Friday, March 29, 2024
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कुँअर बैचेन ः हर तरफ़ शोर था और इस शोर में ये सदा के लिए मौन का व्रत हुए

(जन्म 1 जुलाई 1942 – निधन 29 अप्रैल, 2021)

देश के वरिष्ठ कवि गीतकार डॉ. कुंवर बेचैन का गुरुवार को नोएडा के कैलाश हॉस्पिटल में कोरोना से निधन हो गया। उनके निधन से साहित्य जगत में शोक की लहर है।

वह कोरोना संक्रमित हो गए थे। उनके अलावा पत्नी संतोष कुंवर भी कोरोना संक्रमित थीं। पॉजिटिव पाए जाने के बाद से ही दोनों दिल्ली के लक्ष्मीनगर स्थित सूर्या अस्पताल में एडमिट थे। हालत में सुधार नहीं होने पर डॉ. कुंवर बेचैन को आनंद विहार स्थित कोसमोस अस्पताल में शिफ्ट किया गया। उनकी हालत गंभीर बनी हुई है, जबकि उनकी पत्नी की हालत स्थिर है। वह सूर्या अस्पताल में ही भर्ती हैं।

डॉ कुंवर बेचैन ग़ाज़ियाबाद के नेहरू नगर में रहते हैं। कोसमोस अस्पताल मेंभर्ती किए जाने के बाद भी उनकी स्थिति में सुधार नहीं हो रहा था और उन्हें वेंटिलेटर बेड नहीं मिल पा रहा था। इस पर कवि कुमार विश्वास ने ट्वीट किया था। कुमार विश्वास के ट्ववीट के बाद गौतमबुद्ध नगर के सांसद महेश शर्मा ने मदद की थी और उन्हें कैलाश अस्पताल में वेंटिलेटर मिल पाया था। कुंवर बेचैन की पत्नी अब भी सूर्या अस्पताल में भी भर्ती हैं।

कवि कुंवर बेचैन के निधन की जानकारी खुद कुमार विश्वास ने दी। कुमार विश्वास ने ट्वीट किया, ‘कोरोना से चल रहे युद्धक्षेत्र में भीषण दुःखद समाचार मिला है। मेरे कक्षा-गुरु, मेरे शोध आचार्य, मेरे चाचाजी, हिंदी गीत के राजकुमार, अनगिनत शिष्यों के जीवन में प्रकाश भरने वाले डॉ कुँअर बेचैन ने अभी कुछ मिनट पहले ईश्वर के सुरलोक की ओर प्रस्थान किया। कोरोना ने मेरे मन का एक कोना मार दिया।’

कुंवर बेचैन के कोरोना संक्रमित होने पर कुमार विश्वास ने बेड की अपील करते हुए ट्वीट किया था। उन्होंने लिखा था, ‘रात 12 बजे तक प्रयास करता रहा, सुबह से प्रत्येक परिचित डॉक्टर को कॉल कर चुका हूं। हिंदी के वरिष्ठ गीतकार गुरुप्रवर डॉ कुंवर बेचैन का Cosmos Hospital, आनंद विहार दिल्ली में कोविड उपचार चल रहा है। ऑक्सीजन लेवल सत्तर पहुंच गया है। तुरंत वेंटि‍लेटर की आवश्यकता है। कहीं कोई बेड ही नहीं मिल रहा।’

कुंवर बेचैन मूल रूप से मुरादाबाद के उमरी गांव के थे। उनकी शिक्षा चंदौसी के एसएम कॉलेज में हुई थी। मुरादाबाद से उनका विशेष लगाव था। चंदौसी के मेला गणेश चौथ और मुरादाबाद के जिगर मंच और कलेक्ट्रेट मैदान के कवि सम्मेलनों और मुशायरों में वह हर वर्ष आते थे।

बचपन में 2 वर्ष की आयु में ही इनके माता – पिता का साया इनके ऊपर से उठ गया था. इस घटना के बाद इनका पालन – पोषण बहिन – बहनोई के यहाँ पूरा हुआ. जब ये 9 वर्ष के हुए थे तब इनकी बहिन का भी सन 1979 ई. में निधन हो गया था. इनका प्रारम्भिक जीवन विपदाओं से भरा हुआ था. इनके जीवन में काफी उतार-चढ़ाव रहे। 1995 से 2001 तक एम .एम एच. पोस्टगैजुएक्ट कालेज गाजियाबाद में हिंदी विभाग में अध्यापन किया और बाद में हिंदी विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए। कुंवर बेचैन जी को कविता लिखने का शौक बचपन से ही था पर इनके गाँव में बिजली की सुविधा नहीं थी. इसलिए ये स्ट्रीट लाईट की धीमी रौशनी में खड़े होकर कविताएँ लिखा करते थे।

हिंदी गीतों की वाचिक परंपरा के ऐसे हस्ताक्षर के जाने से आये अवकाश को अब भरा नहीं जा सकता। उन्होंने बताया कि 2017 में लंदन के हाउस ऑफ लॉर्ड्स में दो भारतीय गीतकारों का सम्मान हुआ था। मेरा सौभाग्य है कि वह मैं और कुंवर जी थे। उनके साथ अनेक कार्यक्रम और यात्राएं की, जो अब यादों में हैं।

कुंवर बेचैन साहब ने कई विधाओं में साहित्य सृजन किया। मसलन कवितायें भी लिखीं, गजल, गीत और उपन्यास भी लिखे। बेचैन’ उनका तख़ल्लुस है असल में उनका नाम डॉ. कुंवर बहादुर सक्सेना है। आज के दौर में आपका नाम सबसे बड़े गीतकारों और शायरों में शुमार किया जाता था। उनके निधन को साहित्य जगत की एक बडी छति माना जा रहा है। व्यवहार से सहज, वाणी से मृदु इस रचानाकार को सुनना-पढ़ना अपने आप में अनोखा अनुभव है। उनकी रचनाएं सकारात्मकता से ओत-प्रोत हैं।

कुँअर बैचेन की यादगार ग़ज़लें

दिल पे मुश्किल है बहुत दिल की कहानी लिखना
जैसे बहते हुए पानी पे हो पानी लिखना
कोई उलझन ही रही होगी जो वो भूल गया

मेरे हिस्से में कोई शाम सुहानी लिखना
आते जाते हुए मौसम से अलग रह के ज़रा
अब के ख़त में तो कोई बात पुरानी लिखना
कुछ भी लिखने का हुनर तुझ को अगर मिल जाए

इश्क़ को अश्कों के दरिया की रवानी लिखना
इस इशारे को वो समझा तो मगर मुद्दत बा’द
अपने हर ख़त में उसे रात-की-रानी लिखना

इस तरह मिल कि मुलाक़ात अधूरी न रहे
ज़िंदगी देख कोई बात अधूरी न रहे

बादलों की तरह आए हो तो खुल कर बरसो
देखो इस बार की बरसात अधूरी न रहे

मेरा हर अश्क चला आया बराती बन कर
जिस से ये दर्द की बारात अधूरी न रहे

पास आ जाना अगर चाँद कभी छुप जाए
मेरे जीवन की कोई रात अधूरी न रहे

कोई नहीं है देखने वाला तो क्या हुआ
तेरी तरफ़ नहीं है उजाला तो क्या हुआ

चारों तरफ़ हवाओं में उस की महक तो है
मुरझा रही है साँस की माला तो क्या हुआ

बदले में तुझ को दे तो गए भूख और प्यास
मुँह से जो तेरे छीना निवाला तो क्या हुआ

आँखों से पी रहा हूँ तिरे प्यार की शराब
गर छुट गया है हाथ से प्याला तो क्या हुआ

धरती को मेरी ज़ात से कुछ तो नमी मिली
फूटा है मेरे पाँव का छाला तो क्या हुआ

सारे जहाँ ने मुझ पे लगाई हैं तोहमतें
तुम ने भी मेरा नाम उछाला तो क्या हुआ

सर पर है माँ के प्यार का आँचल पड़ा हुआ
मुझ पर नहीं है कोई दुशाला तो क्या हुआ

मंचों पे चुटकुले हैं लतीफ़े हैं आज-कल
मंचों पे न हैं पंत निराला तो क्या हुआ

ऐ ज़िंदगी तू पास में बैठी हुई तो है
शीशे में तुझ को गर नहीं ढाला तो क्या हुआ

आँखों के घर में आई नहीं रौशनी ‘कुँवर’
टूटा है फिर से नींद का ताला तो क्या हुआ

आँखों में जो हमारी ये जालों के दाग़ हैं
ये तो हमारे अपने ख़यालों के दाग़ हैं

मेरी हथेलियों पे जो मेहंदी से रच गए
ये आँसुओं में भीगे रुमालों के दाग़ हैं

बाहर निकल के जिस्म से जाऊँ तो किस तरह
साँकल कहीं कहीं पे ये तालों के दाग़ हैं

तुम जिन को कह रहे हो मिरे क़दमों के निशाँ
वो सब तो मेरे पाँव के छालों के दाग़ हैं

काजल में घुल के और ज़ियादा निखर गए
अश्कों को ये न कहना ख़यालों के दाग़ हैं

हल होते होते उस की नतीजे पे आ गए
जितने जवाब हैं वो सवालों के दाग़ हैं

आते ही मेरे पास जो अक्सर छलक पड़े
होंटों पे मेरे ऐसे ही प्यालों के दाग़ हैं

ऐसे भी लोग हैं जो सितारों को देख कर
कहते मिलें हैं ये तो उजालों के दाग़ हैं

जो मुझ में देखते हैं मिरे भी हैं ऐ ‘कुँवर’
कुछ उन में मुझ को देखने वालों के दाग़ हैं

बड़ा उदास सफ़र है हमारे साथ रहो
बस एक तुम पे नज़र है हमारे साथ रहो

हम आज ऐसे किसी ज़िंदगी के मोड़ पे हैं
न कोई राह न घर है हमारे साथ रहो

तुम्हें ही छाँव समझ कर हम आ गए हैं इधर
तुम्हारी गोद में सर है हमारे साथ रहो

ये नाव दिल की अभी डूब ही न जाए कहीं
हर एक साँस भँवर है हमारे साथ रहो

ज़माना जिस को मोहब्बत का नाम देता रहा
अभी अजानी डगर है हमारे साथ रहो

उधर चराग़ धुएँ में घिरे घिरे हैं ‘कुँवर’
इधर ये रात का डर है हमारे साथ रहो

रोज़ आँसू बहे रोज़ आहत हुए
रात घायल हुई, दिन दिवंगत हुए
हम जिन्हें हर घड़ी याद करते रहे
रिक्त मन में नई प्यास भरते रहे
रोज़ जिनके हृदय में उतरते रहे
वे सभी दिन चिता की लपट पर रखे
रोज़ जलते हुए आख़िरी ख़त हुए
दिन दिवंगत हुए!

शीश पर सूर्य को जो सँभाले रहे
नैन में ज्योति का दीप बाले रहे
और जिनके दिलों में उजाले रहे
अब वही दिन किसी रात की भूमि पर
एक गिरती हुई शाम की छत हुए!
दिन दिवंगत हुए!

जो अभी साथ थे, हाँ अभी, हाँ अभी
वे गए तो गए, फिर न लौटे कभी
है प्रतीक्षा उन्हीं की हमें आज भी
दिन कि जो प्राण के मोह में बंद थे
आज चोरी गई वो ही दौलत हुए।
दिन दिवंगत हुए!

चाँदनी भी हमें धूप बनकर मिली
रह गई जिंन्दगी की कली अधखिली
हम जहाँ हैं वहाँ रोज़ धरती हिली
हर तरफ़ शोर था और इस शोर में
ये सदा के लिए मौन का व्रत हुए।
दिन दिवंगत हुए!

इस नए माहौल में जो भी जिया बीमार है
जिस किसी से भी नया परिचय किया बीमार है

हँस रही है काँच के कपडे पहनकर बिजलियाँ
उसको क्या मालूम मिट्टी का दिया बीमार है

आज शब्दों की सभा में एक ये ही शोर था
सुर्ख है क्यों सुर्खियाँ जब हाशियाँ बीमार है

काम में आए नहीं धागे, सुई, मरहम, दवा
आज भी जिस ज़ख्म को हमने सिया बीमार है

रोग कुछ ऐसे मिले है शहर की झीलों को अब
इनका पानी जिस किसी ने भी पिया बीमार है

एक भी उम्मीद की चिट्ठी इधर आती नहीं
हो न हो अपने समय का डाकिया बीमार है

कल ग़ज़ल में प्यार के ही काफ़िये का ज़ोर था
आज लेकिन प्यार का ही काफ़िया बीमार है

कुँअर बैचेन की प्रकाशित पुस्तकें

गीत-संग्रह: पिन बहुत सारे (1972), भीतर साँकलः बाहर साँकल (1978), उर्वशी हो तुम (1987), झुलसो मत मोरपंख (1990), एक दीप चौमुखी (1997), नदी पसीने की (2005), दिन दिवंगत हुए (2005), ग़ज़ल-संग्रह: शामियाने काँच के (1983), महावर इंतज़ारों का (1983), रस्सियाँ पानी की (1987), पत्थर की बाँसुरी (1990), दीवारों पर दस्तक (1991), नाव बनता हुआ काग़ज़ (1991), आग पर कंदील (1993), आँधियों में पेड़ (1997), आठ सुरों की बाँसुरी (1997), आँगन की अलगनी (1997), तो सुबह हो (2000), कोई आवाज़ देता है (2005); कविता-संग्रह: नदी तुम रुक क्यों गई (1997), शब्दः एक लालटेन (1997); पाँचाली (महाकाव्य)

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