Friday, March 29, 2024
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इतिहास के अनछुए पन्नों को सामने लाने वाले आचार्य चतुरसेन शास्त्री

2 फरवरी 1960 आचार्य चतुरसेन शास्त्री की पुण्यतिथि

राजनैतिक स्वतंत्रता राष्ट्र की स्वाधीनता का एक प्रथम चरण होता है । राष्ट्र की पूर्ण लघु स्वाधीनता के लिये मानसिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक नव जागरण आवश्यक होता है । और इसी के लिये अपना जीवन समर्पित करने वाले साहित्यकार हैं आचार्य चतुरसेन शास्त्री । आयाम है । जिन्होंने अपने उपन्यास, कहानी और लेखन के लिये भारत की ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भ चुने ।

आचार्य चतुरसेन शास्त्री का जन्म 26 अगस्त 1891 को उत्तर प्रदेश में बुलन्दशहर जिले के चांदोख कस्बे में हुआ था। उनके पिता केवलराम ठाकुर आर्यसमाज से जुडेथे और तथा माता नन्हीं देवी आध्यात्मिक और धार्मिक विचारों की थीं। परिवार ने उनका नाम चतुर्भुज रखा । उनकी प्राथमिक शिक्षा उनके गाँव के समीप सिकन्दराबाद नामक गांव के विद्यालय में हुई । वे प्रतिदिन पैदल चलकर दूसरे गाँव में पढ़ने के लिये जाते थे । विद्यालयीन शिक्षा पूरी कर आगे पढ़ने के लिये राजस्थान भेज दिये गये । राजस्थान के अजमेर में उनका ननिहाल था । नानाजी के सहयोग से जयपुर के संस्कृत कॉलेज में प्रवेश लिया। 1915 यहाँ से आयुर्वेदाचार्य तथा संस्कृत शास्त्री की उपाधि प्राप्त की। इसके साथ उन्होंने आयुर्वेद विद्यापीठ से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि भी प्राप्त की।

स्वाभिमान और संवेदनशीलता उन्हे अपने परिवार की विरासत में मिला था । आर्यसमाज से जुड़ाव के कारण परिवार में सांस्कृतिक वातावरण भी था । इसलिए अपनी शिक्षा के दौरान ही दीन-दुखियों रोगियों की सेवा निशुल्क करते । शिक्षा पूरी कर के वे दिल्ली आ गये यहाँ उनके चाचा रहते थे । दिल्ली में अपनी डिस्पेंसरी स्थापित कर आयुर्वेदिक चिकित्सक के रूप में कार्य करने लगे । पर उनका काम न जम पाया । इसका कारण उनका संवेदनशील होना था । कितने मरीजों का वे न केवल निशुल्क उपचार करते अपितु आर्थिक सहायता भी करते । इसके चलते आर्थिक स्थिति बिगड़ने लगी । तब अपना औषधालय बंद करके उन्होंने प्रति माह 25 रुपये के वेतन पर एक धर्मार्थ औषधालय में नौकरी आरंभ कर दी । लेकिन यहाँ भी वे अधिक न टिक सके ।

1917 में वे लाहौर चले गये । जहाँ डीएवी कालेज में आयुर्वेद के प्रोफेसर हो गये । उन दिनों लाहौर का वातावरण राजनैतिक उतार-चढ़ाव वाला था । आर्यसमाज और डीएवी कालेज से संबंधित अनेक लोग स्वाधीनता आँदोलन से जुड़ रहे थे । माता को लगा कि कहीं चतुर्भुज भी सब छोड़कर स्वाधीनता आँदोलन से न जुड़ जाये । इसलिए उन्होंने अपने बेटे को अपनी ननिहाल जाने को कहा । बेटा माता की बात मानकर अजमेर में अपने नाना के औषधालय से जुड़ गये । और यहीं से उनके व्यक्तित्व में एक महान साहित्यकार ने जन्म लिया । वे मानते थे कि राष्ट्र की पूर्ण स्वाधीनता के लिये मानसिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक नव जागरण आवश्यक होता है। और साहित्य के माध्यम से ऐसे ही स्वत्व बोध का बीड़ा उठाया । उन्होंने अपने उपन्यास, कहानी और लेखन के लिये भारत के ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भ चुने । उनका सुप्रसिद्ध उपन्यास सोमनाथ है । जिसमें उन्होने बहुत रोचकता से सोमनाथ की भव्यता और विध्वंसक को समाज के सामने रखा । वयम् रक्षाम के माध्यम से अपने अस्तित्व केलिये शस्त्र और शास्त्र की महत्ता प्रतिपादित की । वैशाली की नगरवधू गोला गोली जैसी रचनाएँ भी बहुत लोकप्रिय रहीं ।’आभा’, इनकी पहली रचना थी।

अपने लगभग पचास वर्ष के लेखकीय जीवन में सृजित उनकी प्रकाशित रचनाओं की संख्या 186 है। अन्य रचनाएँ उनके जीवनकाल में प्रकाशित न हो सकीं। कुछ उनके बाद प्रकाशित हुईं। वे अपने उपन्यासों के लिए प्रसिद्ध हुये । उपन्यासों के अतिरिक्त भी उन्होंने बहुत लिखा है। लगभग साढ़े चार सौ कहानियाँ भी लिखीं हैं। इनके अतिरिक्त धर्म, राजनीति और सामाजिक विषयों के साथ स्वास्थ्य एवं चिकित्सा पर भी लिखा । 1921 में सत्याग्रह और असहयोग विषय पर गांधीजी पर केन्द्रित एक आलोचनात्मक पुस्तक लिखी जो अपने समय बड़ी चर्चा का विषय रही। उन्होंने आयुर्वेद सम्बन्धी लगभग एक दर्जन ग्रंथ लिखे। उनकी अंतिम कृति “यादोंकी परछाई” उनकी आत्मकथा थी ।

सतत साहित्य साधना और आयुर्वेद सेवा के साथ उन्होंने 2 फरवरी 1960 में अजमेर अपना शरीर त्यागा।

उनकि साहित्य शैली बहुत रोचक है । एक समय था जब भारतीय समाज ने उनके साहित्य और उपन्यास के माध्यम से ही भारतीय इतिहास और पौराणिक संदर्भों को समझा। यदि यह कहा जाए कि साहित्य सृजन और इतिहास के संदर्भ के नये सूत्र आचार्य चतुरसेन शास्त्री के लेखन ने प्रेरित किया तो सच्चाई के समीप ही होगा ।

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