भारतीय मौसम विभाग के एक पूर्वानुमान के अनुसार, देश में इस वर्ष मॉनसून में सामान्य से कम वर्षा होगी और औसत तापमान भी ऊंचा बना रहेगा। जाहिर है, इस बार इसका असर कृषि और महंगाई के साथ-साथ पानी की उपलब्धता पर भी पड़ेगा। तेज गर्मी ने पहले ही दस्तक दे दी है और पानी की भारी किल्लत की संभावना अभी से सामने मुंह बाए खड़ी है।
याद रहे कि भारत में सन् 1997 में जलस्तर 550 क्यूबिक किलोमीटर था। लेकिन एक अनुमान के मुताबिक, सन् 2020 तक भारत में यह जलस्तर गिरकर 360 क्यूबिक किलोमीटर रह जाएगा। इतना ही नहीं, सन् 2050 तक भारत में यह जलस्तर और गिरकर महज सौ क्यूबिक किलोमीटर से भी कम हो जाएगा। यदि हम अभी से नहीं संभले तो मामला हाथ से निकल जाएगा। वैसे भी पहले ही बहुत देर हो चुकी है। नदियों के पानी के बंटवारे को लेकर देश में कई राज्यों के बीच दशकों से विवाद चल ही रहा है। कहीं इस सदी के पूर्वाद्ध में ही देश में पानी के लिए गृहयुद्ध न छिड़ जाए!
प्रसिद्द पर्यावरणविद दीप जोशी बताते हैं कि नदियों के देश में पीने के पानी का संकट गहराता जा रहा है। भूजल का स्तर भी लगातार गिर रहा है। गिरते भूजल स्तर को रोकने के लिए तमाम उपाय किए जा रहे हैं। दरअसल जनसंख्या में लगातार वृद्धि बढ़ते शहरीकरण और उद्योगीकरण, कृषि उपज की बढ़ती मांग से, जल की मांग में बेतहाशा इजाफा हुआ है। इससे सतह और भूजल संसाधनों का बेतरह दोहन हो रहा है। नतीजे में भूजल स्तर में लगातार कमी हो रही है। शहरी क्षेत्रों में स्थिति और भी गंभीर है इसलिए न केवल जल संसाधनों के संरक्षण बल्कि विभिन्न प्रतिस्पर्द्धी क्षेत्रों से निरंतर बढ़ती जल की मांग की वजह से प्रभावी कार्यनीतियों और प्रबंधन के द्वारा उन्हें बढ़ाने की तत्काल आवश्यकता है।
धरती से जल के दोहन के बदले कितना जल वापस धरती में जाना चाहिए? इस संबंध में दुनिया भर के वैज्ञानिकों में आम राय यह है कि साल भर में होने वाली कुल बारिश का कम से कम 31 प्रतिशत पानी धरती के भीतर रिचार्ज के लिए जाना चाहिए, तभी बिना हिमनद वाली नदियों और जल स्रोतों से लगातार पानी मिल सकेगा। एक शोध के मुताबिक,कुल बारिश का औसतन 13 प्रतिशत पानी ही धरती के भीतर जमा हो रहा है। देश के पूरे हिमालयी क्षेत्र में भी कमोबेश यही स्थिति है। जब हिमालयी क्षेत्र में ऐसा है, तो मैदानों को कैसे पर्याप्त जल मिलेगा? धरती के भीतर पानी जमा न होने के कारण एक ओर नदियां व जलस्रोत सूख रहे हैं, तो दूसरी ओर, बरसात में मैदानी इलाकों में बाढ़ की समस्या विकट होती जा रही है। वर्ष 1982 में अमेरिकी वैज्ञानिकों ने पूर्वी अमेरिका के कुछ घने वनों में शोध करके यह निष्कर्ष निकाला कि साल भर में होने वाली कुल बारिश का कम से कम 31 प्रतिशत पानी धरती के भीतर जमा होना चाहिए, तभी संबंधित क्षेत्र की नदियों, जल स्रोतों आदि में पर्याप्त पानी रहेगा।
वैज्ञानिक भाषा में भूमिगत जल के तल को बढ़ाना रिचार्ज कहा जाता है। रिचार्ज का स्तर 31 प्रतिशत से थोड़ा नीचे रहे, तो ज्यादा चिंता की बात नहीं, लेकिन पर्वतीय क्षेत्र के वनों में पानी के रिचार्ज के संबंध में कराए गए एक अध्ययन के जो परिणाम निकले हैं, वे अनुकूल नहीं हैं।
कुमाऊं विश्वविद्यालय में भूगोल विभाग के प्रोफेसर व नेचुरल रिसोर्स डाटा मैनेजमेंट सिस्टम के प्रिंसिपल इंवेस्टीगेटर प्रो. जे.एस रावत ने छह साल तक पर्वतीय क्षेत्र पर केन्द्रित अपने एक अध्ययन में जो स्थिति पाई, वह वास्तव में चिंताजनक है। शोध में उन्होंने पाया कि बांज के वन क्षेत्र में बारिश के पानी का रिचार्ज 23 प्रतिशत, चीड़ के वन क्षेत्र में 16 प्रतिशत, कृषि भूमि में 18, बंजर भूमि में पांच तथा शहरी क्षेत्र में मात्र तीन प्रतिशत है। यदि औसत निकाला जाए, तो रिचार्ज का यह स्तर मात्र 13 प्रतिशत है, जो मानक से 18 प्रतिशत कम है। शहरी क्षेत्र में तो रिचार्ज की स्थिति और भी चिंताजनक है। सड़कें, भवन और अन्य निर्माण कार्यों के कारण शहरी इलाकों में बारिश का तीन प्रतिशत पानी ही धरती के भीतर जमा हो पाता है, जबकि शहरों में पानी की खपत गांवों की अपेक्षा कई गुना अधिक है।
जल विज्ञान के चितेरे प्रो. रावत का कहना है कि बारिश से आने वाला पानी पर्याप्त मात्रा में धरती के भीतर जमा नहीं होगा, तो गरमी के दिनों में जलस्रोतों और गैर हिमनद नदियों का सूखना निश्चित है। उनका कहना है कि रिचार्ज का स्तर गिरने से ही पहाड़ में जल स्तर कम हो गया है, क्योंकि धरती के भीतर पानी जमा नहीं होगा, तो गरमी के मौसम में एक स्तर के बाद जल स्रोतों से पानी आना बंद हो जाएगा। वैज्ञानिकों के मुताबिक नदियों का जलस्तर भी इसी कारण कम हो जाता है। यही आज की स्थिति है। वैज्ञानिकों के अनुसार, आबादी तेजी से बढ़ने और वनों का क्षेत्रफल घटने से रिचार्ज का स्तर घट रहा है। भवनों, सड़कों तथा अन्य निर्माण कार्यों से अधिकांश भूमि कवर हो जाती है। ऐसे में बारिश का पानी धऱती के भीतर नहीं जा पाता। इसलिए नगरीय क्षेत्रों में जल स्रोतों का पानी तेजी से कम होता जा रहा है।
दूसरी तरफ, सघन वनों में रिचार्ज का स्तर अधिक होता है, क्योंकि बारिश का पानी पत्तों से टकराकर धीरे-धीरे भूमि पर पहुंचता है और रिसकर भूमि के भीतर जमा हो जाता है। बर्फबारी से भी पानी का रिचार्ज बहुत अच्छा होता है। बर्फ की मोटी परत जमने के बाद पानी बहुत धीरे-धीरे पिघलता है और रिसकर धीरे-धीरे जमीन के भीतर चला जाता है। इसके अलावा चौड़ी पत्ती वाले वन क्षेत्रों में रिचार्ज का स्तर अधिक होता है, जबकि वृक्ष रहित स्थानों, आबादी क्षेत्रों में पानी तेजी से बहकर निकल जाता है। यह पानी नदियों के जरिये बहकर समुद्र में पहुंच जाता है। हिमालयी क्षेत्र में बारिश का अधिकांश पानी बह जाने से मैदानी इलाकों में बाढ़ की विकराल समस्या की वजह यही है।
छत पर वर्षा जल को संचयन करने से क्या अभिप्राय है। आइये समझें। वर्षा जल के छत पर संग्रहण का अभिप्राय है – शहरी क्षेत्र में दत पर प्राप्त वर्षा जल का संचयन व कृत्रिम पुनर्भरण द्वारा भूमि जल भण्डारण में वृद्धि क़रने के लिए इसका उपयोग। छत के निकासी पाइप को जोड़कर एकत्रित जल को मौजुदा कुंए / टयूबवैल / बोरवैल में अथवा विशेष तौर पर बनाए गये कुएं में डालना। शहरी आवासीय कम्पलैक्सों और संस्थागत भवनों अथवा रिहायशी भवनों के समूह, जिनकी छत का क्षेत्रफल अधिक हो, इस उद्देश्य के लिए प्रयोग में लाये जा सकते है। भूमि जल भण्डारण में वृद्धि और जल स्तर में गिरावट पर नियन्त्रण करने के लिए। इसकी आवश्यकता है – भूमि जल गुणवत्ता में सुधार के लिए। पानी के सतही बहाव, जो अन्यथा नालों में भरकर रूक जाता है, को कम करने के लिए। सड़कों पर पानी भरने से रोकने के लिए। पानी की उपलब्धता को बढ़ाने के लिए। भूमि जल के प्रदूषण को कम करने के लिए। भूमि जल की गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए। मृदा कटाव को कम करने के लिए।
पर्यावरण प्रदूषण आज एक ग्लोबल समस्या बन चुकी है। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। इस क्रम में जल प्रदूषण को लेकर सबसे ज्यादा चिंता जताई जा रही है। आने वाले समय जहां स्वच्छ पेय जल की कमी को लेकर विश्वयुद्ध की संभावना जताई जा रही है, तो दूसरी ओर जो जल हमारे पास उपलब्ध है, उसे प्रदूषित किया जा रहा है। इस प्रदूषण से नदियों, कुंओं और तालाबों के जल के साथ ही भूमिगत जल स्त्रोत भी विषाक्त हो रहे हैं। ऐसे में जल संरक्षण, संवर्द्धन और प्रबंधन के लिए कई उपाय अपनाए जा रहे हैं। इन कारणों से जल प्रबंधन के क्षेत्र में युवाओं के लिए रोजगार के कई नए अवसर पैदा हुए हैं। यही नहीं, देशभर के विभिन्न संस्थानों में जल संरक्षण से संबंधित विभिन्न पाठ्यक्रमों को चलाया जा रहा है । इसमें वर्षा जल संरक्षण (वाटर हारवेस्टिंग), वाटरशेड मैनेजमेंट जैसे पाठ्यक्रम प्रमुख हैं।
वर्षा जल-संचयन के लिए इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय (इग्नू) ने पाठ्यक्रम शुरू किया है। इसका मुख्य मकसद शिक्षार्थियों को जल संसाधनों को बढ़ाने और उनके उचित उपयोग के लिए संवेदनशील बनाना, जल संचयन तकनीकों को समझने के लिए आवश्यक कौशल और निपुणता प्रदान करना और शिक्षार्थियों को घरेलू और सामुदायिक स्तर पर प्रशिक्षकों और संगठनकर्ताओं की तरह कार्य करने के लिए सक्षम बनाना है ताकि प्रभावी जल प्रबंधन और जल संरक्षण संभव हो सके।
इस सर्टिफिकेट कार्यक्रम में चार क्रेडिट के चार पाठ्यक्रम है इनमें से तीन सैद्धांतिक और एक प्रायोगिक पाठ्यक्रम हैं। इसके तहत जल संचयन का परिचय, जल विज्ञान की मौलिक अवधारणाएं, जल संचयन, संरक्षण व उपयोग और जल संचयन संस्था में प्रायोगिक प्रशिक्षण आते हैं। इस पाठ्यक्रम के लिए दसवीं पास या इग्नू से स्नातक प्रारंभिक कार्यक्रम (बीपीपी) होना जरूरी है। इसकी अवधि न्यूनतम छह महीने और अधिकतम दो साल है। अध्ययन का माध्यम अंग्रेजी और हिंदी है।
इस प्रशिक्षण के बाद रोजगार के मौके भी मिलते हैं। सर्टिफिकेट धारक, जल संचयन परियोजनाओं में कार्य कर रहे विभिन्न सरकारी और गैरसरकारी संगठनों (एनजीओ, शहरी आवास बोर्ड, आदि), निर्माताओं, मृदा संरक्षण विभागों और भूजल बोर्ड में जल संचयन सहायक के रूप में कार्य करने के लिए पूर्णतया सक्षम होंगे।
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प्राध्यापक, शासकीय दिग्विजय स्नातकोत्तर
स्वशासी महाविद्यालय, राजनांदगांव
मो.9301054300