Wednesday, April 24, 2024
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Homeशेरो शायरीकोई पिला रहा है पिए जा रहा हूँ मैं

कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूँ मैं

बैंगलुरु में देश के महान नेताओं ने शराब को सम्मान देते हुए महंगी से महंगी शराब पीकर शराब को राष्ट्रीय बहस का विषय बना दिया। अभी तक तो गरीबी, बेकारी, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे राष्ट्रीय बहस के मुद्दे थे। शराब को लेकर कई शायरों ने दिल खोलकर शायरी और ग़ज़लें लिखी है, पाठकों के लिए प्रस्तुत है चुनी हुए शेर और ग़ज़लें।


नज़ीर बनारसी की गज़ल

हैं यूँ मस्त आँखों में डोरे गुलाबी
शराबी के पहलू में जैसे शराबी

वो आँखें गुलाबी और ऐसी गुलाबी
कि जिस रुत को देखें बना दें शराबी

बदलता है हर दौर के साथ साक़ी
ये दुनिया है कितनी बड़ी इंक़िलाबी

जवानी में इस तरह मिलती हैं नज़रें
शराबी से मिलता है जैसे शराबी

निचोड़ो कोई बढ़ के दामन शफ़क़ का
फ़लक पर ये किस ने गिरा दी गुलाबी

घनी मस्त पलकों के साए में नज़रें
बहकते हुए मय-कदों में शराबी

ज़रा मुझ से बचते रहो पारसाओ
कहीं तुम को छू ले न मेरी ख़राबी

‘नज़ीर’ अपनी दुनिया तो अब तक यही है
शराब आफ़्ताबी फ़ज़ा माहताबी

कशफ़ी मुल्तानी की गज़ल

शोर है हर तरफ़ सहाब सहाब
साक़िया साक़िया! शराब शराब

आब-ए-हैवाँ को मय से क्या निस्बत
पानी पानी है और शराब शराब

रिंद बख़्शे गए क़यामत में
शैख़ कहता रहा हिसाब हिसाब

इक वही मस्त बा-ख़बर निकला
जिस को कहते थे सब ख़राब ख़राब

मुझ से वजह-ए-गुनाह जब पूछी
सर झुका के कहा शबाब शबाब

जाम गिरने लगा तो बहका शैख़
थामना थामना किताब किताब

कब वो आता है सामने ‘कशफ़ी’
जिस की हर इक अदा हिजाब हिजाब

और कुछ मशहूर शायरों के शेर जो उन्होंने शराब पर लिखे हैं

आए थे हँसते खेलते मय-ख़ाने में ‘फ़िराक़’
जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए
-फ़िराक़ गोरखपुरी

अब तो उतनी भी मयस्सर नहीं मय-ख़ाने में
जितनी हम छोड़ दिया करते थे पैमाने में
-दिवाकर राही

ऐ मोहतसिब न फेंक मिरे मोहतसिब न फेंक
ज़ालिम शराब है अरे ज़ालिम शराब है
– जिगर मुरादाबादी

ऐ ‘ज़ौक़’ देख दुख़्तर-ए-रज़ को न मुँह लगा
छुटती नहीं है मुँह से ये काफ़र लगी हुई
-शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

‘ग़ालिब’ छुटी शराब पर अब भी कभी कभी
पीता हूँ रोज़-ए-अब्र ओ शब-ए-माहताब में
-मिर्ज़ा ग़ालिब

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे

-मिर्ज़ा ग़ालिब

कुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई
आओ कहीं शराब पिएँ रात हो गई
-निदा फ़ाज़ली

लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
हाए कम-बख़्त तू ने पी ही नहीं
– दाग़ देहलवी

न तुम होश में हो न हम होश में हैं
चलो मय-कदे में वहीं बात होगी
-बशीर बद्र

पहले शराब ज़ीस्त थी अब ज़ीस्त है शराब
कोई पिला रहा है पिए जा रहा हूँ मैं
-जिगर मुरादाबादी

पीता हूँ जितनी उतनी ही बढ़ती है तिश्नगी
साक़ी ने जैसे प्यास मिला दी शराब में
-अज्ञात

पिला दे ओक से साक़ी जो हम से नफ़रत है
पियाला गर नहीं देता न दे शराब तो दे

-मिर्ज़ा ग़ालिब

क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
-मिर्ज़ा ग़ालिब

साक़िया तिश्नगी की ताब नहीं
ज़हर दे दे अगर शराब नहीं
-दाग़ देहलवी

शिकन न डाल जबीं पर शराब देते हुए
ये मुस्कुराती हुई चीज़ मुस्कुरा के पिला
-अब्दुल हमीद अदम

तर्क-ए-मय ही समझ इसे नासेह
इतनी पी है कि पी नहीं जाती
-शकील बदायुनी

ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर
या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो
-अज्ञात

ज़ाहिद शराब पीने से काफ़िर हुआ मैं क्यूँ
क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया
-शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

‘ज़ौक़’ जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उन को मय-ख़ाने में ले आओ सँवर जाएँगे
-शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

साभार https://www.rekhta.org से

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