Thursday, April 25, 2024
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लाल बाग बस्ती उजड़ने-बसने की कहानी

नई दिल्ली के मानसरोवर मेट्रो स्टेशन के ठीक बगल में एक बस्ती है लाल बाग। इस जगह जाने से इंडिया और भारत का फर्क नजर आ जाता है। यह बस्ती तीन भागो में बंटी हुई है, पहले भाग में फ्लाईओवर के नीचे राजस्थान का परिवार रहता है, दूसरे भाग में यूपी और बिहार के लोग रहते हैं, तीसरे भाग मे, जो कि रेलवे और मेट्रो की जमीन पर बसा हुआ है वहां पर यूपी के बराबंकी और फैजाबाद जिले के बंजारा, जाट, नट, समुदाय के 300 परिवार रहता है। यह परिवार सड़क से कबाड़ चुनने, ढोल-ताश बजाने और निंबू मिर्च बेचने का काम करता है। बस्ती में पानी के एक टैंकर से यह 300 परिवार अपनी प्यास बुझाते थे और दूसरे तरह के कामों के लिए बस्ती में स्थित रैन बसेरा के मोटर के द्वारा निकले पानी पर निर्भर रहते थे।


फ्लाईओवर के नीचे बसी ंइन 65 झुग्गियों को 22 अगस्त, 2017 को प्रशासन ने तोड़ दिया था और इस बस्ती को भी तोड़ने वाले थे तो उन्होंने कोर्ट से स्टे ले लिया। 23 मार्च, 2018 को इस बस्ती में आग लग गई या लगा दी गयी जिसमें बंजारा, जाट, नट समुदायों की 250 के करीब झुग्गियां जल गई और एक बच्ची कलू (6 साल) पटेल की पुत्री की जलकर मृत्यु हो गई। कलू आग लाने पर अपनी जान बचाने के लिए दूसरी तरफ जाकर एक झुग्गी में छिप गई जिससे कि वह बच सके लेकिन आग ने उसे अपनी चपेट मे ले लिया और इसके साथ ही एक कुत्ता भी जल गया जो कि उसी घर में छिपा हुआ था। जब हम बस्ती में शाम को गए तो देखा लोग आग से जले हुए बर्तन को लेकर निकाल कर बोरे में भर रहे हैं जिसको कबाड़ में बेच कर कुछ पैसा ला सके। बाहर एक टेंट लगा हुआ है जिसमें दिल्ली सरकार के वालंटीयर लगे हुए हैं और लोगों के लिए खाना बन रहा है। बस्ती के पास दो और टेन्ट हैं लेकिन उसमें कोई नहीं है। लोग बाहर अपनी जली हुई बस्ती के पास बैठे हैं क्योंकि टेन्ट में कोई, पंखा या लाईट नहीं है। बस्ती में एक एम्बुलेन्स आती है और चीत्कार मच जाती है, बात करने पर पता चला कि कालू की लाश आई है। मैं लाश को देखने के लिए जाता हूं तो एक आदमी उसको उठाये हुए दफनाने के लिए ले जाता है जिसके पीछे कुछ लोग हैं। मैं उस लाश को देखकर हतप्रभ हो गया कि यह छह साल की बच्ची है या छह माह का? मैंने लोगों से बात किया तो लोगो ने बताया कि जलने के कारण वह इतना छोटी लग रही है।

शेरा (20 साल) बताते हैं कि उनके पिता की मृत्यु हो चुकी है, उनका जन्म सीलमपुर के झुग्गी में हुआ था जब वह गोद में थे तो इस जगह (लाल बाग) पर सीलमपुर से आए थे और यहीं पर जवान हुए। शेरा बराबंकी के रहने वाले हैं लेकिन वह कभी अपने गांव नहीं गए क्योंकि गांव पर कुछ नहीं है। शेरा की मां कबाड़ चुनने का काम करती है जबकि वह खुद ढोल, ताशा बजाने का काम करते हैं जो कि अब जल चुका है। शेरा बताते हैं कि उसके सारे दस्तावेज, पहचान पत्र, वर्षों से खरीदे गए कपड़े, बर्तन और पैसे जल गए हैं जिनको पूरा करने में कई साल लग जाएगा।

वंदना (18 साल) आठवीं कक्षा की छात्रा है वह पास के एक सेंटर में ट्यूशन पढ़ने भी जाती है। वंदना की मां, कबाड़ चुनने का काम करती है जबकि पिता निंबू मिर्च बेचते हैं। वंदना बताती है कि उसके घर के सभी सामान और उसके कपड़े, किताब-कॉपी जल गए हैं।

संगीता (24) कबाड़ चुनने का काम करती है, उसके पति ठेला रिक्शा चलाते हैं। संगीता की एक ढाई साल की बेटी है एक लड़का हुआ था जो पैदा होने के बाद मर गया। संगीता कहती है कि पहले वे लोग सीलमपुर में रहते थे वहां से उनको भगा दिया गया उनके पास वहां के सभी दस्तावेज थे फिर भी उनको कोई जगह नहीं दी गई जिसके बाद वह लाल बाग में आकर बस गए। यहां पर उनकी झुग्गी को जलाकर सारे सबूत को मिटा दिए गए। वह कहती हैं कि-‘‘कोई सुनवाई ही नहीं कर रहा है कि इनको जगह दिला दें, वह हमें भगाना चाहते हैं। यहां लोग आते हैं बोलते हैं कि इनको भगा दो इनके पास कोई सबूत नहीं है’’।

तलिया कबाड़ा बीनने का काम करती है वह बताती हैं कि आग में सारा सामान उनका जल चुका है उनका कहना है कि ‘‘आग बुझाने वाली गाड़ी (फायर बिग्रेड) देर से नहीं आती तो कुछ झुग्गियां बच सकती थी।’’ उसकी बकरी, ढोल, ताशा सब जल गए हैं। तलिया के दो बच्चे अविनाश (11) और अंजली (12) छठवीं और सातवीं कक्षा में पढ़ते हैं उनके कॉपी, किताब, स्कूल की ड्रेस सभी जल गए।

पप्पी विधवा है उनके पास दो लड़के और एक लड़की रहते हैं वह बता रही हैं कि उनके गहने जल गए और उनके 30-40 हजार रू. जल गए हैं जो कि घर में ही रखे हुए थे। पप्पी को चिंता है कि बारिश होगी तो कहां छुपेंगें।

सबीर (45) फैजाबाद के रहने वाले हैं वह निंबू, मिर्च बेचने का काम करते थे, परिवार में 9 सदस्य हैं। जिसमें से दो बच्चे सीमा, गुल्लू और वंदना छठीं में पढ़ते हैं। उनकी पत्नी कबाड़ा चुनने का काम करती हैं। वह अपना बक्शा और समान दिखाते हुए बताते हैं कि हमारा दो लाख का सामान जल गया है।

काजल बताती है कि रात में भी गर्मी से सो नहीं पाते हैं पहले हमारे पास पंखा होता था तो आराम से सो लेते थे अब बच्चों को सुलाने के लिए पूरी रात जग कर आंचल से हवा देते रहते हैं।

अपने जली हुई झुग्गियों के पास में खड़ी दो बहनें मेना (13) और गहना (13) सामान इक्ट्ठा कर रही थी, वह बताती है कि ‘‘छठवीं कक्षा में पढ़ती है उन्हें मच्छर लग रहा हैं। हमारे घर के टीवी, फ्रीज, 15 हजार रू. जल गया, हमारे पास भी अच्छे अच्छे कपड़े थे लेकिन अभी कुछ नहीं है’’। गहना बताती हैं कि ‘‘हमारे स्कूल का खाता था लेकिन हमें पता नहीं था कि सभी जल जाएगा, नहीं तो पैसा उसमें रखते थे।

इसी तरह कि बात बस्ती के हर लोग करते हैं और सभी का यह कहना है कि फायर ब्रिगेड की गाड़ी देर से आई नहीं होती तो काफी झुग्गियां बच जाती। लोगों ने यह भी आशंका जताया कि भगाने के लिए झुग्गियों में आग लगाई गई है। ह्मयुमाना इंटरनेशनल नाम के एनजीओ के एक पदाधिकार ने बताया कि इस बस्ती को मेट्रो के लिए ‘सिक्युरिटी थ्रेट’ घोषित कर रखा है और इसे हटाना चाहते थे। उन्होंने यह बताया कि इनके एनजीओ का लाखों रू. का सामान जल कर खाक हो गया है वह दूसरे संगठनों की मद्द से इन बस्ती वालों के लिए सामान जुटाने का काम कर रहे हैं।

इस बस्ती में एक किनारे से आग लगा है जिसमें दूसरे किनारे तक कि सभी झुग्गियां जल कर राख हो गई। बर्तन और सामान को जलने कि स्थिति देखकर आग कि भयावयता का पता चल रहा है। इस बस्ती से तीन-चार कि.मी. की दूरी पर फायर बिग्रेड का दो-तीन डिपो हैं लेकिन वह आने में इतना समय लिया जब तक कि पूरी बस्ती स्वाहा हो गयी। बस्तीवालों के का आरोप कि जांच होनी चाहिए कि आखिर क्यों देर से फायर बिग्रेड की गाड़ी पहुंची? जब इन्हें पहली बार सन् 2000 में सीलमपुर से उजाड़ा गया तो इन्हें पुनर्वास स्कीम के तहत क्यों नहीं बसाया गया? बहुत सारे मेट्रो पिलर के पास बड़े-बड़े मकान बने हुए हैं तो इन बस्ती वालों से मेट्रो के किस तरह से सिक्युरिटी थ्रेट है? यह बस्ती 17 साल पुरानी होने के बाद भी यहां पऱ सुविधाएं क्यों नहीं मुहैय्या कराई गई? आग लगने के बाद इन परिवारों को क्यों टेन्ट नहीं दिया गया? यह खुले आसमान के नीचे छोटे-छोटे बच्चों के साथ रहने को मजबूर हैं? इनको गर्मी से राहत दिलाने के लिए पंखे, लाईट की व्यवस्था क्यों नहीं कि गई है? सरकार के मंत्री इनके पास तक पहुंचने में देरी क्यों कर रहे हैं? ‘जहां झुग्गी वहां मकान’ वाली सरकार इनके लिए अभी तक कोई समुचित व्यवस्था नहीं कि बल्कि खानापूर्ति करने के लिए कुछ वालंटियर और एक फैशनेबुल टेंट (शादियों वाला) लगा रखी है। ‘स्वच्छता अभियान’ के विज्ञापन पर करोड़ो-अरबों खर्च करने वाली सरकार इन स्वच्छताकर्मियों का पुनर्वास क्यों नहीं कर पा रही है? इस महादलित के आबादी के लिए अम्बेडकरवादी भी चुप हैं क्योंकि यह उनके वर्गीय चरित्र में फीट नहीं बैठते हैं। सामाजिक हाशिये पर जीवन व्यतीत करने वालों के लिए कोई नहीं है?

आग में जलती बस्तियां

गर्मी का मौसम शुरू होते ही आग लगने की घटनाओं में तेजी आ गई है। दिल्ली में लगातार हो रही घटनाओं में 24 तारीख को 11.30 बजे सुबह शाहबाद डेरी की बंगाली बस्ती से आग लगने की सूचना आई। मैं वहां पर एक बंगाली बस्ती को पहले से जानता था क्योंकि 18 मार्च, 2016 को झुग्गी में बदमाशों ने सुबह 4 बजे आग लगा दी थी और जब वह दुबारा झुग्गी डालने कि कोशिश की तो कुछ गुंडे आकर फायरिग भी किए थे। मुझे जब न्यूज पेपर के माध्यम से जब इस घटना का पता चला तो मैं उस बंगाली बस्ती के पास गया तो पता चला कि आग की घटना इस बार शाहबाद एक्सटेंशन पार्ट-2 का है।

मैं जब बस्ती में जा रहा था तो दो स्कूली बच्चे मिले जो कि आपस में बंगला में बातचीत कर रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि आप कि बस्ती में आग लगा है तो वे बोले कि नहीं मेरे बस्ती के बाद दूसरी बस्ती है वहां आग लगी है। उनसे पूछा कि आप लोग नहीं गए थे वहां पर? उन्होंने बताया कि जब बस्ती जल रही थी तब गए थे सभी झुग्गियां जल गई क्योंकि आग बुझाने के लिए पहले एक ही गाड़ी आई थी और उसमें भी आधा पानी था, जब झुग्गियां जल गई तब बहुत सी आग बुझाने वाली गाड़ियां आई, लोगों का कोई समान नहीं बचा। बच्चों की वो झुग्गियां आ गई जहां वो रहते थे इससे आगे की झुग्गी मे आग लगी थी। मुझे आगे का रास्ता बताते हुए वह अपने झुग्गी के अंदर चले गए। मैं आगे बढ़ा तो देखा कि एक नाले के किनारे-किनारे एक बस्ती जली हुई है वहां पर तीन टेंट, एक टॉयलेट और एक जल बोर्ड का टैंकर दिख रहा था। पास में जाने पर देखा कि कुछ लोग अपने जली हुई झुग्गियों के राखों में से कुछ कागज के टुकड़े उठा कर ध्यान से पढ़ने कि कोशिश कर रहे हैं। इस काम में महिलाएं, बच्चे और आदमी भी शामिल थे कई बार पूछने के बावजूद भी वह कोई जवाब देना उचित नहीं समझे और अपने कामों में लगे रहे, कागज के टुकड़ा उठाते गौर से देखते फिर दूसरे टुकड़े उठाते। किसी तरह राजेश से बात हो पाई वह भी राख के ढेर से कुछ खोजने कि उम्मीद के साथ लगे हुए थे। राजेश ने बताया कि इस बस्ती में इटावा के छह परिवार रहते हैं जो पीओपी, ट्रेवल एजेंसी, कोरियर का काम करते हैं। राजेश पीओपी का काम करते हैं जिस समय आग लगी वह काम पर गए हुए थे और उनका सभी सामान जल कर खाक हो गया जिसमें करीब एक लाख रू. का नुकसान हुआ है। उनको चिंता हैं कि सरकार मुआवजा देगी भी या नहीं।

राजेश से बात करके आगे बढ़ा तो देखा कि कुछ लोग जले हुए सामानों को राख के ढेर से इक्ट्ठा कर रहे हैं तो कुछ बोरे में भर रहे हैं। यहां पर चमेली मिली जो कि आठवीं कक्षा में पढ़ती है और दूसरी बस्ती में रहती है वह अपनी दोस्त पायल की मद्द करने आई है जो कि खाना लेने गई है। चमेली, पायल के परिवारों वालों के साथ राख के ढेर से जले हुए बर्तनों को इक्ट्ठा कर रही थी जिससे उसको बेच कर कुछ पैसा मिल जाए। इसी तरह से सातवीं में पढ़ने वाले इमरान शेख भी अपने परिवार की मद्द कर रहे थे। पायल के पिता अब्दुल बारीक कबाड़ चुनने का काम करते हैं।

अनारूल विरभूम जिले के रहने वाले हैं और चार साल के उम्र से मां-पिता के साथ दिल्ली में रह रहे हैं। पहले वह संजय अमर कॉलोनी में मां-पिता के साथ रहते थे लेकिन उनकी झुग्गी 14 साल पहले तोड़ दिया गया और बवाना में 12 गज का प्लाट मिला जिनमें पूरे परिवार का रहना नामुमिकन था। अनारूल अपने परिवर के साथ शाहबाद में रह कर सोसाइटी से कूड़ा इक्ट्ठा करने का काम करते हैं।

मंगलू (45) विरभूम जिला के रहने वाले हैं और 40 साल से दिल्ली में रह रहे हैं। मंगलू बताते हैं कि 16 साल शाहबाद इलाके में रहते हैं और इस बस्ती में 7 साल से रह रहे हैं। मंगलू के परिवार में 5 सदस्य हैं जिसमें से दो बेटे सलाम (18) और मिठू (28) रोहणी सेक्टर 28 और 16 में घरों से कूड़ा इक्ट्ठा करने का काम करते हैं। मंगलू सेक्टर 17 के सोसाइटी से कूड़ा इक्ट्ठा करते हैं। घरों से कूड़ा उठाने का मेहनताना उन्हें केवल कूड़ा मिलता है जिसमें से प्लास्टिक, कागज, गत्ते छांट कर वह अपना गुजारा करते हैं। मंगलू बताते हैं कि उनकी 14 साल की बेटी परबिना का सरकारी स्कूल रोहिणी सेक्टर 26 में दाखिला नहीं ले रहे हैं और बेटे सलाम का आठवीं का सार्टिफिकेट नहीं दे रही है प्रीसिंपल। इसी तरह कि चिंता रिंकी बेगम पत्नी सूरज शेख, मनी पत्नी बबलू को भी सता रही है कि इनके सभी दस्तावेज और सामान जल गए हैं उनके बच्चों को कोई प्राब्लम तो नहीं आएगी। रिंगी बेगम, मनी के पति भी रोहिणी के अलग-अलग सेक्टरों से कूड़ा उठाने का काम करते हैं और यह महिलाएं घरों मे साफ-सफाई (डोमेस्टिक वर्कर) का काम करते हैं। रिंकी बेगम बताती हैं कि वह छह साल से कूड़े में मिलने वाली धातु (तांबा, पितल, एल्युमिनियम) को इक्ट्ठा करके रखी थी घर में। इस आग ने उनके छह साल के इक्ट्ठे किए हुए धातु को गला दिया इसके साथ ही रिंकी को घर जाने का अरमान भी चूरचूर हो गया जो कि वह छह साल से अपने दिल में पाल रखी थी।

शाहबाद एक्सटेंशन के पार्ट 2 में करीब 85 झुग्गियां थी वह सभी जल कर राख हो गई। शाहबाद में काफी झुग्गी बस्तियां बंगाली बस्ती के नाम से जानी जाती है। इस बस्ती में रहने वाले लोग बंगाली हैं और सड़कों, रोहिणी की सोसाईटियों से कूड़ा उठाने का काम करते हैं, महिलाएं घरों में सफाई का काम करती है। इनमें बहुत ऐसे लोग हैं जिनकी पैदाईश दिल्ली की ही है और वो बचपन से ही कूड़ा चुन कर अपना गुजारा करते हैं और दिल्ली को स्वच्छ रखने में इनडायरेक्ट योगदान करते हैं। यह बस्ती वाले तो रहते हैं सरकारी जमीन पर लेकिन इनसे भाजपा नेता नरेन्द्र राणा (कुलवंत राणा का भाई) इनसे प्रति गज 15 रू. और बिजली का प्रति यूनिट 10 रू. लेता है। यह रेट अलग-अलग इलाके का अलग-अलग है कहीं कहीं यह रेट 20 रू. प्रति गज (80 सेंटीमीटर) भी है और यह रकम नरेद्र राणा के रहमो करम के अनुसार घटता-बढ़ता भी है।

दिल्ली का केवल शाहबाद इलाका ही नहीं रिठाला, जहांगीरपुरी, तुगलकाबाद, नवादा इत्यादी जगहों पर कबाड़ चुनने वाले लोगों से सरकारी जमीन का किराया वसूला जाता है। प्रशासन भी इस बात को जानती हैं लेकिन वह अपना आंख, कान, मुंह बंद किए हुए इस लूट में शामिल रहती है।

आग लगने के बाद शासन-प्रशासन दो-चार दिन खाना और दो-चार टेन्ट सप्ताह भर लगा कर अपने कार्यों को इतिश्री कर लेती है। आखिर कब तक दिल्ली में इस तरह से बस्तियां जलती रहेंगी और लोगों की सालों-साल की कमाई जलकर खाक हो जाती है जिसके एवज में 20-25 हजार रू. सरकार देकर बोलती है कि हमने मुआवजा दे दिया है। आग से केवल उनके घर और समा

न ही नहीं जलते बच्चों के अरमान भी जल जाते हैं। जैसा कि इस बस्ती में आग लगने के बाद बच्चों को चिंता है कि स्कूल में आगे क्या होगा? जब बच्चों को खबर मिली तो वह स्कूल से रोते हुए आए और अपने जले हुए कपड़े और सामानों को देखकर उनके दिल में चोट पहुंचती है जिसकी भरपाई करना मुश्किल होता है। कब तक जलती रहेंगी बस्तियां? कब तक इनके साथ भेदभाव होता रहेगा? कब तक इनके साथ अछूतों जैसा व्यवहार होता रहेगा? आखिर कब तक इनको सरकारी जमीन का किराया देता रहना पड़ेगा? कब तक वोट के लिए जहां झुग्गी, वहां मकान का जुमला चलता रहेगा?

सुनील कुमार पत्रकार हैं और सामाजिक विषयों पर लिखते हैं.

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