आदि इनकी अभिरुचियाँ हैं।वर्तमान में आप राजकीय बालिका उच्च माध्यमिक विद्यालय रंगबाड़ी कोटा में अध्यापिका के रूप में सेवा रत हैं और साहित्य सृजन में लगी हैं।

संपर्क :
वीएचई – 119 विवेकानन्द नगर
कल्पना चावला सर्किल के पास,
कोटा- 324005 ( राजस्थान )
मोबाइल : .8441019846
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डॉ.प्रभात कुमार सिंघल
लेखक एवं पत्रकार, कोटा




“संघ का सबसे बड़ा कार्य है- समाज में उदाहरण खड़े करना” – स्वप्निल कुलकर्णी

भोपाल। राष्ट्रीय स्वयंसवेक संघ के मध्य क्षेत्र के कार्यकर्ताओं के लिए ‘कार्यकर्ता विकास वर्ग-1’ का आयोजन भोपाल के शारदा विहार परिसर में प्रारंभ हो गया है। वर्ग के उद्घाटन में क्षेत्र प्रचारक श्री स्वप्निल कुलकर्णी ने कहा कि संघ व्यक्ति निर्माण का कार्य करता है। समाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ऐसे निष्ठावान लोग खड़े होने चाहिए, जिनको देखकर अन्य लोग सीख लें। इसलिए हम कह सकते हैं कि संघ का सबसे बड़ा कार्य- ‘समाज में उदाहरण खड़े करना है’। इस अवसर पर मंच पर वर्ग के सर्वाधिकारी श्री सोमकांत उमालकर भी उपस्थित थे। कार्यकर्ता विकास वर्ग में छत्तीसगढ़, महाकौशल, मालवा और मध्यभारत के कुल 382 स्वयंसेवक प्रशिक्षण प्राप्त करने आए हैं। 20 दिवसीय वर्ग में स्वयंसेवक सुबह 4:30 बजे से रात्रि 10:30 बजे तक अनुशासित दिनचर्या का पालन करते हुए संघ कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त करेंगे।

शिक्षार्थियों को संबोधित करते हुए क्षेत्र प्रचारक श्री कुलकर्णी ने कहा कि देशभक्ति, त्याग और समर्पण की भावना के साथ हम राष्ट्रीय कार्य में जुड़ते हैं। इस कार्य को करने की कुशलता प्राप्त करने के लिए संघ की ओर से वर्गों का आयोजन करने की परंपरा है। सही अर्थों में कुशलता का नाम ही वर्ग है। संघ के वर्ग में कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण औपचारिक एवं अनौपचारिक ढंग से होता है। हम यहाँ के पाठ्यक्रम के साथ ही एक-दूसरे से भी सीखते हैं। प्रशिक्षण प्राप्त करते समय हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह प्रशिक्षण स्वयं के व्यक्तित्व विकास के साथ-साथ अपने कार्यक्षेत्र में संघ कार्य विस्तार के लिए उपयोगी है। हम यहाँ जो कुशलता प्राप्त करेंगे, उसका उपयोग संघ कार्य के विस्तार में करना है। उन्होंने कहा कि पुरुषार्थी कार्यकर्ताओं ने भावनाओं के साथ कुशलता से कार्य किया, तब जाकर आज संघ हमें विराट स्वरूप में दिखायी देता है।

उन्होंने कहा कि यह प्रशिक्षण वर्ग देश के लिए अपना समय, धन और मन देकर कार्य करनेवाले कार्यकर्ताओं का प्रशिक्षण है। प्रशिक्षण वर्ग से कार्यकर्ताओं में नेतृत्व क्षमता का विकास होता है। वर्ग में कार्यकर्ता हिन्दू समाज को मिलनेवाली चुनौतियों का सामना करने और सज्जनशक्ति को राष्ट्रीय कार्य में साथ लेने का कौशल सीखते हैं। उन्होंने कहा कि आज देश में ऐसी ताकतें सक्रिय हैं, जो हिन्दू समाज को विखंडित करने के प्रयास में लगी हुईं हैं। वे हमें जाति, पंथ, स्त्री-पुरुष इत्यादि प्रकार के भेदों में बाँटने के लिए वैचारिक भ्रम उत्पन्न करते हैं। उन्होंने कहा कि विविधता हमारी कमजोरी नहीं अपितु हमारी विशेषता रही है। परंतु औपनिवेशिक ताकतों ने हमारे बीच विविधता को आधार बनाकर द्वेष और भेद उत्पन्न करने के षड्यंत्र रचे हैं। हमें इन षड्यंत्रों के प्रति जागरूक होना है और अपने समाज को भी जागरूक करना है। श्री कुलकर्णी ने कहा कि भारत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सबसे बड़ा उदाहरण है। हमारा समाज अनेक प्रकार की विविधताओं के होते हुए भी एक साथ रहता है। हमारे यहाँ एक-दूसरे पर एक-दूसरे की उपासना पद्धति को थोपा नहीं गया। उन्होंने कहा कि संघ के कार्यकर्ताओं को समाज की समस्याओं का समाधान देनेवाला बनना चाहिए।

श्री कुलकर्णी ने कहा कि डॉक्टर साहब (संघ के संस्थापक सरसंघचालक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार) के समय से कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण के लिए संघ शिक्षा वर्ग आयोजित करने की परंपरा शुरू हुई। अब तक क्षेत्र का यह वर्ग ‘संघ शिक्षा वर्ग-द्वितीय वर्ष’ के नाम से आयोजित होता था लेकिन अब यह ‘कार्यकर्ता विकास वर्ग-1’ के नाम से आयोजित होगा। उन्होंने 1940 में नागपुर में आयोजित ऐतिहासिक संघ शिक्षा वर्ग का भी उल्लेख किया, जिसमें पहली बार संपूर्ण भारत से स्वयंसेवक प्रशिक्षण हेतु शामिल हुए थे। संघ में जिला स्तर पर आयोजित सात दिन के प्रशिक्षण वर्ग को ‘प्राथमिक वर्ग’, प्रांत स्तर पर आयोजित 15 दिन के प्रशिक्षण वर्ग को ‘संघ शिक्षा वर्ग’, क्षेत्र स्तर पर आयोजित 20 दिन के वर्ग को ‘कार्यकर्ता विकास वर्ग-1’ और नागपुर में आयोजित अखिल भारतीय स्तर के वर्ग को ‘कार्यकर्ता विकास वर्ग-2’ कहते हैं।

संघ की रचना में मध्य क्षेत्र में चार प्रांत हैं- छत्तीसगढ़, महाकौशल, मालवा और मध्यभारत। इन चारों प्रांतों से कार्यकर्ता विकास वर्ग-1 में कुल 382 शिक्षार्थी आए हैं, जिनमें छत्तीसगढ़ से 78, महाकौशल से 85, मालवा से 118 और मध्यभारत से 97 चयनित स्वयंसेवक शामिल हैं। वर्ग के संचालन के लिए 19 अधिकारियों की संचालन टोली है, जिसमें सर्वाधिकारी के अलावा वर्ग पालक श्री अशोक पोरवाल और वर्ग कार्यवाह श्री बलवंत राव इत्यादि शामिल हैं। इसके साथ ही शिक्षार्थियों के प्रशिक्षण के लिए प्रत्येक प्रांत से शिक्षक भी आए हैं। विभिन्न विषयों पर अखिल भारतीय, क्षेत्रीय एवं प्रांतीय अधिकारी भी शिक्षार्थियों का प्रबोधन करेंगे।

संघ कार्य में अपना जीवन समर्पित करनेवाले कार्यकर्ताओं के जीवन पर आधारित प्रदर्शनी ‘तेजोमय प्रतिबिम्ब तुम्हारे…’ का आयोजन भी किया गया है। क्षेत्र प्रचारक श्री स्वप्निल कुलकर्णी और सर्वाधिकारी श्री सोमकांत उमालकर सहित अन्य अतिथियों ने प्रदर्शनी का उद्घाटन किया। यहाँ भारतीय ज्ञान के स्रोत सद्ग्रंथों को भी प्रदर्शित किया गया है, जिनमें चारों वेद, पुराण, स्मृतियां, संहिताओं सहित रामायण एवं महाभारत शामिल है।




लोकमंगल के संचारक देवर्षि नारद को आदि गुरु मानने से बढ़ेगा गौरव

प्राचीन काल से ही ज्येष्ठ मास की कृष्ण पक्ष की द्वितीय तिथि को देवर्षि नारद मुनि की जयंती मनाने की परंपरा चली आ रही है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार देवर्षि नारद मुनि को सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का मानस पुत्र माना जाता है। कहा जाता है कि उनका जन्‍म ब्रह्मा जी की गोद से हुआ था। इसलिए वे उनके मानस पुत्र माने जाते हैं। वे समस्त देवी- देवताओं के ऋषि हैं इसीलिए उन्हें देवर्षि एवं ब्रह्मर्षि कहा जाता है। ब्रह्मर्षि का पद प्राप्त करने के लिए उन्होंने कठिन तपस्या की थी। उन्हें ब्रह्मनंदन एवं वीणाधर के नाम से भी पुकारा जाता है। ‘नारद’ शब्द में ‘नार’ का अर्थ है जल एवं अज्ञान तथा ‘द’ का अर्थ है प्रदान करना एवं नाश करना। वे समस्त प्राणियों को ज्ञान का दान करके अज्ञानता का नाश करते हैं। वे प्राणियों को तर्पण करने में भी सहायता करते थे, इसीलिए उन्हें नारद कहा जाने लगा।

भगवान विष्णु के अनन्य भक्त

देवर्षि नारद मुनि सृष्टि के पालनहार भगवान विष्णु के अनन्य भक्त माने जाते हैं। वे तीनों लोकों में भ्रमण करते हुए अपनी वीणा की सुमधुर तान पर भगवान विष्णु की महिमा का गान करते हैं। प्रत्यके समय उनकी जिव्हा पर भगवान विष्णु का नाम रहता है- नारायण-नारायण। वे सदैव भक्ति में लीन रहते हैं। इसके साथ-साथ में भटके हुए लोगों का मार्गदर्शन करते हैं तथा उनकी शंकाओं का समाधान भी करते हैं। उनके महान कार्यों की गणना संभव नहीं है। किन्तु कुछ कार्यों का उल्लेख करना संभव है, जैसे उन्होंने लक्ष्मी का विवाह अपने इष्टदेव भगवान विष्णु के साथ करवाया था। उन्होंने स्वर्ग के राजा इन्द्रदेव को मनाकर अप्सरा उर्वशी का पुरुरवा के साथ विवाह करवाया था। उन्होंने ऋषि बाल्मीकि को महान ग्रंथ रामायण लिखने की प्रेरणा दी थी। उन्होंने व्यास जी को भागवत की रचना करने की प्रेरणा दी थी। उन्होंने विष्णु भक्त प्रह्लाद एवं भक्त ध्रुव का मार्गदर्शन किया था। उन्होंने बृहस्पति एवं शुकदेव आदि को उपदेश देकर उनका मार्गदर्शन किया था। उनके ऐसे असंख्य महान कार्य हैं।

देवर्षि नारद मुनि के ग्रंथ 

देवर्षि नारद मुनि बहुत ज्ञानी थे। वे अनेक कलाओं में पारंगत थे। उन्होंने वाद्य यंत्र वीणा का आविष्कार किया था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि वे ब्रह्मांड के प्राय: सभी विषयों के ज्ञाता थे। लगभग सभी आदि ग्रंथों में उनका उल्लेख मिलता है। वे व्यास, बाल्मीकि एवं शुकदेव आदि के गुरु हैं। उन्हें तीनों लोकों में मान-सम्मान प्राप्त है। वे देवी-देवताओं के मन की बात भी समझ जाते थे। उन्होंने भक्तिभाव का प्रचार-प्रसार किया। उनका कहना था कि व्यक्ति को सर्वदा सर्वभाव से निश्चित होकर केवल अपने प्रभु का ही स्मरण करना चाहिए। यही भक्ति है एवं यही साधना है।

लोक कल्याण के लिए उन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की। इनमें नारद पांचरात्र, नारद के भक्तिसूत्र, नारद पुराण, बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता अथवा नारद स्मृति, नारद-परिव्राज कोपनिषद तथा नारदीय-शिक्षा आदि सम्मिलित हैं।

नारद पांचरात्र वैष्णव संप्रदाय का ग्रंथ माना जाता है। इसमें ‘रात्र’ का अर्थ है ज्ञान। कहा जाता है कि इस ग्रंथ में ब्रह्मा, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न एवं अनिरुद्ध का ज्ञान है इसलिए इसे पांचरात्र कहा जाता है। यह ग्रंथ श्रीकृष्ण द्वारा प्रदत्त था। देवर्षि नारद मुनि ने इसका प्रचार-प्रसार किया। इसमें प्रेम, भक्ति, मुक्ति एवं योग आदि का उल्लेख किया गया है। इसमें भक्ति के संबंध में श्रीकृष्ण एवं राधा के प्रेम का उल्लेख किया गया है।

नारद भक्ति सूत्र नामक ग्रंथ देवर्षि नारद मुनि द्वारा रचित है। इसमें भक्ति के 84 सूत्रों का उल्लेख किया गया है।

इसमें भक्ति की व्याख्या से लेकर इसकी महत्ता, नियम एवं फल आदि का भी उल्लेख मिलता है। इसमें बताया गया है कि प्रेम भक्ति का प्रथम सोपान है तथा अपने इष्ट के लिए व्याकुल होना भक्तिभाव का चिह्न है। आदर्श भक्ति को समझने के लिए श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों के मनोभाव को समझना होगा।

नारद पुराण भी वैष्णव का ग्रंथ है। अट्ठारह पुराणों में यह छठे स्थान पर आता है। इसी से इसकी महत्ता का ज्ञान होता है। कहा जाता है कि इस पुराण का श्रवण करने से मुक्ति प्राप्त होती है अर्थात पापी व्यक्ति भी इसका श्रवण करके पाप मुक्त हो जाता है। इसमें पापों का उल्लेख किया गया है। इसके प्रारंभ में अनेक प्रश्न पूछे गए हैं। इसमें अनेक ऐतिहासिक एवं धार्मिक कथाएं, धार्मिक अनुष्ठान, ज्योतिष, मंत्र, बारह मास की व्रत-तिथियों के साथ उनसे संबंधित कथाएं, शिक्षा एवं व्याकरण आदि का भी उल्लेख मिलता है।

बृहन्नारदीय उपपुराण-संहिता अथवा नारद स्मृति नारद स्मृति भी देवर्षि नारद मुनि द्वारा रचित ग्रंथ है। इसमें न्याय, उत्तराधिकार, संपत्ति का क्रय एवं विक्रय, उत्तराधिकार, पारिश्रमिक, ऋण एवं अपराध आदि विषयों उल्लेख है। एक प्रकार से यह न्याय अथवा संविधान का ग्रंथ है। इसमें नारद गीता, नारद नीति एवं ‘नारद संगीत आदि ग्रंथ होने का भी उल्लेख किया गया है।

नारद-परिव्राजक कोपनिषद अथर्ववेद से संबंधित ग्रंथ है। देवर्षि नारद मुनि इसके उपदेशक हैं। इसमें परिव्राजक संन्यासी के सिद्धांत, आचरण, संन्यासी-धर्म, संन्यासी-भेद आदि का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है। परिव्राजक संन्यासी उसे कहा जाता है जो परिव्रज्या व्रत ग्रहण कर भिक्षाटन करके अपने जीवन का निर्वाह करता है। इसमें

ब्रह्म के स्वरूप का विस्तृत रूप से वर्णन किया गया है। इसमें परम पद प्राप्ति की प्रक्रिया का भी स्पष्ट शब्दों में उल्लेख किया गया है। अहं ब्रहृमास्मिअर्थात् ‘मैं ही ब्रह्म हूं’ मंत्र का उल्लेख किया गया है। साधक के लिए यह मोक्ष प्राप्ति की स्थिति है।

लोक कल्याणकारी संदेशवाहक

देवर्षि नारद मुनि एक लोक कल्याणकारी संदेशवाहक एवं लोक-संचारक थे। इसीलिए उन्हें आदि संबाददाता अथवा पत्रकार कहना अनुचित नहीं है। सर्वविदित है कि वही तीनों लोकों में सूचनाओं का आदान-प्रदान करते थे। वे केवल देवी-देवताओं को ही नहीं, अपितु दानवों को भी आवश्यक सूचनाएं देते थे। उस समय मौखिक रूप से ही सूचनाओं का आदान-प्रदान होता था। इसलिए दानव भी उनका आदर-सत्कार करते थे तथा उनसे परामर्श लेने भी संकोच नहीं करते थे।

प्राचीन काल में आधुनिक काल की भांति सूचना के साधन नहीं थे। उस समय चौपालों पर लोग एकत्रित होते थे। इसी समयावधि में उनके मध्य संवाद होता था। इस प्रकार सूचनाओं का आदान-प्रदान होता था। तीर्थ यात्रियों के द्वारा भी सूचनाओं का संचार होता था। व्यापारी भी सूचनाओं के संचार का माध्यम थे। इसके अतरिक्त मेलों, धार्मिक एवं मांगलिक आयोजनों में भी सूचनाओं का आदान-प्रदान होता था। इनमें सम्मिलित होने वाले लोग सूचनाओं को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने का कार्य करते थे।

सूचना देने वाले को संवाददाता कहा जाता है। इस प्रकार देवर्षि नारद मुनि आदि संवाददाता थे। वे सदैव एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते रहते थे। इसके संबंध में एक कथा प्रचलित हैं कि ब्रहमाजी के पुत्र दक्ष के यहां सौ पुत्र हुए तथा सभी पुत्रों को जनसंख्या बढ़ाने का आदेश दिया गया, ताकि सृष्टि आगे बढ़ सके। किन्तु देवर्षि नारद मुनि ने अपने भाई दक्ष के पुत्रों अर्थात अपने भतीजों को तपस्या करने के लिए प्रेरित किया। उनकी बात मानकर सभी दक्ष पुत्र घोर तपस्या करने लगे। दक्ष ने अपने पुत्रों को तपस्या छोड़कर सृष्टि बढ़ाने का पुन: आदेश दिया, परन्तु देवर्षि नारद मुनि ने उन्हें पुनः तपस्या में लगा दिया। इस पर दक्ष को क्रोध आ गया और उसने देवर्षि नारद मुनि को श्राप दे दिया। इस श्राप के अनुसार वे एक स्थान पर अधिक समय तक नहीं ठहर पाएंगे तथा सदैव विचरण करते रहेंगे। इसके साथ ही वे सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाने का कार्य करेंगे। देवर्षि नारद मुनि ने इस श्राप को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उन्होंने इस श्राप का लोकहित में उपयोग किया।

श्रीकृष्ण ने देवर्षि नारद मुनि की श्राप की इस स्वीकारोक्ति की सराहना की थी। एक बार उन्होंने अर्जुन से कहा था कि यदि देवर्षि नारद मुनि चाहते तो दक्ष के श्राप से मुक्ति पा सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने जनहित में श्राप को सहर्ष स्वीकार किया। उसी समय से वे निरंतर तीनों लोकों का भ्रमण करते रहते हैं।

वास्तव में देवर्षि नारद मुनि अत्यंत ज्ञानी एवं अनुभवी थे। वे भली भांति जानते थे कि वे इस श्राप का लोकहित में किस प्रकार उपयोग कर सकते हैं। उन्होंने मानव कल्याण के लिए इसका उपयोग किया। उनके कार्यों से पता चलता है कि किस प्रकार सूचना का उचित उपयोग करके अनिष्ट से बचा जा सकता है।

उन्होंने समुद्र मंथन के समय इसमें से विष निकलने की सूचना मंथन में लगे दोनों ही पक्षों को दी थी, किन्तु किसी भी पक्ष ने इस पर तनिक ध्यान नहीं किया। इसका परिणाम भयंकर हुआ तथा विष फैल गया। यह विष इतना भयंकर था कि इससे समस्त सृष्टि का विनाश हो सकता था। उन्होंने इसकी सूचना महादेव को दी। महादेव ने लोकहित में सारा विष पी लिया। इससे सृष्टि तो बच गई, परन्तु महादेव का कंठ नीला हो गया। इस घटना से सूचना के दोनों ही पक्षों के परिणाम का ज्ञान होता है। कहा जाता है कि सती द्वारा राजा दक्ष के यज्ञ कुंड में शरीर त्यागने की सूचना भी देवर्षि नारद मुनि ने ही महादेव को दी थी।

आधुनिक समय में पत्रकार देवर्षि नारद मुनि की जयंती को हर्षोल्लास से मनाते हैं। उल्लेखनीय है कि हिंदी साप्ताहिक ‘उदन्त मार्तण्ड’ का प्रकाशन 30 मई 1826 को कोलकाता से प्रारंभ हुआ था। उस दिन नारद जयंती थी। पत्रिका के प्रथम अंक के प्रथम पृष्ठ पर सम्पादक ने लिखा था- “देवऋषि नारद की जयंती के शुभ अवसर पर यह पत्रिका प्रकाशित होने जा रही है क्योंकि नारद जी एक आदर्श संदेशवाहक होने के नाते उनका तीनों लोक में समान सहज संचार था।“

इसमें कोई दो मत नहीं है कि महर्षि नारद मुनि एक महान विचारक एवं चिन्तक थे। उनकी सूचनाएं सज्जन के लिए शक्ति तो दुष्ट के लिए विनाशक सिद्ध होती थीं। इसलिए पत्रकारों को उन्हें अपना आदर्श एवं आदि गुरु मानना चाहिए। नि:संदेह इससे उनका गौरव बढ़ेगा तथा पत्रकारिता भी गौरान्वित होगी।

लेखक – राजनीतिक विश्लेषक एवं मीडिया शिक्षक है ।

 




बुद्ध और ब्राह्मण

(बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर विशेष )

अपने आपको मूलनिवासी कहने वाले लोग प्राय: ब्राह्मणों को कोसते मिलते हैं, विदेशी कहते हैं, गालियां बकते हैं। पर बुद्ध ने आर्यधर्म को महान कहा है। इसके विपरीत डॉ अंबेडकर आर्यों को विदेशी नहीं मानते थे। अपितु आर्यों होने की बात को छदम कल्पना मानते थे। महात्मा बुद्ध ब्राह्मण, धर्म, वेद, सत्य, अहिंसा , यज्ञ, यज्ञोपवीत आदि में पूर्ण विश्वास रखने वाले थे। महात्मा बुद्ध के उपदेशों का संग्रह धम्मपद के ब्राह्मण वग्गो 18 का में ऐसे अनेक प्रमाण मिलते है कि बुद्ध के ब्राह्मणों के प्रति क्या विचार थे।

१:-न ब्राह्नणस्स पहरेय्य नास्स मुञ्चेथ ब्राह्नणो।
धी ब्राह्नणस्य हंतारं ततो धी यस्स मुञ्चति।।
( ब्राह्मणवग्गो श्लोक ३)

‘ब्राह्नण पर वार नहीं करना चाहिये। और ब्राह्मण को प्रहारकर्ता पर कोप नहीं करना चाहिये। ब्राह्मण पर प्रहार करने वाले पर धिक्कार है।’

२:- ब्राह्मण कौन है:-
यस्स कायेन वाचाय मनसा नत्थि दुक्कतं।
संबुतं तीहि ठानेहि तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।।
( श्लोक ५)
‘जिसने काया,वाणी और मन से कोई दुष्कृत्य नहीं करता,जो तीनों कर्मपथों में सुरक्षित है उसे मैं ब्राह्मण कहता हूं।

३:- अक्कोधनं वतवन्तं सीलवंतं अनुस्सदं।
दंतं अंतिमसारीरं तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।।
अकक्कसं विञ्ञापनिं गिरं उदीरये।
याय नाभिसजे किंचि तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।।
निधाय दंडभूतेसु तसेसु थावरेसु च।
यो न हंति न घातेति तमहं ब्रूमि ब्राह्नणं।।

( श्लोक ७-९)’जो क्रोधरहित,व्रती,शीलवान,वितृष्ण है और दांत है, जिसका यह देह अंतिम है;जिससे कोई न डरे इस तरह अकर्कश,सार्थक और सत्यवाणी बोलता हो;जो चर अचर सभी के प्रति दंड का त्याग करके न किसी को मारता है न मारने की प्रेरणा करता है- उसी को मैं ब्राह्मण कहता हूं।।’

४:- गुण कर्म स्वभाव की वर्णव्यवस्था:-
न जटाहि न गोत्तेन न जच्चा होति ब्राह्मणो।
यम्हि सच्च च धम्मो च से सुची सो च ब्राह्मणो।।
( श्लोक ११)
‘ न जन्म कारण है न गोत्र कारण है, न जटाधारण से कोई ब्राह्मण होता है। जिसमें सत्य है, जो पवित्र है वही ब्राह्मण होता है।।

५:- आर्य धर्म के प्रति विचार:-
धम्मपद, अध्याय ३ सत्संगति प्रकरण :प्राग संज्ञा:-
साहु दस्सवमरियानं सन् निवासो सदा सुखो।( श्लोक ५)
“आर्यों का दर्शन सदा हितकर और सुखदायी है।”
धीरं च पञ्ञं च बहुस्सुतं च धोरय्हसीलं वतवन्तमरियं।
तं तादिसं सप्पुरिसं सुमेधं भजेथ नक्खत्तपथं व चंदिमा।।
( श्लोक ७)

” जैसे चंद्रमा नक्षत्र पथ का अनुसरण करता है, वैसे ही सत्पुरुष का जो धीर,प्राज्ञ,बहुश्रुत,नेतृत्वशील,व्रती आर्य तथा बुद्धिमान है- का अनुसरण करें।।”
“तादिसं पंडितं भजे”- श्लोक ८

वाक्ताड़न करने वाले पंडित की उपासना भी सदा कल्याण करने वाली है।।”एते तयो कम्मपथे विसोधये आराधये मग्गमिसिप्पवेदितं” ( धम्मपद ११ प्रज्ञायोग श्लोक ५) ” तीन कर्मपथों की शुद्धि करके ऋषियों के कहे मार्ग का अनुसरण करे”

धम्मपद पंडित प्रकरण १५/ में ७७ पंडित लक्षणम् में श्लोक १:- “अरियप्पवेदिते धम्मे सदा रमति पंडितो।।” सज्जन लोग आर्योपदिष्ट धर्म में रत रहते हैं।”

परिणाम:- भगवान महात्मा गौतम बुद्ध ने ब्राह्मणों की इतनी स्तुति की है तथा आर्य वैदिक धर्म का खुले रूप से गुणगान किया है। इसलिये बुद्ध के कहे अनुसार भीमसैनिक को भी ब्राह्मणों और आर्यों का सम्मान करना चाहिये। दूसरों में आकर बहकना नहीं चाहिए।

सलंग्न चित्र- महात्मा बुद्ध यज्ञोपवीत धारण किये हुए।




कहाँ खो गया बीजू आम

चीनी जैसे मीठा था इसलिए उसका नाम रखा गया चिनियावा, गोल था तो गोलियांबा हो गया। बतासे जैसा चपटा आम था तो उसका नाम बतासवा रखा गया सिंदूर जैसी धारी थी तो सेनूरियावा हो गया कच्चा में मीठा था तो उसका नाम ककड़ीयावा आम हो गया। मधु जैसा मीठा था तो मधुआवा आम हो गया। बनावट के हिसाब से इन आमो का नामकरण होता गया। कुछ साल पहले तक खूबसूरत पीले बीजू आम हर जगह दिख जाते।

पेड़ों से टपक कर जमीन पर गिरे इन रसीले आमों का स्वाद शहद सा मीठा होता।बच्चें जेठ की तपती दोपहरी में भी इस पेड़ के चक्कर लगाते । टपकते आम को हासिल करने के लिए एक दूसरे में होड़ लगा रहता।गांव के कई नौजवान और बुजुर्गों कई किलो बीजू बेहद आराम से खा जाते । छोटे बीजू आम जिसमें गुठली की साइज बड़ी होती थी। रस और रेशो से भरपूर।बचपन की याद अब लोगों को तड़पाने लगी है। बीजू आम पर किसी का पहरा नहीं होता था। किसी के पेड़ से कोई भी व्यक्ति आसानी से आम चुनता और खाता। पेड़ मालिक इसे तोड़ने की जहमत भी नहीं उठाते। कारण था कि इसके फल बेहद छोटे और पेड़ बहुत ही बड़े होते थे। तोड़ने को कोई साहसी चढ़ता भी तो कुछ ही मिनटों में चढ़ाई उसे कमजोर कर देती।दरअसल बीजू आम आम के बीज यानी गुठलियों के द्वारा उत्पन्न किए गए पेड़ों से पाए जाते हैं। समय के साथ इसके पेड़ बेहद बड़े हो जाते हैं।

आज के टिशु कल्चर और क्रॉस किए गए नर्सरी के आमों के विपरीत बीजू आम के फलन में बहुत सालों का वक्त लगता था। इसके अलावा इसके पेड़ काफी जमीन भी घेरते हैं। कभी यह आम व्यवसायिक दृष्टिकोण पर खड़ा नहीं उतरा। हालांकि इस आम की लकड़ियां बेहद कामगार होती है। इसके चटनी और आचार का भी कोई जवाब नहीं होता।आज विरले ही कोई बीजू आम का पेड़ लगाया करता है। पूर्वजों का भला हो जिनके लगाए पेड़ आज भी सही सलामत कुछ जगह दिख जाते हैं पर आज के दौर में कोई बीजू को लगाने की जहमत नहीं उठाता।

ऐसा ही चलता रहा तो ही मीठे-पीले-रसीले आम भविष्य में गुमनाम हो जाएगा। जब जब जेठ की दोपहरी बचपन को सताएगी तब-तब इन रसीले फल की याद आयेगी , पर अफसोस यह आम नहीं मिलेगा। बीजू आम समाप्त होने के पीछे सबसे ज्यादा कोई कारण रहा तो वह उसके पेड़ का विशाल होना किसानों को जब आर्थिक रूप से जरूरत महसूस हुई तो सबसे पहले बीजू आम के पेड़ ही बेचे गए।

चीनी जैसे मीठा था इसलिए उसका नाम रखा गया चिनियावा, गोल था तो गोलियांबा हो गया। बतासे जैसा चपटा आम था तो उसका नाम बतासवा रखा गया सिंदूर जैसी धारी थी तो सेनूरियावा हो गया कच्चा में मीठा था तो उसका नाम ककड़ीयावा आम हो गया। मधु जैसा मीठा था तो मधुआवा आम हो गया। बनावट के हिसाब से इन आमो का नामकरण होता गया। कुछ साल पहले तक खूबसूरत पीले बीजू आम हर जगह दिख जाते। पेंड़ों से टपक कर जमीन पर गिरे इन रसीले आमों का स्वाद शहद सा मीठा होता।बच्चें जेठ की तपती दोपहरी में भी इस पेड़ के चक्कर लगाते । टपकते आम को हासिल करने के लिए एक दूसरे में होड़ लगा रहता।गांव के कई नौजवान और बुजुर्गों कई किलो बीजू बेहद आराम से खा जाते । छोटे बीजू आम जिसमें गुठली की साइज बड़ी होती थी। रस और रेशो से भरपूर।बचपन की याद अब लोगों को तड़पाने लगी है।

बीजू आम पर किसी का पहरा नहीं होता था। किसी के पेड़ से कोई भी व्यक्ति आसानी से आम चुनता और खाता। पेड़ मालिक इसे तोड़ने की जहमत भी नहीं उठाते। कारण था कि इसके फल बेहद छोटे और पेड़ बहुत ही बड़े होते थे। तोड़ने को कोई साहसी चढ़ता भी तो कुछ ही मिनटों में चढ़ाई उसे कमजोर कर देती।दरअसल बीजू आम आम के बीज यानी गुठलियों के द्वारा उत्पन्न किए गए पेड़ों से पाए जाते हैं। समय के साथ इसके पेड़ बेहद बड़े हो जाते हैं। आज के टिशु कल्चर और क्रॉस किए गए नर्सरी के आमों के विपरीत बीजू आम के फलन में बहुत सालों का वक्त लगता। इसके अलावा इसके पेड़ काफी जमीन भी घेरते हैं। कभी यह आम व्यवसायिक दृष्टिकोण पर खड़ा नहीं उतरा। हालांकि इस आम की लकड़ियां बेहद कामगार होती है। इसके चटनी और आचार का भी कोई जवाब नहीं होता।आज विरले ही कोई बीजू आम का पेड़ लगाया करता है। पूर्वजों का भला हो जिनके लगाए पेड़ आज भी सही सलामत कुछ जगह दिख जाते हैं पर आज के दौर में कोई बीजू को लगाने की जहमत नहीं उठाता।

ऐसा ही चलता रहा तो ही मीठे-पीले-रसीले आम भविष्य में गुमनाम हो जाएगा। जब जब जेठ की दोपहरी बचपन को सताएगी तब-तब इन रसीले फल की याद आयेगी , पर अफसोस यह आम नहीं मिलेगा। बीजू आम समाप्त होने के पीछे सबसे ज्यादा कोई कारण रहा तो वह उसके पेड़ का विशाल होना किसानों को जब आर्थिक रूप से जरूरत महसूस हुई तो सबसे पहले बीजू आम के पेड़ ही बेचे गए।




आहार के नियम भारतीय 12 महीनों अनुसार

#चैत्र ( मार्च-अप्रैल) – इस महीने में गुड का सेवन करे क्योकि गुड आपके रक्त संचार और रक्त को शुद्ध करता है एवं कई बीमारियों से भी बचाता है। चैत्र के महीने में नित्य नीम की 4 – 5 कोमल पतियों का उपयोग भी करना चाहिए इससे आप इस महीने के सभी दोषों से बच सकते है। नीम की पतियों को चबाने से शरीर में स्थित दोष शरीर से हटते है।

#वैशाख (अप्रैल – मई)- वैशाख महीने में गर्मी की शुरुआत हो जाती है। बेल पत्र का इस्तेमाल इस महीने में अवश्य करना चाहिए जो आपको स्वस्थ रखेगा। वैशाख के महीने में तेल का उपयोग बिल्कुल न करे क्योकि इससे आपका शरीर अस्वस्थ हो सकता है।

#ज्येष्ठ (मई-जून) – भारत में इस महीने में सबसे अधिक गर्मी होती है। ज्येष्ठ के महीने में दोपहर में सोना स्वास्थ्य वर्द्धक होता है , ठंडी छाछ , लस्सी, ज्यूस और अधिक से अधिक पानी का सेवन करें। बासी खाना, गरिष्ठ भोजन एवं गर्म चीजो का सेवन न करे। इनके प्रयोग से आपका शरीर रोग ग्रस्त हो सकता है।

#अषाढ़ (जून-जुलाई) – आषाढ़ के महीने में आम , पुराने गेंहू, सत्तु , जौ, भात, खीर, ठन्डे पदार्थ , ककड़ी, पलवल, करेला, बथुआ आदि का उपयोग करे व आषाढ़ के महीने में भी गर्म प्रकृति की चीजों का प्रयोग करना आपके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।

#श्रावण (जूलाई-अगस्त) – श्रावण के महीने में हरड का इस्तेमाल करना चाहिए। श्रावण में हरी सब्जियों का त्याग करे एव दूध का इस्तेमाल भी कम करे। भोजन की मात्रा भी कम ले – पुराने चावल, पुराने गेंहू, खिचड़ी, दही एवं हलके सुपाच्य भोजन को अपनाएं।

#भाद्रपद (अगस्त-सितम्बर) – इस महीने में हलके सुपाच्य भोजन का इस्तेमाल कर वर्षा का मौसम् होने के कारण आपकी जठराग्नि भी मंद होती है इसलिए भोजन सुपाच्य ग्रहण करे। इस महीने में चिता औषधि का सेवन करना चाहिए।

#आश्विन (सितम्बर-अक्टूबर) – इस महीने में दूध , घी, गुड़ , नारियल, मुन्नका, गोभी आदि का सेवन कर सकते है। ये गरिष्ठ भोजन है लेकिन फिर भी इस महीने में पच जाते है क्योकि इस महीने में हमारी जठराग्नि तेज होती है।

#कार्तिक (अक्टूबर-नवम्बर) – कार्तिक महीने में गरम दूध, गुड, घी, शक्कर, मुली आदि का उपयोग करे। ठंडे पेय पदार्थो का प्रयोग छोड़ दे। छाछ, लस्सी, ठंडा दही, ठंडा फ्रूट ज्यूस आदि का सेवन न करे , इनसे आपके स्वास्थ्य को हानि हो सकती है।

#अगहन (नवम्बर-दिसम्बर) – इस महीने में ठंडी और अधिक गरम वस्तुओ का प्रयोग न करे।

#पौष (दिसम्बर-जनवरी) – इस ऋतू में दूध, खोया एवं खोये से बने पदार्थ, गौंद के लाडू, गुड़, तिल, घी, आलू, आंवला आदि का प्रयोग करे, ये पदार्थ आपके शरीर को स्वास्थ्य देंगे। ठन्डे पदार्थ, पुराना अन्न, मोठ, कटु और रुक्ष भोजन का उपयोग न करे।

#माघ (जनवरी-फ़रवरी) – इस महीने में भी आप गरम और गरिष्ठ भोजन का इस्तेमाल कर सकते है। घी, नए अन्न, गौंद के लड्डू आदि का प्रयोग कर सकते है।

#फाल्गुन (फरवरी-मार्च) – इस महीने में गुड का उपयोग करे। सुबह के समय योग एवं स्नान का नियम बना ले। चने का उपयोग न करे।




गंगा नदी ही नहीं, हमारी संस्कृति और परंपरा का जीवंत दस्तावेज है

गंगा नदी का महत्व वैश्विकस्तर और वैश्विक समुदाय में पवित्र नदी की तरह है ।इसके इस अवधारणा के कारण वैश्विक समुदाय में नदियों के महत्व ,उपादेयता और संरक्षण की आवश्यकता ,जागरूकता ,नदियों के प्रति वैज्ञानिक और मानवीय दृष्टिकोण का वर्णन करना है। वैश्विक स्तर पर गंगा नदी की उपादेयता ,जल के स्रोत, उर्जादायिनी , मनुष्य के जीवन रेखा , पारिस्थितिकी एवं सांस्कृतिक विरासत के अभिन्न अंग है। भारतीय नदी का महत्व भारतीय संस्कृति, धर्म एवं जीवन में अत्यधिक है। गंगा जी की प्रासंगिकता धार्मिक ,आर्थिक और पर्यावरण दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। गंगा नदी को आध्यात्मिक जागरण और मोक्ष का प्रतीक माना जाता है।

गंगा जी में स्नान करने से पापों से मुक्ति और आत्मा की शुद्धि प्राप्त होती है। गंगा जी को हिंदू धर्म में अत्यधिक पवित्र माना जाता है, क्योंकि गंगा जी में स्नान करने से सभी दुखों से मुक्ति मिलती है। गंगा के किनारे तीर्थ स्थलों में स्नान के लिए प्रतिवर्ष करोड़ों श्रद्धालु स्नान करके पवित्रता प्राप्त करके पुण्य प्राप्त करते हैं।नदियों के अविरल धारा को बनाए रखने के लिए “गंगा समग्र” संगठन ने पवित्र नदियों के प्रदूषण को कम करने में महत्वपूर्ण मात्रात्मक एवं गुणात्मक सफलता प्राप्त किया है। इस कार्यक्रम के कारण जल की गुणवत्ता में अत्यधिक उन्नयन हुआ है। यह हमारे निर्मल गंगा के नेतृत्व के करीब है।

गंगा के किनारे अनेक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजन आयोजित किए जाते हैं। कुंभ मेला का आयोजन ,गंगा घाटों पर गंगा आरती का आयोजन करना और अन्य सांस्कृतिक त्योहारों का आयोजन करना है ।गंगा नदी ने विभिन्न संस्कृतियों और त्योहारों को समाहित किया है। इसके किनारे बसे विभिन्न समुदायों की विविधता ,संगीत ,नृत्य, कला और साहित्य में गंगा की महिमा और पवित्रता का वर्णन मिलता है। नदियों को जोखिम और त्रासदी का सामना करने के लिए और नदियों के स्वास्थ्य को सर्वोच्च प्राथमिकता देकर जन जागरूकता को उन्नयन करना है। नदिया हमारे ग्रह की धमनियां हैं, नदिया वास्तविक आशय में मानवीय जीवन के जीवन रेखा है। गंगा नदी के तट पर अनेक प्राचीन सभ्यताएं और शहर बसे हैं ।गंगा नदी भारतीय इतिहास और संस्कृति का अभिन्न अंग है।

कन्नौज ,जो महाराज हर्ष की राजधानी थी ,पाटलिपुत्र( आधुनिक पटना ),वाराणसी और प्रयागराज जैसे शहर गंगा नदी के किनारे स्थित है और इनका ऐतिहासिक महत्व बहुत अधिक है। इतिहास में मौर्य, गुप्त और मुगल साम्राज्य की राजधानी के रूप में पाटलिपुत्र का महत्व अद्वितीय है।गंगा नदी देश की कृषि, उद्योग ,जल परिवहन और पर्यटन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। गंगा नदी की घाटों को सबसे उपजाऊ भूमि में से एक माना जाता है। इस क्षेत्र में गंगा और उसकी सहायक नदियों के जल से सिंचाई होती है जिससे यहां धान ,गेहूं , गन्ना और अन्य प्रमुख फैसले उगाई जाती है। उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल राज्यों की कृषि अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा गंगा नदी पर निर्भर है।

गंगा नदी का जल पेय उपयोग, घरेलू उपयोग और सिंचाई के लिए महत्वपूर्ण स्रोत है। यह नदी कई जल परियोजनाओं और बांधों के लिए पानी प्रदान करते हैं, जो कृषि, बिजली और उद्योग के लिए महत्वपूर्ण है। इन नदियों में मत्स्य पालन एक महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि है। यह स्थानीय समुदायों को रोजगार और आजीविका प्रदान करता है। गंगा नदी में कई प्रकार की मछलियां पाई जाती है ,जिनका औषधि, घरेलू और वाणिज्यिक महत्व है। नदियों का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व पर्यटन को बढ़ावा देता है। वाराणसी, हरिद्वार, ऋषिकेश और प्रयागराज जैसे शहरों में लाखों तीर्थ यात्री और पर्यटक प्रत्येक साल आते हैं।

गंगा नदी लाखों लोगों की आजीविका का साधन है ।मछुआरे,किसान,नाविक और कई अन्य समुदाय इस पर निर्भर है। नदियों के जल का उपयोग उद्योगों में भी होता है, जिससे आर्थिक विकास में योगदान मिलता है। गंगा नदी करोड़ों लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराती है। नदियों का महत्व स्थानीय समुदायों और शहरों के लिए है, बल्कि पूरे देश की अर्थव्यवस्था के लिए गंगा नदी का जल भारत के बड़े भू – भाग को हरा-भरा बनाए रखना है। गंगा नदी के जल को प्राचीन काल से ही औषधि गुण वाला माना गया है। लोग इसके जल को पवित्र जल के रूप में पूजते हैं और इसके जल को विभिन्न धार्मिक और घरेलू कार्यों में उपयोग करते हैं।

गंगा नदी के जल और इसके तट पर पाए जाने वाले पौधों का आयुर्वेद और पारंपरिक चिकित्सा में विशेष योगदान है ।गंगाजल को कई औषधीय गुण से युक्त माना जाता है ।गंगा नदी के जल पर कई वैज्ञानिक शोध और अध्ययन किए जा रहे हैं जिनमें इसके जल की गुणवत्ता, जैव विविधता और पर्यावरण प्रभाव शामिल है। इससे जल के संरक्षण में सहयोग मिलता है ,बल्कि जल विज्ञान और पर्यावरण विज्ञान के क्षेत्र में अनुसंधान में सहयोग मिलता है।

नदियों के किनारे सभ्यताएं पनपती हैं और सभ्यताएं संस्कृति का पोषण करते हैं। मानवीय व्यक्तित्व समस्या ग्रस्त होने पर नदियों की शरण लेता है। महाभारत में भीष्म प्रत्येक कठिनाई में अपने माता गंगा जी के पास जाते थे और उनको उचित समाधान मिलता था। समसामयिक परिप्रेक्ष्य में गतात्मा के मोक्ष हेतु उसको गंगा जी में विसर्जित किया जाता था। सनातन धर्म में मनुष्य के जीवन की यात्रा नदियों के किनारे पूर्ण होता है। नदियों में गंगा जी की प्रासंगिकता वारहमासी है अर्थात इसमें वर्ष भर पानी का प्रवाह होता रहता है ,जिसके चलते इसके आसपास के क्षेत्र में गेहूं, धान, दाल और गन्ना जैसी फसलों का पैदावार अधिक होता है। गंगा जी के किनारे प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त पर्यटन स्थल है जो राष्ट्रीय आय में योगदान देते हैं।

गंगा जी का महत्व धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से है,बल्कि आर्थिक और पर्यावरण की दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण है। गंगा नदी भारतीय जीवन के हर पहलू में गहराई से जुड़ी है और इसका सम्मान और संरक्षण सभी के लिए आवश्यक है। प्राचीन काल से नदिया मां की तरह हमारा भरण पोषण कर रही हैं।

(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गंगा समग्र के राष्ट्रीय संगठन मंत्री हैं )